(कोटिरुद्रसंहिता)
Shiv puran kotirudra samhita chapter 42(शिव पुराण कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 42 शिव, विष्णु, रुद्र और ब्रह्माके स्वरूपका विवेचन)
:-ऋषियोंने पूछा-शिव कौन हैं? विष्णु कौन हैं ? रुद्र कौन हैं और ब्रह्मा कौन हैं? इन सबमें निर्गुण कौन है? हमारे इस संदेहका आप निवारण कीजिये।
सूतजीने कहा-महर्षियो ! वेद और वेदान्तके विद्वान् ऐसा मानते हैं कि निर्गुण परमात्मासे सर्वप्रथम जो सगुणरूप प्रकट हुआ, उसीका नाम शिव है। शिवसे पुरुष-सहित प्रकृति उत्पन्न हुई। उन दोनोंने मूल-स्थानमें स्थित जलके भीतर तप किया।
वह स्थान पंचक्रोशी काशीके नामसे विख्यात है, जो भगवान् शिवको अत्यन्त प्रिय है।यह जल सम्पूर्ण विश्वमें व्याप्त था। उस जलका आश्रय ले योगमायासे युक्त श्रीहरि वहाँ सोये। नार अर्थात् जलको अयन (निवासस्थान) बनानेके कारण फिर ‘नारायण’ नामसे प्रसिद्ध हुए और प्रकृति ‘नारायणी’ कहलायी।
नारायणके नाभि-कमलसे जिनकी उत्पत्ति हुई, वे ब्रह्मा कहलाते हैं। ब्रह्माने तपस्या करके जिनका साक्षात्कार किया, उन्हें विष्णु कहा गया है। ब्रह्मा और विष्णुके विवादको शान्त करनेके लिये निर्गुण शिवने जो रूप प्रकट किया, उसका नाम ‘महादेव’ है। उन्होंने कहा- ‘मैं शम्भु ब्रह्माजीके ललाटसे प्रकट होऊँगा’ इस कथनके अनुसार समस्त लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये जो ब्रह्माजीके ललाटसे प्रकट हुए, उनका नाम रुद्र हुआ।
इस प्रकार – रूपरहित परमात्मा सबके चिन्तनका विषय बननेके लिये साकाररूपमें प्रकट हुए। वे ही साक्षात् भक्तवत्सल शिव हैं। तीनों गुणोंसे भिन्न शिवमें तथा गुणोंके धाम रुद्रमें उसी तरह वास्तविक भेद नहीं है, जैसे सुवर्ण और उसके आभूषणमें नहीं है। दोनोंके रूप और कर्म समान हैं। दोनों समानरूपसे भक्तोंको उत्तम गति प्रदान करनेवाले हैं। दोनों समानरूपसे सबके सेवनीय हैं तथा नाना प्रकारके लीला-विहार करनेवाले हैं।
भयानक पराक्रमी रुद्र सर्वथा शिवरूप ही हैं। वे भक्तोंके कार्यकी सिद्धिके निमित्त विष्णु और ब्रह्माकी सहायता करनेके लिये प्रकट हुए हैं। अन्य जो-जो देवता जिस क्रमसे प्रकट हुए हैं, उसी क्रमसे लयको प्राप्त होते हैं। परंतु रुद्रदेव उस तरह लीन नहीं होते। उनका साक्षात् शिवमें ही लय होता है। ये प्राकृत प्राणी रुद्रमें मिलकर ही लयको प्राप्त होते हैं। परंतु रुद्र इनमें मिलकर लयको नहीं प्राप्त होते। यह भगवती श्रुतिका उपदेश है। सब लोग रुद्रका भजन करते हैं, किंतु रुद्र किसीका भजन नहीं करते। वे भक्तवत्सल होनेके कारण कभी-कभी अपने-आप भक्तजनोंका चिन्तन कर लेते हैं। जो दूसरे देवताका भजन करते हैं, वे उसीमें लीन होते हैं; इसीलिये वे दीर्घकालके बाद रुद्रमें लीन होनेका अवसर पाते हैं। जो कोई रुद्रके भक्त हैं, वे तत्काल शिव हो जाते हैं; अतः उनके लिये दूसरेकी अपेक्षा नहीं रहती। यह सनातन श्रुतिका संदेश है।
द्विजो ! अज्ञान अनेक प्रकारका होता है, परंतु विज्ञानका एक ही स्वरूप है। वह अनेक प्रकारका नहीं होता। उसको समझनेका प्रकार मैं बताऊँगा, तुमलोग आदरपूर्वक सुनो। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ भी यहाँ देखा जाता है, वह सब शिवरूप ही है। उसमें नानात्वकी कल्पना मिथ्या है। सृष्टिके पूर्व भी शिवकी सत्ता बतायी गयी है, सृष्टिके मध्यमें भी शिव विराज रहे हैं, सृष्टिके अन्तमें भी शिव रहते हैं और जब सब कुछ शून्यतामें परिणत हो जाता है, उस समय भी शिवकी सत्ता रहती ही है। अतः मुनीश्वरो ! शिवको ही चतुर्गुण कहा गया है। वे ही शिव शक्तिमान् होनेके कारण ‘सगुण’ जाननेयोग्य हैं। इस प्रकार वे सगुण-निर्गुणके भेदसे दो प्रकारके हैं। जिन शिवने ही भगवान् विष्णुको सम्पूर्ण सनातन वेद, अनेक वर्ण, अनेक मात्रा तथा अपना ध्यान एवं पूजन दिये हैं, वे ही सम्पूर्ण विद्याओंके ईश्वर हैं-ऐसी सनातन श्रुति है।
अतएव शम्भुको ‘वेदोंका प्राकट्यकर्ता’ तथा ‘ वेदपति’ कहा गया है। वे ही सबपर अनुग्रह करनेवाले साक्षात् शंकर हैं। कर्ता, भर्ता, हर्ता, साक्षी तथा निर्गुण भी वे ही हैं। दूसरोंके लिये कालका मान है, परंतु कालस्वरूप रुद्रके लिये कालकी कोई गणना नहीं है; क्योंकि वे साक्षात् स्वयं महाकाल हैं और महाकाली उनके आश्रित हैं। । ब्राह्मण, रुद्र और कालीको एक-से ही बताते हैं। उन दोनोंने सत्य लीला करनेवाली अपनी इच्छासे ही सब कुछ प्राप्त किया है। शिवका कोई उत्पादक नहीं है। उनका कोई पालक और संहारक भी नहीं है। ये स्वयं सबके हेतु हैं।
एक होकर भी अनेकताको प्राप्त हो सकते हैं और अनेक होकर भी एकताको। एक ही बीज बाहर होकर वृक्ष और फल आदिके रूपमें परिणत होता हुआ पुनः बीजभावको प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार शिवरूपी महेश्वर स्वयं एकसे अनेक होनेमें हेतु हैं। यह उत्तम शिवज्ञान तत्त्वतः बताया गया है। ज्ञानवान् पुरुष ही इसको जानता है, दूसरा नहीं। मुनि बोले- सूतजी ! आप लक्षणसहित ज्ञानका वर्णन कीजिये, जिसको जानकर मनुष्य शिवभावको प्राप्त हो जाता है। सारा जगत् शिव कैसे है अथवा शिव ही सम्पूर्ण जगत् कैसे हैं?
ऋषियोंका यह प्रश्न सुनकर पौराणिक- शिरोमणि सूतजीने भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करके उनसे कहा।
(अध्याय ४२)