Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 35(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्ध:पञ्चत्रिंशोऽध्यायःसुरथ और समाधिकी तपस्यासे प्रसन्न भगवतीका प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 35(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्ध:पञ्चत्रिंशोऽध्यायःसुरथ और समाधिकी तपस्यासे प्रसन्न भगवतीका प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना)

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[अथ पञ्चत्रिंशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- उनका यह वचन सुनकर दुःखित हृदयवाले वैश्य और राजाने प्रसन्नतापूर्वक विनम्रभावसे मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया। भक्तिपरायण चित्तवाले, शान्त स्वभाववाले तथा हर्षके कारण खिले हुए नेत्रोंवाले वे दोनों वाक्य- विशारद राजा और वैश्य हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ १-२ ॥
हे भगवन् ! हम दोनों दुःखी जनोंको आपकी सूक्तिरूपिणी वाणीने उसी प्रकार शान्त तथा पवित्र कर दिया, जैसे गंगाने राजा भगीरथको कर दिया था ॥ ३ ॥
सज्जन लोग परोपकारपरायण, स्वाभाविक रूपसे गुणोंके भण्डार और सभी प्राणियोंको सुख देनेवाले होते हैं। पूर्वजन्मोंके पुण्यके कारण ही महान् दुःखका नाश करनेवाले आपके इस शुभ आश्रममें हम दोनोंका आना हुआ। पृथ्वीपर बहुत- से स्वार्थी मनुष्य होते हैं, परंतु दूसरोंके हित- साधनमें कुशल आप-जैसे कुछ ही लोग कहीं- कहीं मिलते हैं।
हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं दुःखी हूँ और ये वैश्य अत्यन्त दुःखी हैं। हम दोनों इस संसारसे पीड़ित हैं। हे विद्वन् ! आपके इस आश्रममें आकर प्रसन्नतापूर्वक आपके दर्शन और उपदेश- श्रवणसे हमारा शारीरिक तथा मानसिक क्लेश दूर हो गया ॥ ४-८ ॥
हे ब्रह्मन् ! आपकी अमृतमयी वाणीके रससे हम दोनों धन्य और कृतकृत्य हो गये। हे करुणासागर ! आपने अपनी कृपासे हम दोनोंको पवित्र कर दिया ॥ ९ ॥
हे साधो ! हम दोनों थककर इस संसाररूपी महासागरमें डूब रहे हैं- यह जानकर अब आप हम दोनोंका हाथ पकड़िये और मन्त्रदान देकर भवसागरसे पार कर दीजिये ॥ १० ॥

 

अब अत्यन्त कठोर तपस्या करके हम दोनों सुख प्रदान करनेवाली जगदम्बाका आराधन करके उनका दर्शन प्राप्तकर अपने-अपने घरोंको वापस जायँगे ॥ ११ ॥
आपके मुखसे देवीका नवाक्षरमन्त्र ग्रहण करके हम दोनों निराहार रहकर व्रत करेंगे और उस मन्त्रका जप करेंगे ॥ १२ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार उन दोनोंके आग्रह करनेपर मुनिश्रेष्ठ सुमेधाने उन्हें ध्यान-बीजसहित देवीका मंगलकारी नवाक्षरमन्त्र प्रदान किया ॥ १३ ॥
वे दोनों वैश्य और राजा मुनिसे मन्त्र और उसके ऋषि, छंद, देवताका ज्ञान प्राप्त करके तथा उनसे आज्ञा लेकर नदीके अत्युत्तम तटपर चले गये ॥ १४ ॥
अत्यन्त कृशकाय वे दोनों एकान्तमें निर्जन स्थानपर आसन लगाकर स्थिरचित्त होकर बैठ गये ॥ १५ ॥
उन दोनोंने शान्तचित्त तथा ध्यानपरायण होकर मन्त्रजप और भगवतीके तीनों चरित्रोंका पाठ करते हुए एक मासका समय व्यतीत कर दिया ॥ १६ ॥
उनके एक मासके व्रतसे ही उनमें भगवती भवानीके चरणकमलमें उत्तम प्रीति उत्पन्न हो गयी और उनकी बुद्धि स्थिर हो गयी ॥ १७ ॥
वे दोनों नित्य जाकर एक बार महात्मा [सुमेधा ] मुनिके चरणोंमें प्रणाम करते थे और वहाँसे लौटकर फिर अपने कुशासनपर बैठ जाते थे। वे दोनों अन्य कोई भी कार्य नहीं करते थे और सदैव देवीके ध्यान तथा मन्त्रजपमें संलग्न रहते थे ॥ १८-१९ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार एक वर्ष पूर्ण होनेपर वे फलाहारका त्याग करके पत्तेके आहारपर रहने लगे। हे नृप ! उन दोनों- वैश्य और राजाने एक वर्षतक सूखे पत्ते खाकर इन्द्रियोंको वशमें करके जप और ध्यानमें रत रहते हुए तप किया ॥ २०-२१ ॥
इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत होनेपर उन दोनोंको किसी समय स्वप्नमें भगवतीका मनोहारी दर्शन प्राप्त हुआ। राजाने स्वप्नमें देवी जगदम्बिकाको लाल वस्त्र धारण किये हुए तथा सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत देखा ॥ २२-२३ ॥

