Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 24(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःचतुर्विंशोऽध्यायःशुम्भका धूम्रलोचनको देवीके पास भेजना और धूम्रलोचनका देवीको समझानेका प्रयास करना)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 24(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःचतुर्विंशोऽध्यायःशुम्भका धूम्रलोचनको देवीके पास भेजना और धूम्रलोचनका देवीको समझानेका प्रयास करना)

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[अथ चतुर्विंशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले – भगवतीका वह वचन सुनकर वह दूत विस्मित हो गया और उसने देवीसे कहा- हे सुन्दर कटाक्षवाली ! तुम स्त्रीस्वभावके कारण साहसपूर्वक यह क्या बोल रही हो ? ॥ १॥

 

हे भामिनि ! हे देवि ! जिन्होंने इन्द्र आदि देवताओं तथा अन्य दैत्योंको पराजित कर दिया है, उन्हें तुम संग्राममें जीतनेकी अभिलाषा कैसे रखती हो ? ॥ २ ॥
त्रिलोकीमें वैसा कोई नहीं है, जो शुम्भको संग्राममें जीत सके; तब हे कमलसदृश नेत्रोंवाली ! तुम कौन-सी सामर्थ्यशालिनी हो जो इस समय युद्धमें उनके सामने टिक सको ? ॥ ३ ॥
हे सुन्दरि ! बिना सोचे-समझे कोई बात नहीं बोलनी चाहिये, अपितु अपने तथा शत्रुके बलको जानकर ही समयके अनुसार बोलना चाहिये ॥ ४ ॥
तीनों लोकोंके अधिपति महाराज शुम्भ तुम्हारे रूपपर मोहित हो गये हैं और तुमसे प्रार्थना कर रहे हैं। अतः हे प्रिये ! उनका मनोरथ पूर्ण करो ॥ ५ ॥
मूर्खतापूर्ण स्वभाव त्यागकर मेरी बातको मान करके तुम शुम्भ अथवा निशुम्भ किसीको [पतिरूपमें] स्वीकार कर लो; मैं तुम्हारे लिये यह हितकर बात कह रहा हूँ ॥ ६ ॥
सभी बुद्धिमान् प्राणियोंको चाहिये कि बड़े हर्षके साथ श्रृंगाररसका उपभोग करें; क्योंकि यह सभी नौ रसोंमें उत्तम माना गया है ॥ ७॥
हे बाले ! यदि तुम मेरे साथ नहीं चलोगी तो राजा शुम्भ अत्यन्त कुपित होकर अन्य बहुत-से सेवकोंको अभी भेजकर तुम्हें बलपूर्वक पकड़वाकर ले जायँगे ॥ ८ ॥
हे वामोरु ! वे बलाभिमानी दानव तुम्हारे केश- पाश पकड़कर बलपूर्वक तुम्हें निश्चय ही शुम्भके पास ले जायँगे ॥ ९ ॥
अतः हे कोमलांगी! अपनी लज्जाकी रक्षा करो और इस दुस्साहसको पूर्णरूपसे छोड़ दो। तुम सम्मानित होकर उनके पास चलो; क्योंकि तुम सम्मानकी पात्र हो ॥ १० ॥
कहाँ तीक्ष्ण बाणोंसे होनेवाला युद्ध और कहाँ रतिक्रीड़ासे उत्पन्न होनेवाला सुख ! सार-असार बातपर सही-सही विचार करके तुम मेरे हितकर वचनको मान लो और शुम्भ अथवा निशुम्भको अपना पति स्वीकार कर लो; इससे तुम परम सुख प्राप्त करोगी ॥ ११३ ॥

 

