(रुद्रसंहिता, चतुर्थ (कुमार) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita kumar khand chapter 13 to 18 (शिव पुराण रुद्रसंहिता कुमार खंड अध्याय 13 से 18 शिवाका अपनी मैलसे गणेशको उत्पन्न करके द्वारपाल-पदपर नियुक्त करना, गणेशद्वारा शिवजीके रोके जानेपर उनका शिवगणोंके साथ भयंकर संग्राम, शिवजीद्वारा गणेशका शिरश्छेदन, कुपित हुई शिवाका शक्तियोंको उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियोंका स्तवनद्वारा पार्वतीको प्रसन्न करना, उनके द्वारा पुत्रको जिलाये जानेकी बात कही जानेपर शिवजीके आज्ञानुसार हाथीका सिर लाया जाना और उसे गणेशके धड़से जोड़कर उन्हें जीवित करना)
(अध्याय 13 से 18 )
:-सूतजी कहते हैं-तारकारि कुमारके उत्तम एवं अद्भुत वृत्तान्तको सुनकर नारदजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने पुनः प्रेमपूर्वक ब्रह्माजीसे पूछा।
नारदजी बोले-देवदेव ! आप तो शिव- सम्बन्धी ज्ञानके अथाह सागर हैं। प्रजानाथ ! मैंने स्वामी कार्तिकके सवृत्तान्तको जो अमृतसे भी उत्तम है, सुन लिया। अब गणेशका उत्तम चरित्र सुनना चाहता हूँ। आप उनका जन्म-वृत्तान्त तथा दिव्य चरित्र,जो सम्पूर्ण मंगलोंके लिये भी मंगल- स्वरूप है, वर्णन कीजिये।
सूतजी कहते हैं-महामुनि नारदका ऐसा वचन सुनकर ब्रह्माजीका मन हर्षसे गद्गद हो गया। वे शिवजीका स्मरण करके बोले। ब्रह्माजीने कहा-नारद ! पहले जो मैंने विधिपूर्वक गणेशकी उत्पत्तिका वर्णन किया था कि शनिकी दृष्टि पड़नेसे गणेशका मस्तक कट गया था, तब उसपर हाथीका मुख लगा दिया गया था, वह कल्पान्तरकी कथा है! अब श्वेतकल्पमें घटित हुई गणेशकी जन्म-कथाका वर्णन करता हूँ, जिसमें कृपालु शंकरने ही उनका मस्तक काट लिया था।
मुने ! इस विषयमें तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये; क्योंकि भगवान् शम्भु कल्याणकारी, सृष्टिकर्ता और सबके स्वामी हैं। वे ही सगुण और निर्गुण भी हैं। उन्हींकी लीलासे सारे विश्वकी सृष्टि, रक्षा और विनाश होता है। मुनिश्रेष्ठ ! अब प्रस्तुत विषयको आदरपूर्वक श्रवण करो।
एक समय पार्वतीजीकी जया-विजया नामवाली सखियाँ उनके पास आकर विचार करने लगीं- ‘सखी! सभी गण रुद्रके ही हैं। नन्दी, भृंगी आदि जो हमारे हैं, वे भी शिवके ही आज्ञापालनमें तत्पर रहते हैं। जो असंख्य प्रमथगण हैं, उनमें भी हमारा कोई नहीं है। वे सभी शिवाज्ञापरायण होकर द्वारपर खड़े रहते हैं। यद्यपि वे सभी हमारे भी हैं, तथापि उनसे हमारा मन नहीं मिलता; अतः पापरहिते!
