(रुद्रसंहिता, चतुर्थ (कुमार) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita kumar khand chapter 1 to 8 (शिव पुराण रुद्रसंहिता कुमार खंड अध्याय 1 से 8 देवताओंद्वारा स्कन्दका शिव-पार्वतीके पास लाया जाना, उनका लाड़- प्यार, देवोंके माँगनेपर शिवजीका उन्हें तारक-वधके लिये स्वामी कार्तिकको देना, कुमारकी अध्यक्षतामें देव-सेनाका प्रस्थान, महीसागर-संगमपर तारकासुरका आना और दोनों सेनाओंमें मुठभेड़, वीरभद्रका तारकके साथ घोर संग्राम, पुनः श्रीहरि और तारकमें भयानक युद्ध)
(अध्याय 1 से 8)
वन्दे वन्दनतुष्टमानसमतिप्रेमप्रियं प्रेमदं पूर्ण पूर्णकरं प्रपूर्णनिखिलैश्वर्येकवासं शिवम् । सत्यं सत्यमयं त्रिसत्यविभवं सत्यप्रियं सत्यदं विष्णुब्रह्मनुतं स्वकीयकृपयोपात्ताकृतिं शंकरम् ॥
:-वन्दना करनेसे जिनका मन प्रसन्न हो जाता है, जिन्हें प्रेम अत्यन्त प्यारा है, जो प्रेम प्रदान करनेवाले, पूर्णानन्दमय, भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले, सम्पूर्ण ऐश्वर्योके एकमात्र आवासस्थान और कल्याणस्वरूप हैं, सत्य जिनका श्रीविग्रह है, जो सत्यमय हैं, जिनका ऐश्वर्य त्रिकालाबाधित है, जो सत्यप्रिय एवं सत्यप्रदाता हैं, ब्रह्मा और विष्णु जिनकी स्तुति करते हैं, स्वेच्छानुसार शरीर धारण करनेवाले उन भगवान् शंकरकी मैं वन्दना करता हूँ।
श्रीनारदजीने पूछा-देवताओंका मंगल करनेवाले देव ! परमात्मा शिव तो सर्वसमर्थ हैं। आत्माराम होकर भी उन्होंने जिस पुत्रकी उत्पत्तिके लिये पार्वतीके साथ विवाह किया था, उनके वह पुत्र किस प्रकार उत्पन्न हुआ ? तथा तारकासुरका वध कैसे हुआ ? ब्रह्मन् ! मुझपर कृपा करके यह सारा वृत्तान्त पूर्णरूपसे वर्णन कीजिये।
इसके उत्तरमें ब्रह्माजीने कथाप्रसंग सुनाकर कुमारके गंगासे उत्पन्न होने तथा कृत्तिका आदि छः स्त्रियोंके द्वारा उनके पाले जाने, उन छहोंकी संतुष्टिके लिये उनके छः मुख धारण करने और कृत्तिकाओंके द्वारा पाले जानेके कारण उनका ‘कार्तिकेय’ नाम होनेकी बात कही। तदनन्तर उनके शंकर-गिरिजाकी सेवामें लाये जानेकी कथा सुनायी।
फिर ब्रह्माजीने कहा – भगवान् शंकरने कुमारको गोदमें बैठाकर अत्यन्त स्नेह किया। देवताओंने उन्हें नाना प्रकारके पदार्थ, विद्याएँ, शक्ति और अस्त्र-शस्त्रादि प्रदान किये। पार्वतीके हृदयमें प्रेम समाता नहीं था, उन्होंने हर्षपूर्वक मुसकराकर कुमारको परमोत्तम ऐश्वर्य प्रदान किया, साथ ही चिरंजीवी भी बना दिया। लक्ष्मीने दिव्य सम्पत् तथा एक विशाल एवं मनोहर हार अर्पित किया।
सावित्रीने प्रसन्न होकर सारी सिद्धविद्याएँ प्रदान कीं। मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार वहाँ महोत्सव मनाया गया। सभीके मन प्रसन्न थे। विशेषतः शिव और पार्वतीके आनन्दका पार नहीं था। इसी बीच देवताओंने भगवान् शंकरसे कहा- प्रभो ! यह तारकासुर कुमारके हाथों ही मारा जानेवाला है, इसीलिये ही यह (पार्वती-परिणय तथा कुमारोत्पत्ति आदि) – उत्तम चरित घटित हुआ है।
