Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 12 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्ध:द्वादशोऽध्यायःपवित्र तीर्थोंका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना)
(अथ द्वादशोऽध्यायः)
:-राजा बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! अब आप मुझे मनुष्यों और देवताओंके द्वारा सेवनीय इस पृथ्वीपर स्थित पुण्य तीर्थों, क्षेत्रों तथा नदियोंके विषयमें बताइये। उन तीर्थोंमें स्नान तथा दानका जैसा फल मिलता है, उसे और विशेषरूपसे तीर्थयात्राकी विधि तथा नियमोंको भी बताइये ॥ १-२ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! सुनिये, मैं उन विविध तीर्थोंका वर्णन करूँगा, जिन तीर्थोंमें देवियोंके प्रशस्त मन्दिर विद्यमान हैं ॥ ३ ॥
नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ हैं, इसी प्रकार यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गण्डकी, सिन्धु, गोमती, तमसा, कावेरी, चन्द्रभागा, पुण्या, शुभ वेत्रवती, चर्मण्वती, सरयू, तापी तथा साभ्रमती भी हैं- इन्हें मैंने बतला दिया। हे राजन् ! इनके अतिरिक्त सैकड़ों अन्य नदियाँ भी हैं।
उनमेंसे समुद्रमें गिरनेवाली नदियाँ पुण्यमयी हैं तथा समुद्रमें न गिरनेवाली नदियाँ अल्प पुण्यवाली हैं। समुद्रगामिनी नदियोंमें वे बहुत पवित्र हैं जो सदा जलपूरित होकर बहती हैं। श्रावण और भाद्रपद- इन दो महीनोंमें सभी नदियाँ रजस्वला होती हैं; क्योंकि उनमें वर्षाकालमें ग्रामीणजल प्रवाहित होता है ॥ ४-७३ ॥
पुष्कर, कुरुक्षेत्र, धर्मारण्य, प्रभास, प्रयाग, नैमिषारण्य और विख्यात अर्बुदारण्य – ये अत्यन्त पवित्र तीर्थ हैं। इसी प्रकार श्रीशैल, सुमेरु और गन्धमादन पवित्र पर्वत हैं। सरोवरोंमें सर्वविख्यात मानसरोवर, श्रेष्ठ बिन्दुसर और पवित्र अच्छोदसरोवर पुण्य सरोवर हैं ॥ ८-१०३ ॥
इसी प्रकार शुद्ध मनवाले मुनियोंके आश्रम भी पुण्यस्थल हैं। विख्यात बदरिकाश्रम सदैव पुण्यशाली आश्रमके रूपमें कहा गया है जहाँ नर-नारायण नामके दो मुनियोंने तपस्या की थी। ऐसे ही वामनाश्रम और शतयूपाश्रम भी विख्यात हैं। जिस ऋषिने जहाँ तपस्या की वह आश्रम उसीके नामसे प्रसिद्ध हो गया ॥ ११-१३॥
हे राजन् ! इस प्रकार इस भूतलपर असंख्य – पवित्र पुण्यस्थल हैं, जो मुनियोंद्वारा पवित्र कहे गये हैं। हे राजन् ! इन सभी स्थानोंमें देवीके मन्दिर हैं, जो दर्शन कर लेने मात्रसे पापका हरण करते हैं, वहाँ – बहुत-से भक्त नियमपूर्वक वास करते हैं। उन कतिपय स्थानोंका वर्णन आगे करूँगा ॥ १४-१५३ ॥
