:-व्यासजी बोले- [हे राजन् !] उन दोनों दैत्योंको मारा गया देखकर मरनेसे बचे सभी सैनिक भागकर राजा शुम्भके पास गये। कुछ सैनिकोंके अंग बाणोंसे छिद गये थे, कुछके हाथ कट गये थे, उनके पूरे शरीरसे रक्त बह रहा था; वे सब रोते हुए नगरमें पहुँचे ॥ १-२ ॥
दैत्यराज शुम्भके पास जाकर वे सब बार-बार चीख-पुकार करने लगे – हे महाराज ! हमें बचा लीजिये, बचा लीजिये; नहीं तो आज हमें कालिका खा जायगी। उसने देवताओंका मर्दन करनेवाले महावीर चण्ड-मुण्डको मार डाला और वह बहुत- से सैनिकोंको खा गयी। अंग-भंग हुए हमलोग इस समय भयसे व्याकुल हैं ॥ ३-४ ॥
हे प्रभो! मरे पड़े हाथियों, घोड़ों, ऊँटों तथा पैदल सैनिकोंसे उस कालिकाने युद्धभूमिको अत्यन्त डरावना बना दिया है ॥ ५॥
उसने समरभूमिमें रक्तकी नदी बना डाली है, जिसमें मांस कीचड़की भाँति, मस्तकके केश सेवारके सदृश और टूटे हुए रथोंके पहिये भँवरके समान, सैनिकोंके कटे हाथ आदि मछलीके समान और सिर तुम्बीके फलके तुल्य प्रतीत हो रहे हैं। वह [रुधिर- नदी] कायरोंको भयभीत करनेवाली तथा देवताओंके हर्षको बढ़ानेवाली है ॥ ६-७ ॥
हे महाराज ! अब आप दैत्यकुलकी रक्षा कीजिये और शीघ्र पाताललोक चले जाइये; अन्यथा क्रोधमें भरी वह देवी आज ही [सभी दानवोंका] विनाश कर डालेगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ८ ॥
हे दानवेन्द्र ! अम्बिकाका वाहन सिंह भी युद्धभूमिमें दानवोंको खाता जा रहा है और कालिकादेवी अपने बाणोंसे [दैत्य सैनिकोंका] अनेक तरहसे वध कर रही है। अतएव हे राजेन्द्र ! आप भी कोपके वशीभूत होकर अपने भाई निशुम्भसहित मरनेका व्यर्थ विचार कर रहे हैं ॥ ९-१० ॥
हे महाराज ! राक्षसकुलका नाश करनेवाली यह क्रूर स्त्री, जिसके लिये आप अपने बन्धुओंको मरवा डालना चाहते हैं, यदि आपको प्राप्त हो ही गयी तो यह आपको क्या सुख प्रदान करेगी ? ॥ ११ ॥
हे महाराज ! जगत्में जय तथा पराजय दैवके अधीन होती है। बुद्धिमान्को चाहिये कि अल्प प्रयोजनके लिये भारी कष्ट न उठाये ॥ १२ ॥
हे प्रभो ! जिसके अधीन यह सारा जगत् रहता है, उस विधाताका अद्भुत कर्म देखिये कि इस स्त्रीने अकेले ही सम्पूर्ण राक्षसोंका संहार कर डाला ॥ १३ ॥
आप लोकपालोंको जीत चुके हैं और इस समय आपके पास बहुत-से सैनिक भी हैं तथापि एक स्त्री युद्धके लिये आपको ललकार रही है; यह महान् आश्चर्य है ! ॥ १४ ॥
पूर्वकालमें आपने पुष्कर तीर्थमें एक देवालयमें तप किया था। उस समय वर प्रदान करनेके लिये लोकपितामह ब्रह्माजी आपके पास आये थे। हे महाराज ! जब ब्रह्माजीने आपसे कहा- ‘हे सुव्रत ! |
वर माँगो’ तब आपने ब्रह्माजीसे अमर होनेकी यह प्रार्थना की थी- ‘देवता, दैत्य, मनुष्य, सर्प, किन्नर, यक्ष और पुरुषवाचक जो भी प्राणी हैं- इनमें किसीसे भी मेरी मृत्यु न हो’ ॥ १५-१७ ॥
