Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 9 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:नवमोऽध्यायःशचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना)
[अथ नवमोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- विशाल नेत्रोंवाली अपनी शोकाकुल प्रिय पत्नीको वहाँ एकान्तमें देखकर इन्द्र आश्चर्यचकित हो गये और बोले – ॥ १॥
हे प्रिये ! तुम यहाँ कैसे आयी ? तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि मैं यहाँ हूँ ? हे शुभानने ! मैं सभी प्राणियोंसे अज्ञात रहते हुए यहाँ निवास कर रहा हूँ ॥ २ ॥
शची बोली- हे देव ! देवी भगवतीकी कृपासे आप आज मुझे यहाँ ज्ञात हुए हैं। हे देवेन्द्र ! उन्हींकी कृपासे मैं आपको पुनः प्राप्त कर सकी हूँ ॥ ३ ॥
देवताओं और मुनियोंने नहुष नामक राजर्षिको आपके आसनपर बैठा दिया है; वह मुझे नित्य कष्ट देता है। वह पापी मुझसे इस प्रकार कहता है- हे सुन्दरि ! मुझ देवराज इन्द्रको अपना पति बना लो। हे बलार्दन ! अब मैं क्या करूँ ? ॥ ४-५॥
इन्द्र बोले- हे वरारोहे! हे कल्याणि! जिस प्रकार मैं [अनुकूल] समयकी प्रतीक्षा करते हुए प्रारब्धवश यहाँ रह रहा हूँ, वैसे ही तुम भी अपने मनको पूर्णरूपसे स्थिर करो ॥ ६ ॥
व्यासजी बोले- अपने परम आदरणीय पतिके ऐसा कहनेपर लम्बी साँसें खींचती तथा काँपती हुई वे शची अत्यन्त दुःखित होकर इन्द्रसे कहने लगीं – ॥ ७ ॥
हे महाभाग ! मैं कैसे रहूँ ? वरदानके द्वारा मदोन्मत्त और अहंकारी बना हुआ वह पापात्मा मुझे अपने वशमें कर लेगा। उससे भयभीत सभी देवताओं और मुनियोंने मुझसे कहा- हे वरारोहे ! तुम उस कामातुर देवराजको अंगीकार कर लो ॥ ८-९ ॥
हे शत्रुसूदन ! बृहस्पति भी निर्बल ब्राह्मण हैं; वे मेरी रक्षा करनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं; क्योंकि वे भी तो सदा देवताओंके ही अनुगामी हैं ॥ १० ॥
अतः हे विभो ! मैं वशवर्तिनी नारी हूँ, मुझे यह महान् चिन्ता है कि भाग्यकी इस विपरीत अवस्थामें मैं अनाथ क्या करूँगी ? ॥ ११ ॥
मैं कुलटा नहीं हूँ अपितु आपका ही ध्यान करनेवाली पतिव्रता स्त्री हूँ। वहाँ मेरे लिये ऐसा कोई शरण नहीं है, जो मुझ दुःखितकी रक्षा करे ॥ १२ ॥
इन्द्र बोले – हे वरानने! मैं एक उपाय बताता हूँ, तुम उसे इस समय करो। इससे दुःखके समयमें तुम्हारे शीलकी रक्षा हो जायगी ॥ १३ ॥
करोड़ों उपाय करनेपर भी दूसरेके द्वारा रक्षित स्त्री पतिव्रता नहीं रह सकती; क्योंकि वह कामसे विचलित मनवाली तथा अत्यन्त चंचल होती है ॥ १४ ॥
स्त्रियोंका शील ही पापसे इनकी रक्षा करता है। इसलिये हे पवित्र मुसकानवाली ! तुम शीलका आश्रय लेकर धैर्य धारण करो ॥ १५ ॥
जब दुष्ट राजा नहुष तुम्हें बलपूर्वक प्राप्त करनेकी चेष्टा करे तब तुम गुप्त प्रतिज्ञा करके राजाको धोखेमें डाल देना। हे मदालसे ! तुम एकान्तमें उसके समीप जाकर कहो- हे जगत्पते!
