(Shiv puran kotirudra samhita chapter 18 (शिव पुराण  कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 18  विन्ध्यकी तपस्या, ओंकारमें परमेश्वरलिंगके प्रादुर्भाव और उसकी महिमाका वर्णन)

(कोटिरुद्रसंहिता)

(Shiv puran kotirudra samhita chapter 18 (शिव पुराण  कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 18  विन्ध्यकी तपस्या, ओंकारमें परमेश्वरलिंगके प्रादुर्भाव और उसकी महिमाका वर्णन)

ऋषियोंने कहा- महाभाग सूतजी ! आपने अपने भक्तकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामक शिवलिंगकी बड़ी अद्भुत कथा सुनायी है। अब कृपा करके चौथे ज्योतिर्लिंगका परिचय दीजिये – ओंकार- तीर्थमें सर्वपातकहारी परमेश्वरका जो ज्योतिर्लिंग है, उसके आविर्भावकी कथा सुनाइये।

सूतजी बोले-महर्षियो ! ओंकारतीर्थमें परमेशसंज्ञक ज्योतिर्लिंग जिस प्रकार प्रकट हुआ, वह बताता हूँ; प्रेमसे सुनो। एक समयकी बात है, भगवान् नारद मुनि गोकर्ण नामक शिवके समीप जा बड़ी भक्तिके साथ उनकी सेवा करने लगे। कुछ कालके बाद वे मुनिश्रेष्ठ वहाँसे गिरिराज विन्ध्यपर आये और विन्ध्यने वहाँ बड़े आदरके साथ उनका पूजन किया। मेरे यहाँ सब कुछ है, कभी किसी बातकी कमी नहीं होती है, इस भावको मनमें लेकर विन्ध्याचल नारदजीके सामने खड़ा हो गया।

 

उसकी वह अभिमानभरी बात सुनकर अहंकारनाशक नारद मुनि लंबी साँस खींचकर चुपचाप खड़े रह गये। यह देख विन्ध्य पर्वतने पूछा- ‘आपने मेरे यहाँ कौन-सी कमी देखी है? आपके इस तरह लंबी साँस खींचनेका क्या कारण है?’

 

नारदजीने कहा-भैया ! तुम्हारे यहाँ सब कुछ है। फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उसके शिखरोंका विभाग देवताओंके लोकोंमें भी पहुँचा हुआ है। किंतु तुम्हारे शिखरका भाग वहाँ कभी नहीं पहुँच सका है।

सूतजी कहते हैं-ऐसा कहकर नारदजी वहाँसे जिस तरह आये थे, उसी तरह चल दिये। परंतु विन्ध्य पर्वत ‘मेरे जीवन आदिको धिक्कार है’ ऐसा सोचता हुआ मन-ही-मन संतप्त हो उठा। अच्छा, ‘अब मैं विश्वनाथ भगवान् शम्भुकी आराधनापूर्वक तपस्या करूँगा’ ऐसा हार्दिक निश्चय करके वह भगवान् शंकरकी शरणमें गया। तदनन्तर जहाँ साक्षात् ओंकारकी स्थिति है, वहाँ प्रसन्नतापूर्वक जाकर उसने शिवकी पार्थिवमूर्ति बनायी और छः मासतक निरन्तर शम्भुकी आराधना करके शिवके ध्यानमें तत्पर हो वह अपनी तपस्याके स्थानसे हिलातक नहीं।

 

विन्ध्याचलकी ऐसी तपस्या देखकर पार्वतीपति प्रसन्न हो गये। उन्होंने विन्ध्याचलको अपना वह स्वरूप दिखाया, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। वे प्रसन्न हो उस समय उससे बोले – ‘विन्ध्य! तुम मनोवांछित वर मागो। मैं भक्तोंको अभीष्ट वर देनेवाला हूँ और तुम्हारी तपस्यासे प्रसन्न हूँ।’

विन्ध्य बोला- देवेश्वर शम्भो ! आप सदा ही भक्तवत्सल हैं। यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे वह अभीष्ट बुद्धि प्रदान कीजिये, जो अपने कार्यको सिद्ध करनेवाली हो। भगवान् शम्भुने उसे वह उत्तम वर दे दिया और कहा – ‘पर्वतराज विन्ध्य ! तुम जैसा चाहो, वैसा करो।’ इसी समय देवता तथा निर्मल अन्तःकरणवाले ऋषि वहाँ आये और शंकरजीकी पूजा करके बोले- ‘प्रभो! आप यहाँ स्थिररूपसे निवास करें।’

देवताओंकी यह बात सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और लोकोंको सुख देनेके लिये उन्होंने सहर्ष वैसा ही किया। वहाँ जो एक ही ओंकारलिंग था, वह दो स्वरूपोंमें विभक्त हो गया। प्रणवमें जो सदाशिव थे, वे ओंकार नामसे विख्यात हुए और पार्थिवमूर्तिमें जो शिवज्योति प्रतिष्ठित हुई, उसकी परमेश्वर संज्ञा हुई (परमेश्वरको ही अमलेश्वर भी कहते हैं)। इस प्रकार ओंकार और परमेश्वर – ये दोनों शिवलिंग भक्तोंको अभीष्ट फल प्रदान करनेवाले हैं।

 

उस समय देवताओं और ऋषियोंने उन दोनों लिंगोंकी पूजा की और भगवान् वृषभध्वजको संतुष्ट करके अनेक वर प्राप्त किये। तत्पश्चात् देवता अपने-अपने स्थानको गये और विन्ध्याचल भी अधिक प्रसन्नताका अनुभव करने लगा। उसने अपने अभीष्ट कार्यको सिद्ध किया और मानसिक परितापको त्याग दिया।

 

जो पुरुष इस प्रकार भगवान् शंकरका पूजन करता है, वह माताके गर्भमें फिर नहीं आता और अपने अभीष्ट फलको प्राप्त कर लेता है- इसमें संशय नहीं।सूतजी कहते हैं-महर्षियो !

 

ओंकारमें जो ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ और उसकी आराधनासे जो फल मिलता है, वह सब यहाँ तुम्हें बता दिया। इसके बाद मैं उत्तम केदार नामक ज्योतिर्लिंगका वर्णन करूँगा।

(अध्याय १८)

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