(कैलाससंहिता)
Shiv puran kailash samhita chapter 15 or 16 (शिवपुराण कैलाससंहिता संहिता अध्याय 15 और 16 शैवदर्शनके अनुसार शिवतत्त्व, जगत्-प्रपंच और जीवतत्त्वके विषयमें विशद विवेचन तथा शिवसे जीव और जगत्की अभिन्नताका प्रतिपादन)
:-तदनन्तर उत्तम श्रेष्ठ पद्धतिका वर्णन करके सृष्टि, स्थिति और संहार-सबको शक्तिमान् शिवकी लीला बतलाते हुए वामदेवजीके पूछनेपर स्कन्दने कहा- मुने ! कर्मास्तितत्त्वसे लेकर जो विस्तृत शास्त्रवाद है अर्थात् कर्मसत्ताके प्रतिपादक कर्मफलवादसे आरम्भ करके शास्त्रोंमें जो विविध विषयोंका विशद विवेचन है, वह ज्ञान प्रदान करनेवाला है; अतः ज्ञानवान् पुरुषको विवेकपूर्वक इसका श्रवण करना चाहिये।
तुमने जिन शिष्योंको उपदेश दिया है, उनमेंसे कौन तुम्हारे समान है? वे अधम शिष्य आज भी अन्यान्य शास्त्रोंमें भटक रहे हैं। अनीश्वरवादी दर्शनोंके चक्करमें पड़कर मोहित हो रहे हैं। छः मुनियोंने उन्हें शाप दे रखा है; क्योंकि पहले वे शिवकी निन्दा किया करते थे। अतः उनकी बातें नहीं सुननी चाहिये; क्योंकि वे अन्यथावादी (शिव-शास्त्रके विपरीत बात करनेवाले) हैं। यहाँ पाँच * अवयवोंसे युक्त अनुमानके प्रयोगके लिये भी अवकाश है ही।
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वामदेव ! जैसे धूमका दर्शन होनेसे लोग अनुमानद्वारा पर्वतपर अग्निकी सत्ताका प्रतिपादन करते हैं, उसी प्रकार इस प्रत्यक्ष प्रपंचके दर्शनरूप हेतुका अवलम्बन करके परमेश्वर परमात्माको जाना जा सकता है, इसमें संशय नहीं है।
यह विश्व स्त्री-पुरुषरूप है, ऐसा प्रत्यक्ष ही देखा जाता है। छः कोशरूप जो शरीर है, उसमें आदिके तीन माताके अंशसे उत्पन्न हुए हैं और अन्तिम तीन पिताके अंशसे – यह श्रुतिका कथन है। इस प्रकार सभी शरीरोंमें स्त्री-पुरुषभावको जाननेवाले लोग हैं। मुने ! विद्वानोंने परमात्मामें भी स्त्री- पुरुषभावको जाना है। श्रुति कहती है, परब्रह्म परमात्मा सत्, चित् और आनन्दरूप है।
असत् प्रपंचको निवृत्त करनेवाला शब्द ही सद्रूप कहा जाता है। चित्-शब्दसे जड जगत्की निवृत्ति की जाती है। यद्यपि सत्- शब्द तीनों लिंगोंमें विद्यमान है, तथापि यहाँ परब्रह्म परमात्माके अर्थमें पुँल्लिग सत्- शब्दको ही ग्रहण करना चाहिये। वह सत्- शब्द प्रकाशका वाचक है। ‘सन् प्रकाशः’ – सन्-शब्द स्पष्टरूपसे प्रकाशका वाचक है। परमात्मामें जो सत्ता या प्रकाशरूपता है, वह उसके पुरुषभावको सूचित करती है। ज्ञान शब्दका पर्यायवाची जो चित्-शब्द है, वह स्त्रीलिंग है अर्थात् परमात्मामें चिद्रूपता उसके स्त्रीभावको सूचित करती है। प्रकाश और चित् – ये दोनों जगत्के कारणभावको प्राप्त हुए हैं।
