Shiv puran mahima chapter 4(श्री शिवपुराण-माहात्म्य अध्याय 4 चंचुलाकी प्रार्थनासे ब्राह्मणका उसे पूरा शिवपुराण सुनाना और समयानुसार शरीर छोड़कर शिवलोकमें जा चंचुलाका पार्वतीजीकी सखी एवं सुखी होना)
(अध्याय 4)
:-ब्राह्मण बोले- नारी ! सौभाग्यकी बात है कि भगवान् शंकरकी कृपासे शिव-पुराणकी इस वैराग्ययुक्त कथाको सुनकर तुम्हें समयपर चेत हो गया है। ब्राह्मणपत्नी !
तुम डरो मत। भगवान् शिवकी शरणमें जाओ। शिवकी कृपासे सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। मैं तुमसे भगवान् शिवकी कीर्तिकथासे युक्त उस परम वस्तुका वर्णन करूँगा, जिससे तुम्हें सदा सुख देनेवाली उत्तम गति प्राप्त होगी।
शिवकी उत्तम कथा सुननेसे ही तुम्हारी बुद्धि इस तरह पश्चात्तापसे युक्त एवं शुद्ध हो गयी है। साथ ही तुम्हारे मनमें विषयोंके प्रति वैराग्य हो गया है।
पश्चात्ताप ही पाप करनेवाले पापियोंके लिये सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है। सत्पुरुषोंने सबके लिये पश्चात्तापको ही समस्त पापोंका शोधक बताया है, पश्चात्तापसे ही पापोंकी शुद्धि होती है।
जो पश्चात्ताप करता है,वही वास्तवमें पापोंका प्रायश्चित्त करता है; क्योंकि सत्पुरुषोंने समस्त पापोंकी शुद्धिके लिये जैसे प्रायश्चित्तका उपदेश किया है, वह सब पश्चात्तापसे सम्पन्न हो जाता है।
जो पुरुष विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करके निर्भय हो जाता है, पर अपने कुकर्मके लिये पश्चात्ताप नहीं करता, उसे प्रायः उत्तम गति नहीं प्राप्त होती। परंतु जिसे अपने कुकृत्यपर हार्दिक पश्चात्ताप होता है, वह अवश्य उत्तम गतिका भागी होता है, इसमें संशय नहीं।
इस शिव-पुराणकी कथा सुननेसे जैसी चित्तशुद्धि होती है, वैसी दूसरे उपायोंसे नहीं होती।जैसे दर्पण साफ करनेपर निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार इस शिवपुराणकी कथासे चित्त अत्यन्त शुद्ध हो जाता है- इसमें संशय नहीं है।
मनुष्योंके शुद्धचित्तमें जगदम्बा पार्वतीसहित भगवान् शिव विराजमान रहते हैं। इससे वह विशुद्धात्मा पुरुष श्रीसाम्ब सदाशिवके पदको प्राप्त होता है। इस उत्तम कथाका श्रवण समस्त मनुष्योंके लिये कल्याणका बीज है।
अतः यथोचित (शास्त्रोक्त) मार्गसे इसकी आराधना अथवा सेवा करनी चाहिये। यह भवबन्धनरूपी रोगका नाश करनेवाली है। भगवान् शिवकी कथाको सुनकर फिर अपने हृदयमें उसका मनन एवं निदिध्यासन करना चाहिये।
इससे पूर्णतया चित्तशुद्धि हो जाती है। चित्तशुद्धि होनेसे महेश्वरकी भक्ति अपने दोनों पुत्रों (ज्ञान और वैराग्य) के साथ निश्चय ही प्रकट होती है। तत्पश्चात् महेश्वरके अनुग्रहसे दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है।
जो मुक्तिसे वंचित है, उसे पशु समझना चाहिये; क्योंकि उसका चित्त मायाके बन्धनमें आसक्त है। वह निश्चय ही संसारबन्धनसे मुक्त नहीं हो पाता।
ब्राह्मणपत्नी ! इसलिये तुम विषयोंसे मनको हटा लो और भक्तिभावसे भगवान् शंकरकी इस परम पावन कथाको सुनो – परमात्मा शंकरकी इस कथाको सुननेसे तुम्हारे चित्तकी शुद्धि होगी और इससे तुम्हें मोक्षकी प्राप्ति हो जायगी।
जो निर्मल चित्तसे भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करता है, उसकी एक ही जन्ममें मुक्ति हो जाती है-यह मैं तुमसे सत्य- सत्य कहता हूँ।
सूतजी कहते हैं-शौनक ! इतना कहकर वे श्रेष्ठ शिवभक्त ब्राह्मण चुप हो गये। उनका हृदय करुणासे आर्द्र हो गया था। वे शुद्धचित्त महात्मा भगवान् शिवके ध्यानमें मग्न हो गये। तदनन्तर बिन्दुगकी पत्नी चंचुला मन-ही-मन प्रसन्न हो उठी।
ब्राह्मणका उक्त उपदेश सुनकर उसके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये थे। वह ब्राह्मणपत्नी चंचुला हर्षभरे हृदयसे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके दोनों चरणोंमें गिर पड़ी और हाथ जोड़कर बोली- ‘मैं कृतार्थ हो गयी।
‘ तत्पश्चात् उठकर वैराग्ययुक्त उत्तम बुद्धिवाली वह स्त्री, जो अपने पापोंके कारण आतंकित थी, उन महान् शिवभक्त ब्राह्मणसे हाथ जोड़कर गद्गद वाणीमें बोली।