देवी बोलीं- हे महाभाग दूत ! तुम बात करनेमें निपुण हो; यह सत्य है। शुम्भ और निशुम्भ निश्चय ही बलवान् हैं – यह मैं जानती हूँ। किंतु मैंने बाल्यकालसे ही जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे मिथ्या कैसे किया जाय ?
अतः तुम निशुम्भसे अथवा उससे भी बलवान् शुम्भसे कह दो कि बिना युद्ध किये मात्र सौन्दर्यके बलपर कोई भी मेरा पति नहीं बन सकेगा। मुझे अपने बलसे जीतकर वह अभी पाणिग्रहण कर ले। हे राजन् ! आप यह जान लीजिये कि मैं अबला होती हुई भी युद्धकी इच्छासे यहाँ आयी हूँ।
यदि तुम समर्थ हो तो मेरे साथ युद्ध करो और वीरधर्मका पालन करो। इसके अतिरिक्त यदि मेरे त्रिशूलसे डरते हो और यदि जीनेकी तुम्हारी अभिलाषा है तो स्वर्ग और पृथ्वीलोकको छोड़कर अविलम्ब पाताललोक चले जाओ। हे दूत !
अभी जाकर अपने स्वामीसे आदरपूर्वक ये बातें कह दो। इसके बाद वे महाबली शुम्भ विचार करके जो उचित होगा, उसे करेंगे। संसारमें यही दूतधर्म है कि जो सच्ची बात हो, उसे वैसा-का-वैसा शत्रु और स्वामी- दोनोंके प्रति अवश्य कह दे। हे धर्मज्ञ ! तुम भी वैसा ही व्यवहार करो; विलम्ब मत करो ॥ १२-१८३ ॥
व्यासजी बोले- उस समय भगवती जगदम्बाके नीतियुक्त, शक्तिसम्पन्न, हेतुपूर्ण और ओजस्वी वचन सुनकर वह दूत आश्चर्यचकित हो गया और वहाँसे लौट गया। दैत्यपति शुम्भके पास पहुँचकर बार-बार विचार करके वह दूत विनम्र भावसे अपने राजाको प्रणाम करके उनसे नीतिपूर्ण, मधुरतासे युक्त तथा मनोहर बात कहने लगा ॥ १९-२१ ॥
दूत बोला- हे राजेन्द्र ! सत्य और प्रिय बात कहनी चाहिये, इसीलिये मैं अत्यन्त चिन्तामें पड़ा हुआ हूँ; क्योंकि जो सत्य हो और प्रिय भी हो, वैसा वचन निश्चय ही दुर्लभ है। अप्रिय बोलनेवाले दूतोंपर राजा सर्वथा कुपित हो सकते हैं,
[तथापि अपना धर्मपालन करते हुए मैं सच्ची बात कह रहा हूँ] वह स्त्री कहाँसे आयी है, किसकी पुत्री है और कितनी सबल अथवा निर्बल है- इनमेंसे कुछ भी मैं नहीं जान सका, तब मैं उसके मनकी बात क्या बताऊँ ! मुझे तो वह घमण्डी, कटु बोलनेवाली और सदा युद्धके लिये उत्सुक दिखायी पड़ती थी ॥ २२-२४॥
हे महामते ! उस स्त्रीने जो कुछ कहा है, उसे आप भलीभाँति सुनें- ‘मैंने पहले ही बाल्यावस्थामें सखियोंके समक्ष विनोदवश विवाहके विषयमें यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जो युद्धमें मुझे जीत लेगा और मेरे अभिमानको चूर्ण कर देगा, उसी समान बलवालेका मैं पतिरूपसे वरण करूँगी। हे नृपश्रेष्ठ ! मेरी वह प्रतिज्ञा मिथ्या नहीं की जानी चाहिये। अतः हे धर्मज्ञ ! मेरे साथ युद्ध करो और मुझे जीतकर अपने अधीन कर लो’ ॥ २५-२७३ ॥
उस स्त्रीके द्वारा कही गयी यह बात सुनकर मैं आपके पास आया हूँ। हे महाराज ! अब आप जैसे भी अपना हित समझते हों, वैसा ही करें। आयुधोंसे सुसज्जित तथा सिंहपर सवार वह युद्धके लिये दृढ़ संकल्प किये हुए है। हे भूप! वह अपनी बातपर अडिग है, अतः जो उचित हो उसे आप करें ॥ २८-२९३ ॥
व्यासजी बोले- अपने दूत सुग्रीवका यह वचन सुनकर राजा शुम्भने पासमें ही बैठे हुए शूरवीर तथा महाबली भाई निशुम्भसे पूछा ॥ ३०३ ॥
शुम्भ बोला- हे भाई ! इस स्थितिमें मुझे क्या करना चाहिये, हे महामते ! सच-सच बताओ। एक स्त्री युद्ध करनेकी अभिलाषा रखती है, इस समय [हमें युद्धके लिये] बुला रही है। अतः युद्धस्थलमें मैं जाऊँ अथवा सेना लेकर तुम जाओगे ? हे निशुम्भ ! इस विषयमें तुम्हें जो अच्छा लगेगा, निश्चय ही मैं वही करूँगा ॥ ३१-३२३ ॥
निशुम्भ बोला- हे वीर! अभी रणक्षेत्रमें न मुझे और न तो आपको ही जाना चाहिये। हे महाराज ! शीघ्र ही धूम्रलोचनको भेज दीजिये। वहाँ जाकर युद्धमें उस सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रीको जीतकर और उसे पकड़कर वह यहाँ ले आयेगा। तत्पश्चात् हे शुम्भ ! आप उसके साथ सम्यक् विवाह कर लीजिये ॥ ३३-३४३ ॥