आपको भी हमारे लिये एक गणकी रचना करनी चाहिये।’ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! जब सखियोंने पार्वतीजीसे ऐसा सुन्दर वचन कहा, तब उन्होंने उसे हितकारक माना और वैसा करनेका विचार भी किया। तदनन्तर किसी समय जब पार्वतीजी स्नान कर रही थीं, तब सदाशिव नन्दीको डरा-धमकाकर घरके भीतर चले आये। शंकरजीको आते देखकर स्नान करती हुई जगज्जननी पार्वती उठकर खड़ी हो गयीं। उस समय उनको बड़ी लज्जा आयी।
वे आश्चर्यचकित हो गयीं। उस अवसरपर उन्होंने सखियोंके वचनको हितकारक तथा सुखप्रद माना। उस समय ऐसी घटना घटित होनेपर परमाया परमेश्वरी शिवपत्नी पार्वतीने मनमें ऐसा विचार किया कि मेरा कोई एक ऐसा सेवक होना चाहिये, जो परम शुभ, कार्यकुशल और मेरी ही आज्ञामें तत्पर रहनेवाला हो, उससे तनिक भी विचलित होनेवाला न हो। यों विचारकर पार्वतीदेवीने अपने शरीरकी मैलसे एक ऐसे चेतन पुरुषका निर्माण किया, जो सम्पूर्ण शुभलक्षणोंसे संयुक्त था। उसके सभी अंग सुन्दर एवं दोषरहित थे।
उसका वह शरीर विशाल, परम शोभायमान और महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न था। देवीने उसे अनेक प्रकारके वस्त्र, नाना प्रकारके आभूषण और बहुत-सा उत्तम आशीर्वाद देकर कहा- ‘तुम मेरे पुत्र हो। मेरे अपने ही हो। तुम्हारे समान प्यारा मेरा यहाँ कोई दूसरा नहीं है।’ पार्वतीके ऐसा कहनेपर वह पुरुष उन्हें नमस्कार करके बोला।
गणेशने कहा-‘माँ! आज आपको कौन-सा कार्य आ पड़ा है? मैं आपके कथनानुसार उसे पूर्ण करूँगा।’ गणेशके यों पूछनेपर पार्वतीजी अपने पुत्रको उत्तर देते हुए बोलीं।
शिवाने कहा-तात ! तुम मेरे पुत्र हो, मेरे अपने हो। अतः तुम मेरी बात सुनो। आजसे तुम मेरे द्वारपाल हो जाओ। सत्पुत्र ! मेरी आज्ञाके बिना कोई भी हठपूर्वक मेरे महलके भीतर प्रवेश न करने पाये, चाहे वह कहींसे भी आये, कोई भी हो। बेटा ! यह मैंने तुमसे बिलकुल सत्य बात कही है।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! यों कहकर पार्वतीने गणेशके हाथमें एक सुदृढ़ छड़ी दे दी। उस समय उनके सुन्दर रूपको निहारकर पार्वती हर्षमग्न हो गयीं। उन्होंने परम प्रेमपूर्वक अपने पुत्रका मुख चूमा और कृपापरवश हो छातीसे लगा लिया। फिर दण्डधारी गणराजको अपने द्वारपर स्थापित कर दिया। बेटा नारद ! तदनन्तर पार्वतीनन्दन महावीर गणेश पार्वतीकी हित- कामनासे हाथमें छड़ी लेकर गृह-द्वारपर पहरा देने लगे।
उधर शिवा अपने पुत्र गणेशको अपने दरवाजेपर नियुक्त करके स्वयं सखियोंके साथ स्नान करने लगीं। मुनिश्रेष्ठ ! इसी समय भगवान् शिव, जो परम कौतुकी तथा नाना प्रकारकी लीलाएँ रचनेमें निपुण हैं, द्वारपर आ पहुँचे। गणेश उन पार्वतीपतिको पहचानते तो थे नहीं, अतः बोल उठे- ‘देव! माताकी आज्ञाके बिना तुम अभी भीतर न जाओ। माता स्नान करने बैठ गयी हैं।
तुम कहाँ जाना चाहते हो ? इस समय यहाँसे हट जाओ।’ यों कहकर गणेशने उन्हें रोकनेके लिये छड़ी हाथमें ले ली। उन्हें ऐसा करते देख शिवजी बोले- ‘मूर्ख ! तू किसे रोक रहा है? दुर्बुद्धे ! क्या तू मुझे नहीं जानता ? मैं शिवके अतिरिक्त और कोई नहीं हूँ।’
फिर महेश्वरके गण उसे समझाकर हटानेके लिये वहाँ आये और गणेशसे बोले- सुनो, हम मुख्य शिवगण ही द्वारपाल हैं और सर्वव्यापी भगवान् शंकरकी आज्ञासे तुम्हें हटानेके लिये यहाँ आये हैं। तुम्हें भी गण समझकर हमलोगोंने मारा नहीं है, अन्यथा तुम कबके मारे गये होते। अब कुशल इसीमें है कि तुम स्वतः ही दूर हट जाओ। क्यों व्यर्थ अपनी मृत्यु बुला रहे हो ?
