Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 15 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्यायःभगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र-पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन)
(अथ पञ्चदशोऽध्यायः)
:-जनमेजय बोले- आपने वसिष्ठकी शरीर- प्राप्तिका वर्णन किया; निमिने पुनः किस प्रकार देह प्राप्त की; यह मुझसे कहिये ॥ १ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! वसिष्ठने जिस प्रकार पुनः शरीर प्राप्त किया, उस प्रकार निमिको शापके बाद पुनः देह नहीं मिली ॥ २ ॥
जब वसिष्ठजीने शाप दिया तो राजाके द्वारा यज्ञमें वरण किये गये ब्राह्मण और ऋत्विज्ञ विचार करने लगे – ॥ ३ ॥
अहो, यज्ञमें दीक्षित ये धर्मनिष्ठ राजा शापसे दग्ध हो गये हैं और यज्ञ भी अपूर्ण ही रह गया है- ऐसेमें हम सबको क्या करना चाहिये ? अब हम क्या करें ? यह तो विपरीत कार्य हो गया। भवितव्यताके अवश्य होनेके कारण इसका निवारण करनेमें हम असमर्थ हैं ॥ ४-५ ॥
तब उन महात्मा राजाकी देहको ऋत्विजोंने अनेक प्रकारके मन्त्रोंसे सुरक्षित रखा; उनकी श्वास मन्द गतिसे चल रही थी। मन्त्रशक्तिसे उनकी निर्विकार आत्माको देहमें प्रतिष्ठित करके ऋत्विजोंने उसे अनेक प्रकारके गन्ध, माल्य आदिसे सुपूजित कर रखा था ॥ ६-७ ॥
यज्ञके सम्पूर्ण होनेपर वहाँ सभी देवगण आये। हे राजन् ! ऋत्विजोंने उन सबकी स्तुति की, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए। मुनियोंके द्वारा राजाके विषयमें समस्त बातोंको जान लेनेपर स्तोत्रोंसे सन्तुष्ट देवताओंने दुःखी मनवाले राजासे कहा- हे राजन् !
हे सुव्रत ! हम प्रसन्न हैं; वर माँगिये। हे राजर्षे! इस यज्ञके कारण आपको श्रेष्ठ जन्म प्राप्त हो सकता है। देवशरीर, मनुष्यशरीर अथवा आपके मनमें जो इच्छा हो, उसे आप प्राप्त कर सकते हैं; जैसे कि आपके पुरोहित वसिष्ठ गर्वयुक्त होकर मर्त्यलोकमें सुखपूर्वक रह रहे हैं ॥ ८-१०३ ॥
उनके ऐसा कहनेपर निमिकी आत्माने परम सन्तुष्ट होकर उनसे कहा- हे श्रेष्ठ देवगण ! सर्वदा विनष्ट होनेवाली इस देहमें रहनेकी मेरी इच्छा नहीं है, सम्पूर्ण प्राणियोंकी दृष्टिमें मेरा निवास हो, जिससे मैं वायुरूप होकर समस्त प्राणियोंके नेत्रोंमें विचरण करूँ ॥ ११-१२३ ॥
उनसे ऐसा कहे जानेपर देवताओंने निमिकी आत्मासे कहा- हे महाराज ! आप कल्याणकारिणी तथा सबकी ईश्वरी भगवतीकी आराधना करें। आपके इस यज्ञसे प्रसन्न होकर वे आपका अभीष्ट अवश्य पूर्ण करेंगी ॥ १३-१४ ॥
देवताओंके ऐसा कहनेपर उन्होंने अनेक प्रकारके दिव्य स्तोत्रोंद्वारा भक्तिपूर्वक गद्गद वाणीमें देवीकी प्रार्थना की ॥ १५ ॥
तब प्रसन्न होकर देवीने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया। उनके करोड़ों सूर्योकी प्रभाके समान तथा लावण्यसे दीप्तिमान रूपको देखकर सभी कृतकृत्य हो गये और उनके मनमें परम प्रसन्नता हुई। हे राजन् ! देवीके प्रसन्न हो जानेपर राजाने वर माँगा – मुझे वह विमल ज्ञान दीजिये, जिससे मोक्ष प्राप्त हो जाय तथा समस्त प्राणियोंके नेत्रोंमें मेरा निवास हो जाय ॥ १६-१८ ॥
तब प्रसन्न हुई देवेश्वरी जगदम्बाने कहा- तुम्हें विमल ज्ञान प्राप्त होगा, परंतु अभी तुम्हारा प्रारब्ध शेष है। समस्त प्राणियोंके नेत्रोंमें तुम्हारा निवास भी होगा। तुम्हारे कारण ही प्राणियोंके नेत्रोंमें पलक गिरानेकी शक्ति होगी। तुम्हारे निवासके कारण ही मनुष्य, पशु तथा पक्षी ‘निमिष’ (पलक गिरानेवाले) तथा देवता ‘अनिमिष’ (पलक न गिरानेवाले) होंगे ॥ १९-२१ ॥