इसी प्रकार सच्चिदात्मा परमेश्वर भी जब जगत्के कारणभावको प्राप्त होते हैं तब उन एकमात्र परमात्मामें ही ‘शिव’ भाव और ‘शक्ति ‘भावका भेद किया जाता है। जब तेल और बत्तीमें मलिनता होती है, तब उसके प्रकाशमें भी मलिनता आ जाती है। चिताकी आग आदिमें अशिवता और मलिनता स्पष्ट देखी जाती है। अतः मलिनता आदि आरोपित वस्तु है, उसका निवर्तक होनेके कारण परमात्माके ‘शिवत्व’ का ही श्रुतिके द्वारा प्रतिपादन किया गया है।
जीवके आश्रित जो चिच्छक्ति है, वह सदा दुर्बल होती है। उसकी निवृत्तिके लिये ही परमात्मामें सार्वकालिक सर्वशक्तिमत्ता विद्यमान है। ईश्वर बलवान् हैं, शक्तिमान् हैं- यह व्यवहार देखा जाता है। महामुने वामदेव ! लोक और वेदमें भी सदा ही परमात्माकी शिवरूपता और शक्तिरूपताका साक्षात्कार कराया गया है।
शिव और शक्तिके संयोगसे निरन्तर आनन्द प्रकट रहता है, अतः मुने ! उस आनन्दको प्राप्त करनेके उद्देश्यसे ही पापरहित मुनि शिवमें मन लगाकर निरामय शिव (परम कल्याण एवं परमानन्द) को प्राप्त हुए हैं। उपनिषदोंमें शिव और शक्तिको ही सर्वात्मा एवं ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म-शब्दसे बृंहिधात्वर्थगत व्यापकता एवं सर्वात्मताका ही प्रतिपादन होता है। शम्भु नामक विग्रहमें बृंहणत्व और बृहत्त्व (व्यापकता एवं विशालता) नित्य विद्यमान है।
सद्योजातादि पंचब्रह्ममय शिवविग्रहमें विश्वकी प्रतीति ब्रह्म-शब्दसे ही कही गयी है। वामदेव ! ‘हंसः’ पदको उलट देनेसे ‘सोऽहम्’ पद बनता है। उसमें प्रणवका प्राकट्य कैसे होता है यह तुम्हारे स्नेहवश मैं बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो। ‘सोऽहम्’ पदमेंसे सकार और हकार नामक व्यंजनोंको त्याग देनेसे स्थूल ‘ओम्’ शब्द बच रहता है, जो परमात्माका वाचक है! तत्त्वदर्शी मुनि कहते हैं कि उसे महामन्त्ररूप जानना चाहिये।
उसमें जो सूक्ष्म महामन्त्र है, उसका उद्धार मैं तुम्हें बता रहा हूँ। ‘हंसः’ पदमें तीन अक्षर हैं- ‘ह, अ, स’, इन तीनोंमें जो ‘अ’ है, वह पंद्रहवें (अनुस्वार) और सोलहवें (विसर्ग) के साथ है। सकारके साथ जो ‘अ’ है, वह विसर्गसहित है; वह यदि सकारके साथ ही उठकर ‘हं’ के आदिमें चला जाय तो ‘हंसः’ के विपरीत ‘सोऽहम्’ यह महामन्त्र हो जायगा। इसमें जो सकार है, वह शिवका वाचक है।
अर्थात् शिव ही सकारके अर्थ माने गये हैं। शक्त्यात्मक शिव ही इस महामन्त्रके वाच्यार्थ हैं, यह विद्वानोंका निर्णय है। गुरु जब शिष्यको इस महामन्त्रका उपदेश देते हैं, तब ‘सोऽहम् ‘ पदसे उसको शक्त्यात्मक शिवका ही बोध कराना अभीष्ट होता है। अर्थात् वह यह अनुभव करे कि ‘मैं शक्त्यात्मक शिवरूप हूँ।’ इस प्रकार जब यह महामन्त्र जीवपरक होता है अर्थात् जीवकी शिवरूपताका बोध कराता है, तब पशु (जीव) अपनेको शक्त्यात्मक एवं शिवका अंश जानकर शिवके साथ अपनी एकता सिद्ध हो जानेसे शिवकी समताका भागी हो जाता है।
