Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 9(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःनवमोऽध्यायःदेवताओंद्वारा भगवतीको आयुध और आभूषण समर्पित करना तथा उनकी स्तुति करना, देवीका प्रचण्ड अट्टहास करना, जिसे सुनकर महिषासुरका उद्विग्न होकर अपने प्रधान अमात्यको देवीके पास भेजना)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 9(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःनवमोऽध्यायःदेवताओंद्वारा भगवतीको आयुध और आभूषण समर्पित करना तथा उनकी स्तुति करना, देवीका प्रचण्ड अट्टहास करना, जिसे सुनकर महिषासुरका उद्विग्न होकर अपने प्रधान अमात्यको देवीके पास भेजना)

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[अथ नवमोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- [हे राजन् !] तब भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए। वे तुरंत महालक्ष्मीको वस्त्र, आभूषण और अपने-अपने आयुध प्रदान करने लगे ॥ १ ॥
क्षीरसागरने देवीको दिव्य, रक्तवर्णवाले, महीन तथा कभी भी जीर्ण न होनेवाले दो वस्त्र; निर्मल तथा मनोहर हार; करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशमान दिव्य चूडामणि; दो सुन्दर कुण्डल तथा कड़े प्रसन्नतापूर्वक दिये।
विश्वकर्माने भुजाओंपर धारण करनेके लिये बाजूबन्द और अनेक प्रकारके रत्नजटित दिव्य कंकण प्रसन्नचित्त होकर उन्हें प्रदान किये। साथ ही त्वष्टाने मधुर ध्वनिवाले, चमकीले, स्वच्छ, रत्नजटित और सूर्यके समान प्रकाशमान दो नूपुर पैरोंमें पहननेके लिये उन्हें प्रदान किये ॥ २-५॥
महासमुद्रने उन्हें गलेमें धारण करनेके लिये मनोहर कण्ठहार और रत्नोंसे निर्मित तेजोमय अँगूठियाँ प्रदान कीं ॥ ६ ॥
वरुणदेवने कभी न मुरझानेवाले कमलोंकी माला, जो सुगन्धसे परिपूर्ण थी तथा जिसपर भौरे मँडरा रहे थे और वैजयन्ती नामक माला भगवतीको प्रदान की ॥ ७ ॥
हिमवान्ने प्रसन्न होकर उन्हें नाना प्रकारके रत्न तथा सुवर्णके समान चमकीले वर्णवाला एक मनोहर सिंह वाहनके रूपमें प्रदान किया ॥ ८ ॥
सभी लक्षणोंसे सम्पन्न तथा सुन्दर रूपवाली वे कल्याणमयी श्रेष्ठ भगवती दिव्य आभूषणोंसे विभूषित होकर सिंहपर आरूढ़ होकर अत्यन्त सुशोभित हो रही थीं ॥ ९ ॥
तत्पश्चात् भगवान् विष्णुने अपने चक्रसे उत्पन्न करके सहस्त्र अरोंवाला, तेजसम्पन्न और दैत्योंका सिर काट लेनेकी सामर्थ्यवाला एक चक्र उन्हें प्रदान किया ॥ १० ॥

 