 

व्यासजी बोले- अपने छोटे भाईकी वह बात सुनकर शुम्भने पासमें ही बैठे हुए धूम्रलोचनको जानेके लिये क्रोधपूर्वक आदेश दिया ॥ ३५३ ॥
शुम्भ बोला- हे धूम्रलोचन ! तुम एक विशाल सेना लेकर अभी जाओ और अपने बलके मदमें चूर रहनेवाली उस मूढ़ स्त्रीको पकड़कर ले आओ। देवता, दानव या महाबली मनुष्य-कोई भी जो उसकी सहायताके लिये उपस्थित हो, उसे तुम तुरंत मार डालना।
उसके साथमें रहनेवाली कालीको भी मारकर पुनः उस सुन्दरीको पकड़ करके और इस प्रकार मेरा यह अत्युत्तम कार्य सम्पन्नकर यहाँ शीघ्र आ जाओ। हे वीर! कोमल बाणोंको छोड़ती हुई उस सुकोमल शरीरवाली कृशोदरी साध्वी स्त्रीकी तुम प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना।
हाथमें शस्त्र धारण किये हुए उसके जो भी सहायक रणमें हों, उन्हें मार डालना, किंतु उसे मत मारना; सब तरहसे प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा करना ॥ ३६-४०३ ॥
व्यासजी बोले- अपने राजा शुम्भका यह आदेश पाकर धूम्रलोचन उसे प्रणाम करके सेना साथ लेकर तुरंत युद्धभूमिकी ओर चल पड़ा। उसके साथमें साठ हजार राक्षस थे ॥ ४१-४२ ॥
वहाँ पहुँचकर उसने एक मनोहर उपवनमें विराजमान भगवती जगदम्बाको देखा। हरिणके बच्चेके समान नेत्रोंवाली देवीको देखकर वह विनम्रतापूर्वक उनसे मधुर, हेतुयुक्त तथा सरस वचन कहने लगा- हे महाभाग्यवती देवि ! सुनो, शुम्भ तुम्हारे विरहसे अत्यन्त व्याकुल हैं। नीतिनिपुण महाराजने रसभंग होनेके भयसे उद्विग्न होकर शान्तिपूर्वक तुम्हारे पास स्वयं एक दूत भेजा था ॥ ४३-४५ ॥
हे सुमुखि ! उसने लौटकर विपरीत बात कह दी। उस बातसे मेरे स्वामी महाराज शुम्भके मनमें बहुत चिन्ता व्याप्त हो गयी है। हे रसतत्त्वको जाननेवाली ! शुम्भ इस समय कामसे विमोहित हो गये हैं। वह दूत तुम्हारे सहेतुक वचनोंको नहीं समझ सका। तुमने जो यह कठिन वचन कहा |
था कि ‘जो मुझे संग्राममें जीतेगा’, उस संग्रामका तात्पर्य वह नहीं जान सका। हे मानिनि! संग्राम दो प्रकारका होता है- कामजनित और उत्साहजनित। पात्रभेदसे समय-समयपर इनका अलग-अलग अर्थ किया जाता है।
हे वामोरु ! उन दोनोंमें आप-जैसी युवतीके साथ होनेवाले संग्रामको कामजनित संग्राम और शत्रुके साथ होनेवाले संग्रामको उत्साहजनित संग्राम कहा गया है ॥ ४६-४९ ॥