अतः – हमलोगोंके सुखार्थ उसका काम तमाम करनेके हेतु कुमारको आज्ञा दीजिये। हमलोग आज ही अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित होकर तारकको मारनेके लिये रण-यात्रा करेंगे।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! यह सुनकर भगवान् शंकरका हृदय दयार्द्र हो गया। उन्होंने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके उसी समय तारकका वध करनेके लिये अपने पुत्र कुमारको देवताओंको सौंप दिया। फिर तो शिवजीकी आज्ञा मिल जानेपर ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता एकत्र होकर गुहको आगे करके तुरंत ही उस पर्वतसे चल दिये।
उस समय श्रीहरि आदि देवताओंके मनमें पूर्ण विश्वास था (कि ये अवश्य तारकका वध कर डालेंगे); वे भगवान् शंकरके तेजसे भावित हो कुमारके सेनापतित्वमें तारकका संहार करनेके लिये (रणक्षेत्रमें) आये। उधर महाबली तारकने जब देवताओंके इस युद्धोद्योगको सुना, तब वह भी एक विशाल सेनाके साथ देवोंसे युद्ध करनेके लिये तत्काल ही चल पड़ा। उसकी उस विशाल वाहिनीको आती देख देवताओंको परम विस्मय हुआ।
फिर तो वे बलपूर्वक बारंबार सिंहनाद करने लगे। उसी समय तुरंत ही भगवान् शंकरकी प्रेरणासे विष्णु आदि सम्पूर्ण देवताओंके प्रति आकाशवाणी हुई।
आकाशवाणीने कहा- देवगण ! तुमलोग जो कुमारके अधिनायकत्वमें युद्ध करनेके लिये उद्यत हुए हो, इससे तुम संग्राममें दैत्योंको जीतकर विजयी होओगे।
ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! उस आकाश- वाणीको सुनकर सभी देवताओंका उत्साह बढ़ गया। उनका भय जाता रहा और वे वीरोचित गर्जना करने लगे। उनकी युद्धकामना बलवती हो उठी और वे सब-
के-सब कुमारको अग्रणी बनाकर बड़ी उतावलीके साथ महीसागर-संगमको गये। उधर बहुसंख्यक असुरोंसे घिरा हुआ वह तारक भी बहुत बड़ी सेनाके साथ शीघ्र ही वहाँ आ धमका, जहाँ वे सभी देवता खड़े थे। उस असुरके आगमन-कालमें प्रलयकालीन मेघोंके समान गर्जना करनेवाली रणभेरियाँ तथा अन्यान्य कर्कश शब्द करनेवाले रणवाद्य बज रहे थे। उस समय तारकासुरके साथ आनेवाले दैत्य ताल ठोंकते हुए गर्जना कर रहे थे।
उनके पदाघातसे पृथ्वी काँप उठती थी। उस अत्यन्त भयंकर कोलाहलको सुनकर भी सभी देवता निर्भय ही बने रहे। वे एक साथ मिलकर तारकासुरसे लोहा लेनेके लिये डटकर खड़े हो गये। उस समय देवराज इन्द्र कुमारको गजराजपर बैठाकर सबसे आगे खड़े हुए। वे लोकपालोंसे घिरे हुए थे और उनके साथ देवताओंकी महती सेना थी। तत्पश्चात् कुमारने उस गजराजको तो महेन्द्रको ही दे दिया और वे स्वयं एक ऐसे विमानपर आरूढ़ हुए, जो परमाश्चर्य- जनक तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित था।
उस समय उस विमानपर सवार होनेसे सर्वगुणसम्पन्न महायशस्वी शंकर-पुत्र कुमार उत्कृष्ट शोभासे संयुक्त होकर सुशोभित हो रहे थे। उनपर परम प्रकाशमान चॅवर डुलाये जा रहे थे। इसी बीच बलाभिमानी एवं महावीर देवता और दैत्य क्रोधसे विह्वल होकर परस्पर युद्ध करने लगे। उस समय देवताओं और दैत्योंमें बड़ा घमासान युद्ध हुआ। क्षणभरमें ही सारी रणभूमि रुण्ड- मुण्डोंसे व्याप्त हो गयी।