अब श्रुतिके ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ इस वाक्यमें जो ‘प्रज्ञानम्’ पद आया है, उसके अर्थको दिखाया जा रहा है। ‘प्रज्ञान’ शब्द ‘चैतन्य का पर्याय है, इसमें संशय नहीं है। मुने ! शिवसूत्रमें यह कहा गया है कि ‘चैतन्यम् आत्मा’ अर्थात् आत्मा (ब्रह्म या परमात्मा) चैतन्यरूप है। चैतन्य-शब्दसे यह सूचित होता है कि जिसमें विश्वका सम्पूर्ण ज्ञान तथा स्वतन्त्रतापूर्वक जगत्के निर्माणकी क्रिया स्वभावतः विद्यमान है, उसीको आत्मा या परमात्मा कहा गया है।
इस प्रकार मैंने यहाँ शिवसूत्रोंकी व्याख्या ही की है।’ज्ञानं बन्धः’ यह दूसरा शिवसूत्र है। इसमें पशुवर्ग (जीवसमुदाय) का लक्षण बताया गया है। इस सूत्रमें आदि पद ‘ज्ञानम्’ के द्वारा किंचिन्मात्र ज्ञान और क्रियाका होना ही जीवका लक्षण कहा गया है। यह ज्ञान और क्रिया पराशक्तिका प्रथम स्पन्दन है। कृष्णयजुर्वेदकी श्वेताश्वतर शाखाका अध्ययन करनेवाले विद्वानोंने ‘स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च’ इस श्रुतिके द्वारा इसी पराशक्तिका प्रसन्नतापूर्वक स्तवन किया है। भगवान् शंकरकी तीन दृष्टियाँ मानी गयी हैं-ज्ञान, क्रिया और इच्छारूप।
ये तीनों दृष्टियाँ जीवोंके मनमें स्थित हो इन्द्रियज्ञानगोचर देहमें प्रवेश करके जीवरूप हो सदा जानती और करती हैं। अतः यह दृष्टित्रयरूप जीव आत्मा (महेश्वर) का स्वरूप ही है, ऐसा निश्चित सिद्धान्त है। अब मैं जगत्प्रपंचके साथ प्रणवकी
एकताका बोध करनेवाले प्रपंचार्थका वर्णन करूंगा। ‘ओमितीदं सर्वम्’ (तैत्तिरीय० १।८।१) अर्थात् यह प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला समस्त जगत् ओंकार है-यह सनातन श्रुतिका कथन है। इससे प्रणव और जगत्की एकता सूचित होती है।’ तस्माद्वा’ (तैत्तिरीय० २।१) इस वाक्यसे आरम्भ करके तैत्तिरीय श्रुतिने संसारकी सृष्टिके क्रमका वर्णन किया है। वामदेव ! उस श्रुतिका जो विवेकपूर्ण तात्पर्य है, उसे मैं तुम्हारे स्नेहवश बता रहा हूँ, सुनो। शिवशक्तिका संयोग ही परमात्मा है, यह ज्ञानी पुरुषोंका निश्चित मत है। शिवकी जो पराशक्ति है, उससे चिच्छक्ति प्रकट होती है। चिच्छक्तिसे आनन्दशक्तिका प्रादुर्भाव होता है, आनन्दशक्तिसे इच्छाशक्तिका उद्भव हुआ है, इच्छाशक्तिसे ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्तिसे पाँचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई है। मुने ! इन्हींसे निवृत्ति आदि कलाएँ उत्पन्न हुई हैं। चिच्छक्तिसे नाद और आनन्दशक्तिसे बिन्दुका प्राकट्य बताया गया है। इच्छाशक्तिसे मकार प्रकट हुआ है। ज्ञानशक्तिसे पाँचवाँ स्वर उकार उत्पन्न हुआ है और क्रियाशक्तिसे अकारकी उत्पत्ति हुई है। मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने तुम्हें प्रणवकी उत्पत्ति बतलायी है।
