Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 34(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्ध: चतुस्त्रिंशोऽध्यायः मुनि सुमेधाद्वारा देवीकी पूजा-विधिका वर्णन)
[अथ चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ]
:-राजा बोले – हे भगवन् ! अब मुझे उन देवीकी आराधना-विधि भलीभाँति बताइये; साथ ही पूजा- विधि, हवनकी विधि और मन्त्र भी बताइये ॥ १ ॥
ऋषि बोले- हे राजन् ! सुनिये, मैं उनके पूजनकी शुभ विधि बताता हूँ, जो मनुष्योंको काम, मोक्ष और ज्ञानको देनेवाली तथा उनके दुःखोंका नाश करनेवाली है ॥ २ ॥
मनुष्यको सर्वप्रथम विधिपूर्वक स्नान करके पवित्र हो श्वेत वस्त्र धारण कर लेना चाहिये। तत्पश्चात् वह सावधानीपूर्वक आचमन करके पूजा- स्थानको शुद्ध करनेके बाद लिपी हुई भूमिपर उत्तम आसन बिछाकर उसपर बैठ जाय और प्रसन्न होकर विधिपूर्वक तीन बार आचमन करे।
अपनी शक्तिके अनुसार पूजाद्रव्यको सुव्यवस्थित ढंगसे रखकर प्राणायाम कर ले, उसके बाद भूतशुद्धि करके और पुनः मन्त्र पढ़कर समस्त पूजन- सामग्रीका प्रोक्षण करके देवीमूर्तिकी प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिये। तत्पश्चात् देशकालका उच्चारणकर विधिपूर्वक न्यास करना चाहिये ॥ ३-६ ॥
इसके बाद सुन्दर ताम्रपात्रपर श्वेत चन्दनसे षट्कोण यन्त्र तथा उसके बाहर अष्टकोण यन्त्र लिखना चाहिये। तदनन्तर नवाक्षर मन्त्रके आठ बीज अक्षर आठों कोणोंमें लिखना चाहिये और नौवाँ अक्षर यन्त्रकी कर्णिका (बीच) में लिखना चाहिये। तदनन्तर वेदमें बतायी गयी विधिसे यन्त्रकी प्रतिष्ठा करके अथवा हे राजन् !
भगवतीकी धातुमयी प्रतिमा बनाकर शिवतन्त्रोक्त पूजामन्त्रोंसे प्रयत्नपूर्वक पूजन करना चाहिये। अथवा सावधान होकर आगमशास्त्रमें बतायी गयी विधिसे विधानपूर्वक पूजन करके ध्यानपूर्वक नवाक्षरमन्त्रका सतत जप करना चाहिये।
जपका दशांश होम करना चाहिये, होमका दशांश तर्पण करना चाहिये और तर्पणका दशांश ब्राह्मणभोजन कराना चाहिये। प्रतिदिन तीनों चरित्रों (प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र तथा उत्तर चरित्र) का पाठ करना चाहिये। इसके बाद विसर्जन करना चाहिये ॥ ७-११३ ॥
हे राजन् ! कल्याण चाहनेवालेको आश्विन और चैत्र माहके शुक्लपक्षमें विधिपूर्वक नवरात्रव्रत करना चाहिये। इन नवरात्रोंमें उपवास भी करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥
अनुष्ठानमें जपे गये मन्त्रोंके द्वारा शर्करा, घी और मधुमिश्रित पवित्र खीरसे विस्तारपूर्वक हवन करना चाहिये अथवा उत्तम बिल्वपत्रों, लाल कनैलके पुष्पों अथवा शर्करामिश्रित तिलोंसे हवन करना चाहिये। अष्टमी, नवमी एवं चतुर्दशीको विशेषरूपसे देवीपूजन करना चाहिये और इस अवसरपर ब्राह्मणभोजन भी कराना चाहिये।
ऐसा करनेसे निर्धनको धनकी प्राप्ति होती है, रोगी रोगमुक्त हो जाता है, पुत्रहीन व्यक्ति सुन्दर और आज्ञाकारी पुत्रोंको प्राप्त करता है और राज्यच्युत राजाको सार्वभौम राज्य प्राप्त हो जाता है।
देवी महामायाकी कृपासे शत्रुओंसे पीड़ित मनुष्य अपने शत्रुओंका नाश कर देता है। जो विद्यार्थी इन्द्रियोंको वशमें करके इस पूजनको करता है, वह शीघ्र ही पुण्यमयी उत्तम विद्या प्राप्त कर लेता है; | इसमें सन्देह नहीं है ॥ १४-१९ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र-जो भी भक्तिपरायण होकर जगज्जननी जगदम्बाकी पूजा करता है, वह सब प्रकारके सुखका भागी हो जाता है। जो स्त्री अथवा पुरुष भक्तितत्पर होकर नवरात्रव्रत करता है, वह सदा मनोवांछित फल प्राप्त करता है ॥ २०-२१ ॥
