Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 7 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:सप्तमोऽध्यायःत्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना)

Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 7 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:सप्तमोऽध्यायःत्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना)

[अथ सप्तमोऽध्यायः]

 

:-व्यासजी बोले- इस प्रकार उसे गिरा हुआ देखकर मन-ही-मन हत्याके भयसे सशंकित भगवान् विष्णु वैकुण्ठलोकको चले गये ॥ १ ॥

तत्पश्चात् इन्द्र भी भयभीत होकर इन्द्रपुरीको चल दिये। उस शत्रु (वृत्रासुर) के मारे जानेपर मुनिगण भी भयग्रस्त हो गये कि हमने छलपूर्ण यह कैसा पापकृत्य कर डाला। इन्द्रका साथ देनेसे हमारा ‘मुनि’ नाम व्यर्थ हो गया ॥ २-३॥

हमारी ही बातोंसे वृत्रासुरको विश्वास आया; विश्वासघातीके संगसे हम सब भी विश्वासघाती हो गये ॥ ४ ॥

 

पापकी जड़ और अनर्थकारी इस ममताको धिक्कार है, जिसके कारण हमलोगोंने छलपूर्वक शपथ ली और उस असुर (वृत्रासुर) को धोखा दिया ॥ ५ ॥

पाप करनेका परामर्श देनेवाला, पाप करनेके लिये बुद्धि देनेवाला, पापकी प्रेरणा देनेवाला तथा पाप करनेवालोंका पक्ष लेनेवाला भी निश्चय ही पापकर्ताके समान पापभाजन होता है ॥ ६ ॥

वज्रमें प्रविष्ट होकर वृत्रकी हत्या करनेमें सत्त्वगुणके मूर्तरूप भगवान् विष्णुने इन्द्रकी सहायता की और उसे मारा, अतः उन्होंने भी पाप किया ॥ ७ ॥

स्वार्थपरायण प्राणी पापसे भयभीत नहीं होता। विष्णुने इन्द्रका साथ देकर सर्वथा दुष्कृत कर्म किया ॥ ८ ॥

चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) मेंसे दो ही रह गये हैं और दो समाप्त हो गये हैं। उनमें भी प्रथम पदार्थ धर्म और चतुर्थ पदार्थ मोक्ष दोनों त्रिलोकमें दुर्लभ ही हो गये हैं ॥ ९ ॥

अर्थ और काम ही सबके प्रिय और प्रशस्त माने गये हैं। धर्म और अधर्मकी विवेचना-यह बड़े लोगोंका वाचिक दम्भमात्र ही रह गया है ॥ १० ॥ इस प्रकार मुनिगण भी बार-बार मनमें सन्ताप करके उदासमनसे हतोत्साह होकर अपने-अपने आश्रमोंको चले गये ॥ ११ ॥

 

हे भारत ! उधर अपने पुत्रको इन्द्रद्वारा मारा गया सुनकर त्वष्टा दुःखसे सन्तप्त होकर अत्यन्त दुःखित हो रोने लगे; उन्हें इससे बहुत वेदना हुई ॥ १२ ॥ तदनन्तर जहाँ वह (वृत्र) गिरा पड़ा था, वहाँ जाकर उसे उस स्थितिमें देखकर त्वष्टाने विधिपूर्वक उसका पारलौकिक संस्कार कराया ॥ १३ ॥

तत्पश्चात् स्नान करके, जलाञ्जलि देकर उसका और्ध्वदैहिक कर्म सम्पन्न करनेके पश्चात् उन शोकसन्तप्त त्वष्टाने पापी और मित्रघाती इन्द्रको इस प्रकार शाप दे दिया कि जिस प्रकार शपथोंसे प्रलोभितकर इन्द्रने मेरे पुत्रको मार डाला है, उसी प्रकार वह भी विधाताद्वारा दिये हुए महान् दुःख प्राप्त करे ॥ १४-१५॥

 

इस प्रकार देवराज इन्द्रको शाप देकर सन्तप्त त्वष्टा सुमेरुपर्वतके शिखरका आश्रय लेकर अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे ॥ १६ ॥

जनमेजय बोले – हे पितामह ! वृत्रासुरको मारनेके बाद इन्द्रकी क्या दशा हुई ? उन्हें बादमें सुख मिला या दुःख, इसे मुझे बताइये ॥ १७ ॥

व्यासजी बोले- हे महाभाग ! तुम क्या पूछ रहे हो, [इस विषयमें] तुम्हें क्या सन्देह है? किये गये शुभ-अशुभ कर्मका फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है। देवता, राक्षस और मनुष्यसहित बलवान् या दुर्बल कोई भी हो-सभीको अपने द्वारा किये गये अत्यन्त अल्प या अधिक कर्मका फल सर्वथा भोगना ही पड़ता है ॥ १८-१९ ॥

