Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 14 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:चतुर्दशोऽध्यायःराजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना)

Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 14 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:चतुर्दशोऽध्यायःराजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना)

 

[अथ चतुर्दशोऽध्यायः]

 

:-जनमेजय बोले- हे महाभाग ! ब्रह्माके पुत्र मुनि वसिष्ठका ‘मैत्रावरुणि’ – यह नाम कैसे पड़ा ? हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! किस कर्म अथवा गुणके कारण उन्होंने यह नाम प्राप्त किया। उनके नाम पड़नेका कारण मुझे बताइये ॥ १-२ ॥

व्यासजी बोले- हे नृपश्रेष्ठ ! सुनिये, वसिष्ठजी ब्रह्माके पुत्र हैं, उन महातेजस्वीने निमिके शापसे वह शरीर त्यागकर पुनः जन्म लिया ॥ ३ ॥

हे राजन् ! उनका जन्म मित्र और वरुणके यहाँ हुआ था, इसीलिये इस संसारमें सर्वत्र उनका ‘मैत्रावरुणि’ – यह नाम विख्यात हुआ ॥ ४॥

राजा बोले- राजा निमिने ब्रह्माजीके पुत्र धर्मात्मा वसिष्ठको शाप क्यों दिया ? राजाका वह दारुण शाप मुनिको लग गया- यह तो आश्चर्य है ! ॥ ५ ॥

हे मुने ! निरपराध मुनिको राजाने क्यों शाप दे दिया; हे धर्मज्ञ ! उस शापका कारण यथार्थरूपमें बताइये ? ॥ ६ ॥व्यासजी बोले- इसका सम्यक् रूपसे निर्णीत कारण तो मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ। हे राजन् ! यह संसार मायाके तीनों गुणोंसे व्याप्त है ॥ ७ ॥

राजा धर्म करें और तपस्वी तप करें- यह स्वाभाविक कर्म है, परंतु सभी प्राणियोंका मन गुणोंसे आबद्ध रहनेके कारण विशुद्ध नहीं रह पाता ॥ ८ ॥

राजालोग काम और क्रोधसे अभिभूत रहते हैं और उसी प्रकार तपस्वीगण भी लोभ और अहंकारयुक्त होकर कठोर तपस्या करते हैं ॥ ९ ॥

हे राजन् ! क्षत्रियगण रजोगुणसे युक्त होकर यज्ञ करते थे, वैसे ही ब्राह्मण भी थे। हे राजन् ! कोई भी सत्त्वगुणसे युक्त नहीं था ॥ १० ॥

ऋषिने राजाको शाप दिया और तब राजाने भी मुनिको शाप दे दिया। इस प्रकार दैववशात् दोनोंको बहुत दुःख प्राप्त हुआ ॥ ११ ॥

हे राजन् ! इस त्रिगुणात्मक जगत्में प्राणियोंके लिये द्रव्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और उज्ज्वल मनःशुद्धि दुर्लभ है ॥ १२ ॥

 

यह पराशक्तिका ही प्रभाव है और कोई कभी इसका अतिक्रमण नहीं कर सकता। जिसपर वे भगवती कृपा करना चाहती हैं, उसे तत्काल मुक्त कर देती हैं ॥ १३ ॥

ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि महान् देवता भी मुक्त नहीं हो पाते, किंतु सत्यव्रत आदि जैसे अधम भी मुक्त हो जाते हैं ॥ १४ ॥यद्यपि तीनों लोकोंमें भगवतीके रहस्यको कोई नहीं जानता है, फिर भी वे भक्तके वशमें हो जाती हैं- ऐसा निश्चित है ॥ १५ ॥

अतः दोषोंके निर्मूलनके लिये उनकी भक्ति करनी चाहिये। यदि वह भक्ति राग, दम्भ आदिसे युक्त हो तो वह नाश करनेवाली होती है ॥ १६ ॥

इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न निमि नामके एक राजा थे। वे रूपवान्, गुणवान्, धर्मज्ञ, प्रजावत्सल सत्यवादी, दानशील, यज्ञ-कर्ता, ज्ञानी और पुण्यात्मा थे। वे बुद्धिमान् और प्रजापालक राजा निमि इक्ष्वाकुके बारहवें पुत्र थे ॥ १७-१८ ॥

