Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 5 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:पञ्चमोऽध्यायःभगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना)

Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 5 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:पञ्चमोऽध्यायःभगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना)

[अथ पञ्चमोऽध्यायः]

:-व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब सभी तत्त्वोंके ज्ञाता माधव भगवान् विष्णु समस्त देवताओंको चिन्तासे व्याकुल तथा अत्यन्त प्रेमविह्वल देखकर कहने लगे ॥ १ ॥

विष्णु बोले- हे देवगण ! आप सबने मौन धारण क्यों कर रखा है? आप सब अपने दुःखका सत्-असत् जो भी कारण हो बतायें, जिसे सुनकर मैं उसे दूर करनेका उपाय करूँगा ॥ २ ॥

देवता बोले- हे विभो ! तीनों लोकोंमें कौन-सी वस्तु आपसे अज्ञात है, आप हमारा सारा कार्य [भली प्रकारसे] जानते हैं; तो क्यों बार-बार पूछ रहे हैं? ॥ ३ ॥

पूर्वकालमें आपने बलिको बाँध लिया था और इन्द्रको देवताओंका राजा बनाया था; आपने वामन- शरीर धारणकर तीनों लोकोंको अपने चरणोंसे नाप लिया था ॥ ४॥

हे विष्णो ! आपने ही अमृत छीनकर दैत्योंका नाश किया था; आप सभी देवताओंकी समस्त विपत्तियोंको दूर करनेमें समर्थ हैं ॥ ५ ॥

विष्णु बोले- हे श्रेष्ठ देवताओ ! आपलोग भयभीत न हों। मैं उस वृत्रासुरके वधका सुसंगत उपाय जानता हूँ, उसे मैं बताऊँगा, जिससे आपलोगोंको सुख होगा ॥ ६ ॥

अपनी बुद्धिसे, बलसे, धनसे या जिस किसी भी उपायसे मुझे आपलोगोंका हित अवश्य करना है ॥ ७ ॥मित्रों और विशेषरूपसे शत्रुओंके प्रति [प्रयोगहेतु] तत्त्वदर्शियोंने साम, दान, दण्ड, भेद-ये चार उपाय बताये हैं ॥ ८ ॥

वृत्रासुरकी तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीने इसे वरदान दिया है और उस वरदानके प्रभावसे यह दुर्जय हो गया है ॥ ९ ॥

त्वष्टाके द्वारा उत्पन्न किया गया यह वृत्रासुर समस्त प्राणियोंके लिये अजेय हो गया है। शत्रुओंके राज्यको जीत लेनेवाला वह अपनी शक्तिसे अधिक प्रबल हो गया है ॥ १० ॥

हे देवताओ ! बिना सामनीतिके प्रयोगके वह वृत्रासुर देवताओंके लिये दुःसाध्य है, अतः पहले इसे प्रलोभन देकर वशमें करना चाहिये, तत्पश्चात् मार डालना चाहिये ॥ ११ ॥

हे गन्धर्वगण ! जहाँ वह बलवान् वृत्रासुर रहता है, वहाँ तुमलोग जाओ और उसपर सामनीतिका प्रयोग करो; तभी उसपर विजय प्राप्त कर सकोगे ॥ १२ ॥

वहाँ जाकर अनेक शपथें खाकर सन्धिके द्वारा उसे विश्वासमें ले करके और पुनः मित्रताकर बादमें उस प्रबल शत्रुको मार डालना चाहिये ॥ १३ ॥

हे श्रेष्ठ देवगण ! मैं अदृश्य रूपमें इन्द्रके श्रेष्ठ आयुध वज्रमें प्रवेश कर जाऊँगा और उनकी सहायता करूँगा ॥ १४ ॥हे देवताओ! अब आपलोग समयकी प्रतीक्षा करें, वृत्रासुरकी आयुके क्षीण होनेपर ही उसकी मृत्यु होगी, अन्य किसी भी प्रकारसे नहीं ॥ १५ ॥

हे गन्धर्वगण ! तुमलोग वेष बदलकर ऋषियोंके साथ उसके पास जाओ और वचनबद्धतापूर्वक इन्द्रके साथ उसकी मित्रता करा दो ॥ १६ ॥

जिस प्रकारसे उसका विश्वास दृढ़ हो जाय, वैसा ही आप सबको करना चाहिये। मैं सुदृढ़ तथा आवरणयुक्त वज्रमें गुप्तरूपसे प्रवेश कर जाऊँगा ॥ १७ ॥

