Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 24 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:चतुर्विंशोऽध्यायः धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा)
(अथ चतुर्विंशोऽध्यायः )
:-राजा बोले- हे भगवन् ! आपके मुखार- विन्दसे निर्गत इस अमृततुल्य दिव्य कथारसका निरन्तर पान करते रहनेपर भी मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ १॥
आपके द्वारा मुझसे यह विचित्र आख्यान • विस्तारपूर्वक कहा गया; हैहयवंशी राजाओंकी उत्पत्ति तो अत्यन्त आश्चर्यजनक है ॥ २॥
मुझे इस विषयमें महान् कौतूहल हो रहा है – कि देवाधिदेव जगत्पति लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णु स्वयं जगत्के उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहर्ता हैं; उन्हें भी अश्वरूप धारण करना पड़ गया ?
सर्वथा – स्वतन्त्र रहनेवाले वे अच्युत पुरुषोत्तम भगवान् हरि परतन्त्र कैसे हो गये ? हे ब्रह्मन् ! इस समय मेरे इस सन्देहका निवारण करनेमें आप पूर्ण समर्थ हैं। हे मुनिवर ! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव इस अद्भुत वृत्तान्तका वर्णन कीजिये ॥ ३-५॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! सुनिये, इस सन्देहका निर्णय पूर्व समयमें मैंने मुनिश्रेष्ठ नारदजीसे जैसा सुना है, वैसा ही आपको बता रहा हूँ ॥ ६ ॥
नारदजी ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। वे तपस्वी, सर्वज्ञानी, सर्वत्र गमन करनेवाले, शान्त, समस्त लोकोंके प्रिय एवं मनीषी हैं ॥ ७ ॥
एक बार वे मुनिवर नारद स्वर तथा तानसे युक्त अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए तथा सामगानके बृहद्रथन्तर आदि अनेक भेदों और अमृतमय गायत्र- सामका गान करते हुए इस पृथ्वीपर विचरण करते हुए मेरे आश्रमपर पहुँचे। वह शम्याप्रास महातीर्थ सरस्वतीके पावन तटपर विराजमान है। कल्याण और ज्ञान प्रदान करनेवाला वह तीर्थ प्रधान ऋषियोंका निवासस्थान है ॥ ८-१०॥
ब्रह्माजीके पुत्र महान् तेजस्वी नारदजीको अपने आश्रममें आया देखकर मैं उठकर खड़ा हो गया और | मैंने भलीभाँति उनकी पूजा आदि की ॥ ११ ॥
अर्घ्य तथा पाद्य आदिसे उनका विधिपूर्वक पूजन करके आदरपूर्वक आसनपर विराजमान उन अमित तेजस्वी नारदके समीप मैं बैठ गया ॥ १२ ॥
हे राजन् ! तत्पश्चात् ज्ञानके पार पहुँचानेमें समर्थ मुनि नारदको मार्गश्रमसे रहित तथा शान्तचित्त देखकर मैंने उनसे वही प्रश्न पूछा था, जो आपने इस समय मुझसे पूछा है ॥ १३ ॥
[मैंने उनसे पूछा-] हे मुने ! इस सारहीन जगत्में प्राणियोंको क्या सुख प्राप्त होता है ? विचार करनेपर मुझे तो कभी भी, कहीं भी तथा कुछ भी सुख नहीं दिखायी देता है ॥ १४ ॥
मुझे ही देखिये, एक द्वीपमें जन्म लेते ही मेरी माताने मेरा त्याग कर दिया। तभीसे आश्रयहीन रहता हुआ मैं वनमें अपने कर्मके अनुसार बढ़ने लगा ॥ १५ ॥
हे देवर्षे ! तत्पश्चात् मैंने पुत्रप्राप्तिकी कामनासे एक पर्वतपर बहुत वर्षोंतक शंकरजीकी उपासना करते हुए कठोर तपस्या की ॥ १६ ॥
तब ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ शुकदेव मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त हुए। मैंने उन्हें आरम्भसे लेकर सम्यक् प्रकारसे वेदोंका सारभूत तत्त्व पढ़ा दिया ॥ १७ ॥
हे साधो ! आपके वचनोंसे ज्ञान प्राप्त करके मेरा वह पुत्र मुझ विरहातुरको रोता हुआ छोड़कर लोकलोकान्तरमें कहीं चला गया ? ॥ १८ ॥
तब पुत्रविरहसे सन्तप्त मैं महापर्वत सुमेरुको छोड़कर अपनी माताको मनमें याद करते हुए कुरुजांगल प्रदेशमें पहुँचा ॥ १९ ॥
संसार मिथ्या है-ऐसा जानते हुए भी मायापाशमें बँधा हुआ मैं पुत्र-स्नेहके कारण शोकाकुल रहनेसे अत्यन्त दुर्बल शरीरवाला हो गया ॥ २० ॥
तत्पश्चात् जब मैंने यह जाना कि वासवराजसुता मेरी कल्याणमयी माताका राजा शन्तनुने वरण कर लिया है, तब मैं सरस्वतीके पवित्र तटपर आश्रम बनाकर रहने लगा ॥ २१ ॥