इस प्रकार उन राजाको वर देकर और सब मुनियोंको बुलाकर वे श्रीवरदायिनी भगवती वहीं | अन्तर्धान हो गयीं ॥ २२ ॥
देवीके अन्तर्धान हो जानेपर वहाँ उपस्थित मुनिगण विधिवत् विचार करके निमिके शरीरको ले आये और पुत्रप्राप्तिके लिये उसपर अरणिकाष्ठ रखकर वे महात्मा मन्त्र पढ़कर मन्त्रहोमके द्वारा निमिके देहका मन्थन करने लगे ॥ २३-२४॥
तब अरणिके मन्थनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो समस्त लक्षणोंसे सम्पन्न और साक्षात् दूसरे निमिकी भाँति था। अरणिके मन्थनसे इसका जन्म हुआ था, अतः यह ‘मिथि’ – ऐसा कहा गया और जनकसे जन्म होनेके कारण ‘जनक’ यह नामवाला हुआ। राजा निमि विदेह हुए, अतः उनके कुलमें उत्पन्न सभी राजा ‘विदेह’ ऐसा कहे गये ॥ २५-२७ ॥
इस प्रकार निमिके पुत्र राजा जनक प्रसिद्ध हुए। उन्होंने गंगाके तटपर एक सुन्दर नगरीका निर्माण कराया, जो मिथिला नामसे विख्यात है। यह गोपुरों, अट्टालिकाओं तथा धन-धान्यसे सम्पन्न और बाजारोंसे सुशोभित है ॥ २८-२९ ॥
इस वंशमें जो अन्य राजा हुए, वे सभी जनक कहे गये; वे सभी विख्यात ज्ञानी और विदेह कहे जाते थे ॥ ३० ॥
हे राजन् ! इस प्रकार निमिकी उत्तम कथाका मैंने आपसे वर्णन किया, शापके कारण उनके विदेह होनेको भी मैंने विस्तारसे कह दिया ॥ ३१ ॥
राजा बोले – हे भगवन्! आपने निमिके शापका कारण बताया, इसे सुनकर मेरा मन संशयग्रस्त और अत्यन्त चंचल हो गया है ॥ ३२ ॥
वसिष्ठजी श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, राजाके पुरोहित थे और वे कमलयोनि ब्रह्माजीके पुत्र थे, तब राजा निमिने उन मुनिको कैसे शाप दिया ? निमिने उन्हें गुरु और ब्राह्मण जानकर क्षमा क्यों नहीं किया।
यज्ञ- जैसा शुभ कार्य करनेपर भी उन्हें क्रोध कैसे आ गया ? धर्मका रहस्य जान करके भी इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न राजाने क्रोधके वशीभूत होकर अपने ब्राह्मण गुरुको शाप क्यों दिया ? ॥ ३३-३५ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! अजितेन्द्रिय प्राणियोंके लिये क्षमा अत्यन्त दुर्लभ है, विशेषरूपसे सामर्थ्यशाली व्यक्तिका क्षमाशील होना इस संसारमें दुर्लभ है ॥ ३६ ॥
मुनिको चाहिये कि वह सभी आसक्तियोंका परित्याग करनेवाला, तपस्वी, निद्रा तथा भूखपर विजय प्राप्त करनेवाला और योगाभ्यासमें सम्यक् रूपसे निष्ठा रखनेवाला हो ॥ ३७ ॥
काम, क्रोध, लोभ और चौथा अहंकार- ये शत्रु शरीरमें सदा विद्यमान रहते हैं जो सर्वथा दुर्जेय होते हैं। संसारमें न पहले कोई व्यक्ति हुआ है, न इस समय है और न तो आगे होगा जो इन शत्रुओंको जीत सके ॥ ३८-३९ ॥
न स्वर्गमें, न पृथ्वीलोकमें, न ब्रह्मलोकमें, न विष्णुलोकमें और न तो कैलासमें भी ऐसा कोई व्यक्ति है, जो इन शत्रुओंको जीत सके ॥ ४० ॥
जो मुनिगण, ब्रह्माजीके सभी पुत्र तथा अन्य श्रेष्ठ तपस्वीलोग हैं, वे भी तीनों गुणोंसे बँधे रहते हैं, तो मर्त्यलोकके मनुष्योंकी बात ही क्या ? ॥ ४१ ॥
कपिलमुनि सांख्यशास्त्रके ज्ञाता, योगाभ्यास- परायण और शुद्ध चित्तवाले थे, किंतु उन्होंने भी दैववश सगर-पुत्रोंको भस्म कर दिया ॥ ४२ ॥
अतः हे राजन् ! कार्य-कारणस्वरूप अहंकारसे ही यह त्रिलोक उत्पन्न हुआ है, तो फिर मनुष्य उससे वियुक्त कैसे रह सकता है ? ॥ ४३ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी त्रिगुणसे बँधे हुए हैं; उनके भी शरीरोंमें गुणोंके पृथक् पृथक् भाव उत्पन्न होते हैं। जब एकमात्र सत्त्वप्रधान देवताओंकी भी यह स्थिति है तो फिर मनुष्योंकी क्या बात ?
