:-व्यासजी बोले- हे नृपश्रेष्ठ ! सभी देवता पराजित हो गये। इसके बाद शुम्भ राज्यपर शासन करने लगा। इस प्रकार एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये ॥ १ ॥
तत्पश्चात् राज्यच्युत होनेके कारण देवता महान् दुस्सह चिन्तामें पड़ गये। दुःखसे व्याकुल हुए वे देवता गुरु बृहस्पतिसे आदरपूर्वक यह पूछने लगे ॥ २ ॥
हे गुरो ! अब हम क्या करें, आप हमें बतायें। आप सर्वज्ञ महामुनि हैं। हे महाभाग ! दुःखकी निवृत्तिका उपाय भी तो होता है। हजारों ऐसे वैदिक मन्त्र हैं, जो उपचारोंसे परिपूर्ण हैं और सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं। सूत्रोंने उनका भलीभाँति निदर्शन भी किया है।
सभी वांछित फल प्रदान करनेवाले अनेक प्रकारके यज्ञ भी बताये गये हैं। हे मुने ! आप उनका अनुष्ठान कीजिये; क्योंकि आप उनकी क्रिया- विधिको भलीभाँति जानते हैं ॥ ३-५ ॥
शत्रुओंके विनाशके लिये वेदमें जैसा उपाय बताया गया है, अब आप विधिपूर्वक उसका अनुष्ठान कीजिये, जिससे हमारे दुःखका पूर्णरूपसे नाश हो जाय। हे आंगिरस ! दानवोंके विनाशके लिये आप अपनी बुद्धिके अनुसार आज ही अभिचारकर्म आरम्भ करनेकी कृपा कीजिये ॥ ६-७ ॥
बृहस्पति बोले- हे देवराज ! वेदोंमें बताये गये सभी मन्त्र प्रारब्धके अनुसार ही फल प्रदान करनेवाले हैं। वे स्वतन्त्र नहीं हैं और नियमके अनुसार ही फल प्रदान करते हैं ॥ ८ ॥
उन मन्त्रोंके देवता तो आप ही लोग हैं। जब आपलोग स्वयं समयके फेरसे कष्टमें पड़े हुए हैं तो मैं कौन-सा उपाय करूँ ? ॥ ९॥
यज्ञ-कर्मोंमें इन्द्र, अग्नि, वरुण आदिकी पूजा की जाती है और वे आप सब देवता ही स्वयं विपत्ति भोग रहे हैं, तब यज्ञ क्या कर सकेंगे ? ॥ १० ॥
अवश्यम्भावी घटनाओंका कोई प्रतीकार नहीं है; फिर भी [संकटसे बचनेके लिये] उपाय तो करना ही चाहिये, यह शिष्ट पुरुषोंका उपदेश है ॥ ११ ॥
कुछ विद्वान् कहते हैं कि दैव सबसे बलवान् होता है और उपायवादी लोग दैवको निरर्थक बताते हैं, किंतु मनुष्योंके लिये दैव और उपाय दोनों ही आवश्यक माने गये हैं। मात्र दैवका आश्रय लेकर कभी भी बैठे नहीं रहना चाहिये। अपनी बुद्धिसे विचार करके सम्यक् रूपसे प्रयत्न करनेमें तत्पर हो जाना चाहिये। इसलिये भलीभाँति बार-बार सोच-विचारकर मैं आप सभीको उपाय बता रहा हूँ ॥ १२-१४॥
पूर्वकालमें जब भगवती जगदम्बाने आपलोगोंपर प्रसन्न होकर महिषासुरका वध किया था, उस समय आपलोगोंके स्तुति करनेपर उन्होंने यह वरदान दिया था- ‘आपलोगोंके स्मरण करनेपर मैं सदा आपलोगोंकी विपत्ति दूर करूँगी। हे देवेश्वरो ! जब-जब आपलोगोंपर दैव-जन्य आपदाएँ आयें, तब-तब आप देवतागण मेरा ध्यान कीजियेगा, स्मरण करते ही मैं आपलोगोंकी बड़ी- से-बड़ी विपत्तियोंका नाश कर दूंगी’ ॥ १५-१७ ॥
अतः अब आपलोग परम रमणीक हिमालय- पर्वतपर जाकर प्रेमपूर्वक भगवती चण्डिकाकी आराधना कीजिये। आपलोग मायाबीजके विधानके ज्ञाता हैं, उसीके पुरश्चरणमें तत्पर हो जाइये। मैं जानता हूँ कि इस अनुष्ठानके प्रभावसे वे भगवती प्रसन्न हो जायँगी ॥ १८-१९ ॥
