Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 8(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःअथाष्टमोऽध्यायःब्रह्माप्रभृति समस्त देवताओंके शरीरसे तेजःपुंजका निकलना और उस तेजोराशिसे भगवतीका प्राकट्य)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 8(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःअथाष्टमोऽध्यायःब्रह्माप्रभृति समस्त देवताओंके शरीरसे तेजःपुंजका निकलना और उस तेजोराशिसे भगवतीका प्राकट्य)

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[अथाष्टमोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- हे राजन् ! उन देवताओंने शीघ्रतापूर्वक भगवान् विष्णुके प्रिय धाम वैकुण्ठमें पहुँचकर वहाँ उन श्रीहरिका विशाल सदन देखा, जो सम्पूर्ण शोभाओंसे युक्त तथा दिव्य महलोंसे सुशोभित था।
सुन्दर तथा सुखदायक वह भवन सरोवर, बावली एवं नदियोंसे सुशोभित था, जिनमें हंस, सारस, चक्रवाक आदि पक्षी कलरव कर रहे थे।
उस भवनके चारों ओर सुशोभित हो रहे दिव्य उपवनोंमें चम्पा, अशोक, कह्लार, मन्दार, मौलसिरी, मालती, तिलक, आमड़ा और कुरबक आदि विविध प्रकारके वृक्ष लगे हुए थे।
उपवनोंमें चारों ओर कोयलोंकी कूक सुनायी दे रही थी, मोर नृत्य कर रहे थे और भौरे गुंजार कर रहे थे। नन्द-सुनन्द आदि भक्तिपरायण पार्षद तथा त्याग-वृत्तिसम्पन्न अनन्य भक्त भगवान् विष्णुकी स्तुति कर रहे थे।
वहाँ रत्नजटित महल बने हुए थे, जिनपर सुनहरे चित्र बने हुए थे; सुन्दर-सुन्दर कक्षोंसे सुशोभित वे महल ऊँचाईमें आकाशको छू रहे थे। वहाँ देवता और गन्धर्व गा रहे थे, अप्सराएँ नाच रही थीं और वह मनको मुग्ध करनेवाले तथा मधुर कण्ठध्वनिवाले किन्नरोंसे मण्डित था।
वैदिक सूक्तोंके द्वारा आदरपूर्वक भगवान् विष्णुकी स्तुति करते हुए शान्त स्वभाववाले वेदपाठपरायण मुनियोंसे वह भवन अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥ १-८॥
भगवान् विष्णुके भवनपर पहुँचकर देवताओंने सुन्दर स्वरूपवाले तथा हाथमें स्वर्णकी छड़ी धारण किये हुए जय-विजय नामक द्वारपालोंको देखकर उनसे कहा कि आप दोनोंमेंसे कोई एक जाकर भगवान् विष्णुसे कह दे कि आपके दर्शनकी अभिलाषासे ब्रह्मा, रुद्र आदि देवता द्वारपर खड़े हैं ॥ ९-१० ॥
व्यासजी बोले- उनकी बात सुनकर विजयने तुरन्त भगवान् विष्णुके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके सभी देवताओंके आगमनकी बात उनको बतायी ॥ ११ ॥
विजयने कहा- हे देवाधिदेव ! हे महाराज ! हे दैत्योंका दमन करनेवाले लक्ष्मीकान्त ! हे विभो ! इस समय सभी देवता आये हुए हैं और वे द्वारपर खड़े हैं। आपके दर्शनके इच्छुक ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, अग्नि, यम आदि देवता वेदवाक्योंसे आपकी स्तुति कर रहे हैं॥ १२-१३ ॥
व्यासजी बोले – लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु विजयकी बात सुनकर देवोंसे मिलनेहेतु अत्यधिक उत्साहित होकर शीघ्रतापूर्वक अपने भवनसे बाहर निकल आये ॥ १४ ॥
वहाँ जाकर भगवान् विष्णुने द्वारपर स्थित उन देवताओंको थकानसे व्याकुल तथा दुःखित देखकर अपनी प्रेमभरी दृष्टिसे उन्हें आनन्दित किया ॥ १५ ॥
उन सभी देवताओंने दैत्योंका संहार करनेवाले तथा वेदोंके द्वारा सुनिश्चित किये गये (तत्त्वस्वरूप) देवाधिदेव भगवान् विष्णुको प्रणाम किया और मधुर | वाणीमें उनकी स्तुति की ॥ १६ ॥

 