हे प्रभो! इसी कारणसे यह श्रेष्ठ स्त्री आपका वध करनेकी इच्छासे आयी हुई है। अतएव हे राजेन्द्र ! बुद्धिसे ऐसा विचार करके अब आप युद्ध मत कीजिये ॥ १८ ॥
इन देवी अम्बिकाको ही महामाया और परमा प्रकृति कहा गया है। हे राजेन्द्र ! कल्पके अन्तमें ये भगवती ही सम्पूर्ण सृष्टिका संहार करती हैं ॥ १९ ॥
सबपर शासन करनेवाली ये कल्याणमयी देवी सम्पूर्ण लोकों तथा देवताओंको भी उत्पन्न करनेवाली हैं। ये देवी तीनों गुणोंसे युक्त हैं, फिर भी ये विशेषरूपसे तमोगुणसे युक्त और सभी प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न हैं।
ये अजेय, विनाशरहित, नित्य, सर्वज्ञ तथा सदा विराजमान रहती हैं। वेदमाता गायत्री और सन्ध्याके रूपमें प्रतिष्ठित ये देवी सम्पूर्ण देवताओंको आश्रय प्रदान करती हैं।
ये देवी निर्गुण तथा सगुण- रूपवाली, स्वयं सिद्धिस्वरूपिणी, सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाली, अविनाशिनी, आनन्दस्वरूपा, सबको आनन्द देनेवाली, गौरी नामसे विख्यात तथा देवताओंको अभय प्रदान करनेवाली हैं ॥ २०-२२ ॥
हे महाराज ! ऐसा जानकर आप इनके साथ वैरभावका परित्याग कर दीजिये। हे राजेन्द्र ! आप इनकी शरणमें चले जाइये; ये भगवती आपकी रक्षा करेंगी। आप इनके सेवक बन जाइये [और इस प्रकार] अपने कुलका जीवन बचा लीजिये; मरनेसे बचे हुए जो दैत्य हैं, वे भी दीर्घजीवी हो जायँ ॥ २३-२४ ॥
व्यासजी बोले- उनका यह वचन सुनकर देवसेनाका मर्दन करनेवाले शुम्भने महान् वीरोंके पराक्रम-गुणसे सम्पन्न यथार्थ वचन कहना आरम्भ किया ॥ २५ ॥
शुम्भ बोला- अरे मूर्खे ! चुप रहो; तुमलोग युद्धभूमिसे भाग आये हो। तुम्हें यदि जीवित रहनेकी प्रबल अभिलाषा है तो तुम सब अभी | पाताललोक चले जाओ ॥ २६ ॥
जब यह सारा संसार ही दैवके अधीन है, तब विजयके सम्बन्धमें मुझे क्या चिन्ता हो सकती है ? जैसे हमलोग दैवके अधीन हैं, वैसे ही ब्रह्मा आदि देवता भी सदा दैवके अधीन रहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, अग्नि, वरुण, सूर्य, चन्द्र और इन्द्र- ये सब देवता सदा दैवके अधीन हैं।
हे मूर्खा! तब मुझे किस बातकी चिन्ता ? जो होना होगा, वह तो होकर रहेगा। जैसी भवितव्यता होती है, उसी प्रकारका उद्यम भी आरम्भ हो जाता है। सब प्रकारसे ऐसा विचार करके विद्वान् लोग कभी शोक नहीं करते। ज्ञानी लोग मृत्युके भयसे अपने धर्मका त्याग नहीं करते ॥ २७-३० ॥
समय आनेपर दैवकी प्रेरणासे मनुष्योंको सुख, दुःख, आयु, जीवन तथा मरण- ये सब निश्चितरूपसे प्राप्त होते हैं। अपना-अपना समय पूरा हो जानेपर ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी नष्ट हो जाते हैं। इन्द्रसहित सभी देवता भी अपनी आयुके अन्तमें विनाशको प्राप्त होते हैं।