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! यों कहे जानेपर भी गिरिजानन्दन गणेश निर्भय ही बने रहे। उन्होंने शिवगणोंको फटकारा और दरवाजेको नहीं छोड़ा। तब उन सभी शिवगणोंने शिवजीके पास जाकर सारा वृत्तान्त उन्हें सुनाया। मुने ! उनसे सब बातें सुनकर संसारके गतिस्वरूप अद्भुत लीलाविहारी महेश्वर अपने उन गणोंको डाँटकर कहने लगे।
महेश्वरने कहा- ‘गणो! यह कौन है, जो इतना उच्छृंखल होकर शत्रुकी भाँति बक रहा है? इस नवीन द्वारपालको दूर भगा दो। तुमलोग नपुंसककी तरह खड़े होकर उसका वृत्तान्त मुझे क्यों सुना रहे हो।’ विचित्र लीला रचनेवाले अपने स्वामी शंकरके यों कहनेपर वे गण पुनः वहीं लौट आये। तदनन्तर गणेशद्वारा पुनः रोके जानेपर शिवजीने गणोंको आज्ञा दी कि ‘तुम पता लगाओ, यह कौन है और क्यों ऐसा कर रहा है?’
गणोंने पता लगाकर बताया कि ‘ये श्रीगिरिजाके पुत्र हैं तथा द्वारपालके रूपमें बैठे हैं।’ तब लीलारूप शंकरने विचित्र लीला करनी चाही तथा अपने गणोंका गर्व भी गलित करना चाहा। इसलिये गणोंको तथा देवताओंको बुलाकर गणेशजीसे भीषण युद्ध करवाया। पर वे कोई भी गणेशको पराजित न कर सके। तब स्वयं शूलपाणि महेश्वर आये।
गणेशजीने माताके चरणोंका स्मरण किया, तब शक्तिने उन्हें बल प्रदान कर दिया। सभी देवता शिवजीके पक्षमें आ गये, घोर युद्ध हुआ। अन्ततोगत्वा स्वयं शूलपाणि महेश्वरने आकर त्रिशूलसे गणेशजीका सिर काट दिया। जब यह समाचार पार्वतीजीको मिला, तब वे कुद्ध हो गयीं और बहुत-सी शक्तियोंको उत्पन्न करके उन्होंने बिना विचारे उन्हें प्रलय करनेकी आज्ञा दे दी।
फिर तो शक्तियोंके द्वारा प्रलय मचायी जाने लगी। उन शक्तियोंका वह जाज्वल्यमान तेज सभी दिशाओंको दग्ध-सा किये डालता था। उसे देखकर वे सभी शिवगण भयभीत हो गये और भागकर दूर जा खड़े हुए।
मुने ! इसी समय तुम दिव्यदर्शन नारद वहाँ आ पहुँचे। तुम्हारा वहाँ आनेका अभिप्राय देवगणोंको सुख पहुँचाना था। तब तुमने मुझ देवताओंसहित शंकरको प्रणाम करके कहा कि इस विषयमें सबको मिलकर विचार करना चाहिये। तब वे सभी देवता तुझ महामनाके साथ सलाह करने लगे कि इस दुःखका शमन कैसे हो सकता है।
फिर उन्होंने यही निश्चय किया कि जबतक गिरिजादेवी कृपा नहीं करेंगी तबतक सुख नहीं प्राप्त हो सकेगा। अब इस विषयमें और विचार करना व्यर्थ है। ऐसी धारणा करके तुम्हारे सहित सभी देवता और ऋषि भगवती शिवाके निकट गये और क्रोधकी शान्तिके लिये उन्हें प्रसन्न करने लगे। उन्होंने प्रेमपूर्वक उन्हें प्रसन्न करते हुए अनेकों स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति करके बारंबार उनके चरणोंमें अभिवादन किया। फिर देवगणकी आज्ञासे ऋषि बोले।
देवर्षियोंने कहा- जगदम्बे ! तुम्हें नमस्कार है। शिवपत्नि ! तुम्हें प्रणाम है। चण्डिके ! तुम्हें हमारा अभिवादन प्राप्त हो। कल्याणि ! तुम्हें बारंबार प्रणाम है। अम्बे ! तुम्हीं आदि- शक्ति हो। तुम्हीं सदासारी सृष्टिकी निर्माणकर्जी, पालिकाशक्ति और संहार करनेवाली हो। देवेशि ! तुम्हारे कोपसे सारी त्रिलोकी विकल हो रही है, अतः अब प्रसन्न हो जाओ और क्रोधको शान्त करो।
देवि ! हमलोग तुम्हारे चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं।ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! यों तुम सभी ऋषियोंद्वारा स्तुति किये जानेपर भी परादेवी पार्वतीने उनकी ओर क्रोधभरी दृष्टिसे ही देखा, किंतु कुछ कहा नहीं। तब उन ऋषियोंने पुनः उनके चरणकमलोंमें सिर झुकाया और भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर पार्वतीजीसे निवेदन किया।
