Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 17 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:सप्तदशोऽध्यायःभगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा)
(अथ सप्तदशोऽध्यायः)
:-जनमेजय बोले- भृगुवंशकी स्त्रियोंका पुनः दुःखरूप समुद्रसे कैसे उद्धार हुआ और उन ब्राह्मणोंकी वंशपरम्परा किस प्रकार स्थिर रही ? ॥१॥
लोभके वशीभूत तथा पापाचारी हैहय क्षत्रियोंने उन ब्राह्मणोंको मारनेके पश्चात् कौन-सा कार्य किया ? उसे आप बताइये ॥ २ ॥
हे ब्रह्मन् ! आपके द्वारा कथित इस पवित्र, लोगोंके लिये सुखदायक तथा परलोकमें फल देनेवाले कथामृतका पान करते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! सुनिये, वे स्त्रियाँ उस भयावह दुःखसे जिस प्रकार मुक्त हुईं, अब मैं उस पापनाशिनी कथाका वर्णन करूँगा ॥ ४॥
हे राजन् ! जब क्षत्रिय हैहय भृगुकुलकी नारियोंको बहुत पीड़ित करने लगे तब वे भयभीत तथा निराश होकर हिमालयपर्वतपर चली गयीं ॥ ५ ॥
उन्होंने वहाँ नदीके तटपर गौरीकी मृण्मयी प्रतिमा स्थापित करके निराहार रहते हुए [उपासनामें लीन होकर] अपने मरणके प्रति पूरा निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥
एक समय स्वप्नमें भगवती जगदम्बाने उन उत्तम स्त्रियोंके पास पहुँचकर कहा- तुमलोगोंमेंसे किसीकी जंघासे एक पुरुष उत्पन्न होगा। मेरा अंशभूत वही शक्तिमान् पुरुष तुमलोगोंका कार्य सिद्ध करेगा। ऐसा कहकर पराम्बा भगवती अन्तर्धान हो गयीं ॥ ७-८ ॥
जागनेपर वे सभी स्त्रियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। उनमेंसे किसी चतुर, कामिनी स्त्रीने जो भयसे त्रस्त थी; वंशवृद्धिहेतु अपनी एक जंघामें गर्भ धारण किया ॥ ९३ ॥
जब उन हैहय क्षत्रियोंने व्याकुल तथा तेजयुक्त उस स्त्रीको भागती हुई देखा तब वे उसके पीछे दौड़ पड़े ॥ १०३ ॥
‘यह गर्भ धारण करके वेगपूर्वक भागी जा रही है,इसे पकड़ लो और मार डालो’ – इस प्रकार कहते हुए हाथमें तलवार लेकर वे उस स्त्रीके पास पहुँच गये ॥ ११३ ॥
भयसे घबरायी हुई वह स्त्री अपने समीप आये हुए उन क्षत्रियोंको देखकर रोने लगी और पुनः गर्भरक्षाके लिये भयसे विह्वल होकर जोर-जोरसे विलाप करने लगी ॥ १२३ ॥
तब दयनीय दशावाली, प्राणहीन-सी प्रतीत हो रही, आश्रयहीन, क्षत्रियोंसे पीडित होनेके कारण क्रन्दन करती हुई, सिंहके द्वारा पकड़ी गयी गर्भवती हिरनीके समान प्रतीत होनेवाली, आँसूभरे नेत्रोंवाली तथा थर-थर काँपती हुई माताका रुदन सुनकर वह सुन्दर गर्भस्थ बालक कुपित होकर अपने तेजसे क्षत्रियोंकी नेत्र ज्योतिका हरण करता हुआ जंघाका भेदन करके दूसरे सूर्यकी भाँति शीघ्र ही बाहर निकल आया ॥ १३-१५३ ॥
उस बालककी ओर देखते ही वे सभी दृष्टिहीन हो गये। तत्पश्चात् वे क्षत्रिय जन्मान्धकी भाँति पर्वतकी गुफाओंमें इधर-उधर भटकने लगे। सभी क्षत्रिय मनमें विचार करने लगे कि इस समय यह क्या हो गया है कि हम सभी लोग बालकको देखनेमात्रसे चक्षुहीन हो गये।