देवता बोले- हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाले! हे दयासिन्धो ! हे महाराज ! हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये ॥ १७।
विष्णु बोले- हे देवताओ ! आप सभी लोग आसनोंपर बैठ जाइये और फिर अपना कुशल-क्षेम बताइये। आपलोग एक साथ मिलकर यहाँ किसलिये आये हुए हैं ? ब्रह्मा तथा शिवसहित आप सभी देवता चिन्तामग्न, दुःखित और उदास क्यों हो गये हैं? आपलोग अपना प्रयोजन शीघ्र बताएँ ॥ १८-१९ ॥
देवता बोले- हे महाराज ! पापकर्ममें संलग्न. अजेय, महादुष्ट, वरदान पाकर अभिमानमें चूर तथा पापी महिषासुरसे हमलोग पीड़ित हैं ॥ २० ॥
ब्राह्मणोंद्वारा देवताओंको दिये गये यज्ञभागोंको वह स्वयं ग्रहण कर लेता है। हम सभी देवता उससे भयभीत होकर पर्वतोंकी कन्दराओंमें भटकते फिरते हैं ॥ २१ ॥
हे मधुसूदन ! ब्रह्माजीके वरदानसे वह अजेय बन गया है, अतः इस कार्यको अत्यन्त गुरुतर जानकर हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। दानवोंकी मायाको जाननेवाले तथा दानवोंका वध करनेवाले हे कृष्ण ! आप ही देवताओंका उद्धार करनेमें समर्थ हैं, अतः उसके वधका कोई उपाय कीजिये ॥ २२-२३ ॥
विधाताने उसे वर दे दिया है कि तुम पुरुषमात्रसे सदा अवध्य रहोगे। तब ऐसी कौन स्त्री होगी जो रणमें उस शठको मार सके ? ॥ २४ ॥
क्या भगवती पार्वती, लक्ष्मी, इन्द्राणी अथवा सरस्वती भी इस अत्यन्त दुष्ट तथा वरदानके कारण अत्यन्त अभिमानी महिषासुरका वध करनेमें समर्थ होंगी ? अतएव हे भक्तवत्सल !
हे भूधर ! आप अपनी बुद्धिसे भलीभाँति विचार करके उसके मरणका जो भी उपाय हो उसके द्वारा हमलोगोंका यह कार्य सम्पन्न कर दीजिये ॥ २५-२६ ॥

 

व्यासजी बोले- यह बात सुनकर भगवान् विष्णु मुसकराते हुए उनसे कहने लगे – पहले भी हमलोगोंने महिषासुरसे युद्ध किया था, किंतु वह नहीं मारा जा सका ॥ २७ ॥

 

अब एक ही उपाय है कि यदि सभी देवताओंके तेजसे कोई श्रेष्ठ रूपवती सुन्दरी उत्पन्न की जाय तो वही समरांगणमें उसे अपने पराक्रमसे मार सकती है।
हम सबकी शक्तिके अंशोंसे निर्मित कोई वीर नारी ही सैकड़ों प्रकारकी माया रचनेमें निपुण और वरप्राप्तिके कारण अभिमानमें चूर उस महिषासुरका वध करनेमें समर्थ होगी ॥ २८-२९ ॥
अब आप सभी देवतागण तेजांशोंसे प्रार्थना करें; साथ ही हमारी स्त्रियाँ भी प्रार्थना करें, जिससे कि उन आविर्भूत तेजांशोंके द्वारा एक तेजोराशि उत्पन्न हो जाय ॥ ३० ॥
उस समय रुद्र आदि हम सब मुख्य देवतागण त्रिशूल आदि जो भी दिव्य आयुध हैं, वह सब उसे दे देंगे। तत्पश्चात् सभी प्रकारके आयुध धारण करनेवाली तथा सम्पूर्ण तेजसे सम्पन्न वह देवी उस दुराचारी, पापी तथा मदोन्मत्त दानवको मार डालेगी ॥ ३१-३२ ॥
व्यासजी बोले – भगवान् विष्णुके ऐसा कहते ही ब्रह्माजीके मुखसे अपने आप एक अत्यन्त असह्य तेजःपुंज निकल पड़ा। वह तेज लाल रंगका था, उसकी आकृति सुन्दर थी, वह पद्मराग मणिके समान प्रभावाला था।
उसमें कुछ शीतलता एवं ऊष्णता भी थी और वह अनेक किरणोंसे सुशोभित था। हे महाराज ! भगवान् विष्णु और शिवने भी उस निःसृत तेजको देखा। [उसे देखकर] अमित पराक्रमवाले वे दोनों आश्चर्यचकित हो गये ॥ ३३-३५ ॥
तत्पश्चात् शंकरजीके शरीरसे भी चाँदीके सदृश वर्णवाला, अत्यन्त अद्भुत, तीव्र, देखनेमें असह्य तथा महाप्रचण्ड तेज निकला जो दैत्योंको भयभीत कर देनेवाला तथा देवताओंको आश्चर्यमें डाल देनेवाला था। वह भयानक रूपवाला, पर्वतके समान विशाल तथा साक्षात् दूसरे तमोगुण जैसा था ॥ ३६-३७ ॥
तदनन्तर भगवान् विष्णुके शरीरसे सत्त्वगुण- सम्पन्न, नीलवर्ण और अत्यन्त दीप्तिमान् दूसरी तेजोराशि प्रकट हुई ॥ ३८ ॥
इसके बाद इन्द्रके शरीरसे विचित्र आकारवाला, असह्य, पूर्ण गोलाकार और सर्वगुणात्मक तेज प्रादुर्भूत | हुआ ॥ ३९ ॥

