(कैलाससंहिता)
Shiv puran kailash samhita chapter 20 or 21 (शिवपुराण कैलाससंहिता संहिता अध्याय 20 और 21 यतिके अन्त्येष्टिकर्मकी दशाहपर्यन्त विधिका वर्णन)
:-वामदेवजी बोले-जो मुक्त यति हैं, उनके शरीरका दाहकर्म नहीं होता। मरनेपर उनके शरीरको गाड़ दिया जाता है, यह मैंने सुना है। मेरे गुरु कार्तिकेय ! आप प्रसन्नतापूर्वक यतियोंके उस अन्त्येष्टिकर्मका मुझसे वर्णन कीजिये; क्योंकि तीनों लोकोंमें आपके सिवा दूसरा कोई इस विषयका वर्णन करनेवाला नहीं है। भगवन्! शंकरनन्दन ! जो पूर्ण परब्रह्ममें अहंभावका आश्रय ले देहपंजरसे मुक्त हो गये हैं तथा जो उपासनाके मार्गसे शरीरबन्धनसे मुक्त हो परमात्माको प्राप्त हुए हैं, उनकी गतिमें क्या अन्तर है- यह बताइये। प्रभो! मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये अच्छी तरह विचार करके प्रसन्नतापूर्वक मुझसे इस विषयका वर्णन कीजिये।
स्कन्दने कहा- जो कोई यति समाधिस्थ हो शिवके चिन्तनपूर्वक अपने शरीरका परित्याग करता है, वह यदि महान् धीर हो तो परिपूर्ण शिवरूप हो जाता है; किंतु यदि कोई अधीरचित्त होनेके कारण समाधिलाभ नहीं कर पाता तो उसके लिये उपाय बताता हूँ; सावधान होकर सुनो। वेदान्त-शास्त्रके वाक्योंसे जो ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय-इन तीन पदार्थोका परिज्ञान होता है, उसे गुरुके मुखसे सुनकर यति यम-नियमादिरूप योगका अभ्यास करे। उसे करते हुए वह भलीभाँति शिवके ध्यानमें तत्पर रहे। मुने ! उसे नित्य नियमपूर्वक प्रणवके जप और अर्थचिन्तनमें मनको लगाये रखना चाहिये।
मुने ! यदि देहकी दुर्बलताके कारण धीरता धारण करनेमें असमर्थ यति निष्कामभावसे शिवका स्मरण करके अपने जीर्ण शरीरको त्याग दे तो भगवान् सदाशिवके अनुग्रहसे नन्दीके भेजे हुए विख्यात पाँच आतिवाहिक देवता आते हैं। उनमेंसे कोई तो अग्निका अभिमानी, कोई ज्योतिःपुंजस्वरूप, कोई दिनाभिमानी, कोई शुक्लपक्षाभिमानी और कोई उत्तरायणका अभिमानी होता है। ये पाँचों सब प्राणियोंपर अनुग्रह करनेमें तत्पर रहते हैं। इसी तरह धूमाभिमानी, तमका अभिमानी, रात्रिका अभिमानी, कृष्णपक्षका अभिमानी और दक्षिणायनका अभिमानी – ये सब मिलकर पाँच होते हैं। ये पाँचों विख्यात देवता दक्षिण मार्गमें प्रसिद्ध हैं। महामुने वामदेव ! अब तुम उन सब देवताओंकी वृत्तिका वर्णन सुनो।
कर्मके अनुष्ठानमें लगे हुए जीवोंको साथ ले वे पाँचों देवता उनके पुण्यवश स्वर्गलोकको जाते हैं और वहाँ यथोक्त भोगोंका उपभोग करके वे जीव पुण्य क्षीण होनेपर पुनः मनुष्यलोकमें आते तथा पूर्ववत् जन्म ग्रहण करते हैं। इनके सिवा जो उत्तर मार्गके पाँच देवता हैं, वे भूतलसे लेकर ऊर्ध्वलोकतकके मार्गको पाँच भागोंमें विभक्त करके यतिको साथ ले क्रमशः अग्नि आदिके मार्गमें होते हुए उसे सदाशिवके धाममें पहुँचाते हैं। वहाँ देवाधिदेव महादेवके चरणोंमें प्रणाम करके लोकानुग्रहके कर्ममें ही लगाये गये वे अनुग्रहाकार देवता उन सदाशिवके पीछे खड़े हो जाते हैं। यतिको आया देख देवाधिदेव सदाशिव यदि वह विरक्त हो तो उसे महामन्त्रके तात्पर्यका उपदेश दे गणपतिके पदपर अभिषिक्त करके अपने ही समान शरीर देते हैं।