हे राजन् ! तीर्थ, दान, व्रत, यज्ञ, तपस्या और सभी पुण्यकर्म शुद्धिसापेक्ष हैं। द्रव्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और मानसिक शुद्धिके आधारपर ही तीर्थ, तप और व्रत पवित्र होते हैं। कभी द्रव्यशुद्धि और कभी क्रियाशुद्धि हो पाती है, लेकिन हे राजन् ! मानसिक शुद्धि सबके लिये सदा ही दुर्लभ होती है; क्योंकि हे नृप ! मन बड़ा चंचल है और अनेक विषयोंमें भटकता रहता है। तब हे राजन् ! विविध विषयोंके आश्रित रहनेवाला मन कैसे शुद्ध रह सकता है ? ॥ १६-१९३ ॥
काम, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मद- ये सभी तपस्या, तीर्थसेवन और व्रतोंमें विघ्नकारी होते हैं। हे राजन् ! अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह और अपने धर्मका पालन – समस्त तीर्थोंका फल प्रदान करते हैं। नित्यकर्मके परित्याग और मार्गमें संसर्गदोषसे तीर्थमें जाना व्यर्थ हो जाता है, केवल पाप ही लगता है ॥ २०-२२३ ॥
हे राजन् ! तीर्थ तो केवल शरीरजन्य मलको ही धोते हैं, वे अन्तःकरणको धोनेमें समर्थ नहीं होते। यदि वे तीर्थ [मनको शुद्ध करनेमें] समर्थ होते तो गंगाके तटपर रहनेवाले विश्वामित्र और वसिष्ठसदृश ईश्वर-चिन्तनपरायण भक्त मुनि द्रोहभावसे युक्त क्यों होते ? इस प्रकार तीर्थोंमें रहनेवाले लोग भी सदैव राग-द्वेषपरायण तथा काम-क्रोधसे व्याकुल रहते हैं। अतः चित्तशुद्धिरूपी तीर्थ गंगा आदि तीर्थोंसे भी अधिक पवित्र है ॥ २३-२६ ॥
हे राजन् ! यदि दैवयोगसे ज्ञाननिष्ठ पुरुषका सत्संग प्राप्त हो जाय तो वह आन्तरिक मैलको धो देता है। हे राजन् ! वेद, शास्त्र, व्रत, तप, यज्ञ तथा दान- ये चित्तकी शुद्धिके कारण नहीं हैं ॥ २७-२८ ॥
ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ वेदविद्यामें पारंगत थे और गंगाजीके तटपर रहते थे, फिर भी वे राग-द्वेषसे युक्त हो गये। विश्वामित्र और वसिष्ठके मध्य देवताओंको भी विस्मयमें डाल देनेवाला आडीबक नामक महायुद्ध हुआ, जो द्वेषके कारण व्यर्थ ही हुआ था। उस युद्धमें परम तपस्वी विश्वामित्र बक हुए थे, उन्हें वसिष्ठने हरिश्चन्द्रके कारण शाप दे दिया था।
विश्वामित्रने भी वसिष्ठको शाप देकर आडी पक्षीके देहवाला बना दिया। इस प्रकार निर्मल कान्तिवाले वे दोनों मुनि शापके कारण आडी और बक पक्षीके रूपमें हो गये। वे मानसरोवरके तटपर रहने लगे और वहाँ नखों और चोंचके प्रहारसे भयंकर युद्ध करते रहे। वे दोनों ऋषि मदोन्मत्त सिंहोंके समान रोषयुक्त होकर दस हजार वर्षांतक आपसमें युद्ध करते रहे ॥ २९-३४ ॥
राजा बोले – श्रेष्ठ तपस्वी और धर्मपरायण वे दोनों मुनिश्रेष्ठ किस कारण परस्पर वैरपरायण हुए ? उन दोनों बुद्धिमान् ऋषियोंने किस कारणसे एक- दूसरेको शाप दिया ? जो मनुष्योंके लिये कष्टकारक और दुःखदायक सिद्ध हुए ॥ ३५-३६ ॥
व्यासजी बोले – पूर्वकालमें सूर्यवंशमें त्रिशंकुके पुत्र हरिश्चन्द्र नामक एक श्रेष्ठ राजा हुए, जो रामचन्द्रजीके पूर्वज थे ॥ ३७ ॥
