(Shiv puran kotirudra samhita chapter 17 (शिव पुराण  कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 17 महाकालके माहात्म्यके प्रसंगमें शिवभक्त राजा चन्द्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकरकी कथा)

(कोटिरुद्रसंहिता)

(Shiv puran kotirudra samhita chapter 17 (शिव पुराण  कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 17 महाकालके माहात्म्यके प्रसंगमें शिवभक्त राजा चन्द्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकरकी कथा)

:-सूतजी कहते हैं-ब्राह्मणो ! भक्तोंकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योति- लिंगका माहात्म्य भक्तिभावको बढ़ानेवाला है। उसे आदरपूर्वक सुनो। उज्जयिनीमें चन्द्रसेन नामक एक महान् राजा थे, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ, शिवभक्त और जितेन्द्रिय थे।

 

शिवके पार्षदोंमें प्रधान तथा सर्वलोकवन्दित मणिभद्रजी राजा चन्द्रसेनके सखा हो गये थे। एक समय उन्होंने राजापर प्रसन्न होकर उन्हें चिन्तामणि नामक महामणि प्रदान की, जो कौस्तुभ- मणि तथा सूर्यके समान देदीप्यमान थी। वह देखने, सुनने अथवा ध्यान करनेपर भी मनुष्योंको निश्चय ही मंगल प्रदान करती थी।

 

भगवान् शिवके आश्रित रहनेवाले राजा चन्द्रसेन उस चिन्तामणिको कण्ठमें धारण करके जब सिंहासनपर बैठते, तब देवताओंमें सूर्यनारायणकी भाँति उनकी शोभा होती थी। नृपश्रेष्ठ चन्द्रसेनके कण्ठमें चिन्तामणि शोभा देती है, यह सुनकर समस्त राजाओंके मनमें उस मणिके प्रति लोभकी मात्रा बढ़ गयी और वे क्षुब्ध रहने लगे। तदनन्तर वे सब राजा चतुरंगिणी सेनाके साथ आकर युद्धमें चन्द्रसेनको जीतनेके लिये उद्यत हो गये।

 

वे सब परस्पर मिल गये थे और उसके साथ बहुत-से सैनिक थे। उन्होंने आपसमें संकेत और सलाह करके आक्रमण किया और उज्जयिनीके चारों द्वारोंको घेर लिया। अपनी पुरीको सम्पूर्ण राजाओंद्वारा घिरी हुई देख राजा चन्द्रसेन उन्हीं भगवान् महाकालेश्वरकी शरणमें गये और मनको संदेहरहित करके दृढ़ निश्चयके साथ उपवासपूर्वक दिन-रात अनन्यभावसे महाकालकी आराधना करने लगे।

उन्हीं दिनों उस श्रेष्ठ नगरमें कोई ग्वालिन रहती थी, जिसके एकमात्र पुत्र था। वह विधवा थी और उज्जयिनीमें बहुत दिनोंसे रहती थी। वह अपने पाँच वर्षके बालकको लिये हुए महाकालके मन्दिरमें गयी और उसने राजा चन्द्रसेनद्वारा की हुई महाकालकी पूजाका आदरपूर्वक दर्शन किया। राजाके शिवपूजनका वह आश्चर्यमय उत्सव देखकर उसने भगवान्‌को प्रणाम किया और फिर वह अपने निवासस्थानपर लौट आयी। ग्वालिनके उस बालकने भी वह सारी पूजा देखी थी। अतः घर आनेपर उसने कौतूहलवश शिवजीकी पूजा करनेका विचार किया।

एक सुन्दर पत्थर लाकर उसे अपने शिविरसे थोड़ी ही दूरपर दूसरे शिविरके एकान्त स्थानमें रख दिया और उसीको शिवलिंग माना। फिर उसने भक्तिपूर्वक कृत्रिम गन्ध, अलंकार, वस्त्र, धूप, दीप और अक्षत आदि द्रव्य जुटाकर उनके द्वारा पूजन करके मनःकल्पित दिव्य नैवेद्य भी अर्पित किया। सुन्दर-सुन्दर पत्तों और फूलोंसे बारंबार पूजन करके भाँति-भाँतिसे नृत्य किया और बारंबार भगवान्‌के चरणोंमें मस्तक झुकाया।

 

इसी समय ग्वालिनने भगवान् शिवमें आसक्तचित्त हुए अपने पुत्रको बड़े प्यारसे भोजनके लिये बुलाया। परंतु उसका मन तो भगवान् शिवकी पूजामें लगा हुआ था। अतः जब बारंबार बुलानेपर भी उस बालकको भोजन करनेकी इच्छा नहीं हुई, तब उसकी माँ स्वयं उसके पास गयी और उसे शिवके आगे आँख बंद करके ध्यान लगाये बैठा देख उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी। इतनेपर भी जब वह न उठा, तब उसने क्रोधमें आकर उसे खूब पीटा।

 