 

कुबेर, यम, अग्नि तथा वरुणके भी शरीरोंसे सभी ओर महान् तेज निकलने लगा। इसी प्रकार अन्य देवताओंके शरीरोंसे भी अतिशय प्रदीप्त तेज निकला। वह महान् तेजोराशि अत्यन्त दीप्तिमान् थी ॥ ४०-४१ ॥
दूसरे हिमालयपर्वतके सदृश उस महादिव्य तेजोराशिको देखकर विष्णु आदि सभी प्रधान देवता आश्चर्यचकित हो गये ॥ ४२ ॥
उसी क्षण वहाँ सभी देवताओंके देखते-देखते उस तेजःपुंजसे अत्यन्त श्रेष्ठ, सुन्दर तथा सबको विस्मित कर देनेवाली एक स्त्री प्रकट हो गयी ॥ ४३ ॥
सभी देवताओंके शरीरसे आविर्भूत वह नारी त्रिगुणात्मिका, अठारह भुजाओंवाली, मनोहर, त्रिवर्णा तथा विश्वको मोहमें डाल देनेवाली साक्षात् महालक्ष्मी थीं।
वे उज्ज्वल मुखवाली, कृष्णवर्णके नेत्रोंवाली, अत्यन्त लाल अधरोष्ठसे सुशोभित, ताम्रवर्णकी हथेलीसे सुन्दर लगनेवाली, कान्तिसे सम्पन्न तथा दिव्य आभूषणोंसे अलंकृत थीं ॥ ४४-४५ ॥
देवताओंके शरीरसे उत्पन्न तेजोराशिसे प्रकट वे अठारह भुजाओंवाली भगवती असुरोंका विनाश करनेके लिये हजारों भुजाओंसे सुशोभित हो गयीं ॥ ४६ ॥
जनमेजय बोले – हे कृष्णद्वैपायन ! हे महाभाग ! हे सर्वज्ञ ! हे मुनिवर ! अब आप उन भगवतीके शरीरकी उत्पत्तिका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। उन सब देवताओंके शरीरसे निकला हुआ तेज बादमें एकत्र हो गया अथवा पृथक् पृथक् ही रहा?
उनके अंग-प्रत्यंग विभिन्न देवताओंके तेजसे सम्पन्न थे अथवा नहीं ? उनके शरीरके विभिन्न अंग-मुख, नासिका, नेत्र आदि अलग-अलग देवताओंके तेजसे निर्मित थे अथवा सब तेज एक साथ मिलकर बने थे ?
हे व्यासजी ! उनके शरीरके अंगोंकी उत्पत्तिके विषयमें विस्तारपूर्वक बताइये। जिस देवताके तेजसे उनका जो-जो अद्भुत अंग बना, वह सब मुझे बताइये ॥ ४७-५० ॥
जिन-जिन देवताओंने उन भगवतीको जो-जो आयुध तथा आभूषण आदि समर्पित किये, आपके मुखारविन्दसे निकली सारी बात मैं सुनना चाहता हूँ।

 

