Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 31 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:अध्याय इकतीस व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना)
(अध्याय इकतीस)
:-व्यासजी बोले- हे महाराज ! मैंने नारदजीसे योगमायाके पवित्र अक्षरोंवाले जिस माहात्म्यको सुना है, उसे कहता हूँ; आप सुनें ॥ १ ॥
महर्षि नारदकी नारी-देहसे सम्बन्धित कथा सुनकर मैंने उन सर्वज्ञशिरोमणि मुनिसे पुनः पूछा- हे नारदजी ! अब आप यह बताइये कि इसके बाद भगवान् विष्णुने आपसे क्या कहा और आपके साथ वे जगत्पति लक्ष्मीकान्त कहाँ गये ? ॥ २-३॥
नारदजी बोले- उस अत्यन्त मनोहर सरोवरके तटपर मुझसे इस प्रकार कहकर भगवान् विष्णुने गरुडपर आरूढ़ होकर वैकुण्ठके लिये प्रस्थान करनेका विचार किया ॥ ४ ॥
तदनन्तर रमापति विष्णुने मुझसे कहा- हे नारद ! अब आप जहाँ जाना चाहें, जायँ। अथवा मेरे लोक चलिये। जैसी आपकी रुचि हो वैसा कीजिये ॥ ५ ॥
इसके बाद मैं मधुसूदन श्रीविष्णुसे आज्ञा लेकर ब्रह्मलोक चला गया। गरुडासीन होकर वे देवेश भगवान् विष्णु भी मुझे आदेश देकर उसी क्षण बड़े आनन्दसे शीघ्र ही वैकुण्ठ चले गये ॥ ६३ ॥
तत्पश्चात् श्रीविष्णुके चले जानेपर समस्त परम अद्भुत सुखों तथा दुःखोंके सम्बन्धमें विचार करता हुआ मैं अपने पिता ब्रह्माजीके भवनपर जा पहुँचा। हे मुने ! वहाँ पहुँचकर पिताजीको प्रणाम करके ज्यों ही मैं उनके सामने खड़ा हुआ, तभी उन्होंने मुझे चिन्तासे व्यग्र देखकर पूछा ॥ ७-८३ ॥
ब्रह्माजी बोले- हे महाभाग ! आप कहाँ गये थे ? हे सुत! आप क्यों इतने घबराये हुए हैं? हे मुनिश्रेष्ठ ! आपका चित्त इस समय स्वस्थ नहीं दिखायी पड़ रहा है। क्या किसीने आपको धोखेमें डाल दिया है अथवा आपने कोई आश्चर्यजनक दृश्य देखा है? हे पुत्र ! आज मैं आपको उदास तथा विवेकसे कुण्ठित क्यों देख रहा हूँ ? ॥ ९-१०३ ॥
नारदजी बोले-पिता ब्रह्माजीके ऐसा पूछनेपर मैंने आसनपर बैठकर मायाके प्रभावसे उत्पन्न अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे कहा- हे पिताजी ! महान् | शक्तिशाली विष्णुने मुझे ठग लिया था। बहुत वर्षोंतक
मैं स्त्रीशरीर धारण किये रहा और मैंने पुत्रशोकजनित भीषण दुःखका अनुभव किया ॥ ११-१३॥ तत्पश्चात् उन्होंने ही अपने अमृतमय मधुर वचनसे मुझे समझाया और पुनः सरोवरमें स्नान करके मैं पुरुषरूप नारद हो गया ॥ १४॥
हे ब्रह्मन् ! उस समय मुझे जो मोह हो गया था, उसका क्या कारण है? उस समय मेरा पूर्वज्ञान विस्मृत हो गया था और मैं शीघ्र ही उन [राजा तालध्वज]-में पूर्णरूपसे अनुरक्त हो गया। हे ब्रह्मन् ! मैं मायाके इस बलको दुर्लंघ्य, ज्ञानकी हानि करनेवाला तथा मोहकी विस्तृत जड़ मानता हूँ ॥ १६ ॥
मैंने सम्पूर्ण शुभ तथा अशुभ परिस्थितियोंका अनुभव किया तथा सम्यक् प्रकारसे उनके विषयमें जाना। हे तात ! आपने उस मायाको कैसे जीता है ? वह उपाय मुझे भी बताइये ॥ १७ ॥
नारदजी बोले- हे व्यासजी ! पिता ब्रह्माजीसे मेरे इस प्रकार बतानेपर वे मुसकराकर मुझसे प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ १८ ॥
ब्रह्माजी बोले- सभी देवता, मुनि, महात्मा, तपस्वी, ज्ञानी तथा वायुसेवन करनेवाले योगियोंके लिये भी यह माया कठिनतासे जीती जानेवाली है ॥ १९ ॥
उस महाशक्तिशालिनी मायाको सम्यक् प्रकारसे जाननेमें मैं भी समर्थ नहीं हूँ। उसी प्रकार विष्णु तथा उमापति शंकर भी उसे जाननेमें समर्थ नहीं हैं ॥ २० ॥