उन्होंने ब्राह्मणोंके हितके लिये गौतममुनिके आश्रमके समीप जयन्तपुर नामका एक नगर बसाया ॥ १९ ॥उनके मनमें एक बार यह राजसी बुद्धि उत्पन्न हुई कि बहुत समयतक चलनेवाले और विपुल दक्षिणावाले यज्ञके द्वारा आराधना करूँ ॥ २० ॥

तब राजाने यज्ञकार्यके लिये अपने पिता इक्ष्वाकुसे आज्ञा लेकर महात्माओंके कथनानुसार समस्त यज्ञीय सामग्री एकत्र करायी ॥ २१ ॥

इसके बाद राजाने भृगु, अंगिरा, वामदेव, गौतम, वसिष्ठ, पुलस्त्य, ऋचीक, पुलह और क्रतु – इन सर्वज्ञ, वेदमें पारंगत, यज्ञविद्याओंमें कुशल एवं वेदज्ञ मुनियों और तपस्वियोंको आमन्त्रित किया ॥ २२-२३ ॥

समस्त सामग्री एकत्र कर धर्मज्ञ राजाने अपने गुरु वसिष्ठकी पूजा करके विनयसे युक्त होकर उनसे कहा- ॥ २४ ॥हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं यज्ञ करना चाहता हूँ। अतः यज्ञ करानेकी कृपा करें। हे कृपानिधे ! आप सर्वज्ञ हैं और मेरे गुरु हैं; इस समय आप मेरा कार्य सम्पन्न कीजिये ॥ २५ ॥

मैंने समस्त यज्ञीय सामग्री मँगवा ली है और उसका संस्कार भी करा लिया है। मेरा विचार है कि मैं पाँच | हजार वर्षके लिये यज्ञ-दीक्षा ग्रहण कर लूँ ॥ २६ ॥

 

जिस यज्ञमें भगवती जगदम्बाकी आराधना होती हो, उस यज्ञको मैं उनकी प्रसन्नताके लिये विधिपूर्वक करना चाहता हूँ ॥ २७ ॥

निमिकी वह बात सुनकर वसिष्ठजीने राजासे कहा- हे नृपश्रेष्ठ ! मैं इन्द्रके द्वारा यज्ञके लिये पहले ही वरण कर लिया गया हूँ। इन्द्र पराशक्तिके प्रीत्यर्थ यज्ञ करनेके लिये तत्पर हैं और देवेन्द्रने पाँच सौ वर्षतक चलनेवाले यज्ञकी दीक्षा ले ली है।

 

अतः हे राजन् ! तबतक आप यज्ञ-सामग्रियोंकी रक्षा करें, इन्द्रके यज्ञके पूर्ण हो जानेपर उन देवराजका कार्य सम्पन्न करके मैं आ जाऊँगा। हे राजन् ! तबतक आप समयकी प्रतीक्षा करें ॥ २८-३०३ ॥

राजा बोले – हे गुरुदेव ! मैंने यज्ञके लिये दूसरे बहुत-से मुनियोंको निमन्त्रित कर दिया है तथा समस्त यज्ञीय सामग्रियाँ भी एकत्र कर ली हैं, मैं इन सबको [इतने समयतक] कैसे सुरक्षित रखूँगा ?

 

हे ब्रह्मन् ! आप इक्ष्वाकुवंशके वेदवेत्ता गुरु हैं, आज मेरा कार्य छोड़कर आप अन्यत्र जानेके लिये क्यों उद्यत हैं ? हे द्विजश्रेष्ठ ! यह आपके लिये उचित नहीं है जो कि लोभसे व्याकुलचित्तवाले आप मेरा यज्ञ छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं॥ ३१-३३३ ॥