इस प्रकार सर्वेश्वर सर्वनियन्ता भगवान् शंकर उसपर अनुग्रह करते हैं। उसे अनुगृहीत करके निश्चल समाधि देते हैं। अपने प्रति दास्यभावकी फलस्वरूपा तथा सूर्य आदिके कार्य करनेकी शक्तिरूपा ऐसी सिद्धियाँ प्रदान करते हैं, जो कहीं अवरुद्ध नहीं होतीं। साथ ही वे जगद्गुरु शंकर उस यतिको वह परम मुक्ति देते हैं, जो ब्रह्माजीकी आयु समाप्त होनेपर भी पुनरावृत्तिके चक्करसे दूर रहती है।
अतः यही समष्टिमान् सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे युक्त पद है और यही मोक्षका राजमार्ग है, ऐसा वेदान्तशास्त्रका निश्चय है। जिस समय यति मरणासन्न हो शरीरसे शिथिल हो जाय, उस समय उस श्रेष्ठ सम्प्रदायवाले दूसरे यति अनुकूलताकी भावना ले उसके चारों ओर खड़े हो जायें। वे सब वहाँ क्रमशः प्रणव आदि वाक्योंका उपदेश दे उनके तात्पर्यका सावधानी और प्रसन्नताके साथ सुस्पष्ट वर्णन करें तथा जबतक उसके प्राणोंका लय न हो जाय तबतक निर्गुण परमज्योतिःस्वरूप सदाशिवका उसे निरन्तर स्मरण कराते रहें। सब यतियोंका यहाँ समानरूपसे संस्कार-क्रम बताया जाता है। संन्यासी सब कर्मोंका त्याग करके भगवान् शिवका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं।
इसलिये उनके शरीरका दाहसंस्कार नहीं होता और उसके न होनेसे उनकी दुर्गति नहीं होती। संन्यासीके शरीरको दूषित करनेवाले राजाका राज्य नष्ट हो जाता है। उसके गाँवोंमें रहनेवाले लोग अत्यन्त दुःखी हो जाते हैं। इसलिये उस दोषका परिहार करनेके लिये शान्तिका विधान बताया जाता है। उस समय ‘नम इरिण्याय’ से लेकर ‘नम अमीवकेभ्यः’ तकके मन्त्रका विनीतचित्त होकर जप करे। फिर अन्तमें ओंकारका जप करते हुए मिट्टीसे देवयजनकी * पूर्ति करे। मुनीश्वर ! ऐसा करनेसे उस दोषकी शान्ति हो जाती है।
(अब संन्यासीके शवके संस्कारकी विधि बताते हैं।) पुत्र या शिष्य आदिको चाहिये कि यतिके शरीरका यथोचित रीतिसे उत्तम संस्कार करे। ब्रह्मन् ! मैं – कृपापूर्वक संस्कारकी विधि बता रहा हूँ, बाहर ले जाय।
सावधान होकर सुनो। पहले यतिके शरीरको शुद्ध जलसे नहलाकर पुष्प आदिसे उसकी – पूजा करे। पूजनके समय श्रीरुद्रसम्बन्धी – चमकाध्याय और नमकाध्यायका पाठ – करके रुद्रसूक्तका उच्चारण करे। उसके – आगे शंखकी स्थापना करके शंखस्थ जलसे यतिके शरीरका अभिषेक करे। सिरपर पुष्प रखकर प्रणवद्वारा उसका मार्जन करे। पहलेके कौपीन आदिको हटाकर दूसरे – नवीन कौपीन आदि धारण कराये। फिर – विधिपूर्वक उसके सारे अंगोंमें भस्म लगाये।
विधिवत् त्रिपुण्ड्र लगाकर चन्दनद्वारा तिलक – करे। फिर फूलों और मालाओंसे उसके – शरीरको अलंकृत करे। छाती, कण्ठ, मस्तक, – बाँह, कलाई और कानोंमें क्रमशः रुद्राक्षकी – मालाके आभूषण मन्त्रोच्चारणपूर्वक धारण कराकर उन सब अंगोंको सुशोभित करे। फिर धूप देकर उस शरीरको उठाये और विमानके ऊपर रखकर ईशानादि पंचब्रह्ममय – रमणीय रथपर स्थापित करे।
आदिमें ओंकारसे – युक्त पाँच सद्योजातादि ब्रह्ममन्त्रोंका उच्चारण – करके सुगन्धित पुष्पों और मालाओंसे उस रथको सुसज्जित करे। फिर नृत्य, वाद्य तथा ब्राह्मणोंके वेदमन्त्रोच्चारणकी ध्वनिके साथ ग्रामकी प्रदक्षिणा करते हुए उस प्रेतको तदनन्तर साथ गये हुए वे सब यति गाँवके पूर्व या उत्तरदिशामें पवित्र स्थानमें किसी पवित्र वृक्षके निकट देवयजन (गड्ढा) खोदें। उसकी लम्बाई संन्यासीके दण्डके बराबर ही होनी चाहिये।
