Shiv puran rudra samhita kumar khand chapter 20 (शिव पुराण रुद्रसंहिता कुमार खंड अध्याय 20 स्वामिकार्तिक और गणेशकी बाल-लीला, दोनोंका परस्पर विवाहके विषयमें विवाद, शिवजीद्वारा पृथ्वी-परिक्रमाका आदेश, कार्तिकेयका प्रस्थान, गणेशका माता-पिताकी परिक्रमा करके उनसे पृथ्वी-परिक्रमा स्वीकृत कराना, विश्वरूपकी सिद्धि और बुद्धि नामक दोनों कन्याओंके साथ गणेशका विवाह और उनसे क्षेम तथा लाभ नामक दो पुत्रोंकी उत्पत्ति, कुमारका पृथ्वी-परिक्रमा करके लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंचपर्वतपर चला जाना, कुमारखण्डके श्रवणकी महिमा)

(रुद्रसंहिता, चतुर्थ (कुमार) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita kumar khand chapter 20 (शिव पुराण रुद्रसंहिता कुमार खंड अध्याय 20 स्वामिकार्तिक और गणेशकी बाल-लीला, दोनोंका परस्पर विवाहके विषयमें विवाद, शिवजीद्वारा पृथ्वी-परिक्रमाका आदेश, कार्तिकेयका प्रस्थान, गणेशका माता-पिताकी परिक्रमा करके उनसे पृथ्वी-परिक्रमा स्वीकृत कराना, विश्वरूपकी सिद्धि और बुद्धि नामक दोनों कन्याओंके साथ गणेशका विवाह और उनसे क्षेम तथा लाभ नामक दो पुत्रोंकी उत्पत्ति, कुमारका पृथ्वी-परिक्रमा करके लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंचपर्वतपर चला जाना, कुमारखण्डके श्रवणकी महिमा)

(अध्याय 20)

:-नारदजीने पूछा-तात! मैंने गणेशके जन्मसम्बन्धी अनुपम वृत्तान्त तथा परम पराक्रमसे विभूषित उनका दिव्य चरित्र भी सुन लिया। सुरेश्वर ! उसके बाद कौन-सी घटना घटी, उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि पिताजी ! शिव और पार्वतीका उज्ज्वल यश महान् आनन्द प्रदान करनेवाला है।

ब्रह्माजीने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! तुम तो बड़े कारुणिक हो। तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है। ऋषिसत्तम ! अच्छा, अब मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम ध्यान लगाकर सुनो। विप्रेन्द्र ! शिव और पार्वती अपने दोनों पुत्रोंकी बाललीला देख-देखकर महान् प्रेममें मग्न रहने लगे। पुत्रोंका लाड़-प्यार करनेके कारण माता-पिताका सुख दिनोंदिन बढ़ता जाता था और वे दोनों कुमार प्रीतिपूर्वक आनन्दके साथ तरह-तरहकी लीलाएँ करते थे।

 

मुनीश्वर ! वे दोनों बालक स्वामिकार्तिक और गणेश भक्तिपूरित चित्तसे सदा माता-पिताकी परिचर्या किया करते थे। इससे माता-पिताका महान् स्नेह षण्मुख और गणेशपर शुक्ल-पक्षके चन्द्रमाकी भाँति दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया। एक समय शिव और शिवा दोनों प्रेमपूर्वक एकान्तमें बैठकर यों विचार करने लगे कि ‘हमारे ये दोनों पुत्र विवाहके योग्य हो गये, अब इन दोनोंका शुभ विवाह कैसे सम्पन्न हो।

 

हमें तो जैसे षडानन प्यारा है, वैसे ही गणेश भी है।’ ऐसी चिन्तामें पड़कर वे दोनों लीलावश आनन्दमग्न हो गये। मुने ! माता-पिताके विचारको जानकर उन दोनों पुत्रोंके मनमें भी विवाहकी इच्छा जाग उठी। वे दोनों ‘पहले मैं विवाह करूँगा, पहले मैं विवाह करूँगा’ – यों बारंबार कहते हुए परस्पर विवाद करने लगे।

 

तब जगत्‌के अधीश्वर वे दोनों दम्पति पुत्रोंकी बात सुनकर लौकिक आचारका आश्रय ले परम विस्मयको प्राप्त हुए। कुछ समय बाद उन्होंने अपने दोनों पुत्रोंको बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा।