राजाके इस प्रकार रोकनेपर भी वे गुरु वसिष्ठ इन्द्रके यज्ञमें चले गये। राजाने भी उदास होकर [अपना आचार्य बनाकर] गौतमऋषिका पूजन किया। उन्होंने हिमालयके पार्श्वभागमें समुद्रके निकट यज्ञ किया और उस यज्ञकर्ममें ब्राह्मणोंको बहुत दक्षिणा दी।

 

हे राजन् ! निमिने उस पाँच हजार वर्षवाले यज्ञकी दीक्षा ली और ऋत्विजोंको उनके इच्छानुसार धन और गौएँ प्रदान करके उनकी पूजा की, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए ॥ ३४-३६३ ॥

 

इन्द्रके पाँच सौ वर्षवाले यज्ञके समाप्त होनेपर वसिष्ठजी राजाके यज्ञको देखनेकी इच्छासे आये और आकरके राजाके दर्शनके लिये वहाँ रुके रहे ॥ ३७-३८ ॥

 

उस समय राजा निमि सोये हुए थे और उन्हें गहरी नींद आ गयी थी। सेवकोंने उन्हें नहीं जगाया, जिससे वे राजा मुनिके पास न आ सके। तब अपमानके कारण वसिष्ठजीको क्रोध आ गया। मिलनेके लिये निमिके न | आनेसे मुनिश्रेष्ठ कुपित हो उठे। क्रोधके वशीभूत हुए उन मुनिने राजाको शाप दे दिया- ‘हे मूर्ख पार्थिव !

 

मेरे द्वारा मना किये जानेपर भी तुम मुझ गुरुका त्याग करके दूसरेको अपना गुरु बनाकर शक्तिके अभिमानमें मेरी अवहेलना करके यज्ञमें दीक्षित हो गये हो, उससे तुम विदेह हो जाओगे। हे राजन् ! तुम्हारा यह शरीर नष्ट हो जाय और तुम विदेह हो जाओ’ ॥ ३९-४२३ ॥

व्यासजी बोले- उनका यह शापवचन सुनकर राजाके सेवकोंने शीघ्रतासे जाकर राजाको जगाया और उन्हें बताया कि मुनि वसिष्ठ बहुत क्रोधित हो गये हैं, तब उन कुपित मुनिके पास आकर निष्पाप राजाने मधुर शब्दोंमें युक्तिपूर्ण तथा सारगर्भित वचन कहा- ॥ ४३-४४३ ॥

हे धर्मज्ञ ! इसमें मेरा दोष नहीं है, आप ही लोभके वशीभूत होकर मेरे बार-बार अनुरोध करनेपर भी मुझ यजमानको छोड़कर चले गये। हे विप्रवर! हे ब्राह्मण- श्रेष्ठ !

 

ब्राह्मणको सदा सन्तोष रखना चाहिये – धर्मके इस सिद्धान्तको जानते हुए भी ऐसा निन्दित कर्म करके आपको लज्जा नहीं आ रही है। आप तो साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र और वेद-वेदांगोंके सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता हैं तो भी आप ब्राह्मणधर्मकी अत्यन्त कठिन और सूक्ष्म गतिको नहीं जानते।

 

अपना दोष मुझमें आरोपित करके आप मुझे व्यर्थ ही शाप देना चाहते हैं। सज्जनोंको चाहिये कि क्रोधका त्याग कर दें; क्योंकि यह चण्डालसे भी अधिक दूषित है; क्रोधके वशीभूत होकर आपने मुझे व्यर्थ ही शाप दे दिया है। अतः आपकी भी यह क्रोधयुक्त देह आज ही नष्ट हो जाय ॥ ४५-४९३ ॥

इस प्रकार राजाके द्वारा मुनि और मुनिके द्वारा राजा शापित हो गये और दोनों एक-दूसरेसे शाप पाकर बहुत दुःखी हुए। तब वसिष्ठजी अत्यधिक चिन्तातुर होकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये और उन्होंने राजाके द्वारा प्रदत्त कठिन शापके विषयमें उनसे निवेदन किया ॥ ५०-५१३ ॥

वसिष्ठजी बोले- हे पिताजी ! राजा निमिने मुझे शाप दे दिया है कि तुम्हारा यह शरीर आज ही नष्ट हो जाय। अतः शरीर नष्ट होनेसे प्राप्त कष्टके लिये मैं क्या करूँ ? इस समय आप मुझे यह बतायें कि दूसरे शरीरकी प्राप्तिमें मेरे पिता कौन होंगे ?

