Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 28(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्ध:अथाष्टाविंशोऽध्यायःदेवीके साथ रक्तबीजका युद्ध, विभिन्न शक्तियोंके साथ भगवान् शिवका रणस्थलमें आना तथा भगवतीका उन्हें दूत बनाकर शुम्भके पास भेजना, भगवान् शिवके सन्देशसे दानवोंका क्रुद्ध होकर युद्धके लिये आना)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 28(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्ध:अथाष्टाविंशोऽध्यायःदेवीके साथ रक्तबीजका युद्ध, विभिन्न शक्तियोंके साथ भगवान् शिवका रणस्थलमें आना तथा भगवतीका उन्हें दूत बनाकर शुम्भके पास भेजना, भगवान् शिवके सन्देशसे दानवोंका क्रुद्ध होकर युद्धके लिये आना)

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[अथाष्टाविंशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- हे राजन् ! तत्पश्चात् वे देवी हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें उस रक्तबीजसे यह युक्तिसंगत वचन बोलीं- हे मन्दबुद्धि ! तुम क्यों व्यर्थ प्रलाप कर रहे हो ? मैं तो पहले ही दूतके सामने उचित और हितकर बात कह चुकी हूँ कि यदि तीनों लोकोंमें कोई भी पुरुष रूप, बल और वैभवमें मेरे समान हो तो मैं पतिरूपमें उसका वरण कर लूँगी। अब तुम शुम्भ-निशुम्भसे कह दो कि मैं पूर्वकालमें ऐसी प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ, अतः मेरे साथ युद्ध करो और रणमें मुझे जीतकर [मेरे साथ] विधिवत् विवाह कर लो ॥ १-४ ॥
तुम भी शुम्भकी आज्ञासे उसका कार्य सिद्ध करनेके लिये यहाँ आये हो। अतएव यदि चाहो तो मेरे साथ युद्ध करो अथवा अपने स्वामीके साथ पाताललोक चले जाओ ॥ ५ ॥व्यासजी बोले – देवीकी बात सुनकर वह दैत्य क्रोधमें भर उठा और बड़े वेगसे देवीके सिंहपर भीषण बाण छोड़ने लगा ॥ ६ ॥
सर्पसदृश उन बाणोंको देखकर अम्बिकाने दक्षतापूर्वक बड़ी फुर्तीके साथ अपने तीखे बाणोंसे उन्हें आकाशमें ही क्षणभरमें काट डाला ॥ ७॥

 

इसके बाद अम्बिकाने कानतक खींचकर धनुषसे छोड़े गये तथा पत्थरपर घिसकर तीक्ष्ण बनाये गये अन्य बाणोंसे महान् असुर रक्तबीजपर प्रहार किया ॥ ८ ॥
भगवतीके बाणोंसे आहत होकर पापी रक्तबीज रथपर ही मूच्छित हो गया। रक्तबीजके गिर जानेपर बड़ा हाहाकार मच गया। उसके सभी सैनिक चीखने-चिल्लाने लगे और ‘हाय! हम मारे गये’- ऐसा कहने लगे ॥ ९३ ॥
तब अपने सैनिकोंका अत्यन्त भीषण क्रन्दन सुनकर शुम्भने सभी दैत्ययोद्धाओंको शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होनेका आदेश दिया ॥ १०३ ॥
शुम्भ बोला – कम्बोजदेशके सभी दानव तथा उनके अतिरिक्त अन्य महाबली वीर विशेष करके कालकेयसंज्ञक पराक्रमी योद्धा भी अपनी-अपनी सेनाके साथ निकल पड़ें ॥ ११३ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार शुम्भके आदेश देनेपर उसकी सारी चतुरंगिणी सेना मदमत्त होकर देवीके संग्रामस्थलके लिये निकल पड़ी। समरभूमिमें आयी हुई उस दानवी सेनाको देखकर भगवती चण्डिका बार-बार भीषण तथा भयदायक घंटानाद करने लगीं। जगदम्बाने धनुषका टंकार तथा शंखनाद किया। उस नादके होते ही भगवती काली भी अपना मुख फैलाकर घोर ध्वनि करने लगीं ॥ १२-१४३ ॥
उस भयंकर शब्दको सुनकर भगवतीका वाहन बलशाली सिंह भी अद्भुत भय उत्पन्न करता हुआ बड़े जोरका गर्जन करने लगा। वह निनाद सुनकर सभी दैत्य क्रोधके मारे बौखला उठे और वे महाबली दैत्य देवीपर अस्त्र छोड़ने लगे ॥ १५-१६३ ॥
उस भयानक तथा रोमांचकारी महासंग्राममें ब्रह्मा आदि देवताओंकी विभिन्न शक्तियाँ भी चण्डिकाके पास पहुँच गयीं। जिस देवताका जैसा रूप, भूषण तथा वाहन था; ठीक उसी प्रकारके रूप, भूषण तथा वाहनसे युक्त होकर सभी देवियाँ रणक्षेत्रमें पहुँची थीं ॥ १७-१८३ ॥