तब महाबली तारकासुर बहुत बड़ी सेनाके साथ देवताओंसे युद्ध करनेके लिये वेगपूर्वक आगे बढ़ा। उस रणदुर्मद तारकको युद्धकी कामनासे आगे बढ़ते देखकर इन्द्र आदि देवता तुरंत ही उसके सामने आये। फिर तो दोनों सेनाओंमें महान् कोलाहल होने लगा। तत्पश्चात् देवों तथा असुरोंका विनाश करनेवाला ऐसा द्वन्द्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ, जिसे देखकर वीरलोग हर्षोत्फुल्ल हो गये और कायरोंके मनमें भय समा गया।
इसी समय वीरभद्र कुपित होकर महाबली प्रमथगणोंके साथ वीराभिमानी तारकके समीप आ पहुँचे । वे बलवान् गणनायक भगवान् शिवके कोपसे उत्पन्न हुए थे, अतः समस्त देवताओंको पीछे करके युद्धकी अभिलाषासे तारकके सम्मुख डट गये। उस समय प्रमथगणों तथा सारे असुरोंके मनमें परमोल्लास था, अतः वे उस महासमरमें परस्पर गुत्थमगुत्थ होकर जूझने लगे।
तदनन्तर वीरभद्रसे तारकका भयानक युद्ध हुआ। इसी बीच असुरोंकी सेना रणसे विमुख हो भाग चली। इस प्रकार अपनी सेनाको तितर-बितर हुई देख उसका नायक तारकासुर क्रोधसे भर गया और दस हजार भुजाएँ धारण करके सिंहपर सवार हो देवगणोंको मार डालनेके लिये वेगपूर्वक उनकी ओर झपटा। वह युद्धके मुहानेपर देवों तथा प्रमथगणोंको मार-मारकर गिराने लगा।
तब प्रमथगणोंके नेता महाबली वीरभद्र उसके उस कर्मको देखकर उसका वध करनेके लिये अत्यन्त कुपित हो उठे। फिर तो उन्होंने भगवान् शिवके चरण- कमलका ध्यान करके एक ऐसा श्रेष्ठ त्रिशूल हाथमें लिया, जिसके तेजसे सारी दिशाएँ और आकाश प्रकाशित हो उठे।
इसी अवसरपर महान् कौतुक प्रदर्शन करनेवाले स्वामि- कार्तिकने तुरंत ही वीरबाहुद्वारा कहलाकर उस युद्धको रोक दिया। तब स्वामीकी आज्ञासे वीरभद्र उस युद्धसे हट गये। यह देखकर असुर-सेनापति महावीर तारक कुपित हो उठा। वह युद्ध-कुशल तथा नाना प्रकारके अस्त्रोंका जानकार था, अतः देवताओंको ललकार-ललकारकर उनपर बाणोंकी वृष्टि करने लगा। उस समय बलवानोंमें श्रेष्ठ असुरराज तारकने ऐसा महान् कर्म किया कि सारे देवता मिलकर भी उसका सामना न कर सके।
उन भयभीत देवताओंको यों पिटते हुए देखकर भगवान् अच्युतको क्रोध हो आया और वे शीघ्र ही युद्ध करनेके लिये तैयार हो गये। उन भगवान् श्रीहरिने अपने आयुध सुदर्शनचक्र और शार्ङ्गधनुषको लेकर युद्धस्थलमें महादैत्य तारकपर आक्रमण किया। मुने ! तदनन्तर सबके देखते-देखते श्रीहरि और तारकासुरमें अत्यन्त भयंकर एवं रोमांचकारी महायुद्ध छिड़ गया।
इसी बीच अच्युतने कुपित होकर महान् सिंहनाद किया और धधकती हुई ज्वालाओंके से प्रकाशवाले अपने चक्रको उठाया। फिर तो श्रीहरिने उसी चक्रसे दैत्यराज तारकपर प्रहार किया। उसकी चोटसे अत्यन्त व्यथित होकर वह असुर पृथ्वीपर गिर पड़ा। परंतु वह असुरनायक तारक अत्यन्त बलवान् था, अतः तुरंत ही उठकर उस दैत्यराजने अपनी शक्तिसे चक्रके टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
मुने ! भगवान् विष्णु और तारकासुर दोनों बलवान् थे और दोनोंमें अगाध बल था, अतः युद्धस्थलमें वे परस्पर जूझने लगे।
(अध्याय १-८)