चंचुलाने कहा-ब्रह्मन् ! शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ ! स्वामिन् ! आप धन्य हैं, परमार्थदर्शी हैं और सदा परोपकारमें लगे रहते हैं। इसलिये श्रेष्ठ साधु पुरुषोंमें प्रशंसाके योग्य हैं। साधो ! मैं नरकके समुद्रमें गिर रही हूँ।
आप मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये । पौराणिक अर्थतत्त्वसे सम्पन्न जिस सुन्दर शिवपुराणकी कथाको सुनकर मेरे मनमें सम्पूर्ण विषयोंसे वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसी इस शिवपुराणको सुननेके लिये इस समय मेरे मनमें बड़ी श्रद्धा हो रही है।
सूतजी कहते हैं-ऐसा कहकर हाथ जोड़ उनका अनुग्रह पाकर चंचुला उस शिवपुराणकी कथाको सुननेकी इच्छा मनमें लिये उन ब्राह्मणदेवताकी सेवामें तत्पर हो वहाँ रहने लगी। तदनन्तर शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ और शुद्ध बुद्धिवाले उन ब्राह्मणदेवने उसी स्थानपर उस स्त्रीको शिवपुराणकी उत्तम कथा सुनायी।
इस प्रकार उस गोकर्ण नामक महाक्षेत्रमें उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मणसे उसने शिवपुराणकी वह परम उत्तम कथा सुनी, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बढ़ानेवाली तथा मुक्ति देनेवाली है। उस परम उत्तम कथाको सुनकर वह ब्राह्मणपत्नी अत्यन्त कृतार्थ हो गयी।
उसका चित्त शीघ्र ही शुद्ध हो गया। फिर भगवान् शिवके अनुग्रहसे उसके हृदयमें शिवके सगुणरूपका चिन्तन होने लगा। इस प्रकार उसने भगवान् शिवमें लगी रहनेवाली उत्तम बुद्धि पाकर शिवके सच्चिदानन्दमय स्वरूपका बारंबार चिन्तन आरम्भ किया।
तत्पश्चात् समयके पूरे होनेपर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे युक्त हुई चंचुलाने अपने शरीरको बिना किसी कष्टके त्याग दिया ! इतनेमें ही त्रिपुरशत्रु भगवान् शिवका भेजा हुआ एक दिव्य विमान द्रुत गतिसे वहाँ पहुँचा, जो उनके अपने गणोंसे संयुक्त और भाँति-भाँतिके शोभा-साधनोंसे सम्पन्न था।
चंचुला उस विमानपर आरूढ़ हुई और भगवान् शिवके श्रेष्ठ पार्षदोंने उसे तत्काल शिवपुरीमें पहुँचा दिया। उसके सारे मल धुल गये थे। वह दिव्यरूपधारिणी दिव्यांगना हो गयी थी। उसके दिव्य अवयव उसकी शोभा बढ़ाते थे। मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण किये वह गौरांगी देवी शोभाशाली दिव्य आभूषणोंसे विभूषित थी।
शिवपुरीमें पहुँचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्रधारी महादेवजीको देखा। सभी मुख्य-मुख्य देवता उनकी सेवामें खड़े थे। गणेश, भृंगी, नन्दीश्वर तथा वीरभद्रेश्वर आदि उनकी सेवामें उत्तम भक्तिभावसे उपस्थित थे।
उनकी अंगकान्ति करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशित हो रही थी। कण्ठमें नील चिह्न शोभा पाता था। पाँच मुख और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र थे। मस्तकपर अर्द्धचन्द्राकार मुकुट शोभा देता था।
उन्होंने अपने वामांग भागमें गौरी देवीको बिठा रखा था, जो विद्युत्-पुंजके समान प्रकाशित थीं। गौरीपति महादेवजीकी कान्ति कपूरके समान गौर थी। उनका सारा शरीर श्वेत भस्मसे भासित था। शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहे थे।
इस प्रकार परम उज्ज्वल भगवान् शंकरका दर्शन करके वह ब्राह्मण- पत्नी चंचुला बहुत प्रसन्न हुई। अत्यन्त प्रीतियुक्त होकर उसने बड़ी उतावलीके साथ भगवान्को बारंबार प्रणाम किया।
फिर हाथ जोड़कर वह बड़े प्रेम, आनन्द और संतोषसे युक्त हो विनीतभावसे खड़ी हो गयी। उसके नेत्रोंसे आनन्दाश्रुओंकी अविरल धारा बहने लगी तथा सम्पूर्ण शरीरमें रोमांच हो गया। उस समय भगवती पार्वती और भगवान् शंकरने उसे बड़ी करुणाके साथ अपने पास बुलाया और सौम्य दृष्टिसे उसकी ओर देखा।
पार्वतीजीने तो दिव्यरूपधारिणी बिन्दुगप्रिया चंचुलाको प्रेमपूर्वक अपनी सखी बना लिया। वह उस परमानन्दघन ज्योतिःस्वरूप सनातनधाममें अविचल निवास पाकर दिव्य सौख्यसे सम्पन्न हो अक्षय सुखका अनुभव करने लगी।
(अध्याय ४)