 

ब्रह्माजीकी शक्ति, जो ब्रह्माणी नामसे प्रख्यात हैं, हाथमें अक्षसूत्र तथा कमण्डलु धारण करके हंसपर आरूढ़ हो वहाँ आयीं। भगवान् विष्णुकी शक्ति वैष्णवी गरुडपर सवार होकर रणभूमिमें आयीं।
वे पीताम्बरसे विभूषित थीं तथा उन्होंने हाथोंमें शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण कर रखा था। शंकरकी शक्ति भगवती शिवा बैलपर सवार होकर हाथमें उत्तम त्रिशूल लिये मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण किये तथा सर्पोंके कंगन पहने वहाँ उपस्थित हुईं ॥ १९-२१३ ॥
भगवान् कार्तिकेयके समान ही रूप धारण करके सुन्दर मुखवाली भगवती कौमारी युद्धकी इच्छासे हाथमें शक्ति धारण करके मयूरपर आरूढ़ होकर आयीं। सुन्दर मुखवाली इन्द्राणी अतिशय उज्ज्वल हाथीपर सवार होकर हाथमें वज्र लिये उग्र क्रोधसे आविष्ट हो समरभूमिमें पहुँचीं।
इसी प्रकार सूकरका रूप धारण करके एक विशाल प्रेतपर सवार होकर भगवती वाराही, नृसिंहके समान रूप धारण करके भगवती नारसिंही और यमराजके ही समान रूपवाली भयदायिनी शक्ति भगवती याम्या हाथमें दण्ड धारण किये तथा महिषपर आरूढ़ होकर मधुर-मधुर मुसकराती हुई संग्राममें आयीं।
उसी प्रकार वरुणकी शक्ति वारुणी तथा कुबेरकी मदोन्मत्त शक्ति कौबेरी भी समरभूमिमें पहुँच गयीं। इसी तरह अन्य देवताओंकी शक्तियाँ भी उन्हीं देवोंका रूप धारणकर अपनी-अपनी सेनाओंके साथ रणभूमिमें उपस्थित हुईं। उन शक्तियोंको वहाँ उपस्थित देखकर भगवती अम्बिका बहुत हर्षित हुईं। इससे देवता निश्चिन्त तथा प्रसन्न हो गये और दैत्य भयभीत हो उठे ॥ २२-२७ई ॥
लोककल्याणकारी शिवजी भी उन शक्तियोंके साथ वहाँ संग्राममें भगवती चण्डिकाके पास आकर उनसे कहने लगे-देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये आप शुम्भ-निशुम्भ तथा अन्य जो भी दानव उपस्थित हैं, उन सबका वध कर दीजिये। साथ ही सारी असुर-सेनाका संहार करके और इस प्रकार संसारको भयमुक्त करके ये समस्त शक्तियाँ अपने-अपने स्थानोंको चली जायें।
[आप यह कार्य सम्पन्न करें जिससे] देवता यज्ञभाग पाने लगें, ब्राह्मण [निर्भय होकर] यज्ञ आदि करनेमें तत्पर हो जायँ, सभी स्थावर-जंगम प्राणी सन्तुष्ट हो जायँ, सब प्रकारके उपद्रव और अकाल आदि आपदाएँ समाप्त हो जायँ, मेघ समयपर वृष्टि करें और कृषि लोगोंके लिये अधिक फलदायिनी हो ॥ २८-३२३ ॥
व्यासजी बोले- लोकका कल्याण करनेवाले देवेश्वर शिवके ऐसा कहनेपर भगवती चण्डिकाके शरीरसे एक अद्भुत शक्ति प्रकट हुई। वह शक्ति अत्यन्त भयंकर तथा प्रचण्ड थी, वह सैकड़ों सियारिनोंके समवेत स्वरके समान ध्वनि कर रही थी और उसका रूप बहुत भयानक था।
मन्द मन्द मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली उस शक्तिने पंचमुख शिवजीसे कहा- हे देवदेव ! आप दैत्यराज शुम्भके पास शीघ्र जाइये। हे कामरिपु ! इस समय आप मेरे दूतका काम कीजिये।