शंकरजीने अपने त्रिशूलसे उत्पन्न करके भगवतीको एक ऐसा उत्तम त्रिशूल अर्पण किया. जो दानवोंको काट डालनेकी शक्तिसे सम्पन्न तथा देवताओंके भयका नाश करनेवाला था ॥ ११ ॥
वरुणदेवने अपने शंखसे उत्पन्न करके प्रसन्नचित्त होकर देवीजीको एक ऐसा शंख प्रदान किया; जो मंगलमय, अत्यन्त उज्ज्वल तथा तीव्र ध्वनि करनेवाला था ॥ १२ ॥
अग्निदेवने प्रसन्नचित्त होकर सैकड़ों शत्रुओंका संहार करनेवाली, मनके समान तीव्र गतिसे चलनेवाली तथा दैत्योंका विनाश करनेवाली एक शक्ति उन्हें प्रदान की ॥ १३ ॥
पवनदेवने उन भगवती महालक्ष्मीको बाणोंसे भरा हुआ एक तरकस तथा देखनेमें अत्यन्त अद्भुत. कठिनाईसे खींचा जा सकनेवाला और कर्कश टंकार करनेवाला धनुष प्रदान किया ॥ १४ ॥
देवराज इन्द्रने अपने वज्रसे उत्पन्न करके एक अत्यन्त भयंकर वज्र तथा ऐरावत हाथीसे उतारकर एक परम सुन्दर तथा तीव्र ध्वनि करनेवाला घण्टा तुरंत भगवतीको अर्पण किया ॥ १५ ॥
यमराजने अपने कालदण्डसे आविर्भूत एक ऐसा दण्ड भगवतीको प्रदान किया, जिससे वे समय आनेपर सभी प्राणियोंका अन्त करते थे ॥ १६ ॥
ब्रह्माजीने गंगाजलसे परिपूर्ण दिव्य कमण्डलु और वरुणदेवने अपना पाश उन्हें प्रसन्नतापूर्वक प्रदान किया ॥ १७ ॥
हे राजन् ! कालने महालक्ष्मीको खड्ग तथा ढाल दिये और विश्वकर्माने उन्हें तीक्ष्ण परशु अर्पण किया ॥ १८ ॥
कुबेरने भगवतीको एक सुवर्णमय पानपात्र तथा वरुणने उन्हें दिव्य तथा मनोहर कमल पुष्प प्रदान किया ॥ १९ ॥
प्रसन्न मनवाले त्वष्टाने सैकड़ों घण्टोंके समान ध्वनि करनेवाली और दानवोंका विनाश कर डालनेवाली कौमोदकी नामक गदा उन्हें प्रदान की। साथ ही उन त्वष्टाने जगज्जननी भगवती महालक्ष्मीको अनेक प्रकारके अस्त्र तथा अभेद्य कवच प्रदान किये और सूर्यदेवने उन्हें अपनी किरणें प्रदान कीं ॥ २०-२१ ॥

 

इस प्रकार सभी आयुधों तथा आभूषणोंसे युक्त उन भगवतीको देखकर देवतागण अत्यन्त विस्मित हुए और त्रैलोक्यमोहिनी उन कल्याणकारिणी देवीकी स्तुति करने लगे ॥ २२ ॥
देवता बोले- शिवाको नमस्कार है। कल्याणी, शान्ति और पुष्टि देवीको बार-बार नमस्कार है। भगवतीको नमस्कार है। देवी रुद्राणीको निरन्तर नमस्कार है ॥ २३ ॥
आप कालरात्रि, अम्बा तथा इन्द्राणीको बार- बार नमस्कार है। आप सिद्धि, बुद्धि, वृद्धि तथा वैष्णवीको बार-बार नमस्कार है ॥ २४ ॥
पृथ्वीके भीतर स्थित रहकर जो पृथ्वीको नियन्त्रित करती हैं, किंतु पृथ्वी जिन्हें नहीं जान पातीं, उन परा परमेश्वरीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ २५ ॥
जो मायाके अन्दर स्थित रहनेपर भी मायाके द्वारा नहीं जानी जा सकीं तथा जो मायाके अन्दर विराजमान रहकर उसे प्रेरणा प्रदान करती हैं, उन जन्मरहित तथा प्रेरणा प्रदान करनेवाली भगवती शिवाको हम नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥
हे माता! आप हमारा कल्याण करें और शत्रुओंसे संत्रस्त हम देवताओंकी रक्षा करें। आप अपने तेजसे इस मोहग्रस्त पापी महिषासुरका वध कर डालें।
यह महिषासुर दुष्ट, घोर मायावी, केवल स्त्रीके द्वारा मारा जा सकनेवाला, वरदान प्राप्त करनेसे अभिमानी, समस्त देवताओंको दुःख देनेवाला तथा अनेक रूप धारण करनेवाला महादुष्ट है ॥ २७-२८ ॥
हे भक्तवत्सले ! एकमात्र आप ही सभी देवताओंकी शरण हैं; दानव महिषासुरसे पीड़ित हम देवताओंकी आप रक्षा कीजिये। हे देवि ! आपको नमस्कार है ॥ २९ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार सब देवताओंके स्तुति करनेपर समस्त सुख प्रदान करनेवाली महादेवी मुसकराकर उन देवताओंसे यह मंगलमय वचन कहने लगीं ॥ ३० ॥
देवी बोलीं- हे देवतागण ! आपलोग मन्दबुद्धि महिषासुरका भय त्याग दें। मैं वर पानेके कारण अभिमानमें चूर तथा मोहग्रस्त उस महिषासुरको आज ही रणमें मार डालूँगी ॥ ३१ ॥

 