खींचने और मारने-पीटनेपर भी जब उसका पुत्र नहीं आया, तब उसने वह शिवलिंग उठाकर दूर फेंक दिया और उसपर चढ़ायी हुई सारी पूजा-सामग्री नष्ट कर दी। यह देख बालक ‘हाय-हाय’ करके रो उठा। रोषसे भरी हुई ग्वालिन अपने बेटेको डाँट-फटकारकर पुनः घरमें चली गयी। भगवान् शिवकी पूजाको माताके द्वारा नष्ट की गयी देख वह बालक ‘देव ! देव ! महादेव !’ की पुकार करते हुए सहसा मूच्छित होकर गिर पड़ा।

 

उसके नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा प्रवाहित होने लगी। दो घड़ी बाद जब उसे चेत हुआ, तब उसने आँखें खोलीं।आँख खुलनेपर उस शिशुने देखा, उसका वही शिविर भगवान् शिवके अनुग्रहसे तत्काल महाकालका सुन्दर मन्दिर बन गया, मणियोंके चमकीले खंभे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँकी भूमि स्फटिकमणिसे जड़ दी गयी थी।

 

तपाये हुए सोनेके बहुत- से विचित्र कलश उस शिवालयको सुशोभित करते थे। उसके विशाल द्वार, कपाट और प्रधान द्वार सुवर्णमय दिखायी देते थे। वहाँ बहुमूल्य नीलमणि तथा हीरेके बने हुए चबूतरे शोभा दे रहे थे। उस शिवालयके मध्यभागमें दयानिधान शंकरका रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित था। ग्वालिनके उस पुत्रने देखा, उस शिवलिंगपर उसकी अपनी ही चढ़ायी हुई पूजन-सामग्री सुसज्जित है।

 

यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया। उसे मन-ही-मन बड़ा आश्चर्य हुआ और वह परमानन्दके समुद्रमें निमग्न-सा हो गया। तदनन्तर भगवान् शिवकी स्तुति करके उसने बारंबार उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया और सूर्यास्त होनेके पश्चात् वह गोपबालक शिवालयसे बाहर निकला। बाहर आकर उसने अपने शिविरको देखा। वह इन्द्रभवनके समान शोभा पा रहा था।

 

वहाँ सब कुछ तत्काल सुवर्णमय होकर विचित्र एवं परम उज्ज्वल वैभवसे प्रकाशित होने लगा। फिर वह उस भवनके भीतर गया, जो सब प्रकारकी शोभाओंसे सम्पन्न था। उस भवनमें सर्वत्र मणि, रत्न और सुवर्ण ही जड़े गये थे। प्रदोषकालमें सानन्द भीतर प्रवेश करके बालकने देखा, उसकी माँ दिव्य लक्षणोंसे लक्षित हो एक सुन्दर पलंगपर सो रही है। रत्नमय अलंकारोंसे उसके सभी अंग उद्दीप्त हो रहे हैं और वह साक्षात् देवांगनाके समान दिखायी देती है। मुखसे विह्वल हुए उस बालकने अपनी माताको बड़े वेगसे उठाया।

 

वह भगवान् शिवकी कृपापात्र हो चुकी थी। ग्वालिनने उठकर देखा, सब कुछ अपूर्व-सा हो गया था। उसने महान् आनन्दमें निमग्न हो अपने बेटेको छातीसे लगा लिया। – पुत्रके मुखसे गिरिजापतिके कृपाप्रसादका वह सारा वृत्तान्त सुनकर ग्वालिनने राजाको – सूचना दी, जो निरन्तर भगवान् शिवके भजनमें लगे रहते थे। राजा अपना नियम पूरा करके रातमें सहसा वहाँ आये और ग्वालिनके पुत्रका वह प्रभाव, जो शंकरजीको संतुष्ट करनेवाला था, देखा।

 

मन्त्रियों और पुरोहितोंसहित राजा चन्द्रसेन वह सब कुछ देख परमानन्दके समुद्रमें डूब गये और नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बहाते तथा प्रसन्नतापूर्वक शिवके नामका कीर्तन करते हुए उन्होंने उस बालकको हृदयसे लगा लिया। ब्राह्मणो ! उस समय वहाँ बड़ा भारी उत्सव होने लगा। सब लोग आनन्दविभोर होकर – महेश्वरके नाम और यशका कीर्तन करने लगे। इस प्रकार शिवका यह अद्भुत माहात्म्य – देखनेसे पुरवासियोंको बड़ा हर्ष हुआ और – इसीकी चर्चामें वह सारी रात एक क्षणके – समान व्यतीत हो गयी।

युद्धके लिये नगरको चारों ओरसे घेरकर खड़े हुए राजाओंने भी प्रातःकाल अपने गुप्तचरोंके मुखसे वह सारा अद्भुत चरित्र सुना। उसे सुनकर सब आश्चर्यसे चकित हो गये और वहाँ आये हुए सब नरेश एकत्र हो आपसमें इस प्रकार बोले- ‘ये राजा चन्द्रसेन बड़े भारी शिवभक्त हैं; अतएव इनपर विजय पाना कठिन है। ये सर्वथा निर्भय होकर महाकालकी नगरी उज्जयिनीका पालन करते हैं।

 