भगवान् विष्णुने वृत्रघाती इन्द्रको इस प्रकारकी मति प्रदान की थी। वे विष्णु उनके वज्रमें प्रविष्ट हुए थे तथा उनके सहायक बने थे; परंतु विपत्तिमें उन्होंने किसी भी तरह सहायता नहीं की।

 

हे राजन् ! इस संसारमें अच्छे समयमें सभी लोग अपने बन जाते हैं, किंतु दैवके प्रतिकूल होनेपर कोई भी सहायक नहीं होता। पिता, माता, पत्नी, सहोदर भाई, सेवक, मित्र एवं औरस पुत्र-कोई भी दैवके प्रतिकूल हो जानेपर सहायता नहीं करता। पाप या पुण्य करनेवाला ही उसका भागी होता है ॥ २०-२३३ ॥

वृत्रके मारे जानेपर अन्य सभी लोग चले गये; इन्द्र तेजहीन हो गये। सभी देवता उसकी निन्दा करने लगे और ‘यह ब्रह्महत्यारा है’ ऐसा मन्द स्वरमें कहने लगे। कौन ऐसा होगा जो शपथ खाकर और वचन देकर अत्यन्त विश्वासमें आये हुए तथा मित्रताको प्राप्त मुनिको मारनेकी इच्छा करेगा !

 

उसकी यह बात देवताओंकी सभामें, देवोद्यानमें तथा गन्धर्वोंके समाजमें सर्वत्र फैल गयी। हत्या करनेकी इच्छावाले इन्द्रने आज यह कैसा दुष्कृत कर्म कर डाला ! मुनियोंके द्वारा विश्वास दिलाये गये वृत्रासुरको छलपूर्वक मार करके (मानो) इन्द्रने वेदोंकी प्रामाणिकताका त्यागकर सौगतोंका मत स्वीकार कर लिया। इन्द्रने छल करके अत्यन्त साहससे शत्रुको मार डाला।

 

वचन देकर भी जिस प्रकार [छलपूर्वक ] यह वृत्रासुर मारा गया, वैसा विपरीत आचरण इन्द्र और विष्णुके अतिरिक्त कौन होगा, जो कर सकता है! इस प्रकारकी कथाएँ तथा और भी बातें लोगोंमें व्यापक रूपसे होने लगीं ॥ २४-३० ॥

इन्द्र भी अपनी कीर्ति नष्ट करनेवाली तरह- तरहकी बातें सुनते रहे। संसारमें जिसकी कीर्ति नष्ट हो गयी, उसके कलुषित जीवनको धिक्कार है। रास्तेमें जाते हुए ऐसे व्यक्तिको देखकर शत्रु हँस पड़ता है।

 

राजर्षि इन्द्रद्युम्नने कोई पाप नहीं किया था फिर भी कीर्ति नेष्ट हो जानेसे वे स्वर्गसे गिर गये थे; तब पाप करनेवाला कैसे नहीं गिरेगा ? राजा ययातिका बहुत थोड़ेसे अपराधपर पतन हो गया था। इसी प्रकार एक राजाको अठारह युगोंतक केकड़ेकी योनिमें रहना पड़ा था।

 

भृगुकी पत्नीका मस्तक काटनेके कारण अच्युत भगवान् श्रीहरिको ब्रह्मशापसे मकर आदि रूपोंमें पशुयोनिमें जन्म लेना पड़ा। विष्णुको भी वामन होकर याचनाके लिये बलिके घर जाना पड़ा; तब यदि कुकर्मी मनुष्य दुःख पाये तो क्या आश्चर्य है!

 

हे भारत ! श्रीरामचन्द्रजीको भी भृगुके शापसे वनवासकालमें सीतासे वियोगका महान् कष्ट उठाना पड़ा। उसी प्रकार इन्द्रको भी ब्रह्महत्याजनित महान् भय प्राप्त करके समस्त सिद्धियोंसे युक्त भवनमें भी सुख नहीं प्राप्त होता था।

 

उन्हें दीर्घ श्वास लेते, भयग्रस्त, चेतनारहित, खिन्नमनस्क और सभामें न जाते देखकर शचीने पूछा- हे प्रभो! आजकल आप भयभीत क्यों रहते हैं, आपका भयंकर शत्रु तो मर गया है। हे कान्त! हे शत्रुहन्ता ! आपको क्या चिन्ता है ?