हे शंकर ! कामपीड़ित शुम्भ तथा मदोन्मत्त निशुम्भसे मेरे शब्दोंमें कह दीजिये- ‘तुम सब तत्काल स्वर्ग त्यागकर पाताललोक चले जाओ, जिससे देवगण सुखपूर्वक स्वर्गमें प्रविष्ट हो सकें और इन्द्रको स्वर्गलोक तथा अपना उत्तम इन्द्रासन पुनः प्राप्त हो जाय; साथ ही सभी देवताओंको उनके यज्ञभाग पुनः मिलने लगें।
यदि जीवित रहनेकी तुमलोगोंकी बलवती इच्छा हो तो तुमलोग बहुत शीघ्र पाताललोक चले जाओ, जहाँ दानवलोग रहते हैं। अथवा अपने बलका आश्रय लेकर यदि तुम सब युद्धकी इच्छा रखते हो, तो मरनेके लिये आ जाओ, जिससे मेरी सियारिनें तुमलोगोंके कच्चे मांससे तृप्त हो जायँ ॥ ३३-३९३ ॥
व्यासजी बोले – चण्डिकाका यह वचन सुनकर शिव अपनी सभामें बैठे हुए दैत्यराज शुम्भके पास शीघ्र जाकर उससे कहने लगे ॥ ४०३ ॥
शिवजी बोले- हे राजन् ! मैं त्रिपुरासुरका संहार करनेवाला महादेव हूँ। अम्बिकाका दूत बनकर मैं इस समय तुम्हारा सम्पूर्ण हित करनेके लिये यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ। [देवीने कहलाया है कि] |
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तुमलोग स्वर्ग तथा भूलोक त्यागकर शीघ्र पाताललोक चले जाओ, जहाँ प्रह्लाद तथा बलवानोंमें श्रेष्ठ राजा बलि रहते हैं। अथवा यदि मरनेकी ही इच्छा हो तो तुरंत सामने आ जाओ; मैं तुम सबको संग्राममें शीघ्र ही मार डालूँगी। तुमलोगोंके कल्याणके लिये महारानी अम्बिकाने ऐसा कहा है ॥ ४१-४४॥
व्यासजी बोले – भगवतीका यह अमृत-तुल्य कल्याणकारी सन्देश उन प्रधान दैत्योंको सुनाकर शूलधारी भगवान् शंकर लौट आये ॥ ४५ ॥
भगवती अम्बिकाने शिवजीको दूत बनाकर दानवोंके पास भेजा था, अतः वे सम्पूर्ण त्रिलोकीमें ‘शिवदूती’ इस नामसे विख्यात हुईं ॥ ४६ ॥
शंकरजीके मुखसे कहे गये भगवतीके इस दुष्कर सन्देशको सुनते ही वे दैत्य भी कवच धारण करके तथा हाथोंमें शस्त्र लेकर शीघ्र ही युद्धके लिये निकल पड़े ॥ ४७ ॥
वे दानव बड़े वेगसे रणभूमिमें चण्डिकाके समक्ष आकर कानोंतक खींचे गये तथा पत्थरपर सान चढ़े तीखे बाणोंसे प्रहार करने लगे ॥ ४८ ॥
भगवती कालिका त्रिशूल, गदा और शक्तिसे दानवोंको विदीर्ण करती हुई और उनका भक्षण करती हुई युद्धमें विचरने लगीं ॥ ४९ ॥
भगवती ब्रह्माणी युद्धभूमिमें अपने कमण्डलुके जलके प्रक्षेपमात्रसे उन महाबली दानवोंको प्राणशून्य कर देती थीं ॥ ५० ॥
वृषभपर विराजमान भगवती माहेश्वरी अपने त्रिशूलसे रणमें दानवोंपर बड़े वेगसे प्रहार करती थीं और उन्हें मारकर धराशायी कर देती थीं ॥ ५१ ॥
भगवती वैष्णवी गदा तथा चक्रके प्रहारसे दानवोंको निष्प्राण तथा सिरविहीन कर डालती थीं ॥ ५२ ॥
इन्द्रकी शक्ति देवी ऐन्द्री ऐरावत हाथीकी सूँड़की चोटसे पीड़ित बड़े-बड़े दैत्योंको अपने वज्रके प्रहारसे भूतलपर गिरा देती थीं ॥ ५३ ॥
देवी वाराही कुपित होकर अपने तुण्ड तथा भयंकर दाढ़ोंके प्रहारसे सैकड़ों दैत्यों और दानवोंको मार डालती थीं ॥ ५४॥
देवी नारसिंही अपने तीक्ष्ण नखोंसे बड़े-बड़े दैत्योंको फाड़-फाड़कर खाती हुई रणभूमिमें विचर रही थीं तथा बार-बार गर्जना कर रही थीं ॥ ५५ ॥

