Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 22 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्यायःयशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना)
(अथ द्वाविंशोऽध्यायः)
:-यशोवती बोली – एक बार वह सुन्दरी एकावली प्रातःकाल उठकर अपनी सखियोंके साथ बाहर निकल पड़ी। वह बहुत-से रक्षकोंसे रक्षित थी तथा उसके ऊपर चॅवर डुलाये जा रहे थे। हे राजेन्द्र ! वह सुन्दरी यहाँ सुन्दर कमलोंके पास क्रीड़ा करनेके लिये आयी थी ॥ १-२ ॥
कमलोंसे खेलनेकी रुचिवाली इस कन्याके साथ मैं भी अप्सराओंसहित गंगाके तटपर आयी थी ॥ ३ ॥
जब मैं तथा एकावली दोनों खेलनेमें व्यस्त हो गयीं, उसी समय हाथोंमें परिघ, तलवार, गदा, धनुष, बाण तथा तोमर धारण किये हुए बहुत-से राक्षसोंके साथ कालकेतु नामक बलवान् दानव वहाँ अकस्मात् आ पहुँचा ॥ ४-५ ॥
उसने कमलोंके साथ क्रीडा करती हुई उस रूप-यौवनसम्पन्न तथा दूसरी कामपत्नी रतिकी भाँति प्रतीत हो रही एकावलीको देख लिया ॥ ६ ॥
हे राजन् ! मैंने एकावलीसे कहा- हे कमलनयने ! यह कौन-सा दैत्य आ गया है! अब हम दोनों रक्षकोंके पास भाग चलें ॥ ७ ॥
हे राजकुमार ! इस प्रकार विचारविमर्श करके सखी एकावली तथा मैं भयभीत होनेके कारण शस्त्रधारी सैनिकोंके बीच तुरंत चली गयी ॥ ८ ॥
वह कामातुर कालकेतु उस मोहिनी एकावलीको देखकर अपनी विशाल गदा लेकर दौड़ता हुआ पासमें आ गया और उसने रक्षकोंको हटाकर डरके मारे काँपती तथा रोती हुई कृश कटिप्रदेशवाली तथा कमलके समान नेत्रोंवाली एकावलीको पकड़ लिया ॥ ९-१० ॥
‘इस राजकुमारीको छोड़ दो और मुझे ग्रहण कर लो’- ऐसा मेरे कहनेपर भी उसने मुझे स्वीकार नहीं किया और कामके वशीभूत वह दानव एकावलीको लेकर वहाँसे निकल गया ॥ ११ ॥
रक्षकोंने ‘ठहरो-ठहरो’- ऐसा कहते हुए उस महाबलीको रोककर उसके साथ विस्मयकारक युद्ध किया ॥ १२ ॥
अपने स्वामीके कार्यमें पूर्ण तत्पर तथा हाथोंमें शस्त्र धारण किये उसके सभी क्रूर राक्षसोंने भी रक्षकोंके साथ भीषण युद्ध किया। तब उन रक्षकोंके साथ कालकेतुका संग्राम होने लगा। वह महाबली युद्धमें सभी रक्षकोंको मारकर तथा एकावलीको लेकर राक्षसी सेनाके साथ अपने नगरके लिये चल दिया।
दानव कालकेतुके द्वारा अधिकारमें की गयी उस राजकुमारीको रोती हुई देखकर मैं उसके पीछे- पीछे वहीं पहुँच जाती थी, जहाँ कालकेतु मेरी सखीको लेकर जाता था जिससे कि रोती हुई वह मुझे अपने पीछे आते हुए देख ले ॥ १३-१६ ॥
मुझे आयी हुई देखकर वह भी कुछ स्वस्थचित्त हुई तब मैं उसके पास जाकर उससे बार-बार बातें करने लगी ॥ १७ ॥
हे राजन् ! दुःखसे व्याकुल तथा पसीनेसे संसिक्त उस एकावलीने मुझे पकड़कर गलेसे लगा लिया और वह अत्यन्त दुःखित होकर रोने लगी ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् उस कालकेतुने प्रेम प्रदर्शित करते हुए मुझसे यह बात कही कि चंचल नेत्रोंवाली अपनी इस भयग्रस्त सखीको धीरज बँधाओ और अपनी इस सखीसे [मेरी बात] कहो- ‘हे प्रिये ! देवलोकके समान अत्यन्त सुन्दर मेरा नगर अब आ ही गया है। तुम्हारे प्रेमके कारण मैं तुम्हारा दास हो चुका हूँ। तुम भयभीत होकर क्यों विलाप कर रही हो ?