हे कान्ते ! उनमें प्रथम रतिजन्य संग्राम सुखदायक और शत्रुके साथ किया जानेवाला उत्साहजन्य संग्राम दुःखदायक कहा गया है। हे सुन्दरि ! मैं तुम्हारे मनकी बात जानता हूँ; तुम्हारे मनमें रतिजन्य संग्रामका भाव है। मुझको यह सब जाननेमें निपुण समझकर ही महाराज शुम्भने विशाल सेनाके साथ इस समय मुझे आपके पास भेजा है ॥ ५०-५१३ ॥
हे महाभागे ! तुम बड़ी चतुर हो। मेरे मधुर वचन सुनो। देवताओंका अभिमान चूर्ण कर देनेवाले त्रिलोकाधिपति शुम्भको [पतिरूपसे] स्वीकार कर लो और उनकी प्रिय पटरानी बनकर अत्युत्तम सुखोंका उपभोग करो ॥ ५२-५३ ॥
कामसम्बन्धी बलका रहस्य जाननेवाले विशालबाहु शुम्भ तुम्हें जीत लेंगे। तुम उनके साथ विचित्र हाव-भाव करो, वे भी वैसे ही हाव-भाव प्रदर्शित करेंगे। यह कालिका [उस अवसरपर] हास-विलासकी साक्षी रहेगी।
इस प्रकार कामतत्त्वके परमवेत्ता मेरे स्वामी शुम्भ कामयुद्धके द्वारा तुम्हें सुखशय्यापर जीतकर शिथिल कर देंगे। वे महाराज शुम्भ अपने नखोंके आघातसे तुम्हें रक्तरंजित शरीरवाली बना देंगे, दाँतोंसे काटकर तुम्हारे ओठोंको खण्डित कर देंगे, तुम्हें पसीनेसे तर कर देंगे और मर्दित कर डालेंगे; तब तुम्हारा रतिसंग्रामसम्बन्धी मनोरथ पूर्ण हो जायगा ॥ ५४-५७ ॥
हे प्रिये ! तुम्हें देखते ही शुम्भ पूर्णरूपसे तुम्हारे वशीभूत हो जायँगे। अतएव मेरी उचित, कल्याणकारी और सुखकर बात मान लो। तुम माननीयोंमें अत्यन्त मानिनी हो, अतः गणाध्यक्ष शुम्भको स्वीकार कर लो। जो शस्त्रयुद्धसे प्रेम रखते हैं, वे अवश्य ही मन्दभाग्य हैं। रतिक्रीड़ामें प्रीति रखनेवाली हे कान्ते !

 

तुम शस्त्रयुद्धके योग्य नहीं हो। जैसे कामिनीके पदप्रहारसे अशोक, मुख मदिराके सेचनसे मौलसिरी और कुरबक प्रफुल्लित हो उठता है, उसी प्रकार तुम भी महाराज शुम्भको शोकरहित और आह्लादित करो ॥ ५८-६१। ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे देवीमाहात्म्ये देवीपार्श्वे धूम्रलोचनदूतप्रेषणं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥

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