Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 26 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:षड्विंशोऽध्यायःदेवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय)
(अथ षड्विंशोऽध्यायः)
:-व्यासजी बोले- [हे राजन् !] तब परमार्थवेत्ता नारदजी मेरी बात सुननेके पश्चात् मोहका कारण पूछनेवाले मुझसे मुसकराकर कहने लगे ॥ १ ॥
नारदजी बोले- हे पुराणवेत्ता व्यासजी ! आप क्या पूछ रहे हैं? यह पूर्णरूपसे निश्चित है कि इस संसारमें रहनेवाला कोई भी प्राणी मोहसे परे हो ही नहीं सकता ॥ २ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सनक तथा कपिल-ये सभी मायाके वशवर्ती होकर संसार-मार्गमें निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥ ३ ॥
लोग मुझे ज्ञानी समझते हैं, किंतु मैं भी एक बार सभी लोगोंकी भाँति भ्रमित हो गया था। मैं अपना पूर्व वृत्तान्त यथार्थरूपसे बता रहा हूँ, सुनिये ॥ ४ ॥
हे व्यासजी ! स्त्री-प्राप्तिके लिये अपने द्वारा स्वयं उत्पन्न किये गये मोहके कारण मुझे पूर्वकालमें महान् कष्टका अनुभव करना पड़ा था ॥ ५ ॥
एक बार मैं तथा पर्वतमुनि उत्तम भारतवर्षको देखनेके लिये देवलोकसे पृथ्वीलोकपर आये थे ॥ ६ ॥
विभिन्न तीर्थों, पवित्र स्थानों तथा मुनियोंके पावन आश्रमोंको देखते हुए हम दोनों साथ-साथ पृथ्वीतलपर विचरण करने लगे ॥ ७ ॥
देवलोकसे प्रस्थान करते समय हम दोनोंने आपसमें निश्चयपूर्वक सोच-विचारकर यह प्रतिज्ञा की थी कि जिसके मनमें जैसा भी पवित्र अथवा अपवित्र भाव उत्पन्न होगा, वह उसे कभी गोपनीय नहीं रखेगा ॥ ८-९ ॥
भोजनकी इच्छा, धनकी इच्छा अथवा काम- विषयक इच्छा- इनमेंसे जिस तरहकी भी इच्छा जिसके मनमें होगी, एक-दूसरेको बता दी जानी चाहिये ॥ १० ॥
ऐसी प्रतिज्ञा करके हम दोनों स्वर्गलोकसे पृथ्वीतलपर आये और एकचित्त होकर मुनिरूपमें इच्छापूर्वक विचरण करने लगे ॥ ११ ॥
इस प्रकार इस लोकमें विचरण करते हुए हम दोनों ग्रीष्म ऋतुके समाप्त हो जानेपर राजा संजयके सुरम्य नगरमें पहुँचे ॥ १२ ॥
राजा संजयने हम दोनोंकी भक्तिपूर्वक पूजा की तथा अत्यधिक सम्मान दिया। महान् आत्मावाले उन्हीं संजयके भवनमें रहकर हम दोनों अपना चातुर्मास्य व्यतीत करने लगे ॥ १३ ॥
वर्षाकालके चार महीने मार्गमें बहुत कष्टकारक होते हैं, अतएव विज्ञजनोंको उस अवधिमें एक ही | स्थानपर रहना चाहिये- ऐसा सिद्धान्त है ॥ १४ ॥
द्विजको चाहिये कि वह आठ महीनेतक अपने कार्यवश देशान्तरमें प्रवास करे, किंतु सुख चाहनेवाले पुरुषको वर्षाकालमें प्रवासके लिये नहीं जाना चाहिये ॥ १५॥
ऐसा सोचकर हम दोनों राजा संजयके भवनमें ठहर गये और उन महात्मा नरेशने हमलोगोंका सम्मानपूर्वक आतिथ्य किया ॥ १६ ॥
उन राजा संजयकी परम सुन्दरी तथा मनोहर दाँतोंवाली दमयन्ती नामसे विख्यात एक कन्या थी; उन्होंने उसे हमलोगोंकी सेवाके लिये आदेश दे दिया ॥ १७ ॥
विवेकका ज्ञान रखनेवाली तथा उद्यमी स्वभाववाली वह विशालनयना राजकुमारी सभी समय हम दोनोंकी सेवा करती रहती थी ॥ १८ ॥
वह हमारे स्नानके लिये जल, पर्याप्त मधुर भोजन, मुख-शुद्धिके लिये सुगन्धित गन्ध-द्रव्य तथा और भी जो हमारा अभीष्ट रहता, उसे समयसे हमलोगोंको दिया करती थी ॥ १९ ॥