 

जब वृत्रासुरको पूर्ण विश्वास हो जाय तभी इन्द्र उस शत्रुका वध करेंगे। उसके वधका अन्य कोई उपाय नहीं है। वे इन्द्र विश्वासघात करके मेरी सहायतासे वज्रद्वारा पीछेसे उस पापीको मार डालेंगे।

 

इस दुष्ट शत्रुके साथ शठता करनेमें दोष नहीं है। अन्यथा वह बलवान् वीरधर्मसे नहीं मारा जा सकेगा। पूर्वकालमें मैंने भी वामनरूप धारणकर बलिको वंचित किया था और मोहिनीरूप धारणकर सभी दैत्योंको छला था॥ १८-२०३ ॥

हे देवताओ! अब आप सब लोग एक साथ | देवी भगवती शिवाकी शरणमें जायँ और भावपूर्वक स्तोत्रों और मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करें। वे भगवती योगमाया आपलोगोंकी सहायता करेंगी ॥ २१-२२ ॥

हम सभी उन सात्त्विकी, परा प्रकृति, सिद्धिदात्री, कामनास्वरूपिणी, भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाली और दुराचारियोंके लिये दुर्लभ देवीकी सदा वन्दना करते हैं ॥ २३ ॥

इन्द्र भी उनकी आराधना करके युद्धमें शत्रुको मार डालेंगे। वे मोहिनी महामाया उस दानव वृत्रासुरको मोहित कर देंगी। तब मायासे मोहित वृत्रासुर सुगमतापूर्वक मारा जा सकेगा। उन पराम्बाके प्रसन्न होनेपर सब कुछ साध्य हो जायगा।

 

अन्यथा किसीकी भी कामनाकी पूर्ति नहीं होगी। वे भगवती सबकी अन्तर्यामिस्वरूपिणी और सभी कारणोंकी भी कारण हैं। इसलिये हे श्रेष्ठ देवगण ! शत्रुके विनाशके लिये सात्त्विक भावोंसे युक्त होकर उन प्रकृतिस्वरूपा जगज्जननीका परम आदरपूर्वक भजन कीजिये ॥ २४-२७ ॥

पूर्वकालमें मैंने भी पाँच हजार वर्षोंतक अत्यन्त भीषण युद्ध करके मधु-कैटभका वध किया था। उस समय मैंने उन पराप्रकृतिकी स्तुति की थी, तब वे अत्यन्त प्रसन्न हो गयी थीं।

 

तत्पश्चात् उनके द्वारा मोहित दोनों दैत्योंको मैंने छलपूर्वक मार डाला था। मोहित किये गये विशाल भुजाओंवाले वे दोनों दानव अत्यन्त मदोन्मत्त थे। इसीलिये आपलोग भी उसी प्रकार भावपूर्वक उन पराप्रकृतिका भजन कीजिये। हे देवगण ! वे सब प्रकारसे कार्यकी सिद्धि करेंगी ॥ २८-३०३ ॥

इस प्रकार भगवान् विष्णुसे परामर्श प्राप्त करके वे मन्दार वृक्षोंसे सुशोभित सुमेरुपर्वतके शिखरपर चले गये। वे देवता वहाँ एकान्तमें बैठकर ध्यान, जप और तप करके जगत्का सृजन-पालन-संहार करनेवाली, भक्तोंके लिये कामधेनुस्वरूपा एवं संसारके क्लेशोंका नाश करनेवाली पराम्बा भगवतीकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ ३१-३३॥

देवता बोले- हे देवि ! हे दीनोंके कष्ट दूर करनेवाली ! हे परमार्थतत्त्वस्वरूपिणि ! हमपर प्रसन्न हों, वृत्रासुरके द्वारा सताये गये, युद्धमें अत्यन्त पीड़ित किये गये तथा आपके चरणकमलकी शरणमें सदासे | पड़े हुए हम देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ ३४ ॥

 

हे माता ! आप समस्त विश्वकी जननी हैं, शत्रुद्वारा उपस्थित किये गये इस संकटमें पड़े हुए हम सबका आप पुत्रोंके समान परिपालन कीजिये। आपसे तीनों लोकोंमें कुछ भी अज्ञात नहीं है, तो आप • असुरोंके द्वारा पीड़ित देवताओंकी उपेक्षा क्यों कर रही हैं ? ॥ ३५ ॥