अब आपलोगोंके दुःखका अन्त दिखायी पड़ रहा है; इसमें सन्देह नहीं है। मैंने सुना है कि वे भगवती उस हिमालयपर्वतपर सदा विराजमान रहती हैं। उनकी स्तुति तथा विधिवत् पूजा करनेपर वे शीघ्र ही आपलोगोंको वांछित फल प्रदान करेंगी। अतः हे देवताओ ! आपलोग दृढ़ निश्चय करके हिमालयपर्वतपर जाइये; वे भगवती आपलोगोंका कार्य अवश्य सिद्ध कर देंगी ॥ २०-२१ ३ ॥
व्यासजी बोले- हे महाराज ! उनका वचन सुनकर देवता हिमालयपर्वतपर चले गये। वहाँ देवीके ध्यानमें लीन होकर एकाग्र मनसे निरन्तर मायाबीज- मन्त्रका जप करते हुए उन सब देवताओंने भक्तोंके लिये अभयदायिनी महामाया भगवतीको प्रणाम किया और पूर्णभक्तिसे युक्त होकर स्तोत्र-मन्त्रोंसे वे इस | प्रकार उनकी स्तुति करने लगे ॥ २२-२४ ॥
हे विश्वेश्वरि ! हे प्राणोंकी स्वामिनि ! सदा आनन्दरूपमें रहनेवाली तथा देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाली हे देवि ! आपको नमस्कार है। दानवोंका अन्त करनेवाली, मनुष्योंकी समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेवाली तथा भक्तिके द्वारा अपने रूपका दर्शन देनेवाली हे देवि ! आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥
हे आदिदेवस्वरूपिणि! आपके नामोंकी निश्चित संख्या तथा आपके इस रूपको कोई भी नहीं • जान सकता। सबमें आप ही विराजमान हैं। जीवोंके सृजन और संहारकालमें शक्तिस्वरूपसे सदा आप ही कार्य करती हैं ॥ २६ ॥
आप ही स्मृति, धृति, बुद्धि, जरा, पुष्टि, तुष्टि, धृति, कान्ति, शान्ति, सुविद्या, सुलक्ष्मी, गति, कीर्ति, मेधा और विश्वकी पुरातन मूल प्रकृति हैं ॥ २७ ॥
आप जिस समय जिन स्वरूपोंसे देवताओंका कार्य सम्पन्न करती हैं, हम शान्तिके लिये आपके उन स्वरूपोंको नमस्कार करते हैं। आप ही क्षमा, योगनिद्रा, दया तथा विवक्षा- इन कल्याणकारी रूपोंसे सभी जीवोंमें निवास करती हैं ॥ २८ ॥
पूर्वकालमें आपने हम देवताओंका कार्य किया था जो कि महान् शत्रु मदान्ध महिषासुरका वध कर डाला था। हे देवि ! सभी देवताओंपर आपकी दया सदैव रहती है, आपकी दया पूर्ण प्रसिद्ध है और पुराणों तथा वेदोंमें भी उसका वर्णन किया गया है ॥ २९ ॥
इसमें आश्चर्यकी क्या बात; क्योंकि माता प्रसन्नतापूर्वक सम्यक् प्रकारसे अपने पुत्रका पालन- पोषण करती ही है। क्योंकि आप देवताओंकी जननी हैं, अतः उनका सहायक बनकर एकाग्र मनसे हमलोगोंका सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न करें ॥ ३० ॥
हे देवि ! हे विश्ववन्द्ये ! हमलोग न आपके गुणोंकी सीमा जानते हैं और न आपका स्वरूप ही जानते हैं। अतः रक्षा करनेमें समर्थ हे देवि ! हमें केवल अपना कृपापात्र मानकर आप भयोंसे निरन्तर हमारी रक्षा करती रहें ॥ ३१ ॥
यद्यपि बिना बाण चलाये; बिना मुष्टिप्रहार किये और बिना त्रिशूल, तलवार, बर्डी, दण्ड आदिका प्रयोग किये भी आप विनोदपूर्वक शत्रुओंका संहार करनेमें समर्थ हैं, फिर भी जगत्के उपकारके लिये ही आपकी यह लीला दृष्टिगोचर होती है ॥ ३२ ॥