इसके बाद महाराज शन्तनुके स्वर्ग प्राप्त कर लेनेपर मेरी माँ विधवा हो गयीं। तब भीष्मने दो पुत्रोंवाली मेरी माताका पालन किया ॥ २२ ॥
३
बुद्धिमान् गंगापुत्र भीष्मने चित्रांगदको राजा बनाया। किंतु कुछ ही समयमें कामदेवके सदृश कान्तिमान् मेरे भाई चित्रांगद भी मृत्युको प्राप्त हो गये ॥ २३ ॥
पुत्र चित्रांगदके मर जानेपर मेरी माता सत्यवती अत्यन्त दुःखित होकर रोने लगीं और नित्य शोकके समुद्रमें निमग्न रहने लगीं ॥ २४ ॥
हे महाभाग ! उन पतिव्रताको दुःखित जानकर मैं उनके पास गया। वहाँ मैंने तथा महात्मा भीष्मने उन्हें बहुत सान्त्वना दी ॥ २५ ॥तब स्त्री तथा राज्यसे विमुख भीष्मने अपने दूसरे भाई पराक्रमी विचित्रवीर्यको राजा बना दिया ॥ २६ ॥
तत्पश्चात् भीष्मने अपने बलसे राजाओंको जीतकर काशिराजकी दो सुन्दर पुत्रियोंको लाकर माता सत्यवतीको समर्पित कर दिया। पुनः शुभ मुहूर्तमें जब भाई विचित्रवीर्यका विवाह सम्पन्न हो गया तब मैं बहुत प्रसन्न हुआ ॥ २७-२८ ॥
कुछ ही समयमें मेरे धनुर्धर भाई विचित्रवीर्य भी यक्ष्मा रोगसे ग्रस्त होकर युवावस्थामें ही निःसन्तान मर गये, जिससे मेरी माता दुःखित हुईं ॥ २९ ॥
इधर जब काशिराजकी दोनों पुत्रियोंने अपने पतिको मृत देखा तब वे दोनों बहनें पातिव्रत्य धर्मके पालनके लिये तत्पर हुईं ॥ ३० ॥
वे दारुण दुःखके कारण रोती हुई अपनी साध्वी साससे कहने लगीं- हे श्वश्रु ! हम दोनों चिताग्निमें अपने पतिके साथ ही जायँगी। आपके पुत्रके साथ स्वर्गमें जाकर हम दोनों अपने पतिसे युक्त होकर नन्दनवनमें सुखपूर्वक विहार करेंगी ॥ ३१-३२ ॥
तब स्नेहभावका आश्रय लेकर मेरी माताने भीष्मके परामर्शसे उन दोनों वधुओंको महान् चेष्टा करनेसे रोक दिया ॥ ३३ ॥विचित्रवीर्यकी सभी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न करके गंगातनय भीष्म तथा मेरी माताने आपसमें मन्त्रणा करके मुझे हस्तिनापुर आनेके लिये मेरा | स्मरण किया ॥ ३४ ॥
इस प्रकार माताके स्मरण करते ही उनके मनोगत भावको जानकर शीघ्र ही मैं हस्तिनापुरमें आ गया। सिर झुकाकर माताको प्रणाम करके मैं हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़ा हो गया और पुत्रशोकके कारण अत्यन्त दुर्बल तथा तप्त अंगोंवाली उन मातासे मैंने कहा- ॥ ३५-३६ ॥
हे माता ! आपने अपने मनमें स्मरण करके यहाँ मुझे किसलिये बुलाया है ? हे तपस्विनि ! बड़े- से-बड़े कार्यके लिये मुझे आदेश दीजिये; मैं आपका दास हूँ, मैं क्या करूँ ? ॥ ३७ ॥
हे माता! मेरा परम तीर्थ तथा महान् परम देव आप ही हैं। आपके स्मरण करते ही मैं यहाँ उपस्थित हो गया हूँ। अब आप अपना प्रिय कार्य बताइये ॥ ३८ ॥
व्यासजी बोले- हे मुने ! ऐसा कहकर जब मैं माताके आगे खड़ा हो गया तब पास ही बैठे हुए भीष्मको देखती हुई वे मुझसे यह कहने लगीं ॥ ३९ ॥हे पुत्र ! राजयक्ष्मा रोगसे ग्रस्त होकर तुम्हारे भाई विचित्रवीर्य मृत्युको प्राप्त हो गये हैं। अतएव वंशके नष्ट होनेके भयसे मैं दुःखी हूँ ॥ ४० ॥
हे प्रतिभाशाली पराशरनन्दन ! इसी उद्देश्यकी पूर्तिके लिये मैंने भीष्मके परामर्शसे समाधिद्वारा तुम्हें यहाँ बुलाया है ॥ ४१ ॥
इस नष्ट होते हुए वंशको तुम स्थापित करो, जिससे महाराज शन्तनुका नाम बना रहे। हे द्वैपायन कृष्ण! वंशच्छेदजन्य दुःखसे मेरी शीघ्र रक्षा करो ॥ ४२ ॥
तुम्हारे सदाचारी लघुभ्राता विचित्रवीर्यकी रूप- यौवनसम्पन्न दो भार्याएँ हैं, जो काशिराजकी पुत्रियाँ हैं ॥ ४३ ॥हे मेधाविन् ! उन दोनोंके साथ संसर्ग करके तुम पुत्र उत्पन्न करो, भरतवंशकी रक्षा करो; इसमें कोई दोष नहीं है ॥ ४४ ॥
व्यासजी बोले- [हे नारद !] माताका यह वचन सुनकर मैं चिन्तामें पड़ गया और लज्जासे व्याकुल मनवाला | होकर मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा- हे माता !