शिव-पार्वती बोले-सुपुत्रो ! हमलोगोंने पहलेसे ही एक ऐसा नियम बना रखा है, जो तुम दोनोंके लिये सुखदायक होगा। अब हम यथार्थरूपसे उसका वर्णन करते हैं, तुमलोग प्रेमपूर्वक सुनो। प्यारे बच्चो ! हमें तो तुम दोनों पुत्र समान ही प्यारे हो; किसीपर विशेष प्रेम हो-ऐसी बात नहीं है; अतः हमने तुमलोगोंके विवाहके विषयमें एक ऐसी शर्त बनायी है, जो दोनोंके लिये कल्याणकारिणी है, (वह शर्त यह है कि) जो सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करके पहले लौट आयेगा, उसीका शुभ विवाह पहले किया जायगा।

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! माता-पिताकी यह बात सुनकर शरजन्मा महाबली कार्तिकेय तुरंत ही अपने स्थानसे पृथ्वीकी परिक्रमा करनेके लिये चल दिये। परंतु अगाध- बुद्धि-सम्पन्न गणेश वहीं खड़े रह गये। वे अपनी उत्तम बुद्धिका आश्रय ले बारंबार मनमें विचार करने लगे कि ‘अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? परिक्रमा तो मुझसे हो नहीं सकेगी; क्योंकि कोसभर चलनेके बाद आगे मुझसे चला जायगा नहीं।

 

फिर सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करके मैं कैसे सुख प्राप्त कर सकूँगा ?’ ऐसा विचारकर गणेशने जो कुछ किया, उसे सुनो। उन्होंने अपने घर लौटकर विधिपूर्वक स्नान किया और माता- पितासे इस प्रकार कहा।

गणेशजी बोले-पिताजी एवं माताजी ! मैंने आपलोगोंकी पूजा करनेके लिये यहाँ दो आसन स्थापित किये हैं। आप दोनों इसपर विराजिये और मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! गणेशकी बात सुनकर पार्वती और परमेश्वर उनकी पूजा ग्रहण करनेके लिये आसनपर विराजमान हो गये। तब गणेशने उनकी विधिपूर्वक पूजा की और बारंबार प्रणाम करते हुए उनकी सात बार प्रदक्षिणा की। बेटा नारद ! गणेश तो बुद्धिसागर थे ही, वे हाथ जोड़कर प्रेममग्न माता-पिताकी बहुत प्रकारसे स्तुति करके बोले।

गणेशजीने कहा- हे माताजी ! तथा हे पिताजी ! आपलोग मेरी उत्तम बात सुनिये और शीघ्र ही मेरा शुभ विवाह कर दीजिये। ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! महात्मा गणेशका ऐसा वचन सुनकर वे दोनों माता-पिता महाबुद्धिमान् गणेशसे बोले ।

शिवा-शिवने कहा-बेटा ! तू पहले काननोंसहित इस सारी पृथ्वीकी परिक्रमा तो कर आ। कुमार गया हुआ है, तू भी जा और उससे पहले लौट आ (तब तेरा विवाह पहले कर दिया जायगा)।

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! नियमपरायण गणेश माता-पिताकी ऐसी बात सुनकर कुपित हो तुरंत बोल उठे।गणेशजीने कहा- हे माताजी ! तथा हे पिताजी ! आप दोनों सर्वश्रेष्ठ, धर्मरूप और महाबुद्धिमान् हैं, अतः धर्मानुसार मेरी बात सुनिये। मैंने सात बार पृथ्वीकी परिक्रमा की है, फिर आपलोग ऐसी बात क्यों कह रहे हैं?

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! शिव-पार्वती तो बड़े लीलानन्दी ही ठहरे, वे गणेशका कथन सुन लौकिक गतिका आश्रय लेकर बोले।शिव-पार्वतीने कहा-पुत्र ! तूने समुद्र- पर्यन्त विस्तारवाली बड़े-बड़े काननोंसे युक्त इस सप्तद्वीपवती विशाल पृथ्वीकी परिक्रमा कब कर ली ?