आप ऋषियोंके द्वारा वहन किये जानेवाले दिव्य वाहनसे मेरे पास आयें, ऐसा होनेपर मैं प्रेमपूर्वक आपके वशमें हो जाऊँगी – यह मेरी प्रतिज्ञा है। हे सुश्रोणि! तुम उससे ऐसा बोलना. तब मोहित और कामान्ध वह राजा मुनियोंको अपने वाहनमें लगायेगा; इससे तपस्वी अवश्य ही नहुषको शापसे दग्ध कर देंगे ॥ १६-१९ ॥
भगवती जगदम्बा तुम्हारी सहायता करेंगी; इसमें सन्देह नहीं है। भगवती जगदम्बाके चरणोंका स्मरण करनेवालेको कभी संकट नहीं होता। यदि संकट उत्पन्न भी हो जाय तो उसे भी अपने कल्याणके लिये ही समझना चाहिये। अतः तुम गुरु बृहस्पतिके कथनानुसार पूर्ण प्रयत्नसे मणिद्वीपवासिनी भगवती भुवनेश्वरीका भजन करो ॥ २०-२१३ ॥
व्यासजी बोले- उनके ऐसा कहनेपर ‘वैसा ही होगा’- यह कहकर अत्यन्त विश्वस्त तथा भावी कार्यके प्रति प्रयत्नशील शची नहुषके पास गयीं। नहुष उन्हें देखकर प्रसन्न होता हुआ यह वचन बोला- हे कामिनि !
तुम्हारा स्वागत है, मैं तुम्हारे सत्य वचनोंके कारण तुम्हारे अधीन हूँ। तुमने अपने वचनका सत्यतापूर्वक पालन किया, इसलिये मैं तुम्हारा दास हो गया हूँ। हे मितभाषिणि! तुम जब मेरे समीप आ गयी हो तो मैं सन्तुष्ट हो गया हूँ।
तुम्हें अब लज्जा नहीं करनी चाहिये। हे सुन्दर मुसकानवाली ! मुझ अनुरक्तको अंगीकार करो। हे विशाल नेत्रोंवाली ! अपना कार्य बताओ; मैं तुम्हारा प्रिय करूँगा ॥ २२-२५३ ॥
शची बोलीं- हे कृत्रिम वासव ! आपने मेरा सम्पूर्ण कार्य कर दिया है। हे देव! हे विभो ! इस समय मेरे मनमें एक अभिलाषा है, उसे आप सुनें। हे कल्याण ! मेरा मनोरथ पूर्ण कर दीजिये; इसके बाद मैं आपकी वशवर्तिनी हो जाऊँगी, मैं बड़े उत्साहसे अपना मनोरथ कह रही हूँ, आप उसे पूरा करनेमें समर्थ हैं ॥ २६-२७३ ॥
नहुष बोला- हे चन्द्रमुखि ! तुम अपना कार्य बताओ, मैं तुम्हारा अभिलषित कार्य करता हूँ। हे सुभ्रु ! यदि अलभ्य वस्तु होगी तो भी मैं तुम्हें दूंगा; मुझे बताओ ॥ २८३ ॥
शची बोलीं- हे राजेन्द्र ! मैं कैसे बताऊँ, मुझे आपका विश्वास नहीं है। हे राजेन्द्र ! आप शपथ लें कि मैं तुम्हारा प्रिय करूँगा; क्योंकि पृथ्वीतलपर सत्यवादी राजा दुर्लभ हैं।
हे राजन् ! आपको सत्यसे बँधा जाननेके बाद ही मैं अपना अभिलषित बताऊँगी। हे राजन् ! मेरी उस अभिलाषाको पूर्ण कर देनेपर मैं. सदाके लिये आपकी वशवर्तिनी हो जाऊँगी। हे इन्द्र ! यह मेरा सत्यवचन है ॥ २९-३१३ ॥
नहुष बोला- हे सुन्दरि ! मैं यज्ञ, दान आदि कृत्योंसे संचित पुण्यकी शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं तुम्हारे वचनका अवश्य पालन करूँगा ॥ ३२३ ॥
