(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 1 or 2 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 1 और 2 हिमालयके स्थावर-जंगम द्विविध स्वरूप एवं दिव्यत्वका वर्णन, मेनाके साथ उनका विवाह तथा मेना आदिको पूर्वजन्ममें प्राप्त हुए सनकादिके शाप एवं वरदानका कथन)
(अध्याय 1 और 2)
:-नारदजीने पूछा- ब्रह्मन् ! पिताके यज्ञमें अपने शरीरका परित्याग करके दक्षकन्या जगदम्बा सतीदेवी किस प्रकार गिरिराज हिमालयकी पुत्री हुईं? किस तरह अत्यन्त उग्र तपस्या करके उन्होंने पुनः शिवको ही पतिरूपमें प्राप्त किया? यह मेरा प्रश्न है, आप इसपर भलीभाँति और विशेषरूपसे प्रकाश डालिये।
ब्रह्माजीने कहा- मुने ! नारद ! तुम पहले पार्वतीकी माताके जन्म, विवाह और अन्य भक्तिवर्धक पावन चरित्र सुनो। मुनिश्रेष्ठ ! उत्तरदिशामें पर्वतोंका राजा हिमवान् नामक महान् पर्वत है, जो महातेजस्वी और समृद्धिशाली है। उसके दो रूप प्रसिद्ध हैं- एक स्थावर और दूसरा जंगम। मैं संक्षेपसे उसके सूक्ष्म (स्थावर) स्वरूपका वर्णन करता हूँ।
वह रमणीय पर्वत नाना प्रकारके रत्नोंका आकर (खान) है और पूर्व तथा पश्चिम समुद्रके भीतर प्रवेश करके इस तरह खड़ा है, मानो भूमण्डलको नापनेके लिये कोई मानदण्ड हो। वह नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त है और अनेक शिखरोंके कारण विचित्र शोभासे सम्पन्न दिखायी देता है। सिंह, व्याघ्र आदि पशु सदा सुखपूर्वक उसका सेवन करते हैं। हिमका तो वह भंडार ही है, इसलिये अत्यन्त उग्र जान पड़ता है। भाँति-भाँतिके आश्चर्यजनक दृश्योंसे उसकी विचित्र शोभा होती है। देवता, ऋषि, सिद्ध और मुनि उस पर्वतका आश्रय लेकर रहते हैं।
भगवान् शिव को वह बहुत ही प्रिय है, तपस्या करनेका स्थान है। स्वरूपसे ही वह अत्यन्त पवित्र और महात्माओंको भी पावन करनेवाला है। तपस्यामें वह अत्यन्त शीघ्र सिद्धि प्रदान करता है। अनेक प्रकारके धातुओंकी खान और शुभ है। वही दिव्य शरीर धारण करके सर्वांग-सुन्दर रमणीय देवताके रूपमें भी स्थित है। भगवान् विष्णुका अविकृत अंश है, इसीलिये वह शैलराज साधु-संतोंको अधिक प्रिय है।
एक समय गिरिवर हिमवान्ने अपनी कुल-परम्पराकी स्थिति और धर्मकी वृद्धिके लिये देवताओं तथा पितरोंका हित करनेकी अभिलाषासे अपना विवाह करनेकी इच्छा की। मुनीश्वर ! उस अवसरपर सम्पूर्ण देवता अपने स्वार्थका विचार करके दिव्य पितरोंके पास आकर उनसे प्रसन्नतापूर्वक बोले।
देवताओंने कहा- पितरो ! आप सब लोग प्रसन्नचित्त होकर हमारी बात सुनें और यदि देवताओंका कार्य सिद्ध करना आपको भी अभीष्ट हो तो शीघ्र वैसा ही करें। आपकी ज्येष्ठ पुत्री जो मेना नामसे प्रसिद्ध है, वह मंगलरूपिणी है। उसका विवाह आपलोग अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक हिमवान् पर्वतसे कर दें। ऐसा करनेपर आप सब लोगोंको सर्वथा महान् लाभ होगा और देवताओंके दुःखोंका निवारण भी पग- पगपर होता रहेगा।
देवताओंकी यह बात सुनकर पितरोंने परस्पर विचार करके स्वीकृति दे दी और अपनी पुत्री मेनाको विधिपूर्वक हिमालयके हाथमें दे दिया। उस परम मंगलमय विवाहमें बड़ा उत्सव मनाया गया। मुनीश्वर नारद ! मेनाके साथ हिमालयके शुभ विवाहका यह सुखद प्रसंग मैंने तुमसे प्रसन्नतापूर्वक कहा है। अब और क्या सुनना चाहते हो?
