Shiv puran kailash samhita chapter 14 (शिव पुराण  कैलाससंहिता  संहिता अध्याय 14 प्रणवके अर्थोंका विवेचन)

(कैलाससंहिता)

Shiv puran kailash samhita chapter 14 (शिव पुराण  कैलाससंहिता  संहिता अध्याय 14 प्रणवके अर्थोंका विवेचन)

:-वामदेवजी बोले-भगवान् षडानन ! सम्पूर्ण विज्ञानमय अमृतके सागर ! समस्त देवताओंके स्वामी महेश्वरके पुत्र ! प्रणतार्तिके भंजन कार्तिकेय ! आपने कहा है कि प्रणवके छः प्रकारके अर्थोंका परिज्ञान अभीष्ट वस्तुको देनेवाला है। यह छः प्रकारके अर्थोंका ज्ञान क्या है? प्रभो ! वे छः प्रकारके अर्थ कौन-कौनसे हैं और उनका परिज्ञान क्या वस्तु है? उनके द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु क्या है और उन अर्थोंका परिज्ञान होनेपर कौन-सा फल मिलता है?

 

पार्वतीनन्दन ! मैंने जो-जो बातें पूछी हैं, उन सबका सम्यक्-रूपसे वर्णन कीजिये। सुब्रह्मण्य स्कन्द बोले- मुनिश्रेष्ठ ! तुमने जो कुछ पूछा है, उसे आदरपूर्वक सुनो। समष्टि और व्यष्टिभावसे महेश्वरका परिज्ञान ही प्रणवार्थका परिज्ञान है। मैं इस विषयको विस्तारके साथ कहता हूँ। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वर ! मेरे इस प्रवचनसे उन छः प्रकारके अर्थोंकी एकताका भी बोध होगा। पहला मन्त्ररूप अर्थ है, दूसरा यन्त्रभावित अर्थ है, तीसरा देवताबोधक अर्थ है, चौथा प्रपंचरूप अर्थ है, पाँचवाँ अर्थ गुरुके रूपको दिखानेवाला है और छठा अर्थ शिष्यके स्वरूपका परिचय देनेवाला है। इस प्रकार ये छः अर्थ बताये गये।

 

मुनिश्रेष्ठ ! उन छहों अर्थोंमें जो मन्त्ररूप अर्थ है, उसको तुम्हें बताता हूँ। उसका ज्ञान होनेमात्रसे मनुष्य महाज्ञानी हो जाता है। प्रणवमें वेदोंने पाँच अक्षर बताये हैं,पहला आदिस्वर-‘अ’, दूसरा पाँचवाँ

स्वर – ‘उ’, तीसरा पंचम वर्ग पवर्गका अन्तिम अक्षर ‘म’, उसके बाद चौथा अक्षर बिन्दु और पाँचवाँ अक्षर नाद। इनके सिवा दूसरे वर्ण नहीं हैं। यह समष्टिरूप वेदादि (प्रणव) कहा गया है। नाद सब अक्षरोंकी समष्टिरूप है; बिन्दु- युक्त जो चार अक्षर हैं, वे व्यष्टिरूपसे शिववाचक प्रणवमें प्रतिष्ठित हैं।

विद्वन् ! अब यन्त्ररूप या यन्त्रभावित अर्थ सुनो। वह यन्त्र ही शिवलिंगरूपमें स्थित है। सबसे नीचे पीठ (अर्घा) लिखे। उसके ऊपर पहला स्वर अकार लिखे। उसके ऊपर उकार अंकित करे और उसके भी ऊपर पवर्गका अन्तिम अक्षर मकार लिखे। मकारके ऊपर अनुस्वार और उसके भी ऊपर अर्धचन्द्राकार नाद अंकित करे। इस तरह यन्त्रके पूर्ण हो जानेपर साधकका सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होता है। इस प्रकार यन्त्र लिखकर उसे प्रणवसे ही वेष्टित करे। उस प्रणवसे ही प्रकट होनेवाले नादके द्वारा नादका अवसान समझे।

मुने ! अब मैं देवतारूप तीसरे अर्थको बताऊँगा, जो सर्वत्र गूढ़ है। वामदेव ! तुम्हारे स्नेहवश भगवान् शंकरके द्वारा प्रतिपादित उस अर्थका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ। ‘सद्योजातं प्रपद्यामि’ यहाँसे आरम्भ करके ‘सदाशिवोम्’ तक जो पाँच मन्त्र हैं, श्रुतिने प्रणवको इन सबका वाचक कहा है। इन्हें ब्रह्मरूपी पाँच सूक्ष्म देवता समझना चाहिये। उन्हींका शिवकी मूर्तिके रूपमें भी विस्तारपू कि वर्णन है। शिवका वाचक मन्त्र शिवमूर्तिका भी वाचक है; क्योंकि मूर्ति और मूर्तिमान्में अधिक भेद नहीं है।

 