सृजन, पालन तथा संहार करनेवाली वह महामाया सभीके लिये दुर्जेय है। काल, कर्म तथा स्वभाव आदि निमित्त कारणोंसे वह सदा समन्वित है ॥ २१ ॥
हे मेधाविन् ! अपरिमित बलसे सम्पन्न इस मायाके विषयमें आप शोक न करें। इसके विषयमें किसी प्रकारका विस्मय नहीं करना चाहिये। हमलोग भी मायासे विमोहित हैं ॥ २२ ॥
नारदजी बोले- हे व्यासजी ! पिताजीके ऐसा कहनेपर मेरा विस्मय दूर हो गया। इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर उत्तम तीर्थोंका दर्शन करता हुआ मैं यहाँ आ पहुँचा हूँ ॥ २३ ॥
अतएव हे श्रेष्ठ व्यासजी ! कौरवोंके नाशसे उत्पन्न मोहका परित्याग करके आप भी इस स्थानपर | सुखपूर्वक रहते हुए समय व्यतीत कीजिये ॥ २४ ॥
किये गये शुभ तथा अशुभ कर्मका फल अवश्य भोगना पड़ता है-ऐसा मनमें निश्चय करके आनन्दपूर्वक विचरण कीजिये ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! ऐसा कहकर मुझे समझानेके पश्चात् नारदजी वहाँसे चले गये। मुनि नारदने मुझसे जो वाक्य कहा था उसपर विचार करता हुआ मैं उस श्रेष्ठ सारस्वतकल्पमें सरस्वतीके तटपर ठहर गया।
हे राजन् ! समय व्यतीत करनेके उद्देश्यसे वहींपर मैंने सम्पूर्ण सन्देहोंको दूर करनेवाले, नानाविध आख्यानोंसे युक्त, वैदिक प्रमाणोंसे ओतप्रोत तथा पुराणोंमें उत्तम इस श्रीमद्देवीभागवतकी रचना की थी ॥ २६-२८ ॥
हे राजेन्द्र ! इसमें किसी तरहका संशय नहीं करना चाहिये। जिस प्रकार कोई इन्द्रजाल करनेवाला अपने हाथमें काठकी पुतली लेकर उसे अपने अधीन करके अपने इच्छानुसार नचाता है, उसी प्रकार यह माया चराचर जगत्को नचाती रहती है ॥ २९-३० ॥
ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी पाँच इन्द्रियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले देवता, मानव तथा दानव हैं; वे सभी मन तथा चित्तका अनुसरण करते हैं ॥ ३१ ॥
हे राजन् ! सत्त्व, रज तथा तम- ये तीनों गुण ही सभी कार्योंके सर्वथा कारण होते हैं। यह निश्चित है कि कोई भी कार्य किसी-न-किसी कारणसे अवश्य सम्बद्ध रहता है ॥ ३२ ॥
मायासे उत्पन्न हुए ये तीनों गुण भिन्न- भिन्न स्वभाववाले होते हैं; क्योंकि ये तीनों गुण (क्रमशः) शान्त, घोर तथा मूढ-भेदानुसार तीन प्रकारके होते हैं ॥ ३३ ॥
इन तीनों गुणोंसे सदा युक्त रहनेवाला प्राणी इन गुणोंसे विहीन कैसे रह सकता है? जिस प्रकार संसारमें तन्तुविहीन वस्त्रकी सत्ता नहीं हो सकती, उसी प्रकार तीनों गुणोंसे रहित प्राणीकी सत्ता नहीं हो सकती, यह पूर्णरूपेण निश्चित है।
हे नरेश ! जिस प्रकार मिट्टीके बिना घटका होना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार देवता, मानव अथवा पशु-पक्षी भी गुणोंके बिना नहीं रह सकते। यहाँतक कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश- ये तीनों भी इन गुणोंके आश्रित रहते हैं। गुणोंका संयोग होनेसे ही वे कभी प्रसन्न रहते हैं, कभी अप्रसन्न रहते हैं तथा कभी विषादग्रस्त हो जाते हैं ॥ ३४-३७ ॥
जब ब्रह्मा सत्त्वगुणमें स्थित रहते हैं तब वे शान्त, समाधिस्थ, ज्ञानसम्पन्न तथा सभी प्राणियोंके प्रति प्रेमसे युक्त हो जाते हैं। वे ही जव मन्त्वगुणसे विहीन होकर रजोगुणकी अधिकतासे युक्त होते हैं, तब उनका रूप भयावह हो जाता है और वे सबके प्रति अप्रीतिकी भावनासे युक्त हो जाते हैं। वे ही ब्रह्मा जब तमोगुणकी अधिकतासे आविष्ट हो जाते हैं. तब वे विषादग्रस्त तथा मूढ़ हो जाते हैं; इसमें संशय नहीं है ॥ ३८-४० ॥