उसी प्रकार मैं भी सर्वथा कालका वशवर्ती हूँ। अतः अब मुझे विनाश अथवा विजय जो भी प्राप्त होगी, उसे मैं अपने धर्मका सम्यक् पालन करते हुए स्वीकार करूँगा ॥ ३१-३३ ॥
जब इस स्त्रीने मुझे युद्धके लिये ललकारा है, तब [उसके भयसे] भागकर मैं सैकड़ों वर्ष जीवित रहनेकी आशा क्यों करूँ? मैं आज ही उसके साथ युद्ध करूँगा, फिर जो होना है वह होवे। युद्धमें विजय अथवा मृत्यु जो भी प्राप्त होगी, उसे मैं स्वीकार करूँगा ॥ ३४-३५ ॥
‘दैव मिथ्या है’- ऐसा उद्यमवादी विद्वान् कहते हैं। इस प्रकार जो शास्त्रको जानते हैं, उन उद्यमवादी विद्वानोंकी बात युक्तियुक्त भी है ॥ ३६ ॥
बिना उद्यम किये मनोरथ कभी सिद्ध नहीं होते। केवल कायरलोग ही कहते हैं कि जो होना होगा, वह तो होकर रहेगा। अदृष्ट – प्रारब्ध बलवान् होता है-ऐसी बात मूर्ख कहते हैं न कि पण्डितजन ।
प्रारब्धकी सत्ता है- इसमें क्या प्रमाण हो सकता है ? क्योंकि जो स्वयं अदृष्ट है, वह भला कैसे दिखायी | पड़ सकता है ? ॥ ३७-३८ ॥
अदृष्टको कभी किसीने देखा भी है क्या ? यह तो मूर्खीके लिये विभीषिकामात्र है। इसका कोई आधार नहीं है; केवल कष्टकी स्थितिमें मनको ढाँढ़स देनेके लिये वह सहारामात्र अवश्य बन जाता है ॥ ३९ ॥
आटा पीसनेवाली कोई स्त्री चक्कीके पास चुपचाप बैठी रहे, तो बिना उद्यम किये किसी प्रकार भी आटा तैयार नहीं हो सकता ॥ ४० ॥
उद्यम करनेपर ही हर प्रकारसे कार्य सिद्ध होता है। जब कभी उद्यम करनेमें कमी रह जाती है, तब कार्य किसी तरह सिद्ध नहीं हो पाता है ॥ ४१ ॥
देश, काल, अपना बल तथा शत्रुका बल- इन सबकी पूरी जानकारी करके किया गया कार्य निश्चय ही सिद्ध होता है- यह आचार्य बृहस्पतिका वचन है ॥ ४२ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा निश्चय करके दैत्यराज शुम्भने महान् असुर रक्तबीजको विशाल सेनाके साथ समरभूमिमें जानेकी आज्ञा दी ॥ ४३ ॥
शुम्भ बोला – हे विशाल भुजाओंवाले रक्तबीज ! तुम युद्धभूमिमें जाओ और हे महाभाग ! अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करो ॥ ४४ ॥
रक्तबीज बोला- हे महाराज ! आपको तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं इस स्त्रीको या तो मार डालूँगा और या तो इसे आपके अधीन कर दूँगा। आप मेरा बुद्धिचातुर्य देखें। [मेरे आगे] देवताओंकी प्रिय यह बाला है ही क्या? मैं इसे युद्धमें बलपूर्वक जीतकर आपकी दासी बना दूँगा ॥ ४५-४६ ॥
व्यासजी बोले- हे कुरुश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर महान् असुर रक्तबीज रथपर आरूढ होकर अपनी सेनाके साथ चल पड़ा ॥ ४७ ॥
हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सैनिकोंसे चारों ओरसे आवृत हुआ रक्तबीज रथपर आरूढ़ होकर पर्वतपर विराजमान भगवतीकी ओर चल दिया ॥ ४८ ॥
उसे आया हुआ देखकर देवीने शंख बजाया। वह शंखनाद सभी दैत्योंके लिये भयदायक तथा देवताओंके लिये हर्षवर्धक था ॥ ४९ ॥
उस भीषण शंखध्वनिको सुनकर वह रक्तबीज बड़े वेगसे देवी चामुण्डाके पास पहुँचकर मधुर वाणीमें उनसे कहने लगा ॥ ५० ॥
रक्तबीज बोला- हे बाले! क्या तुम कायर समझकर अपने शंखनादसे मुझको डरा रही हो? हे कोमलांगि! क्या तुमने मुझे धूम्रलोचन समझ रखा है ? ॥ ५१ ॥
मेरा नाम रक्तबीज है। मैं यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ। हे पिकभाषिणि! यदि तुम्हारी युद्ध करनेकी इच्छा हो तो तैयार हो जाओ; मुझे तुमसे भय नहीं है ॥ ५२ ॥
हे कान्ते ! अब तुम मेरा पराक्रम देखो। अभीतक तुमने जिन-जिन कायर दैत्योंको देखा है, उनकी श्रेणीका मैं नहीं हूँ। तुम जिस तरहसे चाहो, वैसे लड़ लो ॥ ५३ ॥
हे सुन्दरि ! यदि तुमने वृद्धजनोंकी सेवा की हो, नीतिशास्त्रका अध्ययन किया हो, अर्थशास्त्र पढ़ा हो, विद्वानोंकी गोष्ठीमें भाग लिया हो और यदि तुम्हें साहित्य तथा तन्त्रविज्ञानका ज्ञान हो, तो मेरी हितकर, यथार्थ तथा प्रामाणिक बात सुन लो ॥ ५४-५५ ॥
विद्वानोंकी सभाओंमें नौ रसोंके अन्तर्गत श्रृंगाररस तथा शान्तिरस- ये दो रस ही मुख्य माने गये हैं। उन दोनोंमें भी श्रृंगाररस रसोंके राजाके रूपमें प्रतिष्ठित है। [इसीके प्रभावसे] विष्णु लक्ष्मीके साथ, ब्रह्मा सावित्रीके साथ, इन्द्र शचीके साथ और भगवान् शिव पार्वतीके साथ निवास करते हैं; उसी प्रकार वृक्ष लताके साथ, मृग मृगीके साथ और कपोत कपोतीके साथ आनन्दपूर्वक रहते हैं ॥ ५६-५८॥
इस प्रकार जगत्के समस्त जीवधारी संयोगजनित सुखका अत्यधिक उपभोग करते हैं। जो लोग भोग तथा वैभवका सुख नहीं प्राप्त कर सके हैं और अन्य जो कातर मनुष्य हैं, वे निश्चय ही मूर्ख हैं और दैवसे वंचित होकर यति हो जाते हैं।
संसारके रसका ज्ञान न रखनेवाले वे लोग मीठी-मीठी बात बोलनेमें निपुण धूर्तों तथा वंचकोंद्वारा ठग लिये जाते हैं और सदा शान्तरसमें निमग्न रहते हैं; किंतु काम, लोभ, |
भयंकर क्रोध और बुद्धिनाशक मोहके उत्पन्न होते ही कहाँ ज्ञान रह जाता है और कहाँ वैराग्य ! अतएव हे कल्याणि ! तुम भी देवताओंपर विजय प्राप्त कर लेनेवाले मनोहर तथा महाबली शुम्भ अथवा निशुम्भको पति बना लो ॥ ५९-६२३ ॥
व्यासजी बोले- इतना कहकर वह रक्तबीज देवीके सामने चुपचाप खड़ा हो गया। उसकी बातें सुनकर चामुण्डा, कालिका और अम्बिका हँसने लगीं ॥ ६३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे रक्तबीजद्वारा देवीसमीपे शुम्भनिशुम्भसंवादवर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