‘ईशान मुकुटोपेतः’ इस श्लोकसे आरम्भ करके पहले इन मन्त्रोंद्वारा शिवके विग्रहका प्रतिपादन किया जा चुका है। अब उनके पाँच मुखोंका वर्णन सुनो। पंचम मन्त्र ‘ईशानः सर्वविद्यानाम्’ को आदि मानकर वहाँसे लेकर ऊपरके ‘सद्योजात’ मन्त्रतक क्रमशः एक चक्रमें अंकित करे। फिर ‘सद्योजात’ से लेकर ‘ईशान’ मन्त्रतक क्रमशः उसी चक्रमें अंकित करे। ये ही पाँच भगवान् शिवके पाँच मुख बताये गये हैं। पुरुषसे लेकर सद्योजाततक जो ब्रह्मरूप चार मन्त्र हैं, वे ही महेश्वरदेवके चतुर्यूह पदपर प्रतिष्ठित हैं। ‘ईशान’ मन्त्र सद्योजातादि पाँचों मन्त्रोंका समष्टिरूप है। मुने ! पुरुषसे लेकर सद्योजाततक जो चार मन्त्र हैं, वे ईशानदेवके व्यष्टिरूप हैं।

इसे अनुग्रहमय चक्र कहते हैं। यही पंचार्थका कारण है। यह सूक्ष्म, निर्विकार, अनामय परब्रह्मस्वरूप है। अनुग्रह भी दो प्रकारका है। एक तो तिरोभाव आदि पाँच कृत्योंके अन्तर्गत है, दूसरा जीवोंको कार्यकारण आदिके बन्धनोंसे मुक्ति देनेमें समर्थ है। यह दोनों प्रकारका अनुग्रह सदाशिवका ही द्विविध कृत्य कहा गया है। मुने ! अनुग्रहमें भी सृष्टि आदि कृत्योंका योग होनेसे भगवान् शिवके पाँच कृत्य माने गये हैं। इन पाँचों कृत्योंमें भी सद्योजात आदि देवता प्रतिष्ठित बताये गये हैं। वे पाँचों परब्रह्मस्वरूप तथा सदा ही कल्याणदायक हैं।

 

अनुग्रहमय चक्र शान्त्यतीत कलारूप है। सदाशिवसे अधिष्ठित होनेके कारण उसे परम पद कहते हैं। शुद्ध अन्तःकरणवाले संन्यासियोंको मिलनेयोग्य पद यही है। जो सदाशिवके उपासक हैं और जिनका चित्त प्रणवोपासनामें संलग्न है, उन्हें भी इसी पदकी प्राप्ति होती है। इसी पदको पाकर मुनीश्वरगण उन ब्रह्मरूपी महादेवजीके साथ प्रचुर दिव्य भोगोंका उपभोग करके महाप्रलयकालमें शिवकी समताको प्राप्त हो जाते हैं। वे मुक्त जीव फिर कभी संसारसागरमें नहीं गिरते।

ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥

(मुण्डक० ३।२।६)

– इस सनातन श्रुतिने इसी अर्थका प्रतिपादन किया है। शिवका ऐश्वर्य भी यह समष्टिरूप ही है। अथर्ववेदकी श्रुति भी कहती है कि वह सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न है। सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करनेकी शक्ति सदाशिवमें ही बतायी गयी है। चमकाध्यायके पदसे यह सूचित होता है कि शिवसे बढ़कर दूसरा कोई पद नहीं है। ब्रह्मपंचकके विस्तारको ही प्रपंच कहते हैं। इन पाँच ब्रह्ममूर्तियोंसे ही निवृत्ति आदि पाँच कलाएँ हुई हैं। वे सब-की-सब सूक्ष्मभूत स्वरूपिणी होनेसे कारणरूपमें विख्यात हैं। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वामदेव ! स्थूल- रूपमें प्रकट जो यह जगत्-प्रपंच है, इसको जिसने पाँच रूपोंद्वारा व्याप्त कर रखा है, वह ब्रह्म अपने उन पाँचों रूपोंके साथ ब्रह्मपंचक नाम धारण करता है। मुनिश्रेष्ठ !

पुरुष, श्रोत्र, वाणी, शब्द और आकाश – इन पाँचोंको ब्रह्मने ईशानरूपसे व्याप्त कर रखा है। मुनीश्वर ! प्रकृति, त्वचा, पाणि, स्पर्श और वायु-इन पाँचको ब्रह्मने ही पुरुषरूपसे व्याप्त कर रखा है। अहंकार, नेत्र, पैर, रूप और अग्नि – ये पाँच अघोररूपी ब्रह्मसे व्याप्त हैं। बुद्धि, रसना, पायु, रस और जल-ये वामदेवरूपी ब्रह्मसे नित्य व्याप्त रहते हैं। मन, नासिका, उपस्थ, गन्ध और पृथिवी – ये पाँच सद्योजातरूपी ब्रह्मसे व्याप्त हैं। इस प्रकार यह जगत् पंचब्रह्मस्वरूप है। यन्त्ररूपसे बताया गया जो शिववाचक प्रणव है, वह नादपर्यन्त पाँचों वर्णोंका समष्टिरूप है तथा बिन्दुयुक्त जो चार वर्ण हैं, वे प्रणवके व्यष्टिरूप हैं। शिवके उपदेश किये हुए मार्गसे उत्कृष्ट मन्त्राधिराज शिवरूपी प्रणवका पूर्वोक्त यन्त्ररूपसे चिन्तन करना चाहिये।

(अध्याय १४)

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