हे सुलोचने ! अब शान्त हो जाओ’- ऐसा कहकर उसी उत्तम रथमें सखीके पास मुझे भी बैठाकर प्रसन्नताके कारण खिले हुए कमलके समान मुखवाला दुष्ट कालकेतु अपनी भारी सेनाके साथ अपने सुन्दर नगरके लिये शीघ्र ही चल दिया ॥ १९-२२ ॥
वहाँ उस दानवने मुझे तथा एकावलीको एक दिव्य महलमें ठहराकर उस महलकी रक्षाके लिये करोड़ों राक्षस नियुक्त कर दिये ॥ २३ ॥
हे राजन् ! दूसरे दिन उस कालकेतुने एकान्तमें मुझसे कहा-विरहसे दुःखित तथा शोक करती हुई अपनी सुन्दर सखीको [मेरे शब्दों में] समझाओ- ‘हे सुश्रोणि ! तुम मेरी पत्नी हो जाओ और फिर यथेच्छ सुखोपभोग करो। हे चन्द्रमुखि ! अब यह राज्य तुम्हारा है और मैं सदाके लिये तुम्हारा सेवक बन गया हूँ’ ॥ २४-२५ ॥
उसका ऐसा दुर्वचन सुनकर मैंने उससे यह बात कही कि हे प्रभो! मैं ऐसा अप्रिय वाक्य नहीं कह सकती, अतः आप ही इससे कहिये ॥ २६ ॥
मेरे ऐसा कहनेपर कामसे आहत चित्तवाले उस दुष्ट दानवने कृश उदरवाली मेरी उस प्रिय सखीसे विनयपूर्वक कहा- ॥ २७ ॥
हे कृशोदरि ! तुमने मेरे ऊपर कोई मन्त्र-प्रयोग कर दिया है। हे कान्ते ! उसीसे मोहित होकर मेरा मन तुम्हारे वशमें हो चुका है। उसी मन्त्रने मुझे अब तुम्हारा दास बना दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
इसलिये कामबाणसे आहत मुझ अत्यन्त विवशको अब तुम स्वीकार कर लो। हे रम्भोरु ! तुम्हारा दुर्लभ तथा चंचल यौवन व्यर्थ जा रहा है। इसलिये हे कल्याणि ! पतिभावसे मेरा आलिंगन करके इसे सफल कर लो ॥ २८-३० ॥
एकावली बोली- मेरे पिता राजकुमार हैहयको मुझे देनेका पहले ही निश्चय कर चुके हैं। मैंने भी उन महाभागका मनसे वरण कर लिया है ॥ ३१ ॥
सनातनधर्मका त्याग करके तथा कन्याधर्म छोड़कर मैं दूसरेको पतिरूपमें कैसे स्वीकार करूँ ? आप भी तो शास्त्रीय नियमको जानते ही हैं। पिता कन्याको जिसे सौंप दे, कन्या उसीको पति बना ले। कन्या इस विषयमें सदा पराधीन रहती है, उसे स्वतन्त्रता कभी नहीं रहती ॥ ३२-३३ ॥
[हे राजकुमार !] उस एकावलीके ऐसा कहनेपर भी वह पापात्मा कालकेतु राजकुमारीपर मोहित रहनेके कारण अपने निश्चयसे विचलित नहीं हुआ और उसने विशाल नेत्रोंवाली एकावलीको तथा उसके पासमें स्थित मुझको नहीं छोड़ा ॥ ३४ ॥
उस कालकेतुका नगर अनेक प्रकारके संकटोंसे युक्त एक पाताल-विवरमें विद्यमान है। वहींपर चारों ओर खाइयोंसे घिरा हुआ तथा राक्षसोंसे पूर्णतया रक्षित उसका सुन्दर दुर्ग है। मेरी प्राणप्यारी सखी एकावली वहींपर दुःखके साथ पड़ी हुई है। इसलिये उसके विरहसे अत्यन्त व्यथित होकर मैं यहाँ विलाप कर रही हूँ ॥ ३५-३६ ॥