वे राजर्षि सन्तानहीन थे, अतः पुत्रकी कामनासे वरुणदेवकी प्रसन्नताके लिये उन्होंने ‘नरमेध’ नामक दुष्कर महायज्ञ करनेकी प्रतिज्ञा की। उस यज्ञका व्रत लेनेसे वरुणदेव उनपर प्रसन्न हो गये और राजाकी परम रूपवती भार्याने गर्भ धारण किया ॥ ३८-३९ ॥
रानीको गर्भवती देखकर राजा प्रसन्न हुए और उन्होंने विधिपूर्वक गर्भको संस्कारित करनेवाला कर्म सम्पन्न कराया ॥ ४० ॥
हे राजन् ! रानीने समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न पुत्रको जन्म दिया। पुत्रके उत्पन्न होनेपर राजा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने जातकर्म आदि संस्कारकी उत्तम विधि सम्पन्न की। ब्राह्मणोंको विशेषरूपसे स्वर्ण | और पयस्विनी गौएँ प्रदान कीं ॥ ४१-४२ ॥
हे महाराज ! जब घरमें जन्मोत्सव धूमधामसे मनाया जा रहा था। उसी समय ब्राह्मणका वेश धारण करके वरुणदेव आये, आसन प्रदान करके राजाने विधिवत् उनकी पूजा की।
आगमनके विषयमें पूछे जानेपर ‘मैं वरुण हूँ’- यह वाक्य उन्होंने राजासे कहा। हे राजेन्द्र ! जैसा आपने संकल्प किया था, अब अपने पुत्रको बलिपशु बनाकर परम पवित्र यज्ञ कीजिये और सत्यवादी बनिये ॥ ४३-४५ ॥
उनकी यह बात सुनकर राजा व्यथासे व्याकुल तथा विह्वल हो गये; पुनः अपनी मनोव्यथाको शान्त करके उन्होंने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर वरुणदेवसे कहा- हे स्वामिन् ! मैंने जिस यज्ञका संकल्प लिया है, उस यज्ञको मैं विधिपूर्वक करूँगा और सत्यवादी होऊँगा ॥ ४६-४७ ॥
हे सुरश्रेष्ठ ! एक माह पूर्ण होनेपर मेरी धर्मपत्नी [जननाशौचसे] शुद्ध हो जायँगी, पत्नीके शुद्ध हो जानेपर मैं उस पशुयज्ञको करूँगा ॥ ४८ ॥
व्यासजी बोले – राजाके यह कहनेपर वरुणदेव अपने घर चले गये। अब राजा सन्तुष्ट हो गये, किंतु कुछ-कुछ चिन्तातुर रहने लगे ॥ ४९ ॥
एक माह पूर्ण होनेपर वरुणदेव सुन्दर और मृदुभाषी ब्राह्मणका वेश बनाकर परीक्षा लेनेके लिये पुनः राजमहलमें आये ॥ ५० ॥
तब सम्यक् रूपसे पूजित होकर सुखदायी आसनपर विराजमान उन सुरश्रेष्ठ वरुणसे राजाने विनयपूर्वक उद्देश्यपरक यह बात कही – ॥ ५१ ॥
हे स्वामिन् ! पुत्र तो अभी संस्काररहित है, उसे यूपमें कैसे बाँधू ? संस्कार करके उसे क्षत्रिय बनाकर मैं उस उत्तम यज्ञको सम्पन्न करूँगा ॥ ५२॥
हे देव ! संस्कारहीन बालकका कहीं भी अधिकार नहीं होता है, अतः यदि मुझपर दया करें तो मुझे अपना सेवक और दीन जानकर कुछ समय और दे दीजिये ॥ ५३ ॥
वरुण बोले- हे राजन् ! आप समयको आगे बढ़ाकर धोखा दे रहे हैं; निःसन्तान होनेके कारण आपका पुत्रस्नेह छोड़ना दुष्कर है- इसे मैं जानता हूँ। हे राजेन्द्र ! आपकी मधुर वाणी सुनकर मैं घर जा रहा हूँ, कुछ समयतक प्रतीक्षा करके मैं पुनः आपके | घर आऊँगा। हे तात! उस समय आपको अपनी बातको सत्य सिद्ध करना होगा, अन्यथा मैं क्रुद्ध होकर आपको शाप दे दूँगा ॥ ५४-५६ ॥