 

स्वप्नमें देवीका दर्शन प्राप्तकर दोनों प्रेमभावसे परिपूर्ण हो गये। अब वे दोनों तीसरे वर्षमें मात्र जलके आहारपर रहने लगे ॥ २४ ॥
इस प्रकार तीन वर्षतक तपस्या करनेके पश्चात् वे दोनों-राजा और वैश्य मनमें देवीके साक्षात् दर्शनकी लालसासे चिन्तित हो उठे ॥ २५ ॥
अत्यन्त दुःखी तथा व्याकुल होकर उन दोनोंने निश्चय किया कि मनुष्योंको शान्ति प्रदान करनेवाली देवीका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं प्राप्त हुआ, अतः अब हम शरीरका त्याग कर देंगे ॥ २६ ॥
ऐसा मनमें विचारकर राजाने एक हाथ प्रमाणका त्रिभुजाकार, सुन्दर तथा सुस्थिर अग्निकुण्ड बनाया। उसमें अग्निकी स्थापना करके राजा अपना मांस काट-काटकर बार-बार हवन करने लगे। साथ ही अत्यन्त भक्तिमान् वह वैश्य भी प्रदीप्त अग्निमें अपना मांस डालने लगा।
तत्पश्चात् वे दोनों जब अपने रुधिरसे इन देवीको बलि देनेके लिये उद्यत हुए तब भगवती उन दोनोंको प्रेम-भक्तिमें तन्मय और अत्यन्त दुःखी देखकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर उनसे कहने लगीं – ॥ २७-३० ॥
देवी बोलीं- हे राजन् ! अपना मनोभिलषित वर माँगो, मैं आज तुम्हारी तपस्यासे सन्तुष्ट हूँ। अब मैंने समझ लिया कि तुम मेरे भक्त हो। उसके बाद देवीने वैश्यसे कहा- हे महामते ! मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारा अभीष्ट क्या है? तुम्हारे मनमें जो भी हो माँग लो, मैं उसे दूँगी ॥ ३१-३२॥
व्यासजी बोले- उनके इस वचनको सुनकर प्रसन्न मनवाले राजाने उनसे कहा कि बलपूर्वक मैं शत्रुओंका नाशकर अपना राज्य प्राप्त करूँ- मुझे आज यह वरदान दीजिये ॥ ३३ ॥
तब देवीने उनसे कहा- हे राजन् ! अपने घरको जाओ, तुम्हारे शत्रु शीघ्र ही क्षीण बलवाले होकर पराजित हो जायँगे। हे महाभाग ! तुम्हारे मन्त्रिगण आकर तुम्हारे पैरोंपर गिरेंगे। अब आप अपने नगरमें सुखपूर्वक राज्य करें। हे राजन् !
अपने विस्तृत साम्राज्यका दस हजार वर्षांतक शासन करके देहत्यागके बाद सूर्यसे जन्म प्राप्त करके तुम [सावर्णि] मनु होओगे ॥ ३४-३६ ॥
व्यासजी बोले – शुद्धहृदय वैश्यने हाथ जोड़कर कहा- अब मुझे न घरकी आवश्यकता है, न धनकी और न पुत्रकी ही। हे माता! ये सभी बन्धनमें डालनेवाले और स्वप्नकी भाँति नश्वर हैं,
अतः आप मुझे बन्धनका नाश करनेवाला और मोक्ष देनेवाला दिव्य ज्ञान प्रदान करें। इस असार संसारमें अज्ञानी डूब जाते हैं और ज्ञानी पार उतर जाते हैं, इसलिये वे संसारकी इच्छा नहीं करते ॥ ३७-३९ ॥
व्यासजी बोले- तब अपने समक्ष खड़े वैश्यकी बात सुनकर देवी महामायाने कहा- हे वैश्यश्रेष्ठ ! तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४० ॥
इस प्रकार उन दोनोंको वरदान देकर देवी वहीं अन्तर्धान हो गयीं। तब भगवतीके अन्तर्धान हो जानेपर राजा सुरथने उन मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके घोड़ेपर चढ़कर चलनेका निश्चय किया, तभी उनके प्रजाजनों और मन्त्रिगणोंने वहाँ आकर प्रणाम किया; वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये तथा विनम्र होकर राजासे कहने लगे – हे राजन् !
आपके शत्रुगण अपने पापके कारण युद्धमें मारे गये। हे भूप ! अब आप अपने नगरमें निवास करके निष्कण्टक राज्य कीजिये ॥ ४१-४३३ ॥
उनकी बात सुनकर राजा मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके उनसे आज्ञा लेकर मन्त्रियोंके साथ चल दिये। वे अपने राज्य, स्त्री और बन्धु-बान्धवोंको पाकर समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य भोगने लगे ॥ ४४-४५३ ॥
वैश्य भी ज्ञान प्राप्त करके सर्वथा आसक्तिरहित और बन्धनसे मुक्त होकर तीर्थोंमें भ्रमण करता हुआ तथा भगवतीके गुणोंका गान करता हुआ समय व्यतीत करने लगा ॥ ४६-४७ ॥
इस प्रकार देवीकी परम अद्भुत लीला तथा राजा और वैश्यद्वारा की गयी उनकी आराधना एवं फलप्राप्तिको मैंने यथार्थ रूपसे आपसे कहा। देवीके शुभ आविर्भाव और उनके द्वारा दैत्योंके विनाशकी कथा भी मैंने आपसे कही। भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाली वे भगवती ऐसे प्रभाववाली हैं ! ॥ ४८-४९ ॥