अब ईशानादि पंच ब्रह्मकी उत्पत्तिका वर्णन सुनो। शिवसे ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशानसे तत्पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ है, तत्पुरुषसे अघोरका, अघोरसे वामदेवका और वामदेवसे सद्योजातका प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणवसे ही मूलभूत पाँच स्वर और तैंतीस व्यंजनके रूपमें अड़तीस अक्षरोंका प्रादुर्भाव हुआ है। अब कलाओंकी उत्पत्तिका क्रम सुनो। ईशानसे शान्त्यतीताकला उत्पन्न हुई है।
तत्पुरुषसे शान्तिकला, अघोरसे विद्याकला,वामदेवसे प्रतिष्ठाकला और सद्योजातसे निवृत्तिकलाकी उत्पत्ति हुई है। ईशानसे चिच्छक्तिद्वारा मिथुनपंचककी उत्पत्ति होती है। अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि-इन पाँच कृत्योंका हेतु होनेके कारण उसे पंचक कहते हैं। यह बात तत्त्वदर्शी ज्ञानी मुनियोंने कही है। वाच्य-वाचकके सम्बन्धसे उनमें मिथुनत्वकी प्राप्ति हुई है। कला वर्णस्वरूप इस पंचकमें भूतपंचककी गणना है। मुनिश्रेष्ठ ! आकाशादिके क्रमसे इन पाँचों मिथुनोंकी उत्पत्ति हुई है। इनमें पहला मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पाँचवाँ मिथुन पृथ्वी है।
इनमें आकाशसे लेकर पृथ्वीतकके भूतोंका जैसा स्वरूप बताया गया है, उसे सुनो। आकाशमें एकमात्र शब्द ही गुण है; वायुमें शब्द और स्पर्श दो गुण हैं; अग्निमें शब्द, स्पर्श और रूप – इन तीन गुणोंकी प्रधानता है; जलमें शब्द, स्पर्श, रूप और रस- ये चार गुण माने गये हैं तथा पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – इन पाँच गुणोंसे सम्पन्न है। यही भूतोंका व्यापकत्व कहा गया है अर्थात् शब्दादि गुणोंद्वारा आकाशादि भूत वायु आदि परवर्ती भूतोंमें किस प्रकार व्यापक हैं, यह दिखाया गया है। इसके विपरीत गन्धादि गुणोंके क्रमसे वे भूत पूर्ववर्ती भूतोंसे व्याप्य हैं अर्थात् गन्ध गुणवाली पृथ्वी जलका और रसगुणवाला जल अग्निका व्याप्य है, इत्यादि रूपसे इनकी व्याप्यताको समझना चाहिये। पाँच भूतोंका यह विस्तार ही ‘प्रपंच’ कहलाता है।
सर्वसमष्टिका जो आत्मा है, उसीका नाम’विराट्’ है और पृथ्वीतत्त्वसे लेकर क्रमशः शिवतत्त्वतक जो तत्त्वोंका समुदाय है, वही ‘ब्रह्माण्ड’ है। वह क्रमशः तत्त्वसमूहमें लीन होता हुआ अन्ततोगत्वा सबके जीवनभूत चैतन्यमय परमेश्वरमें ही लयको प्राप्त होता है और सृष्टिकालमें फिर शक्तिद्वारा शिवसे निकलकर स्थूल प्रपंचके रूपमें प्रलय- कालपर्यन्त सुखपूर्वक स्थित रहता है।