आपने ही इस सम्पूर्ण त्रिलोकीकी रचना की है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आपके ही संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं। आपके भृकुटि-विलासमात्रसे वे [सृजन, पालन तथा संहार] समस्त कार्य करते हैं और यथेच्छ विहार करते हैं; वे भी स्वतन्त्र नहीं हैं ॥ ३६ ॥

हे देवि ! माता प्रत्यक्ष अपराधवाले अपने दुःखी पुत्रोंकी भी कष्टसे सब प्रकारसे रक्षा करती है- यह रीति आपके ही द्वारा निर्मित है; तब हे करुणरसकी समुद्रस्वरूपिणि! आप अपने चरणोंकी शरणमें पड़े हुए हम निरपराध देवताओंका पालन क्यों नहीं कर रही हैं? ॥ ३७ ॥

हे जननि ! यदि आप सोचती हों कि मेरे चरणकमलोंकी आराधनासे राज्य प्राप्त करके देवता मेरी भक्ति छोड़कर वैभव-सुखोंके भोगमें आसक्त हो जायँगे और इन्हें मेरे कृपाकटाक्षकी आवश्यकता नहीं रह जायगी तो ऐसा सामान्यतः होता ही है, फिर भी जन्म देनेवाली माता अपने पुत्रके प्रति ऐसी भावना रखे – यह रीति कहीं देखी नहीं गयी ॥ ३८ ॥

हे जननि ! आपका भजन त्यागकर हमलोग जो भोगमें निमग्न हैं- इसमें हमारे चित्तमें अपना दोष नहीं प्रतीत होता; क्योंकि मोहकी रचना आपने ही की है और वह हमलोगोंको मोहित कर देता है। ऐसी परिस्थितिमें हे करुणामय स्वभाववाली ! आप हमपर दया क्यों नहीं करतीं ? ॥ ३९ ॥

हे जननि ! पूर्वकालमें आपने हमलोगोंके कल्याणार्थ सभीके लिये भयकारी महिषरूप धारण करनेवाले बलवान् दैत्यराजका वध किया था। हे माता ! भय प्रदान करनेवाले वृत्रासुरका भी वध आप क्यों नहीं करतीं ? ॥ ४० ॥

 

शुम्भ और उसके बलवान् भाई निशुम्भ-उन दोनों भाइयोंको आपने मार डाला था और उनके अनुचरोंका भी वध कर दिया था। उसी प्रकार हे दयासे आर्द्रहृदयवाली ! अत्यन्त बलशाली, उन्मत्त तथा दुष्ट वृत्रासुरको भी मार डालिये। आप इसे विमोहित कर दें, जिससे यह भी उनकी तरह न हो सके।

 

हे माता ! असुरोंके द्वारा अत्यधिक पीड़ित किये गये तथा भयसे व्याकुल हम देवताओंका अब आप ही पालन कीजिये; क्योंकि तीनों लोकोंमें ऐसा कोई नहीं है जो देवताओंका दुःख दूर कर सके और अपनी शक्तिसे सम्पूर्ण कष्टके समूहको नष्ट कर सके ॥ ४१-४२ ॥

यदि वृत्रासुरपर आपकी अत्यधिक दया हो तो भी आप हमलोगोंके लिये संतापकारक इस दुष्टको शीघ्र ही मार डालिये। हे भवानि ! अपने बाणोंसे इसको पवित्र करती हुई आप पापसे इसका उद्धार कर दीजिये, अन्यथा यह दुष्टबुद्धि वृत्रासुर नरक प्राप्त करेगा ॥ ४३ ॥

जिन दानवोंको युद्धमें आपने बाणोंद्वारा मारकर पवित्र बना दिया, वे नन्दनवनको प्राप्त हो गये। हे दयार्द्र स्वभाववाली! क्या आपने नरकमें गिरनेके भयसे उन शत्रुओंकी रक्षा नहीं की? तो फिर आप वृत्रासुरको क्यों नहीं मारती हैं ॥ ४४ ॥

हम यह जानते हैं कि वह आपका सेवक नहीं, शत्रु ही है; क्योंकि वह दुष्ट पापबुद्धि हम सबको सदैव सताया करता है। आपके चरणकमलोंकी भक्तिमें रत हम देवताओंको पीड़ित करनेवाला वह (वृत्रासुर) आपका भक्त कैसे हो सकता है ? ॥ ४५ ॥