 

जो मनुष्य उनके इस उत्तम आख्यानको नित्य सुनता है, वह संसारमें अद्भुत सुख प्राप्त करता है, यह सत्य है। इस पवित्र और अद्भुत आख्यानका श्रवण करनेसे यह ज्ञान, मोक्ष, कीर्ति और सुख प्रदान करता है। यह मनुष्योंकी सभी कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला तथा समस्त धर्मोंका सार और धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिका परम कारण बताया गया है॥ ५०-५२॥
सूतजी बोले – राजा जनमेजयके पूछनेपर सभी अर्थ-तत्त्वोंको जाननेवाले सत्यवतीपुत्र व्यासने उनसे यह दिव्य देवीभागवतसंहिता कही। परम दयालु भगवान् कृष्णद्वैपायन मुनि व्यासने शुम्भदैत्यके वधकी कथापर आधारित देवी चण्डिकाके चरित्रका वर्णन किया था। हे मुनीश्वरो ! समस्त पुराणोंका सारस्वरूप यह इतिहास मैंने आपलोगोंसे कह दिया ॥ ५३-५४ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे सुरथराजसमाधिवैश्ययोर्देवी- भक्त्येष्टप्राप्तिवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
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॥ पंचमः स्कन्धः समाप्तः ॥
श्रुतिस्मृती तु नेत्रे द्वे पुराणं हृदयं पुराणहीनाधृच्छून्यात् काणान्धावपि तौ यस्य धर्मेऽस्ति जिज्ञासा यस्य चतुर्दशसु विद्यासु पापाद्भयं पुराणं दीप स्मृतम्। श्रुतिस्मृतिभ्यां हीनोऽन्धः काणः स्यादेकया विना ।। वरौ। श्रुतिस्मृत्युदितो धर्मः पुराणे परिगीयते ॥ महत्। श्रोतव्यानि पुराणानि धर्ममूलानि तेन वै ॥ उत्तमः । अन्धोऽपि न तदालोकात् संसाराब्धौ क्वचित् पतेत् ॥
विद्वानोंके श्रुति-स्मृति- ये दो नेत्र हैं और पुराण हृदय है। इनमेंसे जिसे श्रुति-स्मृतिमेंसे किसी एकका ज्ञान नहीं है; वह काना, दोनोंके ज्ञानसे हीन अन्धा है, किंतु जो पुराणरूपी विद्यासे हीन है वह तो हृदयहीन या शून्य होनेके कारण इन दोनोंसे भी निकृष्ट है। श्रुति तथा स्मृतियोंमें कहा गया धर्म पुराणमें प्रतिपादित है। जिसकी धर्ममें जिज्ञासा या रुचि हो, जो पापोंसे डरता हो, उसे पुराणोंका श्रवण करना चाहिये; क्योंकि वे ही धर्मके मूल हैं। चौदहों विद्याओंमें पुराण-विद्या ही उत्तम दीपक है। इसके आलोक- प्रकाशमें स्थित अन्धा भी संसार सागरमें कभी नहीं गिरता ।
[ स्कन्दपु० का० २।९६-९७, ९९-१०० ]

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