 

हे पिताजी ! दूसरे देहसे सम्बन्ध होनेपर भी मेरी स्थिति | पूर्ववत् ही रहे। इस शरीरमें जैसा ज्ञान है, वैसा ही उस शरीरमें भी रहे। हे महाराज ! आप समर्थ हैं; मुझपर कृपा करने योग्य हैं ॥ ५२-५४३ ॥

वसिष्ठकी बात सुनकर ब्रह्माजी अपने उस पुत्रसे बोले- तुम मित्रावरुणके तेज हो, अतः इन्हींमें प्रवेश करके स्थिर हो जाओ। कुछ समय बाद तुम उन्हींसे अयोनिज पुत्रके रूपमें प्रकट होओगे; इसमें सन्देह नहीं है। इस प्रकार पुनः शरीर प्राप्त करके तुम धर्मनिष्ठ, प्राणियोंके सुहृद्, वेदवेत्ता, सर्वज्ञ और सबके द्वारा पूजित होओगे ॥ ५५-५७ ॥

पिताके ऐसा कहनेपर वसिष्ठजी प्रसन्नतापूर्वक पितामह ब्रह्माजीकी परिक्रमा करके और उन्हें प्रणाम करके वरुणके वासस्थानको चले गये। वसिष्ठजीने अपने उत्तम देहका त्याग करके मित्र और वरुणके शरीरमें जीवांशरूपसे प्रवेश किया ॥ ५८-५९।

हे राजन् ! किसी समय परम सुन्दरी अप्सरा उर्वशी अपनी सखियोंके साथ स्वेच्छापूर्वक मित्रावरुणके स्थानपर आयी ॥ ६० ॥

हे राजन् ! उस रूपयौवनसे सम्पन्न दिव्य अप्सराको देखकर वे दोनों देवता कामातुर हो गये और समस्त सुन्दर अंगोंवाली उस मनोरम देवकन्यासे कहने लगे – हे प्रशस्त अंगोंवाली ! विवश तथा व्याकुल हम दोनोंका तुम वरण कर लो और हे वरवर्णिनि !

 

तुम अपनी इच्छाके अनुसार इस स्थानपर विहार करो। उनके इस प्रकार कहनेपर वह देवी उर्वशी मन स्थिर करके मित्रावरुणके घरमें उन दोनोंके साथ विवश होकर रहने लगी। प्रिय दर्शनवाली वह अप्सरा उन दोनोंके भावोंको समझकर वहीं रहने लगी ॥ ६१-६४॥

दैववशात् वहाँ रखे हुए एक आवरणरहित कुम्भमें दोनोंका वीर्य स्खलित हो गया; और हे राजन् ! उसमेंसे दो अत्यन्त सुन्दर मुनिकुमारोंने जन्म लिया। उनमें पहले अगस्ति थे और दूसरे वसिष्ठ थे। इस प्रकार मित्र और वरुणके तेजसे वे दोनों ऋषिश्रेष्ठ तपस्वी प्रकट हुए ॥ ६५-६६ ॥

महातपस्वी अगस्ति बाल्यावस्थामें ही वन चले गये और महाराज इक्ष्वाकुने अपने पुरोहितके रूपमें दूसरे बालक वसिष्ठका वरण कर लिया ॥ ६७ ॥

 

हे राजन् ! आपका यह वंश सुखी रहे, इसलिये राजा इक्ष्वाकुने वसिष्ठका पालन-पोषण किया और विशेष- रूपसे इन्हें मुनि जानकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ ६८ ॥

इस प्रकार शापके कारण मित्रावरुणके कुलमें वसिष्ठजीके अन्य शरीरकी प्राप्तिका समस्त आख्यान मैंने आपको बता दिया ॥ ६९ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां षष्ठस्कन्धे वसिष्ठस्य मैत्रावरुणिरितिनामवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥

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