जिसकी पुरीके बालक भी ऐसे शिवभक्त हैं, वे राजा चन्द्रसेन तो महान् शिवभक्त हैं ही। इनके साथ विरोध करनेसे निश्चय ही भगवान् शिव क्रोध करेंगे और उनके क्रोधसे हम सब लोग नष्ट हो जायँगे। अतः इन नरेशके साथ हमें मेल- मिलाप ही कर लेना चाहिये। ऐसा होनेपर महेश्वर हमपर बड़ी कृपा करेंगे।’

सूतजी कहते हैं-ब्राह्मणो ! ऐसा निश्चय करके शुद्ध हृदयवाले उन सब भूपालोंने हथियार डाल दिये। उनके मनसे वैरभाव निकल गया। वे सभी राजा अत्यन्त प्रसन्न हो चन्द्रसेनकी अनुमति ले महाकालकी उस रमणीय नगरीके भीतर गये। वहाँ उन्होंने महाकालका पूजन किया। फिर वे सब- के-सब उस ग्वालिनके महान् अभ्युदयपूर्ण दिव्य सौभाग्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उनके घरपर गये।

 

वहाँ राजा चन्द्रसेनने आगे बढ़कर उनका स्वागत-सत्कार किया। वे बहुमूल्य आसनोंपर बैठे और आश्चर्यचकित एवं आनन्दित हुए। गोपबालकके ऊपर कृपा करनेके लिये स्वतः प्रकट हुए शिवालय और शिवलिंगका दर्शन करके उन सब राजाओंने अपनी उत्तम बुद्धि भगवान् शिवके चिन्तनमें लगायी। तदनन्तर उन सारे नरेशोंने भगवान् शिवकी कृपा प्राप्त करनेके लिये उस गोपशिशुको बहुत-सी वस्तुएँ प्रसन्नतापूर्वक भेंट कीं। सम्पूर्ण जनपदोंमें जो बहुसंख्यक गोप रहते थे, उन सबका राजा उन्होंने उसी बालकको बना दिया।

इसी समय समस्त देवताओंसे पूजित परम तेजस्वी वानरराज हनुमान्‌जी वहाँ प्रकट हुए। उनके आते ही सब राजा बड़े वेगसे उठकर खड़े हो गये। उन सबने भक्तिभावसे विनम्र होकर उन्हें मस्तक झुकाया। राजाओंसे पूजित हो वानरराज हनुमान्जी उन सबके बीचमें बैठे और उस गोपबालकको हृदयसे लगाकर उन नरेशोंकी ओर देखते हुए बोले- ‘राजाओ ! तुम सब लोग तथा दूसरे देहधारी भी मेरी बात सुनें। इससे तुम लोगोंका भला होगा। भगवान् शिवके सिवा देहधारियोंके लिये दूसरी कोई गति नहीं है।

 

यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि इस गोपबालकने शिवकी पूजाका दर्शन करके उससे प्रेरणा ली और बिना मन्त्रके भी शिवका पूजन करके उन्हें पा लिया। गोपवंशकी कीर्ति बढ़ानेवाला यह बालक भगवान् शंकरका श्रेष्ठ भक्त है। इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करके अन्तमें यह मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इसकी वंशपरम्पराके अन्तर्गत आठवीं पीढ़ीमें महायशस्वी नन्द उत्पन्न होंगे, जिनके यहाँ साक्षात् भगवान् नारायण उनके पुत्ररूपसे प्रकट हो श्रीकृष्ण नामसे प्रसिद्ध होंगे। आजसे यह गोपकुमार इस जगत्‌में श्रीकरके नामसे विशेष ख्याति प्राप्त करेगा।’

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! ऐसा कहकर अंजनीनन्दन शिवस्वरूप वानरराज हनुमान्जीने समस्त राजाओं तथा महाराज चन्द्रसेनको भी कृपादृष्टिसे देखा। तदनन्तर उन्होंने उस बुद्धिमान् गोपबालक श्रीकरको बड़ी प्रसन्नताके साथ शिवोपासनाके उस आचार- व्यवहारका उपदेश दिया, जो भगवान् शिवको बहुत प्रिय है। इसके बाद परम प्रसन्न हुए हनुमान्जी चन्द्रसेन और श्रीकरसे बिदा ले उन सब राजाओंके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। वे सब राजा हर्षमें भरकर सम्मानित हो महाराज चन्द्रसेनकी आज्ञा ले जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये।

 

महातेजस्वी श्रीकर भी हनुमान्जीका उपदेश पाकर धर्मज्ञ ब्राह्मणोंके साथ शंकरजीकी उपासना करने लगा। महाराज चन्द्रसेन और गोपबालक श्रीकर दोनों ही बड़ी प्रसन्नताके साथ महाकालकी सेवा करते थे। उन्हींकी आराधना करके उन दोनोंने परम पद प्राप्त कर लिया। इस प्रकार महाकाल नामक शिवलिंग सत्पुरुषोंका आश्रय है। भक्तवत्सल शंकर दुष्ट पुरुषोंका सर्वथा हनन करनेवाले हैं। यह परम पवित्र रहस्यमय आख्यान कहा गया है, जो सब प्रकारका सुख देनेवाला है। यह शिवभक्तिको बढ़ाने तथा स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है।

(अध्याय १७)

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