आपका यह रूप सनातन है- इस रहस्यको अविवेकी लोग नहीं जानते हैं। [हे माता !] बिना कारणके कोई कार्य नहीं होता। अतः अनुमान और प्रमाणके आधारपर हम यही जानते हैं कि इस विश्वकी रचना करनेवाली आप ही हैं ॥ ३३ ॥
ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता और शंकर संहारकर्ताके रूपमें पुराणमें प्रसिद्ध हैं, किंतु क्या वे तीनों देव आपसे उत्पन्न नहीं हुए हैं ? युगके प्रारम्भमें केवल आप ही रहती हैं, अतः आप ही सबकी माता हैं ॥ ३४ ॥
हे देवि ! पूर्वकालमें इन तीनोंने आपकी आराधना की थी, तब आपने उन्हें अपनी समस्त प्रबल शक्ति प्रदान की थी। वास्तवमें उसी शक्तिसे सम्पन्न होकर वे जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं ॥ ३५ ॥
जो संन्यासी लोग विश्वकी जननी, परम विद्या- स्वरूपिणी, समस्त वांछित फल प्रदान करनेवाली, मुक्तिदायिनी तथा सभी देवताओंसे वन्दित चरणोंवाली आप भगवतीकी उपासना नहीं करते, क्या वे मन्दबुद्धि तथा अज्ञानी नहीं हैं ? ॥ ३६ ॥
विष्णु, शिव तथा सूर्यकी आराधना करनेवाले जो लोग कमला, लज्जा, कान्ति, स्थिति, कीर्ति और पुष्टि नामोंसे विख्यात आप भगवतीका ध्यान नहीं करते हैं, वे निश्चितरूपसे दम्भी प्रतीत होते हैं ॥ ३७ ॥
विष्णु और शंकर आदि श्रेष्ठ देवता तथा असुर भी आपकी पूजा करते हैं। अतः हे माता ! इस जगत्में जो मन्दबुद्धि मनुष्य आपकी आराधना नहीं करते, निश्चय ही विधाताने उन्हें ठग लिया है ॥ ३८ ॥
भगवान् विष्णु अपने पास लक्ष्मीरूपमें विराजमान आप भगवतीके चरणकमलोंमें स्वयं महावर लगाते हैं। इसी प्रकार त्रिनेत्र भगवान् शिव भी अपने पास पार्वती-रूपमें विराजमान आप भगवतीके चरणकमलकी रजके सेवनमें निरन्तर तत्पर रहते हैं; तब अन्य मनुष्य की बात ही क्या! आपके चरणकमलोंकी आराधना कौन नहीं करते ? घर-गृहस्थीसे विरक्त बुद्धिमान् मुनिगण भी दया और क्षमारूपमें प्रतिष्ठित आप भगवतीकी उपासना करते हैं ॥ ३९-४० ॥
हे देवि ! जो लोग आपके चरणोंकी उपासनामें संलग्न नहीं रहते, उन्हें निश्चय ही इस संसाररूप अगाध कूपमें गिरना पड़ता है। वे पतित लोग कुष्ठ, गुल्म और शिरोरोगसे ग्रस्त रहते हैं, दरिद्रता तथा दीनतासे युक्त रहते हैं और सुखोंसे सदा वंचित रहते हैं ॥ ४१ ॥
हे माता ! धन और स्त्रीसे रहित जो मनुष्य लकड़ीका बोझ ढोने और तृण आदिका वहन करनेमें लगे हैं, [उनके विषयमें] हम तो यही समझते हैं कि उन मन्दबुद्धि मनुष्योंने पूर्वजन्ममें आपके चरणोंकी उपासना कभी नहीं की ॥ ४२ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार समस्त देवताओंके स्तुति करनेपर अम्बिका करुणासे ओत-प्रोत होकर तुरंत प्रकट हो गयीं। [उस समय वे भगवती रूप तथा यौवनसे सम्पन्न थीं, उन्होंने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा था, वे अलौकिक आभूषणोंसे अलंकृत थीं.