वह कन्या हम दोनोंकी मनोभिलषित वस्तुएँ उपस्थित किया करती थी। वह व्यजन (पंखा), आसन तथा शय्या आदि मनोवांछित सामग्रियोंको उपलब्ध कराती रहती थी ॥ २० ॥
इस प्रकार उसके द्वारा सेवित होते हुए हम दोनों राजा संजयके भवनमें रहने लगे। वेदाध्ययनके स्वभाववाले हम दोनों मुनि सदा वेदव्रतमें संलग्न रहते थे ॥ २१ ॥
मैं हाथमें वीणा धारणकर उत्तम स्वरकी साधना करके कानोंके लिये रसायनस्वरूप अत्यन्त मधुर गायत्र-सामका गान करता रहता था ॥ २२ ॥
मनोहर सामगान सुनकर वह विदुषी राजकुमारी मेरे प्रति अनुरागयुक्त तथा प्रीतिमय हो गयी ॥ २३ ॥ मेरे प्रति उस राजकुमारीका अनुराग दिनोदिन बढ़ता ही चला गया और मुझमें प्रेम-भाव रखनेवाली उस कन्याके प्रति मेरा भी मन अत्यन्त आसक्त हो उठा ॥ २४ ॥
मुझपर विशेष अनुराग रखनेवाली वह राजकुमारी मेरे तथा उस पर्वतमुनिके लिये किये जानेवाले भोजनादिके प्रबन्धमें तथा सेवाकार्यमें कुछ भेदभाव करने लगी ॥ २५ ॥
स्नानके लिये मुझे उष्ण जल तथा पर्वतमुनिके लिये शीतल जल और इसी प्रकार मेरे लिये दही तथा पर्वतमुनिके लिये मडेकी व्यवस्था करती थी ॥ २६ ॥
वह मेरे लिये अत्यन्त प्रेमपूर्वक जैसा धवल आस्तरण (बिछौना) बिछाती थी, वैसा पर्वतके लिये नहीं ॥ २७ ॥
वह सुन्दरी मुझे अत्यन्त प्रेमपूर्ण भावसे देखती थी, किंतु पर्वतमुनिको नहीं। तब मुनि पर्वत उस प्रकारका प्रेम-भेद देखकर मन-ही-मन विस्मित होकर सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है? एकान्तमें उन्होंने मुझसे पूछा- हे नारद !
मुझे भलीभाँति बताइये, यह राजकुमारी अत्यन्त प्रसन्न होकर आपसे अत्यधिक प्रेम करती है और स्नेहयुक्त होकर आपको नानाविध भोज्य पदार्थ देती है, किंतु वैसा मेरे साथ नहीं करती है; यह भेद-भाव मेरे मनमें सन्देह उत्पन्न कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा संजयकी पुत्री आपको निश्चय ही पति बनाना चाहती है ॥ २८-३१ ॥
आपकी चेष्टाओंसे आपका भी वैसा ही भाव मुझे परिलक्षित हो रहा है; क्योंकि नेत्र तथा मुखके विकारोंसे प्रेमके कारणका पता चल जाता है ॥ ३२ ॥ हे मुने ! सच-सच कहिये। मिथ्या वचन मत बोलिये। स्वर्गसे प्रस्थान करते समय हम दोनोंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे इस समय याद कीजिये ॥ ३३ ॥
नारदजी बोले- जब पर्वतमुनिने हठपूर्वक इसका कारण मुझसे पूछा तब मैं अत्यन्त लज्जित हो गया और पुनः बोला- हे पर्वत ! विशाल नयनोंवाली यह राजकुमारी मुझे पति बनानेके लिये उद्यत है और उसके प्रति मेरे भी मनमें विशेष अनुराग भाव उत्पन्न हो गया है ॥ ३४-३५ ॥
मेरा यह सत्य वचन सुनकर पर्वतमुनि कुपित हो उठे और उन्होंने मुझसे कहा, ‘तुम्हें बार-बार धिक्कार है; क्योंकि प्रतिज्ञा करके पहले तुमने मुझे धोखा दिया है, अतएव हे मित्रद्रोही! मेरे शापसे तुम अभी बन्दरके मुखवाले हो जाओ’ ॥ ३६-३७ ॥
उस कुपित महात्मा पर्वतके ऐसा शाप देते ही मैं | तत्काल भयंकर बन्दरकी मुखाकृतिवाला हो गया ॥ ३८ ॥
तब मैंने भी अपने उस भगिनीपुत्र (भांजे) पर्वतको क्षमा नहीं किया। मैंने भी क्रोध करके उसे शाप दे दिया कि तुम भी अबसे स्वर्गके अधिकारी नहीं रहोगे ॥ ३९ ॥