ऐसा प्रतीत होता है कि इसी ब्राह्मणीका यह प्रभाव है; क्योंकि सतीव्रत एक महान् बल है। अमोघ संकल्पवाली दुःखित स्त्रियाँ क्षणभरमें न जाने क्या कर डालेंगी ! ॥ १६-१८३ ॥
ऐसा मनमें सोचकर नेत्रहीन, निराश्रय तथा चेतना- रहित हैहयवंशी क्षत्रिय उस ब्राह्मणीकी शरणमें गये और उन्होंने भयसे त्रस्त उस स्त्रीको दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। वे श्रेष्ठ क्षत्रिय अपनी नेत्रज्योतिके लिये इस भयाकुल ब्राह्मणीसे कहने लगे – ॥ १९-२०३ ॥
हे सुभगे ! हे माता ! हम सब आपके सेवक हैं। अब आप हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाइये। हे रम्भोरु ! पाप बुद्धिवाले हम क्षत्रियोंने अपराध किया है। हे तन्वंगि ! इसीलिये आपको देखते ही हम सब चक्षुविहीन हो गये। हे भामिनि ! जन्मसे अन्धे व्यक्तिकी भाँति हम आपका मुखदर्शन कर पानेमें समर्थ नहीं हैं।
आपका तप तथा पराक्रम अद्भुत है; हम पापपरायण कर ही क्या सकते हैं ? हे मानदे ! हम आपकी शरणमें हैं। हमें नेत्र दीजिये; क्योंकि नेत्रज्योतिसे विहीन हो जाना मृत्युसे भी कष्टकारक होता है। आप हमारे ऊपर कृपा कीजिये। फिरसे नेत्रज्योति देकर इन समस्त क्षत्रियोंको अपना सेवक बना लीजिये।
इसके बाद पापकर्मसे रहित होकर हमलोग साथ-साथ चले जायँगे। अब हमलोग इस प्रकारका कर्म कभी नहीं करेंगे। अब हम सभी भार्गव ब्राह्मणोंके सेवक हो गये। हमलोगोंने अज्ञानवश जो भी पाप किया है उसे आप क्षमा करें।
हम हैहय क्षत्रिय शपथपूर्वक कहते हैं कि आजसे कभी भी भृगुवंशी ब्राह्मणोंके साथ हमें वैरभाव नहीं रखना चाहिये और यथोचित व्यवहार करना चाहिये। हे सुश्रोणि! आप पुत्रवती होवें। हम आपकी शरणमें हैं। हे कल्याणि! आप कृपा करें; हमलोग अब कभी भी द्वेषभाव नहीं रखेंगे ॥ २१-२८३ ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन् !] उन क्षत्रियोंकी यह बात सुनकर ब्राह्मणी विस्मयमें पड़ गयी और | उसने शरणागत तथा दुर्गतिको प्राप्त उन नेत्रहीन क्षत्रियोंको आश्वासन देकर कहा- हे क्षत्रियो ! आपलोग निश्चितरूपसे जान लें कि मैंने आप सबकी दृष्टिका हरण नहीं किया है ॥ २९-३० ॥
मैं आपलोगोंपर कुपित नहीं हूँ। अब मैं वास्तविक कारण बता रही हूँ, आपलोग सुनिये। मेरी जंघासे उत्पन्न यह भृगुवंशी बालक आज आपलोगोंपर कुपित है। क्षत्रियोंके द्वारा अपने बान्धवों और यहाँतक कि गर्भस्थित बालकोंका वध किये जानेकी बात जानकर कोपाविष्ट इसी बालकने आपलोगोंके नेत्र स्तम्भित कर दिये हैं ॥ ३१-३२ ॥
हे वत्सगण ! जब आपलोग निरपराध, धर्मनिष्ठ तथा तपस्वी भार्गव ब्राह्मणों और गर्भस्थ बालकोंको भी धन-लोलुपतामें पड़कर मार रहे थे तभी मैंने इसे अपनी जंघामें गर्भरूपसे एक सौ वर्षतक धारण किये रखा।
भृगुवंशकी वृद्धिके लिये इस गर्भस्थ बालकने छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका बड़े सहजभावसे अध्ययन कर लिया है और अब यह अपने पितृजनोंके वधसे अत्यन्त कुपित होकर आपलोगोंका संहार करना चाहता है ॥ ३३-३५ ॥