जो मनुष्य आश्विन शुक्लपक्षमें इस उत्तम नवरात्रव्रतको श्रद्धाभावसे करता है, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥ २२ ॥
विधिपूर्वक मण्डलका निर्माण करके पूजा- स्थानका निर्माण करना चाहिये और वहाँपर विधि- विधानसे वैदिक मन्त्रोंद्वारा कलशकी स्थापना करनी चाहिये ॥ २३ ॥
अत्यन्त सुन्दर यन्त्रका निर्माण करके उसे कलशके ऊपर स्थापित कर देना चाहिये। तत्पश्चात् कलशके चारों ओर परिष्कृत तथा उत्तम जौका वपन करके पूजा-स्थानके ऊपर पुष्पमालासे अलंकृत चाँदनी लगाकर देवीका मण्डप बनाना चाहिये तथा उसे सदा धूप-दीपसे सम्पन्न रखना चाहिये ॥ २४-२५ ॥
अपनी शक्तिके अनुसार वहाँ [प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकाल] तीनों समय पूजा करनी चाहिये। देवीकी पूजामें धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये। धूप, दीप, उत्तम नैवेद्य, अनेक प्रकारके फल-पुष्प, गीत, वाद्य, स्तोत्रपाठ तथा वेदपारायण – इनके द्वारा भगवतीकी पूजा होनी चाहिये। नानाविध वाद्य बजाकर उत्सव मनाना चाहिये।
इस अवसरपर चन्दन, आभूषण, वस्त्र, विविध प्रकारके व्यंजन, सुगन्धित तेल, हार- मनको प्रसन्न करनेवाले इन पदार्थोंसे विधिपूर्वक कन्याओंका पूजन करना चाहिये। इस प्रकार पूजन सम्पन्न करके अष्टमी या नवमीको मन्त्रोच्चारपूर्वक विधिवत् हवन करना चाहिये। तत्पश्चात् ब्राह्मण- भोजन कराना चाहिये। इसके बाद दशमीको पारण करना चाहिये। भक्तिनिष्ठ राजाओंको यथाशक्ति दान भी करना चाहिये ॥ २६-३१ ॥
इस प्रकार पुरुष अथवा पतिव्रता सधवा या विधवा स्त्री जो कोई भी भक्तिपूर्वक नवरात्रव्रत करता है, वह इस लोकमें सुख तथा मनोभिलषित भोगोंको प्राप्त करता है और वह व्रतपरायण व्यक्ति देह-त्याग होनेपर परम दिव्य देवीलोकको प्राप्त करता है ॥ ३२-३३ ॥
उसे जन्मान्तरमें देवी जगदम्बाकी अविचल भक्ति प्राप्त होती है और उत्तम कुलमें जन्म पाकर वह स्वभावतः सदाचारी होता है ॥ ३४॥
नवरात्रव्रतको व्रतोंमें उत्तम व्रत कहा गया है; भगवती शिवाका आराधन सब प्रकारके उत्तम सुखको देनेवाला है ॥ ३५ ॥
हे राजन् ! इस विधिसे भगवती चण्डिकाकी आराधना कीजिये, इससे शत्रुओंको जीतकर आप अपना उत्तम राज्य पुनः प्राप्त कर लेंगे और हे भूप ! अपनी स्त्री-पुत्र आदि स्वजनोंको प्राप्तकर आप अपने भवनमें परम उत्तम सुखका इसी शरीरसे उपभोग करेंगे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३६-३७ ॥
हे वैश्यश्रेष्ठ ! आप भी आजसे समस्त कामनाओंको देनेवाली, सृष्टि और संहारकी कारणभूता विश्वेश्वरी देवी महामायाकी आराधना कीजिये। इससे आप अपने घर जानेपर अपने लोगोंमें मान्य हो जायँगे और मनोभिलषित सांसारिक सुख प्राप्त करके अन्तमें शुभ देवीलोकमें वास करेंगे – इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३८-३९३ ॥
हे राजन् ! जो मनुष्य भगवतीकी आराधना नहीं करते, वे नरकके भागी होते हैं। वे इस लोकमें अत्यन्त दुःखी, विविध व्याधियोंसे पीड़ित, शत्रुओंद्वारा पराजित, स्त्री-पुत्रसे हीन, तृष्णाग्रस्त और बुद्धिभ्रष्ट होते हैं ॥ ४०-४१ ३ ॥
बिल्वपत्रोंसे तथा कनैल, कमल और चम्पाके फूलोंसे जो जगज्जननीकी आराधना करते हैं, शक्तिस्वरूपा भगवतीकी भक्तिमें रत वे पुण्यशाली लोग विविध प्रकारके सुख प्राप्त करते हैं ॥ ४२-४३ ॥
[हे नृपश्रेष्ठ !] जो लोग वेदोक्त मन्त्रोंसे भवानीका पूजन करते हैं, वे मानव इस संसारमें सब प्रकारके धन, वैभव तथा सुखसे परिपूर्ण, समस्त गुणोंके आगार, माननीय, | विद्वान् और राजाओंके शिरोमणि होते हैं ॥ ४४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भगवत्याः पूजाराधनविधिवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४॥