एकवीरने कहा- हे वरानने ! उस दुष्टात्मा कालकेतुके नगरसे तुम यहाँ कैसे आ गयी? इस बातसे मैं बहुत ही आश्चर्यचकित हूँ; तुम मुझसे इस विषयमें बताओ ॥ ३७ ॥
हे भामिनि ! अभी तुमने जो कहा है कि एकावलीके पिताने उसका विवाह हैहयके साथ करनेका निश्चय किया है, वह बात मुझे अत्यन्त सन्देहास्पद प्रतीत हो रही है। हैहय नामका राजा मैं ही हूँ; अन्य कोई राजा नहीं है। सुन्दर नेत्रोंवाली वह तुम्हारी सखी अपने पिताके द्वारा कहीं मेरे लिये ही तो कल्पित नहीं की गयी है ? ॥ ३८-३९ ॥
हे सुभु! हे भामिनि ! तुम मेरे इस सन्देहको दूर करो। मैं उस अधम राक्षसका वध करके उस एकावलीको ले आऊँगा। हे सुव्रते ! यदि तुम उस राक्षसका स्थान जानती हो तो वह स्थान मुझे दिखा दो। उसके पिता राजा रैभ्यको तुमने यह बताया अथवा नहीं कि वह अत्यन्त दुःखित है ॥ ४०-४१ ॥
जिसकी ऐसी प्रिय पुत्री हो, क्या वह उसके हरणको नहीं जानता ? और फिर उसने एकावलीकी मुक्तिके लिये क्या कोई प्रयास नहीं किया ? ॥ ४२ ॥
अपनी पुत्रीको बन्दी बनाया गया जाननेके बाद भी राजा स्थिरचित्त होकर कैसे चुप बैठे हैं? अथवा राजा कुछ कर पानेमें असमर्थ तो नहीं हैं? मुझे इसका कारण शीघ्र बताओ ॥ ४३ ॥
हे कमलनयने ! तुमने अपनी सखीके अलौकिक * गुणोंको बताकर मेरे चित्तको हर लिया है तथा मैं पूर्ण-रूपसे कामके वशीभूत कर दिया गया हूँ ॥ ४४॥अब तो मेरे मनकी यही अभिलाषा है कि उस – प्रियाको इस महान् संकटसे मुक्त करके मैं उसे कब देख लूँ ॥ ४५ ॥
अब उस दानवके अत्यन्त दुर्गम नगरमें जानेका ● उपाय मुझे बताओ और यह भी बताओ कि उस महान् संकटसे छूटकर तुम यहाँ कैसे आयी ? ॥ ४६ ॥
यशोवती बोली – हे राजन् ! मैंने बाल्यावस्थासे ही एक सिद्ध ब्राह्मणसे बीज तथा ध्यानसहित भगवतीका मन्त्र प्राप्त किया है ॥ ४७ ॥
हे राजन् ! जब मैं कालकेतुके यहाँ थी तभी मैंने अपने मनमें सोचा कि अब मैं प्रचण्ड पराक्रमवाली भगवती चण्डिकाकी निरन्तर आराधना करूँ। वे भगवती पूर्णरूपसे आराधित होनेपर निश्चितरूपसे मुझे इस बन्धनसे मुक्त करेंगी; क्योंकि भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाली वे शक्तिस्वरूपा चण्डिका सब कुछ करनेमें समर्थ हैं।