सदा सत्त्वगुणमें स्थित रहनेवाले विष्णु इसी गुणके कारण शान्त, प्रीतिमान् तथा ज्ञानसम्पन्न रहते हैं। वे ही रमापति विष्णु रजोगुणकी अधिकताके कारण अप्रीतिसे युक्त हो जाते हैं और तमोगुणके अधीन होकर सभी प्राणियोंके लिये घोररूप हो जाते हैं ॥ ४१-४२ ॥
इसी प्रकार रुद्र भी सत्त्वगुणसे युक्त होनेपर प्रेम तथा शान्तिसे समन्वित रहते हैं, किंतु रजोगुणसे आविष्ट होनेपर वे भी भयानक तथा प्रेमविहीन हो जाते हैं। इसी तरह तमोगुणसे आविष्ट होनेपर वे रुद्र मूढ तथा विषादग्रस्त हो जाते हैं ॥ ४३३ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! यदि ये ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि तथा युग-युगमें जो सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी चौदहों मनु कहे गये हैं-वे भी गुणोंके अधीन रहते हैं, तब इस संसारमें अन्य लोगोंकी कौन-सी बात ? देवता, दानव तथा मानवसमेत यह सम्पूर्ण जगत् मायाका वशवर्ती है ॥ ४४-४६ ॥
अतएव हे राजन् ! इस विषयमें कदापि सन्देह नहीं करना चाहिये। प्राणी मायाके अधीन है और वह उसीके वशवर्ती होकर चेष्टा करता है ॥ ४७ ॥
वह माया भी सदा संविद्रूप परमतत्त्वमें स्थित रहती है। वह उसीके अधीन रहती हुई उसीसे प्रेरित होकर जीवोंमें सदा मोहका संचार करती है ॥ ४८ ॥
अतः विशिष्टमायास्वरूपा, प्रज्ञामयी, परमेश्वरी, मायाकी अधिष्ठात्री, सच्चिदानन्दरूपिणी भगवती जगदम्बाका ध्यान, पूजन, वन्दन तथा जप करना चाहिये। उससे वे भगवती प्राणीपर दया करके उसे मुक्त कर देती हैं और अपनी अनुभूति कराकर अपनी मायाको हर लेती हैं। समस्त भुवन मायारूप है तथा वे ईश्वरी उसकी नायिका हैं।
इसीलिये त्रैलोक्यसुन्दरी भगवतीको ‘भुवनेशी’ कहा गया है। हे पृथ्वीपते! यदि उन भगवतीके रूपमें चित्त सदा आसक्त हो जाय तो सत्-असत्स्वरूपा माया अपना क्या प्रभाव डाल सकती है ? अतः हे राजन् ! सच्चिदानन्दरूपिणी भगवती परमेश्वरीको छोड़कर अन्य कोई भी देवता उम मायाको दूर करनेमें समर्थ नहीं है ॥ ४९-५३३ ॥
एक अन्धकार किसी दूसरे अन्धकारको दूर करनेमें समर्थ नहीं हो सकता; किंतु सूर्य, चन्द्रमा. विद्युत् तथा अग्नि आदिकी प्रभा उस अन्धकारको मिटा देती है। अतएव मायाके गुणोंसे निवृत्ति प्राप्त करनेके लिये प्रसन्नतापूर्वक स्वयंप्रकाशित तथा ज्ञानस्वरूपिणी भगवती मायेश्वरीकी आराधना करनी चाहिये ॥ ५४-५५३ ॥
हे राजेन्द्र ! वृत्रासुर-वध आदिकी कथाके विषय में आपने जो पूछा था, उसका वर्णन मैंने भलीभाँति कर दिया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं? ॥ ५६३।
हे सुव्रत ! श्रीमद्देवीभागवतपुराणका पूर्वाध मैंने आपसे कहा, जिसमें देवीकी महिमाका विस्तार- पूर्वक वर्णन किया गया है। भगवती जगदम्बाक यह रहस्य जिस किसीको नहीं सुना देना चाहिये भक्त, शान्त, देवीकी भक्तिमें लीन, ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरुभक्तिसे युक्त शिष्यके समक्ष ही इसका वर्णन करना चाहिये ॥ ५७-५९॥
इस संसारमें जो मनुष्य सम्पूर्ण कथाओंके सार- स्वरूप, समस्त वेदोंकी तुलना करनेवाले तथा नानाविध प्रमाणोंसे परिपूर्ण इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणका विशेष श्रद्धाके साथ भक्तिपूर्वक पाठ करता है तथा इसका श्रवण करता है, वह ऐश्वर्यसम्पन्न तथा ज्ञानवान् हो जाता है ॥ ६० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे भगवतीमाहात्म्यवर्णनं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
॥ षष्ठः स्कन्धः समाप्तः ।।
॥ श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पूर्वार्ध सम्पूर्णम् ॥