फिर प्रणव तथा व्याहृति-मन्त्रोंसे उस स्थानका प्रोक्षण करके वहाँ क्रमशः शमीके पत्र और फूल बिछाये। उनके ऊपर उत्तराग्र कुश बिछाकर उसपर योगपीठ रखे। उसके ऊपर पहले कुश बिछाये, कुशोंके ऊपर मृगचर्म तथा उसके भी ऊपर वस्त्र बिछाकर प्रणवसहित सद्योजातादि पंचब्रह्ममन्त्रोंका पाठ करते हुए पंचगव्योंद्वारा उस शवका प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् रुद्रसूक्त एवं प्रणवका उच्चारण करते हुए शंखके जलसे उसका अभिषेक करके उसके मस्तकपर फूल डाले। शिष्य आदि संस्कारकर्ता पुरुष वहाँ गये हुए मृत यतिके अनुकूल भाव रखते हुए शिवका चिन्तन करता रहे। तदनन्तर ॐकारका उच्चारण और स्वस्तिवाचन करके उस शवको उठाकर गड्ढेके भीतर योगासनपर इस तरह बिठाये जिससे उसका मुख पूर्व- दिशाकी ओर रहे।
फिर चन्दन-पुष्पसे अलंकृत करके उसे धूप और गुग्गुलकी सुगन्ध दे। इसके बाद ‘विण्णा ! हव्यमिदं रक्षम्व’ ऐसा कहकर उसके दाहिने हाथमें दण्ड दे और ‘प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो०’ (शु० यजु० २३।६५) इस मन्त्रको पढ़कर बायें हाथमें जलसहित कमण्डलु अर्पित करे। फिर ‘ब्रह्म यज्ञानं प्रथमं०’ (शु० यजु० १३।३) इस मन्त्रसे उसके मस्तकका स्पर्श करके दोनों भौंहोंके स्पर्शपूर्वक रुद्रसूक्तका जप करे। तत्पश्चात् ‘मा नो महान्तमुत०’ (शु० यजु० १६। १५) इत्यादि चार मन्त्रोंको पढ़कर नारियलके द्वारा यतिके शवके मस्तकका भेदन करे।
इसके बाद उस गड्ढेको पाट दे। फिर उस स्थानका स्पर्श करके अनन्यचित्तसे पाँच ब्रह्ममन्त्रोंका जप करे। तदनन्तर ‘यो देवानां प्रथम पुरस्तात् ‘ (१०। ३) से लेकर ‘तस्य प्रकृतिलीनस्या यः परः स महेश्वरः।’ (१०। ८) तक महानारायणोपनिषद्के मन्त्रोंका जप करके संसाररूपी रोगके भेषज, सर्वज्ञ, स्वतन्त्र तथा सबपर अनुग्रह करनेवाले उमासहित महादेवजीका चिन्तन एवं पूजन करे।
(पूजनकी विधि यों है-)एक हाथ ऊँचे और दो हाथ लंबे-चौड़े एक पीठका मिट्टीके द्वारा निर्माण करे। फिर उसे गोबरसे लीपे। वह पीठ चौकोर होना चाहिये। उसके मध्यभागमें उमा- महेश्वरको स्थापित करके गन्ध, अक्षत, सुगन्धित पुष्प, बिल्वपत्र और तुलसीदलोंसे उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् प्रणवसे धूप और दीप निवेदन करे। फिर दूध और हविष्यका नैवेद्य लगाकर पाँच बार परिक्रमा करके नमस्कार करे। फिर बारह बार प्रणवका जप करके प्रणाम करे।
तदनन्तर (ब्रह्मीभृत यतिकी तृप्तिके लिये नारायणपूजन, बलिदान, घृतदीपदानका संकल्प करके गर्तके ऊपर मृण्मय लिंग बनाकर पुरुषसूक्तसे पूजा करके घृतमिश्रित पायसकी बलि दे। घीका दीप जला पायसबलिको जलमें डाल दे) तत्पश्चात् दिशा-विदिशाओंके क्रमसे प्रणवके उच्चारणपूर्वक ‘ॐ ब्रह्मणे नमः’ इस मन्त्रसे ब्रह्मीभूत यतिके लिये शंखसे आठ बार अर्घ्यजल दे। इस प्रकार दस दिनोंतक करता रहे। मुनिश्रेष्ठ ! यह दशाहतककी विधि तुम्हें बतायी गयी। अब यतियोंके एकादशाहकी विधि मुनो।
(अध्याय २०-२१)