व्यासजी बोले- देवताओंसे ऐसा कहकर वे भगवती अत्यन्त उच्च स्वरमें हँस पड़ी। [ बोलीं- ] इस संसारमें यह बड़ी विचित्र बात है कि यह सारा जगत् ही भ्रम तथा मोहसे ग्रसिन् है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र आदि तथा अन्य देवता भी महिषासुरसे भयभीत होकर काँपने लगने हैं ॥ ३२-३३ ॥
हे श्रेष्ठ देवताओ ! दैवबल बड़ा ही भयानक और दुर्जय है। काल ही सुख और दुःखका कर्ता है। यही सबका प्रभु तथा ईश्वर है। सृष्टि, पालन तथा संहार करनेमें समर्थ रहते हुए भी वे ब्रह्मा आदि मोह-ग्रस्त हो जाते हैं, कष्ट भोगते हैं और महिषासुरके द्वारा सताये जाते हैं ॥ ३४-३५ ॥
मुसकराकर ऐसा कहनेके पश्चात् देवी अट्टहास करने लगीं। उस अट्टहासका महाभयानक गर्जन दानवोंको भयभीत कर देनेवाला था ॥ ३६ ॥
उस अद्भुत शब्दको सुनकर पृथ्वी काँपने लगी. सभी पर्वत चलायमान हो उठे और अगाध महासमुद्रमें विक्षोभ उत्पन्न होने लगा। उस शब्दसे सुमेरुपर्वत हिलने लगा और सभी दिशाएँ गूंज उठीं। उस तीव्र ध्वनिको सुनकर सभी दानव भयभीत हो गये। सभी देवता परम प्रसन्न होकर ‘आपकी जय हो’, ‘हमारी रक्षा करो’- ऐसा उन देवीसे कहने लगे ॥ ३७-३८३ ॥
अभिमानमें चूर महिषासुर भी वह ध्वनि सुनकर क्रुद्ध हो उठा। उस ध्वनिसे सशंकित महिषासुरने दैत्योंसे पूछा- यह कैसी ध्वनि है? इस ध्वनिके उद्गम स्थलको जाननेके लिये दूतगण तत्काल यहाँसे जायें।
कानोंको पीड़ा पहुँचानेवाला यह अति भीषण शब्द किसने किया है? देवता या दानव जो कोई भी इस ध्वनिको उत्पन्न करनेवाला हो, उस दुष्टात्माको पकड़कर मेरे पास ले आयें। ऐसा गर्जन करनेवाले उस अभिमानके मदमें उन्मत्त दुराचारीको मैं मार डालूँगा।
मैं क्षीण-आयु तथा मन्दबुद्धिवाले उस दुष्टको अभी यमपुरी पहुँचा दूँगा। देवता मुझसे पराजित होकर भयभीत हो गये हैं, अतः वे ऐसा गर्जन कर ही नहीं सकते। दानव भी ऐसा नहीं कर सकते; क्योंकि वे सब तो मेरे अधीन हैं,
तो फिर यह मूर्खतापूर्ण चेष्टा किसकी हो सकती है ? अब दूतगण इस शब्दके कारणका पता लगाकर मेरे पास शीघ्र आयें। तत्पश्चात् मैं स्वयं वहाँ जाकर ऐसा व्यर्थ कर्म करनेवाले उस पापीका वध कर दूँगा ॥ ३९-४४३ ॥
व्यासजी बोले – महिषासुरके ऐसा कहनेपर वे दूत [शब्दके कारणका पता लगाते-लगाते] समस्त सुन्दर अंगोंवाली, अठारह भुजाओंवाली, दिव्य विग्रहमयी, सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत, सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, उत्तम आयुध धारण करनेवाली और हाथमें मधुपात्र लेकर बार-बार उसका पान करती हुई भगवतीके पास पहुँच गये।
उन्हें देखकर वे भयभीत हो गये और व्याकुल तथा सशंकित होकर वहाँसे भाग चले। महिषासुरके पास आकर वे उससे ध्वनिका कारण बताने लगे ॥ ४५-४७३ ॥
दूत बोले- हे दैत्येन्द्र ! वह कोई प्रौढा स्त्री और देवीकी भाँति दिखायी देती है। उस स्त्रीके सभी अंगोंमें आभूषण विद्यमान हैं तथा वह सभी प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित है। वह स्त्री न तो मानवी है और न तो आसुरी है।
दिव्यविग्रहवाली वह स्त्री बड़ी मनोहर है। अठारह भुजाओंवाली वह श्रेष्ठ नारी नानाविध आयुध धारण करके सिंहपर विराजमान है। वही स्त्री गर्जन कर रही है। वह मदोन्मत्त दिखायी दे रही है। वह निरन्तर मद्यपान कर रही है। हमें ऐसा जान पड़ता है कि वह अभी विवाहिता नहीं है ॥ ४८-५०३ ॥
देवतागण आकाशमें स्थित होकर प्रसन्नतापूर्वक उसकी इस प्रकार स्तुति कर रहे हैं- ‘आपकी जय हो’, ‘हमारी रक्षा करो’ और ‘शत्रुओंका वध करो’। हे प्रभो! मैं यह नहीं जानता कि वह सुन्दरी कौन है, किसकी पत्नी है, वह सुन्दरी यहाँ किसलिये आयी हुई है और वह क्या करना चाहती है?
उस स्त्रीके तेजसे चकाचौंध हमलोग उसे देखनेमें समर्थ नहीं हो सके। वह स्त्री शृंगार, वीर, हास्य, रौद्र और अद्भुत – इन सभी रसोंसे परिपूर्ण थी। इस प्रकारकी अद्भुत स्वरूपवाली नारीको देखकर हमलोग बिना कुछ कहे ही आपके आज्ञानुसार लौट आये। हे राजन् ! अब | इसके बाद क्या करना है ? ॥ ५१-५४३ ॥