मेरा यह पुत्र भगवतीकी कृपासे उत्पन्न हुआ है, जिसके अलौकिक तेजने आपलोगोंके नेत्र हर लिये हैं ॥ ३६ ॥अतएव आपलोग इसी समय मेरी जंघासे उत्पन्न इस बालकसे विनम्रतापूर्वक याचना कीजिये। चरणोंमें गिरनेसे प्रसन्न होकर यह बालक आपलोगोंकी नेत्रज्योति मुक्त कर देगा ॥ ३७ ॥
व्यासजी बोले- उस ब्राह्मणीका वचन सुनकर हैहयोंने जंघासे उत्पन्न बालकरूप मुनिश्रेष्ठको प्रणाम किया और वे विनयसे युक्त होकर उसकी स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥
तत्पश्चात् प्रसन्न होकर उस बालकने उन नेत्रहीन क्षत्रियोंसे कहा- हे राजाओ ! अब तुमलोग मेरी कही हुई बातपर विश्वास करके अपने घर लौट जाओ ॥ ३९ ॥ दैवने जो विधान सुनिश्चित कर दिये हैं, वे अवश्य होकर रहते हैं; ज्ञानी व्यक्तिको इस विषयमें चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ४० ॥
सभी ऋषिगण पूर्वकी भाँति सुख प्राप्त करें तथा सभी क्षत्रिय भी अब क्रोधरहित होकर सुखपूर्वक | अपने-अपने घरोंके लिये प्रस्थान करें ॥ ४१ ॥
इस प्रकार उसके कहनेपर उन हैहयवंशी क्षत्रियोंको दृष्टि प्राप्त हो गयी और वे और्व (ऊरुसे उत्पन्न) उस बालकसे आज्ञा लेकर आनन्दपूर्वक अपने-अपने घर चले गये ॥ ४२ ॥
हे राजन् ! वह ब्राह्मणी भी उस तेजस्वी तथा अलौकिक बालकको लेकर अपने आश्रम चली गयी और बड़ी सावधानीपूर्वक उसका पालन-पोषण करने लगी ॥ ४३ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार भृगुवंशके विनाश तथा लोभके वशीभूत हैहय क्षत्रियोंने जो पापकर्म किया था; उसके विषयमें मैंने आपसे कहा ॥ ४४ ॥
जनमेजय बोले – हे मुने ! मैंने क्षत्रियोंके अत्यन्त दारुण कर्मके विषयमें सुन लिया। इहलोक तथा परलोकमें दुःख देनेवाला वह लोभ ही इसमें मूल कारण है ॥ ४५ ॥
हे सत्यवतीनन्दन ! मैं संशयग्रस्त हूँ; [इस विषयमें] आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ। ये क्षत्रिय राजकुमार इस जगत्में हैहय नामसे क्यों प्रसिद्ध हुए ? ॥ ४६ ॥ यदुसे यादव हुए तथा भरतसे भारत हुए। उसी प्रकार क्या उन क्षत्रियोंके वंशमें ‘हैहय’ नामधारी कोई प्रतिष्ठित राजा हुआ था ? ॥ ४७ ॥
हे करुणानिधान ! उन हैहय क्षत्रियोंकी उत्पत्ति कैसे हुई तथा किस कर्मसे उनका यह नाम पड़ा ? वह कारण मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ४८ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! अब मैं हैहयोंकी उत्पत्तिसे सम्बन्धित अति प्राचीन, पुण्यदायिनी तथा पापनाशिनी कथाका विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ, आप इसे सुनिये ॥ ४९ ॥
हे महाराज ! किसी समय अत्यन्त सुन्दर, रूपवान् तथा अपरिमित तेजवाले सूर्यपुत्र जो ‘रेवन्त’ नामसे विख्यात थे, अपने मनोहर अश्वरत्न उच्चैः श्रवापर आरूढ़ होकर भगवान् विष्णुके निवासस्थान वैकुण्ठलोक गये ॥ ५०-५१ ॥
विष्णुके दर्शनके आकांक्षी वे भास्करनन्दन घोड़ेपर सवार होकर जब वहाँ पहुँचे तब लक्ष्मीजीकी दृष्टि अश्वपर विराजमान रेवन्तपर पड़ गयी ॥ ५२ ॥