 

हे लोकेश ! साधारण मनुष्यकी भाँति लम्बी- लम्बी साँसें लेते हुए आप शोक क्यों करते हैं? आपका कोई बलवान् शत्रु भी तो नहीं है, जिससे आप चिन्ताकुल हों ॥ ३१-४०३ ॥

इन्द्र बोले- हे राज्ञि ! यद्यपि अब मेरा कोई बलवान् शत्रु नहीं है तथापि ब्रह्महत्याके भयसे मैं निरन्तर डरता रहता हूँ। घरमें रहते हुए भी मुझे न सुख है और न शान्ति। नन्दनवन, अमृत, घर तथा | वन-कुछ भी मुझे सुखकर नहीं लगता।

 

गन्धर्वोका गान और अप्सराओंका नृत्य तथा यहाँतक कि तुम और अन्य देवांगनाएँ भी मुझे सुखकर नहीं लगतीं। न कामधेनु और न ही कल्पवृक्ष मुझे सुख प्रदान करते हैं। मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मुझे शान्ति कहाँ मिलेगी ? हे प्रिये ! इसी चिन्तामें पड़ा हुआ मैं अपने मनमें शान्ति नहीं प्राप्त कर पा रहा हूँ ॥ ४१-४४३ ॥

व्यासजी बोले – अत्यन्त घबरायी हुई अपनी प्रिय पत्नीसे ऐसा कहकर मूढ इन्द्र घरसे निकल पड़े और उत्तम मानसरोवरको चले गये। भयसे पीडित और शोकसन्तप्त होकर वे एक कमलनालमें प्रविष्ट हो गये।

 

पापकर्मोंसे पराभूत हुए देवराज इन्द्रको कोई जान नहीं सका। वे सर्पके समान चेष्टा करते हुए जलमें छिपकर रह रहे थे। उस समय वे इन्द्र असहाय, चिन्तित और व्याकुल इन्द्रियोंवाले हो गये ॥ ४५-४७३ ॥

ब्रह्महत्याके भयसे दुःखी होकर देवराज इन्द्रके अदृश्य हो जानेपर देवगण चिन्तातुर हो उठे तथा अनेक प्रकारके उत्पात होने लगे। ऋषि, सिद्ध और गन्धर्वगण भी अत्यन्त भयभीत हो गये। उपद्रवोंके होनेसे सम्पूर्ण जगत् अराजकतासे ग्रस्त हो गया।

 

उस समय अनावृष्टि उपस्थित हो गयी और पृथ्वी वैभवशून्य हो गयी, नदियोंके स्त्रोत सूख गये और तालाब बिना जलके हो गये- इस प्रकारकी अराजकताको देखकर स्वर्गके देवताओं और मुनियोंने विचार करके नहुषको इन्द्र बना दिया ॥ ४८-५१३ ॥

राज्य प्राप्त करनेपर राजा नहुष धर्मात्मा होते हुए भी राजसी वृत्तिके कारण कामबाणसे आहत हो विषयासक्त हो गये। हे भारत ! देवोद्यानोंमें क्रीडारत रहते हुए वे सदा अप्सराओंसे घिरे रहते थे ॥ ५२-५३ ॥

उस राजा नहुषके मनमें इन्द्राणी शचीके गुणोंको सुनकर उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा हुई। उसने ऋषियोंसे कहा- मेरे पास इन्द्राणी क्यों नहीं आती ? आपलोग और देवताओंने मुझे इन्द्र बनाया, इसलिये हे देवताओ ! शचीको मेरी सेवाके लिये भेजिये।

 

हे मुनियो तथा देवताओ ! आपलोगोंको मेरा प्रिय कार्य अवश्य करना चाहिये। इस समय मैं देवताओंका इन्द्र और समस्त लोकोंका स्वामी हूँ; शची शीघ्र ही आज मेरे भवनमें | आ जायें ॥ ५४-५६३ ॥

 

उसकी यह बात सुनकर चिन्तासे व्याकुल देवता तथा ऋषिगण शचीके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके कहने लगे – हे इन्द्रपत्नि ! दुराचारी नहुष इस समय आपकी कामना करता है।

 

उसने क्रुद्ध होकर हमसे यह बात कही है ‘शचीको यहाँ भेज दीजिये।’ हम उसके अधीन हैं, अतः कर ही क्या सकते हैं; क्योंकि उसे इन्द्र बना दिया गया है ॥ ५७-५९॥

यह सुनकर दुःखितमन शचीने बृहस्पतिसे कहा- ‘हे ब्रह्मन् ! नहुषसे मेरी रक्षा कीजिये; मैं आपकी शरणमें हूँ’ ॥ ६० ॥

बृहस्पति बोले- हे देवि ! पापसे मोहित नहुषसे तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। हे पुत्रि! मैं सनातनधर्मका त्यागकर तुम्हें उसको नहीं दूँगा ॥ ६१ ॥

जो अधम मनुष्य शरणमें आये हुए तथा दुःखी प्राणीको दूसरोंको सौंप देता है वह प्रलयपर्यन्त नरकमें वास करता है। अतः हे पृथुश्रोणि! तुम निश्चिन्त | रहो, मैं तुम्हारा त्याग कभी नहीं करूँगा ॥ ६२ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां षष्ठस्कन्धे इन्द्रस्य पद्मनालप्रवेशानन्तरं नहुषस्य देवेन्द्रपदेऽभिषेकवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

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