Shiv puran kotirudra samhita chapter 41(शिव पुराण  कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 41 मुक्ति और भक्तिके स्वरूपका विवेचन)

(कोटिरुद्रसंहिता)

Shiv puran kotirudra samhita chapter 41(शिव पुराण  कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 41 मुक्ति और भक्तिके स्वरूपका विवेचन)

:-ऋषियोंने पूछा – सूतजी ! आपने बारंबार मुक्तिका नाम लिया है। यहाँ मुक्ति मिलनेपर क्या होता है? मुक्तिमें जीवकी कैसी अवस्था होती है? यह हमें बताइये।

सूतजीने कहा- महर्षियो ! सुनो। मैं तुमसे संसारक्लेशका निवारण तथा परमानन्दका दान करनेवाली मुक्तिका स्वरूप बताता हूँ। मुक्ति चार प्रकारकी कही गयी है- सारूप्या, सालोक्या, सांनिध्या तथा चौथी सायुज्या। इस शिवरात्रि-व्रतसे सब प्रकारकी मुक्ति सुलभ हो जाती है।

 

जो ज्ञानरूप अविनाशी, साक्षी, ज्ञानगम्य और द्वैतरहित साक्षात् शिव हैं, वे ही यहाँ कैवल्यमोक्षके तथा धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गके भी दाता हैं। कैवल्या नामक जो पाँचवीं मुक्ति है, वह मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। मुनिवरो ! मैं उसका लक्षण बताता हूँ, सुनो। जिनसे यह समस्त जगत् उत्पन्न होता है, जिनके द्वारा इसका पालन होता है तथा अन्ततोगत्वा यह जिनमें लीन होता है, वे ही शिव हैं।

 

जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, वही शिवका रूप है। मुनीश्वरो ! वेदोंमें शिवके दो रूप बताये गये हैं- सकल और निष्कल। शिवतत्त्व सत्य, ज्ञान, अनन्त एवं सच्चिदानन्द नामसे प्रसिद्ध है। निर्गुण, उपाधिरहित, अविनाशी, शुद्ध एवं निरंजन (निर्मल) है। वह न लाल है न पीला; न सफेद है न नीला; न छोटा है न बड़ा और न मोटा है न महीन। जहाँसे मनसहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है, वह परब्रह्म परमात्मा ही शिव कहलाता है।

 

जैसे आकाश सर्वत्र व्यापक है, उसी प्रकार यह शिवतत्त्व भी सर्वव्यापी है। यह मायासे परे, सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित तथा मत्सरताशून्य परमात्मा है। यहाँ शिवज्ञानका उदय होनेसे निश्चय ही उसकी प्राप्ति होती है अथवा द्विजो ! सूक्ष्म बुद्धिके द्वारा शिवका ही भजन-ध्यान करनेसे सत्पुरुषों- को शिवपदकी प्राप्ति होती है*।

संसारमें ज्ञानकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, परंतु भगवान्‌का भजन अत्यन्त सुकर माना गया है। इसलिये संतशिरोमणि पुरुष मुक्तिके लिये भी शिवका भजन ही करते हैं। ज्ञानस्वरूप मोक्षदाता परमात्मा शिव भजनके ही अधीन हैं। भक्तिसे ही बहुत- से पुरुष सिद्धिलाभ करके प्रसन्नतापूर्वक परम मोक्ष पा गये हैं। भगवान् शम्भुकी भक्ति ज्ञानकी जननी मानी गयी है जो सदा भोग और मोक्ष देनेवाली है। वह साधु महापुरुषोंके कृपाप्रसादसे सुलभ होती है। उत्तम प्रेमका अंकुर ही उसका लक्षण है। द्विजो ! वह भक्ति भी सगुण और निर्गुणके भेदसे दो प्रकारकी जाननी चाहिये। फिर वैधी और स्वाभाविकी – ये दो भेद और होते हैं। इनमें वैधीकी अपेक्षा स्वाभाविकी श्रेष्ठ मानी गयी है।

 

इनके सिवा नैष्ठिकी और अनैष्ठिकीके भेदसे भक्तिके दो प्रकार और बताये गये हैं। नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकारकी जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकारकी। फिर विहिता और अविहिताके भेदसे विद्वानोंने उसके अनेक प्रकार माने हैं। उनके बहुत- से भेद होनेके कारण यहाँ विस्तृत वर्णन नहीं किया जा रहा है। उन दोनों प्रकारकी भक्तियोंके श्रवण आदि भेदसे नौ अंग जानने चाहिये। भगवान्‌की कृपाके बिना इन भक्तियोंका सम्पादन होना कठिन है और उनकी कृपासे सुगमतापूर्वक इनका साधन होता है। द्विजो ! भक्ति और ज्ञानको शम्भुने एक-दूसरेसे भिन्न नहीं बताया है। इसलिये उनमें भेद नहीं करना चाहिये।

 

ज्ञान और भक्ति दोनोंके ही साधकको सदा सुख मिलता है। ब्राह्मणो ! जो भक्तिका विरोधी है, उसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती। भगवान् शिवकी भक्ति करनेवालेको ही शीघ्रता- पूर्वक ज्ञान प्राप्त होता है। अतः मुनीश्वरो ! महेश्वरकी भक्तिका साधन करना आवश्यक है। उसीसे सबकी सिद्धि होगी, इसमें संशय नहीं है। महर्षियो ! तुमने जो कुछ पूछा था, उसीका मैंने वर्णन किया है। इस प्रसंगको सुनकर मनुष्य सब पापोंसे निस्संदेह मुक्त हो जाता है।

(अध्याय ४१)

Leave a Comment

error: Content is protected !!