जो निराकार तथा निरालम्ब भगवती अपनी शक्तिसे जगत्का सृजन करती हैं तथा पालन करती हैं, वे ही कल्पके अन्तमें उसका संहार भी कर देती हैं। मनमें ऐसा सोचकर मैं विश्वकी अधिष्ठात्री, कल्याणकारिणी, लाल वस्त्र धारण करनेवाली, सौम्य विग्रहवाली तथा सुन्दर रक्त नयनोंवाली भगवतीका ध्यान करके मन-ही-मन उनके रूपका स्मरण करके मन्त्रका जप करनेमें तत्पर हो गयी। इस प्रकार मैं समाधि लगाकर एक माहतक भगवती जगदम्बाकी उपासना करती रही ॥ ४८-५२ ॥
तत्पश्चात् मेरे भक्तिभावसे प्रसन्न होकर देवी चण्डिकाने मुझे स्वप्नमें दर्शन दिया और अमृतमयी वाणीमें मुझसे कहा- ‘तुम सोयी क्यों हो ? उठो और तत्काल गंगाजीके मनोहर तटपर चली जाओ; वहींपर विशाल भुजाओंवाले तथा सभी शत्रुओंका दमन करनेवाले नृपश्रेष्ठ हैहय एकवीर आयेंगे। दत्तात्रेयजीने महाविद्या नामक मेरा श्रेष्ठ मन्त्र उन्हें प्रदान किया है।
वे भी भक्तिपूर्वक निरन्तर मेरी उपासना करते रहते हैं। उनका मन सदा मुझमें लगा रहता है तथा वे सदा मेरी पूजामें रत रहते हैं। मेरे प्रति आसक्तिभाव रखनेवाले वे सभी प्राणियोंमें एकमात्र मुझे ही देखते हुए सदा मेरे ही परायण रहते हैं। वे महामति एकवीर ही तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।
वे लक्ष्मीपुत्र एकवीर घूमते हुए गंगातटपर आकर तुम्हारी रक्षा करेंगे और उस भयानक राक्षस कालकेतुका वध करके मानिनी एकावलीको मुक्त करेंगे। इसके बाद तुम समस्त शास्त्रोंमें निष्णात उन्हीं सुन्दर राजकुमार एकवीरके साथ एकावलीका विवाह करवा देना’ ॥ ५३-५९ ॥
ऐसा कहकर देवी अन्तर्धान हो गयीं और मैं उसी समय जग गयी। तत्पश्चात् मैंने स्वप्नका वृत्तान्त तथा देवीकी आराधनाकी बात एकावलीको बतायी ॥ ६० ॥
सारी बातें सुनकर उस कमलनयनीके मुख- मण्डलपर प्रसन्नता छा गयी। अत्यन्त सन्तुष्ट होकर पवित्र मुसकानवाली एकावलीने मुझसे कहा- हे प्रिये ! तुम वहाँ शीघ्रतापूर्वक जाओ और मेरा कार्य सिद्ध करो। जो भगवती सत्य वाणीवाली हैं, वे हम दोनोंको मुक्त करेंगी ॥ ६१-६२ ॥
हे राजन् ! सखी एकावलीके इस प्रकार प्रेमपूर्वक आदेश देनेपर उस समय प्रस्थान कर देना उचित समझकर मैं उस स्थानसे तुरंत चल पड़ी। हे राजकुमार ! भगवती जगदम्बाकी कृपासे मार्गकी जानकारी तथा द्रुतगतिसे चलनेकी क्षमता मुझे प्राप्त हो गयी थी ॥ ६३-६४॥
हे वीर ! इस प्रकार मैंने अपने दुःखी होनेका समस्त कारण आपको बता दिया। अब जिस प्रकार मैंने आपको अपने विषयमें बताया, उसी प्रकार आप भी बताइये कि | आप कौन हैं तथा किसके पुत्र हैं ? ॥ ६५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां षष्ठस्कन्धे हैहयैकवीराय यशोवत्यैकावलीमोचनाय देवीस्वप्नवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