नारदजीने पूछा-विधे ! विद्वन् ! अब आदरपूर्वक मेरे सामने मेनाकी उत्पत्तिका वर्णन कीजिये। उसे किस प्रकार शाप प्राप्त हुआ था, यह कहिये और मेरे संदेहका निवारण कीजिये।
ब्रह्माजी बोले-मुने ! मैंने अपने दक्ष नामक जिस पुत्रकी पहले चर्चा की है, उनके साठ कन्याएँ हुई थीं, जो सृष्टिकी उत्पत्तिमें कारण बनीं। नारद ! दक्षने कश्यप आदि श्रेष्ठ मुनियोंके साथ उनका विवाह किया था, यह सब वृत्तान्त तो तुम्हें विदित ही है। अब प्रस्तुत विषयको सुनो। उन कन्याओंमें एक स्वधा नामकी कन्या थी, जिसका विवाह उन्होंने पितरोंके साथ किया। स्वधाकी तीन पुत्रियाँ थीं, जो सौभाग्य- शालिनी तथा धर्मकी मूर्ति थीं।
उनमेंसे ज्येष्ठ पुत्रीका नाम ‘मेना’ था। मँझली ‘धन्या’ के नामसे प्रसिद्ध थी और सबसे छोटी कन्याका नाम ‘कलावती’ था। ये सारी कन्याएँ पितरोंकी मानसी पुत्रियाँ थीं- उनके मनसे प्रकट हुई थीं। इनका जन्म किसी माताके गर्भसे नहीं हुआ था, अतएव ये अयोनिजा थीं; केवल लोकव्यवहारसे स्वधाकी पुत्री मानी जाती थीं।
इनके सुन्दर नामोंका कीर्तन करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्टको प्राप्त कर लेता है। ये सदा सम्पूर्ण जगत्की वन्दनीया लोकमाताएँ हैं और उत्तम- अभ्युदयसे सुशोभित रहती हैं। सब-की- सब परम योगिनी, ज्ञाननिधि तथा तीनों – लोकोंमें सर्वत्र जा सकनेवाली हैं।
मुनीश्वर ! एक समय वे तीनों बहिनें भगवान् विष्णुके निवासस्थान श्वेतद्वीपमें उनका दर्शन करनेके लिये गयीं। भगवान् विष्णुको प्रणाम और भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करके वे उन्हींकी आज्ञासे वहाँ ठहर गयीं। उस समय वहाँ संतोंका बड़ा भारी समाज एकत्र हुआ था।
मुने ! उसी अवसरपर मेरे पुत्र सनकादि सिद्धगण भी वहाँ गये और श्रीहरिकी स्तुति-वन्दना करके उन्हींकी आज्ञासे वहाँ ठहर गये। सनकादि मुनि देवताओंके आदिपुरुष और सम्पूर्ण लोकोंमें वन्दित हैं। वे जब वहाँ आकर खड़े हुए, उस समय श्वेतद्वीपके सब लोग उन्हें देख प्रणाम करते हुए उठकर खड़े हो गये। परंतु ये तीनों बहिनें उन्हें देखकर भी वहाँ नहीं उठीं। इससे सनत्कुमारने उनको (मर्यादा-रक्षार्थ) उन्हें स्वर्गसे दूर होकर नर-स्त्री बननेका शाप दे दिया। फिर उनके प्रार्थना करनेपर वे प्रसन्न हो गये और बोले।
सनत्कुमारने कहा-पितरोंकी तीनों कन्याओ ! तुम प्रसन्नचित्त होकर मेरी बात सुनो। यह तुम्हारे शोकका नाश करनेवाली और सदा ही तुम्हें सुख देनेवाली है। तुममेंसे जो ज्येष्ठ है, वह भगवान् विष्णुकी अंशभूत हिमालय गिरिकी पत्नी हो। उससे जो कन्या होगी, वह ‘पार्वती’ के नामसे विख्यात होगी। पितरोंकी दूसरी प्रिय कन्या, योगिनी धन्या राजा जनककी पत्नी होगी।
उसकी कन्याके रूपमें महालक्ष्मी अवतीर्ण होंगी, जिनका नाम ‘सीता’ होगा। इसी प्रकार पितरोंकी छोटी पुत्री कलावती द्वापरके अन्तिम भागमें वृषभानु वैश्यकी पत्नी होगी और उसकी प्रिय पुत्री ‘राधा’ के नामसे विख्यात होगी। योगिनी मेनका (मेना) पार्वतीजीके वरदानसे अपने पतिके साथ उसी शरीरसे कैलास नामक परमपदको प्राप्त हो जायगी। धन्या तथा उनके पति, जनककुलमें उत्पन्न हुए जीवन्मुक्त महायोगी राजा सीरध्वज, लक्ष्मीस्वरूपा सीताके प्रभावसे वैकुण्ठधाममें जायँगे।
वृषभानुके साथ वैवाहिक मंगलकृत्य सम्पन्न होनेके कारण जीवन्मुक्त योगिनी कलावती भी अपनी कन्या राधाके साथ गोलोकधाममें जायगी- इसमें संशय नहीं है। विपत्तिमें पड़े बिना कहाँ किनकी महिमा प्रकट होती है। उत्तम कर्म करनेवाले पुण्यात्मा पुरुषोंका संकट जब टल जाता है, तब उन्हें दुर्लभ सुखकी प्राप्ति होती है। अब तुमलोग प्रसन्नतापूर्वक मेरी दूसरी बात भी सुनो, जो सदा सुख देनेवाली है। मेनाकी पुत्री जगदम्बा पार्वतीदेवी अत्यन्त दुस्सह तप करके भगवान् शिवकी प्रिय पत्नी बनेंगी।
धन्याकी पुत्री सीता भगवान् श्रीरामजीकी पत्नी होंगी और लोकाचारका आश्रय ले श्रीरामके साथ विहार करेंगी। साक्षात् गोलोकधाममें निवास करनेवाली राधा ही कलावतीकी पुत्री होंगी। वे गुप्त स्नेहमें बँधकर श्रीकृष्णकी प्रियतमा बनेंगी।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! इस प्रकार शापके ब्याजसे दुर्लभ वरदान देकर सबके द्वारा प्रशंसित भगवान् सनत्कुमार मुनि भाइयोंसहित वहीं अन्तर्धान हो गये। तात ! पितरोंकी मानसी पुत्री वे तीनों बहिनें इस प्रकार शापमुक्त हो सुख पाकर तुरंत अपने घरको चली गयीं।
(अध्याय १-२)