राजा बोले- हे जलाधिनाथ! मैं समावर्तनसंस्कार हो जानेपर पुत्रको यज्ञ-पशु बनाकर विधिपूर्वक यज्ञ करूँगा ॥ ५७ ॥व्यासजी बोले – राजाका यह वचन सुनकर वरुणदेव प्रसन्न होकर ‘ठीक है’ – ऐसा कहकर तुरंत चले गये और राजा भी स्वस्थचित्त हो गये ॥ ५८ ॥
इधर राजाका रोहित नामका वह पुत्र बड़ा हो गया; वह बुद्धिमान् और समस्त विद्याओंमें पारंगत हो गया ॥ ५९ ॥उसे यज्ञका सब कारण विस्तारपूर्वक ज्ञात हो गया। तब वह अपनी मृत्यु जानकर अत्यन्त भयभीत हो गया ॥ ६० ॥
[एक दिन] वह बालक राजमहलसे भागकर एक अगम्य पर्वतकी गुफामें चला गया और भयग्रस्त होकर वहाँ रहने लगा ॥ ६१ ॥समय आनेपर वरुणदेव यज्ञकी अभिलाषासे राजमहलमें पहुँचकर उन राजासे बोले- हे राजन् ! यज्ञ कीजिये ॥ ६२ ॥
यह सुनकर उदास मुखवाले राजाने व्यथित होकर उनसे कहा- हे सुरश्रेष्ठ ! मैं क्या करूँ ? मेरा पुत्र कहीं चला गया है ॥ ६३ ॥
राजाकी यह बात सुनकर जलचरोंके अधिपति वरुणदेवने क्रुद्ध होकर असत्यवादी राजाको शाप दे दिया-कपटविशारद हे राजन् ! तुमने प्रतिज्ञा करके मुझे धोखा दिया है, अतः तुम्हारे शरीरमें जलोदर नामक रोग हो जाय ॥ ६४-६५ ॥
ऐसा शाप देकर पाशधारी वरुणदेव अपने लोकको चले गये और रोगसे पीड़ित होकर राजा अपने महलमें चिन्तित रहने लगे ॥ ६६ ॥
जब शापजन्य रोगसे राजा बहुत व्यथित हो गये तब उनके पुत्रने भी पिताके रोग पीड़ित होनेकी बात सुनी ॥ ६७ ॥किसी पथिकने उससे कहा- हे राजपुत्र ! शापके कारण जलोदर रोगसे ग्रस्त तुम्हारे पिता बहुत अधिक दुःखी हैं ॥ ६८ ॥
हे दुर्बुद्धि ! तुम्हारा जीवन नष्ट हो गया, तुम्हारा जन्म लेना व्यर्थ है; क्योंकि तुम अपने पिताको दुःखी अवस्थामें छोड़कर पर्वतकी गुफामें छिपे हो ॥ ६९ ॥ हे कुपुत्र ! तुम्हारे इस शरीरसे तुम्हारे जन्म लेनेका क्या लाभ है, जो तुम अपने पिताको दुःखी करके यहाँ रह रहे हो ? ॥ ७० ॥
राजा हरिश्चन्द्र तुम्हारे लिये दुःखी और व्याधिसे पीड़ित होकर विलाप कर रहे हैं। पिताके लिये सत्पुत्रको प्राणोंतकका त्याग कर देना चाहिये- यह सिद्धान्त है।॥ ७१ ॥
व्यासजी बोले- तब पथिककी धर्मसंगत बात सुनकर जैसे ही रोहितने पीडाग्रस्त अपने पिताको देखनेके लिये जानेका विचार किया, वैसे ही ब्राह्मणका रूप धारण करके इन्द्र वहाँ आ गये।
हे भारत ! उन्होंने दयालुकी भाँति एकान्तमें हितकी यह बात कही- हे राजकुमार ! तुम मूर्ख हो, जो वहाँ जानेका व्यर्थ विचार कर रहे हो। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पिता तुम्हारे लिये क्यों दुःखी हैं? ॥ ७२-७४॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे हरिश्चन्द्रस्य जलोदरव्याधिपीडावर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