शची बोलीं- इन्द्रके वाहन अश्व, गज और रथ हैं। भगवान् विष्णुका वाहन गरुड़, यमराजका वाहन महिष, शिवका वाहन वृषभ, ब्रह्माका वाहन हंस, कार्तिकेयका वाहन मयूर और गजाननका वाहन मूषक है।
हे सुराधिप ! मैं चाहती हूँ कि आपका वाहन ऐसा विलक्षण हो जो विष्णु, रुद्र, असुरों तथा राक्षसोंके भी पास न हो ॥ ३३-३५३ ॥
हे महाराज ! अपने व्रतमें अटल रहनेवाले समस्त मुनिगण शिबिका (पालकी) में आपको ढोयें- हे राजन् ! यही मेरी इच्छा है। हे पृथ्वीपते ! मैं आपको सभी देवताओंसे महान् समझती हूँ; इसीलिये मैं सावधान रहती हुई आपके तेजकी वृद्धि चाहती हूँ ॥ ३६-३७३ ॥
व्यासजी बोले- उनकी यह बात सुनकर महादेवीद्वारा प्रकट किये गये मोहसे मोहित हुआ बुद्धिहीन राजा नहुष हँसकर इन्द्रप्रिया शचीको सन्तुष्ट करते हुए यह वचन कहने लगा- ॥ ३८-३९ ॥
नहुष बोला- हे तन्वंगि ! तुमने सत्य ही कहा है, यह वाहन मुझे भी रुचिकर है। हे सुन्दर केशपाशवाली ! मैं तुम्हारे वचनोंका सम्यक् रूपसे पालन करूँगा ॥ ४० ॥
हे पवित्र मुसकानवाली ! जो अल्प पराक्रमवाला होता है, वही ऋषियोंको पालकी ढोनेमें नहीं लगा सकता; मैं [तुम्हारी इच्छाके अनुसार वाहनपर आरूढ़ होकर तुम्हारे पास आऊँगा ॥ ४१ ॥
मुझे तीनों लोकोंमें सबसे बड़ा तपस्वी और समर्थ जानकर सप्तर्षि तथा सभी देवर्षि मेरा वहन करेंगे ॥ ४२ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर परम सन्तुष्ट उस नहुषने उन इन्द्रप्रिया शचीको विदा किया, इसके बाद सभी मुनियोंको बुलाकर वह कामातुर उनसे इस प्रकार कहने लगा- ॥ ४३ ॥
नहुष बोला – हे विप्रगण ! मैं आज सर्वशक्ति- सम्पन्न इन्द्र हूँ। आपलोग गर्वरहित होकर मेरा – कार्य करें ॥ ४४ ॥
इन्द्रपद मुझे प्राप्त हो गया है, परंतु इन्द्राणी अभी मुझे नहीं प्राप्त हो सकी हैं। उन्होंने मेरे पास आकर प्रेमपूर्वक यह बात कही है- ‘हे सुरेन्द्र ! हे सुराधिप ! मुनियोंद्वारा ढोयी जानेवाली पालकीसे आप मेरे पास आयें। हे देवाधिदेव ! हे महाराज ! हे मानद ! आप मेरा यह प्रिय कार्य करें’ ॥ ४५-४६ ॥
हे श्रेष्ठ मुनिगण ! मेरा यह कार्य अत्यन्त दुष्कर है, परंतु आप सब दयालुओंको मेरा यह कार्य अवश्य करना चाहिये। इन्द्रपत्नी शचीमें अत्यन्त आसक्त मेरे मनको काम जला रहा है, मैं आप सबकी शरणमें हूँ। अतः मेरे इस महान् कार्यको सम्पन्न करें ॥ ४७-४८ ॥
अगस्त्य आदि प्रमुख ऋषियोंने उसकी यह अनादरपूर्ण बात सुनकर भावीवश उसे कृपापूर्वक स्वीकार कर लिया ॥ ४९ ॥
उन तत्त्वदर्शी मुनियोंके द्वारा उस वचनके स्वीकार कर लिये जानेपर शचीके प्रति आसक्त- चित्तवाला राजा नहुष प्रसन्न हो गया ॥ ५० ॥
वह तुरंत एक सुन्दर पालकीपर चढ़कर उसमें बैठ गया और दिव्य मुनियोंको उसे ढोनेके लिये नियुक्तकर उन्हें ‘सर्प-सर्प’ (शीघ्र चलो शीघ्र चलो) ऐसा कहने लगा ॥ ५१ ॥