हे मन्दात्मन् पर्वत ! क्योंकि मेरे छोटे-से अपराधके लिये तुमने मुझे ऐसा शाप दिया है, अतएव तुम्हारा भी अब मृत्युलोकमें निवास होगा ॥ ४० ॥
इसके बाद पर्वतमुनि अत्यन्त उदास मनसे उस नगरसे निकल पड़े और मैं भी उसी समयसे बन्दरके मुखवाला हो गया ॥ ४१ ॥
वीणा सुननेकी उत्कट अभिलाषा रखनेवाली वह परम विलक्षण राजकुमारी मुझे भयंकर बन्दरके रूपमें देखकर अत्यन्त उदास मनवाली हो गयी ॥ ४२ ॥
व्यासजी बोले- हे ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् क्या हुआ, आपको शापसे छुटकारा कैसे मिला तथा आप पुनः मानवकी मुखाकृतिवाले किस प्रकार हुए? ये सभी बातें भलीभाँति बताइये ॥ ४३ ॥
पर्वतमुनि कहाँ चले गये ? आप दोनोंका पुनर्मिलन कब, कहाँ और कैसे हुआ? यह सब विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ४४ ॥
नारदजी बोले- हे महाभाग ! क्या कहूँ ? मायाकी गति बड़ी विचित्र होती है। पर्वतमुनिके कुपित होकर चले जानेके पश्चात् मैं अत्यन्त दुःखित हो गया ॥ ४५ ॥
पर्वतमुनिके चले जानेपर मैं उसी भवनमें ठहरा रहा और वह राजकुमारी मेरी सेवामें पुनः तत्पर हो गयी ॥ ४६ ॥
वानरके समान मुख हो जानेके कारण मैं दुःखी तथा उदास रहने लगा। अब मेरा क्या होगा ? ऐसा सोच-सोचकर मैं विशेष चिन्तासे व्याकुल हो गया था ॥ ४७ ॥
अपनी पुत्री राजकुमारी दमयन्तीको कुछ- कुछ प्रकट यौवनवाली देखकर उसके विवाहके सम्बन्धमें राजा संजयने मन्त्रीसे पूछा- अब मेरी पुत्रीका विवाह-योग्य समय हो गया है। अतएव योग्य वरके रूपमें कोई ऐसा राजकुमार आप मुझे | बतलाइये, जो रूप-उदारता गुण आदिसे सम्पन्न,पराक्रमी, उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा सभीके लिये श्रेष्ठ हो। उसके साथ मैं अपनी पुत्रीका विधिवत् विवाह अभी कर दूँगा ॥ ४८-५० ॥
इसपर प्रधान सचिवने कहा- हे राजन् ! आपकी कन्याके अनुरूप बहुतसे योग्य तथा सर्वगुणसम्पन्न राजकुमार इस पृथ्वीपर विद्यमान हैं ॥ ५१ ॥
हे राजेन्द्र ! जिसमें आपकी रुचि हो, उस राजपुत्रको बुलाकर बहुत-से हाथी, घोड़े, रथ और धनसहित अपनी कन्या उसे प्रदान कर दीजिये ॥ ५२ ॥
नारदजी बोले- बातचीतमें परम कुशल दमयन्तीने पिताका अभिप्राय समझकर अपनी धायके मुखसे एकान्तमें स्थित राजासे कहलाया ॥ ५३ ॥
धात्रीने कहा- हे महाराज ! आपकी पुत्री दमयन्तीने मुझसे ऐसा कहा है- हे धात्रेयि ! तुम मेरे वचनसे मेरे पिताजीसे यह सुखकर बात कह दो-नादसे मोहित मैं महती वीणा धारण करनेवाले प्रतिभासम्पन्न नारदका वरण कर चुकी हूँ; अन्य कोई भी मुझे प्रिय नहीं है ॥ ५४-५५ ॥
हे तात ! आप मेरी इच्छाके अनुरूप मुनिके साथ मेरा विवाह कर दीजिये। हे धर्मज्ञ ! मैं नारदको छोड़कर किसी दूसरेको अपना पति नहीं बनाऊँगी ॥ ५६ ॥ अब मैं घड़ियाल तथा भयंकर मत्स्य आदि जन्तुओंसे शून्य, खारेपनसे रहित, सुखसे परिपूर्ण एवं रसमय नादसिन्धुमें निमग्न हो गयी हूँ ॥ ५७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां षष्ठस्कन्धे दमयन्तीविवाहप्रस्ताववर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