(कैलाससंहिता)
Shiv puran kailash samhita chapter 17 to 19 (शिवपुराण कैलाससंहिता संहिता अध्याय 17 से 19 महावाक्योंके अर्थपर विचार तथा संन्यासियोंके योगपट्टका प्रकार)
:-स्कन्दजी कहते हैं-मुने अब महावाक्य प्रस्तुत किये जाते हैं- १-प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेय० ३।३ तथा आत्मप्र० १),
२-अहं ब्रह्मास्मि (बृहदारण्यक०१।४।१०), ३-तत्त्वमसि (छा० उ० ख० ८ से १६ तक),४-अयमात्मा ब्रह्म (माण्डुक्य० २: बृह० २।५। १९).
५-ईशा वास्यमिदं सर्वम् (ईशा० १),६-प्राणोऽस्मि (कौषी० ३), (कौपी० ३). ७-प्रज्ञानात्मा ८-यदवेह तदमुत्र तदन्विह (कट०२।१।१०) ९-अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि (केन० १।३),१०-एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृह० ३।७।३-२३),११-स यश्चायं पुरुषो यश्चासावादित्ये स
इस प्रकार सर्वत्र चिन्तन करे। अब इन महावाक्योंका भावार्थ कहते हैं- ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ का वाक्यार्थ पहले ही समझाया जा
एकः, (तैत्तिरीय० २।८). १२-अहमस्मि परं ब्रह्म परात्परम् ।१३-वेदशास्त्रगुरूणां तु स्वयमानन्दलक्षणम्। १४-सर्वभूतस्थितं ब्रह्म तदेवाहं न संशयः । १५-तत्त्वस्य प्राणोऽहमस्मि पृथिव्याः प्राणो ऽहमस्मि, १६-अपां च प्राणोऽहमस्मि तेजसश्च प्राणोऽहमस्मि, १७-वायोश्च प्राणोऽहमस्मि आकाशस्य प्राणो ऽहमस्मि, १८-त्रिगुणस्य प्राणोऽहमस्मि,
१९-सर्वोऽहं सर्वात्मको संसारी यद्भूतं यच्च भव्यं यद्वर्तमानं सर्वात्मकत्वा- दद्वितीयोऽहम्,
२०-सर्व खल्विदं ब्रह्य (छान्दोग्य० ३।१४।१). २१-सर्वोऽहं विमुक्तोऽहम् । २२-योऽसौ सोऽहं हंसः सोऽहमस्ति ।
चुका है। (अब ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का अर्थ बताया जाता है।) शक्तिस्वरूप अथवा शक्तियुक्त परमेश्वर ही ‘ अहम्’ पदके अर्थभूत हैं। ‘अकार’ सब वर्णोंका अग्रगण्य, परम प्रकाश शिवरूप है। ‘हकार’ व्योमस्वरूप होनेके कारण उसका शक्तिरूपसे वर्णन किया गया है। शिव और शक्तिके संयोगसे सदा आनन्द उदित होता है। ‘मकार’ उसी आनन्दका बोधक है। ‘ब्रह्म’ शब्दसे शिवशक्तिकी सर्वरूपता स्पष्ट ही सूचित होती है।
पहले ही इस बातका उपदेश किया गया है कि वह शक्तिमान् परमेश्वर मैं हूँ, ऐसी भावना करनी चाहिये। (अब तत्त्वमसिका अर्थ कहते हैं-) ‘ तत्त्वमसि’ इस वाक्यमें तत्पदका वही अर्थ है, जो ‘सोऽहमस्मि’ में ‘सः’ पदका अर्थ बताया गया है अर्थात् तत्पद शक्त्यात्मक परमेश्वरका ही वाचक है, अन्यथा ‘सोऽहम्’ इस वाक्यमें विपरीत अर्थकी भावना हो सकती है। क्योंकि ‘ अहम्’ पद पुँल्लिग है, अतः ‘सः’ के साथ उसका अन्वय हो जायगा; परंतु ‘तत्’ पद नपुंसक है और ‘त्वम्’ पुँल्लिग, अतः परस्परविरोधी लिंग होनेके कारण उन दोनोंमें अन्वय नहीं हो सकता। जब दोनोंका अर्थ ‘शक्तिमान् परमेश्वर’ होगा, तब अर्थमें समान लिंगता होनेसे अन्वयमें अनुपपत्ति नहीं होगी।
यदि ऐसा न माना जाय तो स्त्री- पुरुषरूप जगत्का कारण भी किसी और ही प्रकारका होगा। इसलिये ‘सोऽहमस्मि’ का ‘सः’ और ‘तत्त्वमसि’ का तत्- ये दोनों समानार्थक हैं। इन महावाक्योंके उपदेशसे एक ही अर्थकी भावनाका विधान है।