उस कामातुर मूर्खने मुनि अगस्तिके मस्तकका पैरसे स्पर्श कर दिया। कामबाणसे आहत तथा इन्द्राणीके द्वारा आकृष्टचित्तवाले उस राजा नहुषने शीघ्र चलो-ऐसा कहते हुए वातापि नामक राक्षसका भक्षण करनेवाले तथा समुद्रको भी पी जानेवाले उन तपस्विश्रेष्ठ लोपामुद्रापति मुनि अगस्तिपर कोड़ेसे प्रहार भी किया ॥ ५२-५३३ ॥
तब उस कोड़ेके आघातका स्मरण करते हुए मुनिने उसे यह शाप दे दिया। हे दुराचारी ! तुम वनमें भयंकर शरीरवाले विशाल सर्प हो जाओ, जहाँ तुम्हें हजारों वर्षोंतक बहुत कष्ट भोगते हुए विचरण करना | पड़ेगा और अपने प्रभावसे तुम पुनः स्वर्ग प्राप्त करोगे। युधिष्ठिर नामवाले धर्मपुत्रका दर्शनकर और उनके मुखसे अपने प्रश्नोंके उत्तर सुनकर तुम्हारी मुक्ति हो जायगी ॥ ५४-५६३ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार शाप प्राप्तकर राजर्षि नहुष उन मुनिश्रेष्ठकी स्तुति करके अचानक स्वर्गसे गिर पड़ा और सर्परूपधारी हो गया ॥ ५७३ ॥
तब बृहस्पतिने शीघ्रतापूर्वक मानसरोवर जाकर इन्द्रसे सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहा। हे महाराज (जनमेजय) ! राजा नहुषके स्वर्गसे पतन आदिकी बात सुनकर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए। वे इन्द्र अब भी वहींपर स्थित रहे। सभी देवता और मुनि नहुषको पृथ्वीपर गिरा देखकर उसी सरोवरके पास गये, जहाँ इन्द्र रहते थे ॥ ५८-६०३ ॥
तत्पश्चात् उन शचीपति इन्द्रको आश्वासन देकर मुनियोंसहित सभी देवता उन्हें सम्मानपूर्वक स्वर्ग ले आये। तदनन्तर वापस आये हुए उन इन्द्रको सभी मुनियों और देवताओंने आसनपर स्थापित करके उनका पवित्र अभिषेक किया। इन्द्र भी अपने पदको प्राप्तकर प्रेमयुक्त शचीके साथ देवप्रासाद और मनोहर नन्दनवनमें क्रीड़ा करने लगे ॥ ६१-६३३ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! इस प्रकार इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले महामुनि विश्वरूप और वृत्रासुरको मारनेके कारण इन्द्रको अत्यन्त भीषण दुःख प्राप्त हुआ और देवीकी कृपासे उन्होंने अपना स्थान प्राप्त कर लिया ॥ ६४-६५ ॥
पुनः हे राजन् ! इस प्रकार आपने मुझसे जो पूछा था, वृत्रासुरवधपर आधारित वह सम्पूर्ण उत्तम आख्यान मैंने आपको कह दिया ॥ ६६ ॥जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल प्राप्त होता है। किये गये शुभ-अशुभ कर्मका फल अवश्य | ही भोगना पड़ता है ॥ ६७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नहुषस्वर्गच्युतिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