हे राजन् ! गुणोंका संकर (मेल) सर्वत्र विद्यमान है। कभी सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है, कभी रजोगुणकी वृद्धि होती है, कभी तमोगुणकी वृद्धि हो जाती है और कभी तीनों गुण बराबर हो जाते हैं ॥ ४४-४६ ॥
वे परमात्मा निर्गुण, निर्लेप, परम अविनाशी, सभी प्राणियोंसे अलक्ष्य, अप्रमेय और सनातन हैं। उसी प्रकार वे परमा शक्ति भी निर्गुण, ब्रह्ममें स्थित, अल्पबुद्धि प्राणियोंके द्वारा दुर्जेय, समस्त प्राणियोंकी आश्रय हैं। परमात्मा और पराशक्ति-उन दोनोंमें सदासे ऐक्य है।
उनका स्वरूप अभिन्न है- यह जानकर प्राणी समस्त दोषोंसे मुक्त हो जाता है। इस ज्ञानसे मुक्ति हो जाती है- यह वेदान्तका डिंडिमघोष है। जो यह जान लेता है, वह इस त्रिगुणात्मक संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ ४७-५० ॥
ज्ञान भी दो प्रकारका कहा गया है। प्रथम शाब्दिक ज्ञान बताया गया है। वह ज्ञान बुद्धिकी सहायतासे वेद और शास्त्रके अर्थविज्ञानद्वारा प्राप्त हो जाता है। बुद्धिवैभिन्न्यके अनुसार इस ज्ञानके भी बहुत-से भेद हो जाते हैं। (इनमेंसे कुछ ज्ञान कुतर्कसे और कुछ सुतर्कसे कल्पित होते हैं।
कुतर्कोंसे भ्रान्तिकी उत्पत्ति होती है और विभ्रमसे बुद्धिनाश हो जाता है। बुद्धिनाशसे प्राणियोंका ज्ञान नष्ट हो जाना कहा गया है।) हे राजन् ! अनुभव नामक वह दूसरा ज्ञान तो दुर्लभ होता है। वह ज्ञान तब प्राप्त होता है, जब उसके जाननेवालेका संग हो जाय।
हे भारत ! शब्दज्ञानसे कार्यकी सिद्धि नहीं होती, इसलिये अनुभवज्ञान अत्यन्त अलौकिक होता है। शब्दज्ञान अन्तःकरणके अन्धकारको दूर करनेमें उसी प्रकार समर्थ नहीं है जैसे दीपकसम्बन्धी वार्ता करनेसे अन्धकार नष्ट नहीं होता ॥ ५१-५४३ ॥
कर्म वही है, जो बन्धन न करे और विद्या वही है जो मुक्तिके लिये हो। अन्य कर्म तो मात्र परिश्रमके लिये होता है तथा दूसरी विद्या तो मात्र शिल्पसम्बन्धी कौशल है। शील, परोपकार, क्रोधका अभाव, क्षमा, धैर्य और सन्तोष- यह सब विद्याका अत्यन्त उत्तम फल है।
हे भूपते ! विद्या, तपस्या अथवा योगाभ्यासके बिना काम आदि शत्रुओंका नाश कभी नहीं हो सकता। (हे राजन् ! मन चंचल और स्वभावतः अति दुर्ग्रह होता है, तीनों लोकोंमें तीनों प्रकारके प्राणी उसी मनके वशमें रहते हैं) काम-क्रोध आदि भाव चित्तजन्य कहे गये हैं। ये सब उस समय नहीं उत्पन्न होते, जब मनपर विजय पा ली जाती है।
हे राजन् ! इसीलिये निमिने मुनिको उस प्रकार क्षमा नहीं किया, जिस प्रकार ययातिने अपराध करनेपर भी शुक्राचार्यको क्षमा कर दिया था। पूर्वकालमें भृगुपुत्र शुक्राचार्यने नृपश्रेष्ठ ययातिको शाप दे दिया था, लेकिन राजाने क्रोधित होकर मुनिको शाप नहीं दिया और स्वयं वृद्धावस्थाको स्वीकार कर लिया था ॥ ५५-६०३ ॥
हे राजन् ! कोई राजा शान्तस्वभाव और कोई क्रूर होता है। स्वभावमें भेद होनेके कारण इसमें किसका दोष कहा जाय ? पूर्वकालमें हैहयवंशी | क्षत्रियोंने ब्रह्महत्याजनित पापकी उपेक्षा करके धनके लोभसे भृगुवंशी ब्राह्मण पुरोहितोंका कोपाविष्ट होकर समूलोच्छेद कर दिया था ॥ ६१-६३॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे देवीमहिम्नि नानाभाववर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