हे ब्रह्मन् ! आपके मुखकमलसे निकले महालक्ष्मीके चरित्ररूपी अमृतमय रसका पान करते हुए मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ ५१-५२ ॥
सूतजी बोले- [हे मुनिवृन्द !] उन राजा जनमेजयका यह वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र श्रीव्यासजी उन्हें प्रसन्न करते हुए यह मधुर वचन कहने लगे ॥ ५३ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! हे महाभाग ! हे कुरुश्रेष्ठ ! सुनिये, मैं अपनी बुद्धिके अनुसार उनके शरीरकी उत्पत्तिके विषयमें विस्तारपूर्वक आपसे कहता हूँ ॥ ५४॥
स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्र भी भगवतीके यथार्थ रूपको बता पानेमें कभी भी समर्थ नहीं हैं तब देवीका जो रूप है, जैसा है और जिस उद्देश्यसे बना है, उसे मैं कैसे जान सकता हूँ ? बस, मेरी वाणी इतना ही कह सकती है कि वे भगवती प्रकट हुईं ॥ ५५-५६ ॥
वे देवी नित्यस्वरूपा हैं और सदा ही सर्वत्र विराजमान रहती हैं। वे एक होती हुई भी गुरुतर कार्य पड़नेपर देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये नाना प्रकारके रूप धारण कर लेती हैं ॥ ५७ ॥
जिस प्रकार नाटकका कोई नट एक होता हुआ भी रंगमंचपर जाकर लोगोंके मनोरंजनहेतु अनेक रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार रूपरहित तथा निर्गुणा होती हुई भी ये भगवती देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेके लिये अपनी लीलासे अनेक सगुण रूप धारण कर लिया करती हैं और किये जानेवाले कर्मके अनुसार धात्वर्थ-गुणसंयुक्त उनके अनेक गौण नाम पड़ जाते हैं ॥ ५८-६० ॥
हे राजन् ! देवताओंके तेजसमूहसे उन भगवतीका मनोहर रूप जिस प्रकार उत्पन्न हुआ, उसे मैं अपनी बुद्धिके अनुसार बता रहा हूँ ॥ ६१ ॥
भगवान् शंकरका जो तेज था, उससे उन भगवतीका गौरवर्ण, सुन्दर आकारवाला तथा अत्यन्त विशाल मुखकमल निर्मित हुआ ॥ ६२ ॥
यमराजके तेजसे उनके कोमल, घुँघराले, बहुत लम्बे, मेघके समान कृष्ण वर्णवाले और मनोहर केश बने ॥ ६३ ॥

 

अग्निके तेजसे उन भगवतीके तीनों नेत्र बने। तीन प्रकारके वर्णोंसे सुशोभित वे नेत्र काले, लाल तथा श्वेत थे ॥ ६४ ॥
उनकी भौंहें दोनों सन्ध्याओंके तेजसे बनीं। वे टेढ़ी, चिकनी, काले रंगकी, अत्यन्त तेजोमय तथा कामदेवके धनुषकी भाँति प्रतीत हो रही थीं ॥ ६५ ॥
उनके दोनों उत्तम कान वायुके तेजसे बने, जो न बहुत बड़े तथा न बहुत छोटे थे। वे कामदेवके झूलेके सदृश प्रतीत हो रहे थे। तिलके फूलके समान आकृतिवाली, अत्यन्त मनोहर और स्निग्ध नाक कुबेरके तेजसे उत्पन्न हुई ॥ ६६-६७ ॥
हे राजन् ! उन देवीके नुकीले, चिकने, चमकीले, कुन्दके अग्रभागके सदृश तथा समान दाँत प्रजापतिके तेजसे उत्पन्न हुए ॥ ६८ ॥
उनका रक्तवर्ण अधरोष्ठ अरुणके तेजसे उत्पन्न हुआ तथा ऊपरका अत्यन्त मनोहर उत्तरोष्ठ (ऊपरका ओष्ठ) कार्तिकेयके तेजसे उत्पन्न हुआ ॥ ६९ ॥
उन देवीकी अठारह भुजाएँ विष्णुके तेजसे प्रकट हुईं तथा उनकी रक्तवर्णकी अँगुलियाँ वसुओंके तेजसे उत्पन्न हुईं। उनके दोनों उत्तम स्तन चन्द्रमाके तेजसे आविर्भूत हुए तथा तीन रेखाओंसे युक्त उनका मध्यभाग इन्द्रके तेजसे उत्पन्न हुआ। उनकी जाँचें तथा ऊरु- प्रदेश वरुणके तेजसे उत्पन्न हुए तथा उनका विशाल नितम्ब पृथ्वीके तेजसे उत्पन्न हुआ ॥ ७०-७२ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार उस तेजोराशिसे सुन्दर आकारवाली, दिव्य रूपसे सम्पन्न तथा मधुर स्वरवाली भगवती नारी-रूपमें प्रकट हुईं ॥ ७३ ॥
मनोहर अंग-प्रत्यंगवाली, सुन्दर दाँतोंवाली तथा भव्य नेत्रोंवाली उन देवीको देखकर महिषासुरसे पीड़ित समस्त देवता अत्यन्त आनन्दित हो उठे ॥ ७४ ॥
उसी समय भगवान् ‌विष्णुने सभी देवताओंसे कहा- हे देवताओ ! अब आपलोग अपने-अपने सभी शुभ भूषण एवं आयुध इन देवीको प्रदान करें। अपने-अपने आयुधोंसे नानाविध तेजस्वी शस्त्रास्त्र उत्पन्न करके सभी लोग शीघ्र ही देवीको अर्पित कर दें ॥ ७५-७६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे देव्याः स्वरूपोद्भववर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

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