(अब ‘अयमात्मा ब्रह्म’ का अर्थ बताया जाता है-) ‘अयमात्मा ब्रह्म’ इस वाक्यमें ‘अयम्’ और ‘आत्मा’- ये दोनों पद पुँल्लिग- रूप हैं। अतः यहाँ अन्वयमें बाधा नहीं है। ‘अयम्’ शक्तिमान् परमेश्वररूप आत्मा ब्रह्म है-यह इस वाक्यका तात्पर्य है।
(अब ‘ईशा वास्यमिदं सर्वम्’ का भावार्थ बता रहे हैं-) परमेश्वरसे रक्षणीय होनेके कारण यह सम्पूर्ण जगत् उनसे व्याप्त है। (अब ‘प्राणोऽस्मि “प्रज्ञानात्मा’ और ‘यदेवेह तदमुत्र०’ इन वाक्योंके अर्थपर विचार किया जाता है-) मैं प्रज्ञानस्वरूप प्राण हूँ। यहाँ प्राण शब्द परमेश्वरका ही वाचक है। जो यहाँ है, वह वहाँ है-ऐसा चिन्तन करे। यहाँ ‘यत्, तत्’ का अर्थ क्रमशः ‘यः’ और ‘सः’ है अर्थात् जो परमात्मा यहाँ है, वह परमात्मा वहाँ है-ऐसा सिद्धान्तपक्षका अवलम्बन करनेवाले विद्वानोंने कहा है।
उपर्युक्त वाक्यमें ‘यदमुत्र तदन्विह’ इस वाक्यांशका भाव यह है कि ‘योऽमुत्र स इह स्थितः’ अर्थात् जो परमात्मा वहाँ परलोकमें स्थित है, वही यहाँ (इस लोकमें) भी स्थित है। इस प्रकार विद्वानोंको पहलेके समान ही परमपुरुष परमात्मारूप अर्थ यहाँ अभीष्ट है।
( अब’ अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि’ इस वाक्यपर विचार करते हैं-) मुने ! ‘अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि’ इस वाक्यमें जिस प्रकार फलकी भी विपरीतताकी भावना होती है, उसे यहाँ बताता हूँ; सुनो। ‘विदितात्’ यह पद ‘अयथाविदितात् ‘ के उन्हींका इन समस्त उत्कृष्ट गुणोंसे नित्य सम्बन्ध है। अपने और परायेके ‘भेदसतात्’ के अर्थमें प्रवृत्त हो सकता है। वह विदितसे भिन्न है अर्थात् जो असम्यग्रूपसे ज्ञात है, उससे भिन्न है। इसी प्रकार जो यथावत्रूपसे विदित नहीं है, उससे भी पृथक् है। इस कथनसे यह निश्चित होता है कि मुक्तिरूप फलकी सिद्धिके लिये कोई और ही तत्त्व है, जो विदिताविदितसे पर है।
परंतु जो आत्मा है, वह सर्वरूप है, वह किसीसे अन्य नहीं हो सकता। अतः आत्मा या ब्रह्म आदि पद पूर्ववत् शक्तिमान् परमेश्वर शिवके ही बोधक हैं, यह मानना चाहिये।
(अब ‘एप त आत्मा’ तथा ‘यश्चायं पुरुषे’ इन दो वाक्योंके अर्थपर विचार किया जाता है-) यह तुम्हारा अन्तर्यामी आत्मा है, जो स्वयं ही अमृतस्वरूप शिव है। यह जो पुरुषमें शम्भु है, वही सूर्यमें भी स्थित है। इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है। जो पुरुषमें है, वही आदित्यमें है। इन दोनोंमें पृथक्ता नहीं है। वह तत्त्व एक ही है। उसीको सर्वरूप कहा गया है। पुरुष और आदित्य –
इन दो उपाधियोंसे युक्त जो अर्थ किया जाता है, वह औपचारिक है। उन शम्भुनाथको सब श्रुतियाँ हिरण्यमय बताती हैं।’ हिरण्यवाहने नमः’ इसमें जो बाहु शब्द है, वह सब अंगोंका उपलक्षण है। अन्यथा उसे हिरण्यपति कहना किसी भी यत्नसे सम्भव नहीं होता। छान्दोग्योपनिषद्में जो यह श्रुति है- ‘य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्यमयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः । (छान्दोग्य० १।६।६) इसके द्वारा आदित्यमण्डलान्तर्गत पुरुषको सुवर्णमय दाढ़ी-मूँछोंवाला, सुवर्णसदृश केशोंवाला तथा नखसे लेकर केशाग्रभागपर्यन्त सारा- का-सारा सुवर्णमय – प्रकाशमय ही बताया गया है।