हे जननि ! हे अम्ब! हम आज आपकी पूजा कैसे करें; क्योंकि पुष्पादि [पूजोपचार] तो आपके द्वारा ही बनाये गये हैं। मन्त्र, हमलोग तथा अन्य सब कुछ आपकी पराशक्तिके ही रूप हैं, अतः हे भवानि ! हम केवल आपके चरणोंकी शरण ले सकते हैं ॥ ४६ ॥

वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो भवसागरसे पार उतारनेवाले पोतसदृश आपके चरणकमलका निरन्तर भक्तिभावसे भजन करते हैं और राग, मोह आदि विकारोंसे रहित मोक्षकामी योगी भी मनसे जिसका | निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४७ ॥

 

समस्त वेदोंमें पारंगत वे यज्ञकर्ता भी निश्चय ही धन्य हैं, जो हवनके समय देवताओंको तृप्ति देनेवाली स्वाहा और पितरोंको तृप्ति देनेवाली स्वधाके रूपमें आपका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४८ ॥

आप ही मेधा हैं, आप ही कान्ति हैं, आप ही शान्ति हैं और मनुष्योंका महान् मनोरथ पूर्ण करनेवाली प्रख्यात बुद्धि भी आप ही हैं। समस्त ऐश्वर्यकी रचना करके आप इस त्रिलोकीमें कृपा करके अपनी आराधना करनेवालेको वैभव प्रदान करती रहती हैं ॥ ४९ ॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर वे भगवती प्रकट हो गयीं। उन्होंने सुन्दर रूप धारण कर रखा था, वे कोमल विग्रहवाली थीं और समस्त आभूषणोंसे सुसज्जित थीं ॥ ५० ॥

वे पाश, अंकुश, वर और अभयमुद्रासे सुशोभित चार भुजाओंसे युक्त थीं, उनकी कमरमें बँधी हुई करधनीके घुँघरू बज रहे थे ॥ ५१ ॥

उन कान्तिमयी भगवतीकी ध्वनि कोयलके समान थी, उनके हाथोंके कंकण और चरणोंके नूपुर बज रहे थे। उनके मस्तकपर अर्धचन्द्रसे मण्डित रत्नमुकुट सुशोभित हो रहा था ॥ ५२॥

वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं, उनका मुख कमलके समान सुशोभित हो रहा था, वे तीन नेत्रोंसे विभूषित थीं तथा पारिजातके पुष्प-नालकी भाँति उनके शरीरकी कान्ति रक्तवर्ण थी ॥ ५३ ॥

वे लाल रंगके वस्त्र धारण किये हुए थीं और उनके शरीरपर रक्त चन्दन अनुलिप्त था। करुणारसकी सागर वे भगवती प्रसन्न मुख-मण्डलसे शोभा पा रही थीं। वे समस्त श्रृंगार-वेषसे विभूषित थीं।

 

वे देवी द्वैतभावके लिये अरणीस्वरूपा, परा, सब कुछ जाननेवाली, सबकी रचना करनेवाली, सबकी अधिष्ठानस्वरूपा, सभी वेदान्तोंद्वारा प्रतिपादित और सच्चिदानन्दरूपिणी हैं। उन देवीको अपने सम्मुख स्थित देखकर देवताओंने उन्हें प्रणाम किया। तब उन प्रणत देवताओंसे भगवती अम्बिकाने कहा- आपलोग मुझे अपना कार्य बतायें ॥ ५४-५६३ ॥

 

देवता बोले- आप देवताओंके लिये अत्यन्त दुःखदायी इस शत्रु वृत्रासुरको विमोहित कर दीजिये। उसे आप ऐसा विमोहित कर दें, जिससे वह देवताओंपर विश्वास करने लगे और हमारे आयुधमें इतनी शक्ति भर दीजिये, जिससे यह शत्रु मारा जा सके ॥ ५७-५८ ॥

व्यासजी बोले- तब ‘तथास्तु’ – ऐसा कहकर भगवती वहीं अन्तर्धान हो गयीं और देवता भी प्रसन्न होकर अपने-अपने भवनोंको चले गये ॥ ५९ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे देवीसमाराधनाय देवकृतस्तुतिवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

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