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! जब शिव- पार्वतीने ऐसा कहा, तब उसे सुनकर महान् बुद्धिसम्पन्न गणेश बोले।गणेशजीने कहा-माताजी एवं पिताजी ! मैंने अपनी बुद्धिसे आप दोनों शिव-पार्वतीकी पूजा करके प्रदक्षिणा कर ली है, अतः मेरी समुद्रपर्यन्त पृथ्वीकी परिक्रमा पूरी हो गयी।

 

धर्मके संग्रहभूत वेदों और शास्त्रोंमें जो ऐसे वचन मिलते हैं, वे सत्य हैं अथवा असत्य ? (वे वचन हैं कि) जो पुत्र माता-पिताकी पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी- परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता-पिताको घरपर छोड़कर तीर्थ- यात्राके लिये जाता है, वह माता-पिताकी हत्यासे मिलनेवाले पापका भागी होता है; क्योंकि पुत्रके लिये माता-पिताका चरणसरोज ही महान् तीर्थ है।

 

 

अन्य तीर्थ तो दूर जानेपर प्राप्त होते हैं, परंतु धर्मका साधनभूत यह तीर्थ तो पासमें ही सुलभ है। पुत्रके लिये (माता-पिता) और स्त्रीके लिये (पति) ये दोनों सुन्दर तीर्थ घरमें ही वर्तमान हैं। ऐसा जो वेद-शास्त्र निरन्तर उद्घोषित करते रहते हैं, उसे फिर आपलोग असत्य कर दीजिये। (और यदि वह असत्य हो जायगा तो) निस्संदेह वेद भी असत्य हो जायगा और वेदद्वारा वर्णित आपका यह स्वरूप भी झूठा समझा जायगा।

 

इसलिये या तो शीघ्र ही मेरा शुभ विवाह कर दीजिये अथवा यों कह दीजिये कि वेद-शास्त्र झूठे हैं। आप दोनों धर्मरूप हैं, अतः भलीभाँति विचार करके इन दोनोंमें जो परमोत्तम प्रतीत हो, उसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये।

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! तब जो बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ, उत्तम बुद्धिसम्पन्न तथा महान् ज्ञानी हैं, वे पार्वतीनन्दन गणेश इतना कहकर चुप हो गये। उधर वे दोनों पति- पत्नी जगदीश्वर शिव-पार्वती गणेशके वचन सुनकर परम विस्मित हुए। तदनन्तर वे यथार्थभाषी एवं अद्भुत बुद्धिवाले अपने पुत्र गणेशकी प्रशंसा करते हुए बोले।

 

शिवा-शिवने कहा-बेटा ! तू महान् आत्मबलसे सम्पन्न है, इसीसे तुझमें निर्मल बुद्धि उत्पन्न हुई है। तूने जो बात कही है, वह बिलकुल सत्य है, अन्यथा नहीं है। दुःखका अवसर आनेपर जिसकी बुद्धि विशिष्ट हो जाती है, उसका दुःख उसी प्रकार विनष्ट हो जाता है, जैसे सूर्यके उदय होते ही अन्धकार। जिसके पास बुद्धि है, वही बलवान् है; बुद्धिहीनके पास बल कहाँ।

 

पुत्र ! वेद-शास्त्र और पुराणोंमें बालकके लिये धर्मपालनकी जैसी बात कही गयी है, वह सब तूने पूरी कर ली। तूने जो बात की है, वह दूसरा कौन कर सकता है। हमने तेरी वह बात मान ली, अब इसके विपरीत नहीं करेंगे।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! यों कहकर उन दोनोंने बुद्धिसागर गणेशको सान्त्वना दी और फिर वे उनके विवाहके सम्बन्धमें उत्तम विचार करने लगे। इसी समय जब प्रसन्न बुद्धिवाले प्रजापति विश्वरूपको शिवजीके उद्योगका पता चला, तब उसपर विचार करके उन्हें परम सुख प्राप्त हुआ। उन प्रजापति विश्वरूपके दिव्यरूपसम्पन्न एवं सर्वांगशोभना दो सुन्दरी कन्याएँ थीं, जिनका नाम ‘सिद्धि’ और ‘बुद्धि’ था।

 

भगवान् शंकर और गिरिजाने उन दोनोंके साथ हर्षपूर्वक गणेशका विवाह-संस्कार सम्पन्न कराया। उस विवाहके अवसरपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होकर पधारे। उस समय शिव और पार्वतीका जैसा मनोरथ था, उसीके अनुसार विश्वकर्माने वह विवाह किया। उसे देखकर ऋषियों तथा देवताओंको परम हर्ष प्राप्त हुआ।