अतः वह हिरण्यमय पुरुष साक्षात् शम्भु ही हैं। अब ‘अहमस्मि परं ब्रह्म परापरपरात्परम्’ इस वाक्यका तात्पर्य बताता हूँ, सुनो। ‘अहम्’ पदके अर्थभूत सत्यात्मा शिव ही बताये गये हैं। वे ही शिव मैं हूँ, ऐसी वाक्यार्थयोजना अवश्य होती है। उन्हींको – सबसे उत्कृष्ट और सर्वस्वरूप परब्रह्म कहा गया है। उसके तीन भेद हैं- पर, अपर तथा परात्पर। रुद्र, ब्रह्मा और विष्णु – ये तीन देवता श्रुतिने ही बताये हैं। ये ही क्रमशः पर, अपर तथा परात्पररूप हैं। इन तीनोंसे भी जो श्रेष्ठ देवता हैं, वे शम्भु ‘परब्रह्म’ शब्दसे कहे गये हैं।
वेदों, शास्त्रों और गुरुके वचनोंके अभ्याससे शिष्यके हृदयमें स्वयं ही पूर्णानन्दमय शम्भुका प्रादुर्भाव होता है। सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें विराजमान शम्भु ब्रह्मरूप ही हैं। वही मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है। मैं शिव ही सम्पूर्ण तत्त्वसमुदायका प्राण हूँ।
ऐसा कहकर स्कन्दजी फिर कहते हैं- मुने ! मैं शिव आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व-इन तीनोंका प्राण हूँ। पृथिवी आदिका भी प्राण हूँ। पृथ्वी आदिके गुणोंतकका ग्रहण होनेसे यह समझ लो कि यहाँ सारे आत्मतत्त्व गृहीत हो गये। फिर सबका ग्रहण विद्यातत्त्व और शिवतत्त्वका भी ग्रहण कराता है। इन सब तत्त्वोंका मैं प्राण हूँ। मैं सर्व हूँ, सर्वात्मक हूँ, जीवका भी अन्तर्यामी होनेसे उसका भी जीव (आत्मा) हूँ। जो भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल है, वह सब मेरा स्वरूप होनेके कारण मैं ही हूँ। ‘सर्वो वै रुद्रः’ (सब कुछ रुद्र ही है) – यह श्रुति साक्षात् शिवके मुखसे प्रकट हुई है। अतः शिव ही सर्वरूप हैं; क्योंकि उन्हींका इन समस्त उत्कृष्ट गुणोंसे नित्य सम्बन्ध है। अपने और परायेके भेदसे रहित होनेके कारण मैं ही अद्वितीय आत्मा हूँ।
‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ इस वाक्यका अर्थ पहले बताया जा चुका है। मैं भावरूप होनेके कारण पूर्ण हूँ। नित्यमुक्त भी मैं ही हूँ। पशु (जीव) मेरी कृपासे मुक्त होकर मेरे स्वरूपको प्राप्त होते हैं। जो सर्वात्मक शम्भु हैं, वही मैं हूँ। मैं शिवरूप हूँ। वामदेव ! इस प्रकार सम्पूर्ण वाक्योंके अर्थ भगवान् शिव ही बताये गये हैं। ईशावास्योपनिषद्की श्रुतिके दो वाक्योंद्वारा प्रतिपादित अर्थ साक्षात् शिवकी एकताका ज्ञान प्रदान करनेवाला होता है। गुरुको चाहिये कि शिष्योंको इसका आदरपूर्वक उपदेश करे।
गुरुको उचित है कि वे आधारसहित शंखको लेकर अस्त्र-मन्त्र (फट्) से तथा भस्मद्वारा उसकी शुद्धि करके उसे अपने सामने चौकोर मण्डलमें स्थापित करे। फिर ओंकारका उच्चारण करके गन्ध आदिके द्वारा उस शंखकी पूजा करे। उसमें वस्त्र लपेट दे और सुगन्धित जल भरकर प्रणवका उच्चारण करते हुए उसका पूजन करे। तत्पश्चात् सात बार प्रणवके द्वारा फिर उस शंखको अभिमन्त्रित करके शिष्यसे कहे- ‘हे शिष्य ! जो थोड़ा-सा भी अन्तर करता है- भेदभाव रखता है, वह भयका भागी होता है।