ऋषियोंने कहा- देवि ! अभी संहार होना चाहता है; अतः क्षमा करो, क्षमा करो। अम्बिके ! तुम्हारे स्वामी शिव भी तो यहीं स्थित हैं, तनिक उनकी ओर तो दृष्टिपात करो। हमलोग, ये ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तथा सारी प्रजा – सब तुम्हारे ही हैं और व्याकुल होकर अंजलि बाँधे तुम्हारे सामने खड़े हैं। परमेश्वरि ! इन सबका अपराध क्षमा करो। शिवे ! अब इन्हें शान्ति प्रदान करो।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! सभी देवर्षियों कहकर अत्यन्त दीनभावसे व्याकुल हो हाथ जोड़कर चण्डिकाके सम्मुख खड़े हो गये। उनका ऐसा कथन सुनकर चण्डिका प्रसन्न हो गयीं। उनके हृदयमें करुणाका संचार हो आया। तब वे ऋषियोंसे बोलीं।
देवीने कहा-ऋषियो ! यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाय और वह तुमलोगोंके मध्य पूजनीय मान लिया जाय तो संहार नहीं होगा। जब तुमलोग उसे ‘सर्वाध्यक्ष’ का पद प्रदान कर दोगे तभी लोकमें शान्ति हो सकती है, अन्यथा तुम्हें सुख नहीं प्राप्त हो सकता।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! पार्वतीके यों कहनेपर तुम सभी ऋषियोंने उन देवताओंके पास आकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर इन्द्र आदि सभी देवताओंके चेहरेपर उदासी छा गयी। वे शंकरजीके पास गये और हाथ जोड़कर उनके चरणोंमें नमस्कार करके सारा समाचार निवेदन कर दिया। देवताओंका कथन सुनकर शिवजीने कहा – ‘ठीक है, जिस प्रकार सारी त्रिलोकीको सुख मिल सके वही करना चाहिये।
अतः अब उत्तरदिशाकी ओर जाना चाहिये और जो जीव पहले मिले, उसका सिर काटकर उस बालकके शरीरपर जोड़ देना चाहिये।’
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! तदनन्तर शिवजीकी आज्ञाका पालन करनेवाले उन देवताओंने वह सारा कार्य सम्पन्न किया। उन्होंने उस शिशु-शरीरको धो-पोंछकर विधिवत् उसकी पूजा की। फिर वे उत्तर दिशाकी ओर गये। वहाँ उन्हें पहले-पहल एक दाँतवाला एक हाथी मिला। उन्होंने उसका सिर लाकर उस शरीरपर जोड़ दिया।
हाथीके उस सिरको संयुक्त कर देनेके पश्चात् सभी देवताओंने भगवान् शिव आदिको प्रणाम करके कहा कि हमलोगोंने अपना काम पूरा कर दिया। अब जो करना शेष है, उसे आपलोग पूर्ण करें।
ब्रह्माजी कहते हैं-तब शिवाज्ञापालन- सम्बन्धिनी देवताओंकी बात सुनकर सभी देवों और पार्षदोंको महान् आनन्द हुआ। तत्पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता अपने स्वामी निर्गुणस्वरूप भगवान् शंकरको प्रणाम करके बोले – ‘स्वामिन् ! आप महात्माके जिस तेजसे हम सभी उत्पन्न हुए हैं, आपका वही तेज वेदमन्त्रके अभियोगसे इस बालकमें प्रवेश करे।’
इस प्रकार सभी देवताओंने मिलकर वेदमन्त्रद्वारा जलको अभिमन्त्रित किया, फिर शिवजीका स्मरण करके उस उत्तम जलको बालकके शरीरपर छिड़क दिया। उस जलका स्पर्श होते ही वह बालक शिवेच्छासे शीघ्र ही चेतनायुक्त होकर जीवित हो गया और सोये हुएकी तरह उठ बैठा। वह सौभाग्यशाली बालक अत्यन्त सुन्दर था।
उसका मुख हाथीका-सा था। शरीरका रंग हरा-लाल था। चेहरेपर प्रसन्नता खेल रही थी। उसकी आकृति कमनीय थी और उसकी सुन्दर प्रभा फैल रही थी। मुनीश्वर ! पार्वतीनन्दन उस बालकको जीवित देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग आनन्दमग्न हो गये और सारा दुःख विलीन हो गया। तब हर्ष-विभोर होकर सभी लोगोंने उस बालकको पार्वतीजीको दिखाया। अपने पुत्रको जीवित देखकर पार्वतीजी परम प्रसन्न हुईं।
(अध्याय १३-१८)