दिव्य मालाओंसे सुशोभित हो रही थीं, दिव्य चन्दनसे अनुलिप्त थीं, जगत्को मोहित कर देनेवाले सौन्दर्यसे सम्पन्न थीं और समस्त शुभ लक्षणोंसे समन्वित थीं। इस प्रकार अद्वितीय स्वरूपवाली वे भगवती देवताओंके समक्ष प्रकट हुईं ॥ ४३-४५ ॥
दिव्य रूप धारण करनेवाली तथा विश्वको मोह लेनेमें समर्थ कामदेवको भी मोहित करनेवाली वे भगवती गंगामें स्नान करनेकी अभिलाषासे पर्वतकी कन्दरासे बाहर निकली थीं ॥ ४६ ॥
कोकिलके समान मधुर बोलनेवाली भगवती प्रेमपूर्ण भावसे मुसकराकर स्तुति करनेमें संलग्न देवताओंसे मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगीं ॥ ४७ ॥
देवी बोलीं- हे श्रेष्ठ देवतागण ! आपलोग यहाँपर इतनी बड़ी स्तुति किसलिये कर रहे हैं? आपलोग इस प्रकार चिन्तासे व्याकुल क्यों हैं? मुझे | अपना कार्य बताइये ॥ ४८ ॥
व्यासजी बोले – भगवतीका यह वचन सुनकर उनके रूप-वैभवसे मोहित श्रेष्ठ देवताओंका हृदय उत्साहसे परिपूर्ण हो गया, जिससे वे प्रेमपूर्वक उनसे कहने लगे ॥ ४९ ॥
देवता बोले- जगत्को नियन्त्रणमें रखनेवाली हे देवि ! हम आपकी स्तुति कर रहे हैं, हम आपके शरणागत हैं। हे कृपासिन्धो ! दैत्योंसे सताये गये हम देवताओंकी सम्पूर्ण दुःखोंसे रक्षा कीजिये ॥ ५० ॥
हे महादेवि ! पूर्वकालमें देवताओंके लिये कंटक बने महिषासुरका वध करके आपने हमें वर प्रदान किया था- ‘आपलोग संकटमें मुझे सदा याद कीजियेगा, स्मरण करते ही मैं दैत्योंके द्वारा आपलोगोंको पहुँचायी गयी पीड़ाका निःसन्देह नाश कर दूँगी।’ हे देवि ! इसीलिये हमलोगोंने आपका स्मरण किया है॥ ५१-५२॥
इस समय शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दानव उत्पन्न हुए हैं, जो देखनेमें महाभयंकर हैं। वे [हमारे कार्योंमें] विघ्न डाला करते हैं। वे पुरुषोंसे सर्वथा अवध्य हैं। ऐसे ही बलशाली दानव रक्तबीज तथा चण्ड और मुण्ड भी हैं।
इन सभी तथा अन्य महाबली दानवोंने हम देवताओंका राज्य छीन लिया है। हे महाबले ! हमलोगोंका दूसरा कोई अवलम्ब नहीं, एकमात्र आप ही हमारी शरण हैं। हे सुमध्यमे ! आप दुःखित देवताओंका कार्य सिद्ध करें ॥ ५३-५५॥
देवता आपके चरणोंकी उपासनामें सदैव संलग्न रहते हैं। [इस समय वे सब महान् बलशाली दैत्योंके द्वारा विपत्तिमें डाल दिये गये हैं। अतः हे देवि ! आप उन भक्तिपरायण देवताओंको दुःखरहित कर दीजिये। हे माता ! आप दुःखित देवताओंका आश्रय बन जाइये ॥ ५६ ॥
हे देवि ! युगके आरम्भमें इस विश्वकी रचना आप भगवतीने स्वयं की थी- यह जानकर आप इस समय सम्पूर्ण भूमण्डलकी रक्षा करें। हे जननि ! हे माता ! अपने बलसे मदान्वित तथा अभिमानमें चूर दानव जगत्में लोगोंको पीड़ित कर रहे हैं ॥ ५७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां पञ्चमस्कन्धे देवकृतदेव्याराधनवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