 

मुने ! गणेशको भी उन दोनों पत्नियोंके मिलनेसे जो सुख प्राप्त हुआ, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कुछ कालके पश्चात् महात्मा गणेशके उन दोनों पत्नियोंसे दो दिव्य पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें गणेशपत्नी सिद्धिके गर्भसे ‘क्षेम’ नामक पुत्र पैदा हुआ और बुद्धिके गर्भसे जिस परम सुन्दर पुत्रने जन्म लिया, उसका नाम ‘लाभ’ हुआ।

 

इस प्रकार जब गणेश अचिन्त्य सुखका भोग करते हुए निवास करने लगे, तब दूसरे पुत्र स्वामिकार्तिक पृथ्वीकी परिक्रमा करके लौटे। उस समय नारदजीने आकर कुमार स्कन्दको सब समाचार सुनाये। उन्हें सुनकर कुमारके मनमें बड़ा क्षोभ हुआ और वे माता-पिता शिवा-शिवके द्वारा रोके जानेपर भी न रुककर क्रौंचपर्वतकी ओर चले गये।

देवर्षे ! उसी दिनसे शिवपुत्र स्वामि- कार्तिकका कुमारत्व (कुँआरपना) प्रसिद्ध हो गया। उनका नाम त्रिलोकीमें विख्यात हो गया। वह शुभदायक, सर्वपापहारी, पुण्यमय और उत्कृष्ट ब्रह्मचर्यकी शक्ति प्रदान करनेवाला है। कार्तिककी पूर्णिमाको सभी देवता, ऋषि, तीर्थ और मुनीश्वर सदा कुमारका दर्शन करनेके लिये (क्रौंच- पर्वतपर) जाते हैं। जो मनुष्य कार्तिकी पूर्णिमाके दिन कृत्तिका नक्षत्रका योग होनेपर स्वामिकार्तिकका दर्शन करता है, उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है।

 

इधर स्कन्दका बिछोह हो जानेपर उमाको महान् दुःख हुआ। उन्होंने दीनभावसे अपने स्वामी शिवजीसे कहा – ‘प्रभो ! आप मुझे साथ लेकर वहाँ चलिये।’ तब प्रियाको सुख देनेके निमित्त स्वयं भगवान् शंकर अपने एक अंशसे उस पर्वतपर गये और सुखदायक मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिलिंगके रूपमें वहाँ प्रतिष्ठित हो गये। वे सत्पुरुषोंकी गति तथा अपने सभी भक्तोंके मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं। वे आज भी शिवाके सहित उस पर्वतपर विराजमान हैं।

बेटा नारद ! वे दोनों शिवा-शिव भी पुत्र-स्नेहसे विह्वल होकर प्रत्येक पर्वपर कुमारको देखनेके लिये जाते हैं। अमावास्याके दिन वहाँ स्वयं शम्भु पधारते हैं और पूर्णिमाके दिन पार्वतीजी जाती हैं। मुनीश्वर ! तुमने स्वामिकार्तिक और गणेशका जो- जो वृत्तान्त मुझसे पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें कह सुनाया। इसे सुनकर बुद्धिमान् मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है और उसकी सभी शुभ कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

 

जो मनुष्य इस चरित्रको पढ़ता अथवा पढ़ाता है एवं सुनता अथवा सुनाता है, निस्संदेह उसके सभी मनोरथ सफल हो जाते हैं। यह अनुपम आख्यान पापनाशक, कीर्तिप्रद, सुखवर्धक, आयु बढ़ानेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला, पुत्र-पौत्रकी वृद्धि करनेवाला, मोक्षप्रद, शिवजीके उत्तम ज्ञानका प्रदाता, शिव-पार्वतीमें प्रेम उत्पन्न करनेवाला और शिवभक्तिवर्धक है। यह कल्याणकारक, शिवजीके अद्वैत ज्ञानका दाता और सदा शिवमय है; अतः मोक्षकामी एवं निष्काम भक्तोंको सदा इसका श्रवण करना चाहिये।

(अध्याय २०)

।। रुद्रसंहिताका कुमारखण्ड सम्पूर्ण ॥

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