 

शिवदूती अपने अट्टहाससे ही दैत्योंको धराशायी कर देती थीं और चामुण्डा तथा कालिका बड़ी शीघ्रतासे उन्हें खाने लगती थीं ॥ ५६ ॥
मयूरपर विराजमान भगवती कौमारी देवताओंके कल्याणके लिये कानोंतक खींचे गये तथा पत्थरपर सान चढ़े तीक्ष्ण बाणोंसे शत्रुओंका संहार करने लगीं ॥ ५७ ॥
भगवती वारुणी समरांगणमें दैत्योंको अपने पाशमें बाँधकर उन्हें अचेत करके एकके ऊपर एकके क्रमसे गिरा देती थीं और वे निष्प्राण हो जाते थे ॥ ५८ ॥
इस प्रकार उन मातृशक्तियोंके प्रयाससे दानवोंकी वह ओजस्विनी तथा पराक्रमी सेना युद्धभूमिमें तहस- नहस होकर भाग खड़ी हुई ॥ ५९ ॥
उस सेनारूपी समुद्रमें बड़े जोरसे रोने-चिल्लानेकी ध्वनि होने लगी। देवीके गणोंके ऊपर देवता पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ ६० ॥
दानवोंकी भयंकर चीत्कार तथा देवताओंकी जयध्वनि सुनकर रक्तबीज बहुत कुपित हुआ। उस समय दैत्योंको पलायित देखकर तथा देवताओंको गरजते हुए देखकर वह महाबली तथा तेजस्वी दैत्य रक्तबीज युद्धभूमिमें स्वयं आ डटा।
वह आयुधोंसे सुसज्जित होकर रथपर सवार था और प्रत्यंचाकी अद्भुत टंकार करता हुआ क्रोधके मारे आँखें लाल किये युद्धके लिये देवीके सम्मुख आ गया ॥ ६१-६३ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे रक्तबीजेन देव्या युद्धवर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

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