परनारीसंगम महान् पापकर्म है। धर्ममार्गका सम्यक् ज्ञान रखते हुए भी मैं आसक्तिपूर्वक ऐसा कर्म कैसे कर सकता हूँ ? और फिर छोटे भाईकी पत्नी कन्याके समान कही गयी है। ऐसी स्थितिमें सभी वेदोंका अध्ययन करके भी मैं ऐसा व्यभिचार कैसे करूँ ? अन्यायसे कुलकी रक्षा कदापि नहीं करनी चाहिये; क्योंकि पाप करनेवालेके पितृगण संसार-सागरसे कभी नहीं पार हो सकते।
जो समग्र पुराणोंका प्रवर्तक तथा लोगोंको उपदेश करनेवाला हो, वह जान- बूझकर ऐसा अद्भुत तथा निन्दनीय कार्य कैसे कर सकता है ? ॥ ४५-४९ ॥तत्पश्चात् वंश-रक्षाकी कामनासे युक्त मेरी माता, जो पुत्रशोकसे अत्यधिक सन्तप्त थीं, विलाप करती हुई समीपमें आकर मुझसे पुनः कहने लगीं – ॥ ५०॥
हे पराशरनन्दन ! हे पुत्र ! मेरे कहनेपर ऐसा करनेसे तुम दोषभागी नहीं होओगे। शिष्टजनोंका आचार ही प्रमाण है-ऐसा मानकर मनुष्योंको गुरुजनोंके दोषपूर्ण वचनोंको भी उचित समझकर बिना कुछ सोच-विचार किये कर डालना चाहिये। हे पुत्र ! मेरी बात मान लो ! हे मानद ! इससे तुम्हें दोष नहीं लगेगा। हे सुत ! पुत्र उत्पन्न करके अत्यधिक सन्तप्त तथा शोकसागरमें निमग्न अपनी माताको सुखी करो ॥ ५१-५३ ॥
माताकी यह बात सुनकर सूक्ष्मधर्मके निर्णयमें विशेष ज्ञान रखनेवाले गंगातनय भीष्मने मुझसे कहा- हे कृष्ण-द्वैपायन ! तुम्हें इस विषयमें विचार नहीं करना चाहिये। हे पुण्यात्मन् ! माताका वचन मानकर तुम सुखपूर्वक विहार करो ॥ ५४-५५ ॥
व्यासजी बोले- [हे नारद !] भीष्मका यह वचन सुनकर तथा माताकी प्रार्थनापर मैं निःशंक भावसे उस निन्द्य कर्ममें प्रवृत्त हो गया ॥ ५६ ॥
रात्रिमें मैं प्रसन्नतापूर्वक ऋतुमती अम्बिकाके साथ प्रवृत्त हुआ, किंतु मुझ कुरूप तपस्वीके प्रति उसके अनुरागहीन होनेके कारण मैंने उस सुश्रोणीको शाप दे दिया कि प्रथम संसर्गके समय ही तुमने अपनी दोनों आँखें बन्द कर ली थीं, अतः तुम्हारा पुत्र अन्धा होगा ॥ ५७-५८ ॥
हे मुनिवर ! दूसरे दिन माताने एकान्तमें मुझसे फिर पूछा- हे पुत्र ! क्या काशिराजकी पुत्री अम्बिकाके गर्भसे पुत्र उत्पन्न होगा? तब लज्जाके कारण मुख नीचे किये हुए मैंने मातासे कहा- हे माता ! मेरे शापके प्रभावसे नेत्रहीन पुत्र उत्पन्न होगा ॥ ५९-६० ॥हे मुने ! इसपर माताने कठोर वाणीमें मेरी भर्त्सना की- ‘हे पुत्र ! तुमने शाप क्यों दिया कि तुम्हारा पुत्र अन्धा होगा’ ॥ ६१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां षष्ठस्कन्धे अम्बिकायां नियोगात्पुत्रोत्पादनाय गर्भधारणवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