समुद्रसे प्रादुर्भूत अपने भाई अलौकिक उच्चैः श्रवा घोड़ेको देखकर वे महान् विस्मयमें पड़ गयीं और | उसके रूपको स्थिर नेत्रोंसे देखती रह गयीं ॥ ५३ ॥
भगवान् विष्णुने उस मनोहर रेवन्तको घोड़ेपर बैठकर आता हुआ देखकर लक्ष्मीजीसे प्रेमपूर्वक पूछा- हे सुन्दर अंगोंवाली ! हे प्रिये ! दूसरे कामदेवके समान तेजोमय शरीरवाला यह कौन है जो घोड़ेपर सवार होकर तीनों लोकोंको मोहित करता हुआ इधर चला आ रहा है॥ ५४-५५ ॥
उस समय घोड़ेको एकटक देखते रहनेसे दैववशात् उसीमें चित्तयोग हो जानेके कारण भगवान् विष्णुके बार-बार पूछनेपर भी लक्ष्मीजीने कुछ नहीं कहा ॥ ५६ ॥
व्यासजी बोले – भगवान् विष्णु कामिनी, चपल नेत्रोंवाली तथा चंचला लक्ष्मीको अत्यन्त मोहित होकर अत्यधिक प्रेमके साथ निहारती हुई तथा उस अश्वमें अनुरक्त बुद्धिवाली देखकर क्रोधित हो उठे और उनसे बोले- हे सुलोचने ! तुम क्या देख रही हो ? इस घोड़ेको देखकर मोहित हुई तुम मेरे पूछनेपर भी उत्तर नहीं दे रही हो ॥ ५७-५८ ॥
क्योंकि तुम्हारा चित्त सभी ओर रमण करता है अतएव ‘रमा’ और तुम्हारी चंचलताके कारण तुम ‘चला’ कही जाओगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५९ ॥
जिस प्रकार सामान्य नारी चंचल होती है, उसी प्रकार हे कल्याणि ! तुम भी कभी स्थिर स्वभाववाली नहीं रहोगी ॥ ६० ॥
मेरे पास रहनेपर भी तुम यदि एक अश्वको देखकर मोहित हो गयी हो तो हे वामोरु ! तुम अत्यन्त दारुण मर्त्यलोकमें घोड़ीके रूपमें जन्म ग्रहण करो ॥ ६१ ॥
दैवयोगसे भगवान् विष्णुने जब देवी लक्ष्मीको ऐसा शाप दे दिया तब वे अत्यन्त भयभीत तथा दुःखी होकर काँपती हुई रोने लगीं ॥ ६२ ॥
सुन्दर मुसकानवाली लक्ष्मीजी दुविधामें पड़ गयीं और अपने पति भगवान् विष्णुको विनयसे युक्त होकर मस्तक झुकाकर प्रणाम करके उनसे कहने लगीं – ॥ ६३ ॥
हे देवदेव ! हे जगदीश्वर ! हे करुणानिधान ! हे केशव ! हे गोविन्द ! एक छोटेसे अपराधके लिये आपने मुझे ऐसा शाप क्यों दे दिया ? ॥ ६४ ॥
हे प्रभो! मैंने आपका ऐसा क्रोध पहले कभी नहीं देखा। मेरे प्रति आपका वह सहज तथा शाश्वत प्रेम कहाँ चला गया ? ॥ ६५ ॥
आपको वज्रपात शत्रुपर करना चाहिये न कि अपने स्नेहीजनपर। आपसे सदा वर पानेयोग्य मैं आज शापके योग्य कैसे हो गयी ? ॥ ६६ ॥
हे गोविन्द ! मैं इसी समय आपके देखते-देखते आपके सामने प्राण त्याग दूँगी; क्योंकि आपसे वियुक्त होकर विरहाग्निमें जलती हुई मैं कैसे जीवित रह सकूँगी ? ॥ ६७ ॥
हे देवेश! मेरे ऊपर कृपा कीजिये। हे विभो ! अब मैं इस दारुण शापसे मुक्त होकर आपका सुखदायी सांनिध्य कब प्राप्त करूँगी ? ॥ ६८ ॥
हरि बोले- हे प्रिये ! हे तन्वंगि ! जब पृथ्वीलोकमें तुम्हें मेरे समान एक पुत्रकी प्राप्ति हो जायगी तब पुनः मुझे प्राप्त करके तुम सुखी हो जाओगी ॥ ६९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां षष्ठस्कन्धे हैहयानामुत्पत्ति- प्रसङ्गे रमाविष्णुसंवादवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