अपनी इच्छासे संसारकी सृष्टिके लिये उद्यत हुए महेश्वरका जो प्रथम परिस्पन्द है, उसे ‘शिवतत्त्व’ कहते हैं। यही इच्छाशक्ति- तत्त्व है; क्योंकि सम्पूर्ण कृत्योंमें इसीका अनुवर्तन होता है। मुनीश्वर ! ज्ञान और क्रिया-इन दो शक्तियोंमें जब ज्ञानका आधिक्य हो, तब उसे सदाशिवतत्त्व समझना चाहिये; जब क्रिया-शक्तिका उद्रेक हो तब उसे महेश्वरतत्त्व जानना चाहिये तथा जब ज्ञान और क्रिया दोनों शक्तियाँ समान हों तब वहाँ शुद्ध विद्यात्मक-तत्त्व समझना चाहिये। समस्त भाव-पदार्थ परमेश्वरके अंगभूत ही हैं; तथापि उनमें जो भेदबुद्धि होती है, उसका नाम माया-तत्त्व है। जब शिव अपने परम ऐश्वर्यशाली रूपको मायासे निगृहीत करके सम्पूर्ण पदार्थोंको ग्रहण करने लगता है, तब उसका नाम ‘पुरुष’ होता है।’
तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्’ (उस शरीरको रचकर स्वयं उसमें प्रविष्ट हुआ) इस श्रुतिने उसके इसी स्वरूपका प्रतिपादन किया है अथवा इसी तत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिये उक्त श्रुतिका प्रादुर्भाव हुआ है। यही पुरुष मायासे मोहित होकर संसारी (संसारबन्धनमें बँधा हुआ) पशु कहलाता है। शिवतत्त्वके ज्ञानसे शून्य होनेके कारण उसकी बुद्धि नाना कर्मोंमें आसक्त हो मूढ़ताको प्राप्त हो जाती है। वह जगत्को शिवसे अभिन्न नहीं जानता तथा अपनेको भी शिवसे भिन्न ही समझता है।
प्रभो! यदि शिवसे अपनी तथा जगत्की अभिन्नताका बोध हो जाय तो इस पशु (जीव) को मोहका बन्धन न प्राप्त हो। जैसे इन्द्रजाल विद्याके ज्ञाता (बाजीगर)- को अपनी रची हुई अद्भुत वस्तुओंके विषयमें मोह या भ्रम नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञानयोगीको भी नहीं होता। गुरुके उपदेशद्वारा अपने ऐश्वर्यका बोध प्राप्त हो जानेपर वह चिदानन्दघन शिवरूप ही हो जाता है।
शिवकी पाँच शक्तियाँ हैं-१-सर्व- कर्तृत्वरूपा, २-सर्वतत्त्वरूपा, ३-पूर्णत्वरूपा, ४-नित्यत्वरूपा और ५-व्यापकत्वरूपा। जीवकी पाँच कलाएँ हैं-१-कला, २-विद्या, ३-राग, ४-काल और ५-नियति । इन्हें कलापंचक कहते हैं। जो यहाँ पाँच तत्त्वोंके रूपमें प्रकट होती है, उसका नाम ‘कला’ है। जो कुछ-कुछ कर्तृत्वमें हेतु बनती है और कुछ तत्त्वका साधन होती है, उस कलाका नाम ‘विद्या’ है। जो विषयोंमें आसक्ति पैदा करनेवाली है, उस कलाका नाम ‘राग’ है। जो भाव पदार्थों और प्रकाशोंका भासनात्मकरूपसे क्रमशः अवच्छेदक होकर सम्पूर्ण भूतोंका आदि कहलाता है, वही ‘काल’ है।
यह मेरा कर्तव्य है और यह नहीं है-इस प्रकार नियन्त्रण करनेवाली जो विभुकी शक्ति है, उसका नाम ‘नियति’ है। उसके आक्षेपसे जीवका पतन होता है। ये पाँचों ही जीवके स्वरूपको आच्छादित करनेवाले आवरण हैं। इसलिये ‘पंचकंचुक’ कहे गये हैं। इनके निवारणके लिये अन्तरंग साधनकी आवश्यकता है।
(अध्याय १५-१६)