 

महिषासुर बोला- हे वीर! हे मन्त्रिश्रेष्ठ ! तुम मेरे आदेशसे सेना साथमें लेकर जाओ और साम आदि उपायोंसे उस सुन्दर मुखवाली स्त्रीको यहाँ ले आओ। यदि वह स्त्री साम, दान और भेद- इन तीन उपायोंसे भी यहाँ न आये तो उस सुन्दरीको बिना मारे ही पकड़कर मेरे पास ले आओ, यदि वह मृगनयनी प्रीतिपूर्वक आयेगी तो मैं हंसके समान भौंहोंवाली उस स्त्रीको प्रसन्नतापूर्वक अपनी पटरानी बनाऊँगा। मेरी इच्छा समझकर जिस प्रकार रसभंग न हो, वैसा करना। मैं उसकी रूपराशिकी बात सुनकर मोहित हो गया हूँ ॥ ५५-५८३ ॥
व्यासजी बोले – महिषासुरकी यह कोमल वाणी सुनकर वह श्रेष्ठ मन्त्री हाथी, घोड़े और रथ साथ लेकर तुरंत चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर कुछ दूर खड़े होकर वह सचिव कोमल तथा मधुर वाणीमें विनम्रतापूर्वक उस दृढ़ निश्चयवाली नारीसे कहने लगा ॥ ५९-६०३ ॥
प्रधान बोला- हे मधुरभाषिणि! तुम कौन हो और यहाँ क्यों आयी हो ? हे महाभागे ! मेरे मुखसे ऐसा कहलाकर मेरे स्वामीने तुमसे यह बात पूछी है ॥ ६१३ ॥
उन्होंने समस्त देवताओंको जीत लिया है और वे मनुष्योंसे अवध्य हैं। हे चारुलोचने ! ब्रह्माजीसे वरदान पानेके कारण वे बहुत गर्वयुक्त रहते हैं। वे दैत्यराज महिष बड़े बलवान् हैं और अपनी इच्छाके अनुसार वे सदा विविध रूप धारण कर सकते हैं ॥ ६२-६३ ॥
सुन्दर वेष तथा मनोहर विग्रहवाली आप यहाँ आयी हुई हैं- ऐसा सुनकर मेरे प्रभु महाराज महिषासुर आपको देखना चाहते हैं। वे मनुष्यका रूप धारण करके आपके पास आयेंगे। हे सुन्दर अंगोंवाली ! आपकी जो इच्छा होगी, हम उसीको मान लेंगे ॥ ६४-६५ ॥
हे बालमृगके समान नेत्रोंवाली! अब आप उन बुद्धिमान् राजा महिषके पास चलें और नहीं तो मैं स्वयं जाकर आपके प्रेममें लीन राजा महिषको यहाँ | ले आऊँ ॥ ६६ ॥

 

हे देवेशि! आपके मनमें जैसी इच्छा होगी, मैं वही करूँगा। आपके रूपके विषयमें सुनकर वे पूर्णरूपसे आपके वशवर्ती हो गये हैं। हे करभोरु ! आप शीघ्र बताएँ; मैं उसीके अनुसार कार्य करूँगा ॥ ६७-६८ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषमन्त्रिणा देवीवार्तावर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

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