यह श्रुतिका सिद्धान्त बताया गया, इसलिये तुम अपने चित्तको स्थिर करके निर्भय हो जाओ।’ जाओ।’ ऐसा कहकर गुरु स्वयं महादेवजीका ध्यान करते हुए उन्हींके रूपमें शिष्यका अर्चन करे। शिष्यके आसनकी पूजा करके उसमें शिवके आसन और शिवकी मूर्तिकी भावना करे। फिर सिरसे पैरतक ‘सद्योजातादि’ पाँच मन्त्रोंका न्यास करके मस्तक, मुख और कलाओंके भेदसे प्रणवकी कलाओंका भी न्यास करे। शिष्यके शरीरमें अड़तीस मन्त्ररूपा प्रणवकी कलाओंका न्यास करके उसके मस्तकपर शिवका आवाहन करे। तत्पश्चात् स्थापनी आदि मुद्राओंका प्रदर्शन करे।
फिर अंगन्यास करके आसनपूर्वक षोडश उपचारोंकी कल्पना करे। खीरका नैवेद्य अर्पण करके ‘ॐ स्वाहा’ का उच्चारण करे। कुल्ला और आचमन कराये। अर्घ्य आदि देकर क्रमशः धूप-दीपादि समर्पित करे। शिवके आठ नामोंसे पूजन करके वेदोंके पारंगत ब्राह्मणोंके साथ ‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्’ इत्यादि ब्रह्मानन्दवल्लीके मन्त्रोंको तथा ‘भृगुर्वे वार्राणः’ इत्यादि भृगुवल्लीके मन्त्रोंको पढ़े। तत्पश्चात् ‘यो देवानां प्रथमं पुरस्तात्’ – (१०।३) से लेकर ‘तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः ‘ (१०।८)
तक महानारायणोपनिषद्के मन्त्रोंका पाठ करे। इसके बाद शिष्यके सामने कह्वार आदिकी बनी हुई माला लेकर खड़े हो गुरु शिवनिर्मित पांचास्यिक शास्त्रके सिद्धिस्कन्दका धीरे-धीरे जप करे। अनुकूल चित्तसे ‘पूर्णोऽहम्’ इस मन्त्रतकका जप करके गुरु उस मालाको शिष्यके कण्ठमें पहना दे। तदनन्तर ललाटमें तिलक लगाकर सम्प्रदायके अनुसार उसके सर्वांगमें विधिवत्च न्दनका लेप कराये। तत्पश्चात् गुरु
प्रसन्नतापूर्वक श्रीपादयुक्त नाम देकर शिष्यको छत्र और चरणपादुका अर्पित करे। उसे व्याख्यान देने तथा आवश्यक कर्म आदिके लिये गुर्वासन ग्रहण करनेका अधिकार दे। फिर गुरु अपने उस शिवरूपी शिष्यपर अनुग्रह करके कहे-“तुम सदा समाधिस्थ रहकर ‘मैं शिव हूँ’ इस प्रकारकी भावना करते रहो।” यों कहकर वह स्वयं शिवको नमस्कार करे। फिर सम्प्रदायकी मर्यादाके अनुसार दूसरे लोग भी उसे नमस्कार करें।
उस समय शिष्य उठकर गुरुको नमस्कार करे। अपने गुरुके गुरुको और उनके शिष्योंको भी मस्तक झुकाये। इस प्रकार नमस्कार करके सुशील शिष्य जब मौन और विनीतभावसे गुरुके समीप खड़ा हो, तब गुरु स्वयं उसे इस प्रकारका उपदेश दे- ‘बेटा! आजसे तुम समस्त लोकोंपर अनुग्रह करते रहो। यदि कोई शिष्य होनेके लिये आये तो पहले उसकी परीक्षा कर लो, फिर शास्त्रविधिके अनुसार उसे शिष्य बनाओ। राग आदि दोषोंका त्याग करके निरन्तर शिवका चिन्तन करते रहो। श्रेष्ठ सम्प्रदायके सिद्ध पुरुषोंका संग करो, दूसरोंका नहीं।
प्राणोंपर संकट आ जाय तो भी शिवका पूजन किये बिना कभी भोजन न करो। गुरुभक्तिका आश्रय ले सुखी रहो, सुखी रहो।’ * मुनीश्वर वामदेव ! तुम्हारे स्नेहवश अत्यन्त गोपनीय होनेपर भी मैंने यह योगपट्टका प्रकार तुम्हें बताया है। ऐसा कहकर स्कन्दने यतियोंपर कृपा करके उनसे संन्यासियोंके क्षौर और स्नानविधिका वर्णन किया।
(अध्याय १७-१९)