Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 21(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःअथैकविंशोऽध्यायःशुम्भ और निशुम्भको ब्रह्माजीके द्वारा वरदान, देवताओंके साथ उनका युद्ध और देवताओंकी पराजय)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 21(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःअथैकविंशोऽध्यायःशुम्भ और निशुम्भको ब्रह्माजीके द्वारा वरदान, देवताओंके साथ उनका युद्ध और देवताओंकी पराजय)

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[अथैकविंशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- हे राजन् ! सुनिये, मैं देवीका उत्तम चरित्र कहता हूँ; यह सम्पूर्ण प्राणियोंको सुख देनेवाला तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाला है ॥ १ ॥

 

[पूर्वकालमें] शुम्भ और निशुम्भ नामक दो [असुर] भाई थे। वे बड़े बलवान्, महापराक्रमी तथा पुरुषोंसे अवध्य थे ॥ २ ॥
उनके पास बहुत-से सैनिक थे। वे दोनों वीर देवताओंको सदा दुःख देते रहते थे। वे बड़े दुराचारी तथा मदमत्त थे। उनके पास बहुत अधिक दानव थे ॥ ३ ॥
अम्बिकाने देवताओंके हितके लिये उन दोनों दानवोंको उनके परिचरोंसमेत अत्यन्त भीषण संग्राममें मार डाला ॥ ४ ॥
महाबाहु चण्ड-मुण्ड, महाभयंकर रक्तबीज और धूम्रलोचन नामक असुर- वे सब भी भगवतीके द्वारा रणभूमिमें मारे गये थे ॥ ५ ॥
उन सबका वध करके भगवती अम्बिकाने देवताओंका बहुत बड़ा भय दूर कर दिया। तदनन्तर देवताओंने पवित्र सुमेरुपर्वतपर उन देवीका स्तवन तथा विधिवत् पूजन किया ॥ ६ ॥
राजा बोले- पूर्वकालमें ये दोनों दानव कौन थे, वे बड़े-बड़े बलशालियोंसे भी श्रेष्ठ कैसे हुए, उन्हें राजसिंहासनपर किसने प्रतिष्ठित किया, स्त्रीके द्वारा वे कैसे मारे गये, किस देवताकी तपस्याके परिणामस्वरूप प्राप्त वरदानसे वे महाबली हुए? और किस प्रकार वे मारे गये? यह सब विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ७-८ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! अब आप समस्त पापोंका नाश करनेवाली, सभी प्रकारके अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली, मंगलमयी तथा भगवतीके चरित्रसे ओत-प्रोत दिव्य कथा सुनिये ॥ ९ ॥
पूर्वकालमें शुम्भ-निशुम्भ नामक दो दैत्य पातालसे भूमण्डलपर आ गये। वे दोनों भाई देखनेमें बड़े सुन्दर थे ॥ १० ॥
पूर्ण वयस्क होनेपर उन दोनोंने जगत्पावन पुष्कर तीर्थमें अन्न तथा जलका परित्याग करके कठोर तप आरम्भ कर दिया ॥ ११ ॥
योगसाधनामें तत्पर रहनेवाले शुम्भ और निशुम्भ एक ही स्थानपर आसन लगाकर दस हजार वर्षांतक घोर तपस्या करते रहे ॥ १२ ॥
अन्तमें समस्त लोकोंके पितामह भगवान् ब्रह्माजी उनपर प्रसन्न हो गये और हंसपर आरूढ़ होकर वहाँ आ गये ॥ १३ ॥
ध्यानमग्न होकर बैठे हुए उन दोनोंको देखकर जगत्के रचयिता ब्रह्माजीने कहा- हे महाभाग ! तुम दोनों उठो, मैं तुमलोगोंकी तपस्यासे परम प्रसन्न हूँ। तुमलोगोंका जो भी अभीष्ट वर हो उसे बताओ, मैं अवश्य दूँगा। तुम दोनोंका तपोबल देखकर तुमलोगोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेके विचारसे ही मैं यहाँ आया हूँ ॥ १४-१५ ॥
व्यासजी बोले – ब्रह्माजीकी यह वाणी सुनकर समाहित चित्तवाले उन दोनोंका ध्यान टूट गया। तब प्रदक्षिणा करके उन्होंने दण्डकी भाँति भूमिपर गिरकर ब्रह्माजीको प्रणाम किया। तत्पश्चात् तपके कारण दुर्बल शरीरवाले दोनों दानवोंने ब्रह्माजीसे बड़ी दीनतापूर्वक गद्गद वाणीमें यह मधुर वचन कहा- हे देवदेव ! हे दयासिन्धो ! हे भक्तोंको अभय देनेवाले ब्रह्मन् !
हे विभो ! यदि आप हमपर प्रसन्न हैं, तो हमें अमरत्व प्रदान कीजिये। मृत्युसे बढ़कर दूसरा कोई भी भय इस पृथ्वीलोकमें नहीं है, उसी भयसे सन्त्रस्त होकर हम दोनों आपकी शरणको प्राप्त हुए हैं। हे देवदेवेश! आप हमारी रक्षा कीजिये। हे जगत्कर्ता ! हे क्षमानिधान ! हे विश्वात्मा ! आप हमारे मरणजन्य भयको शीघ्र ही दूर कीजिये ॥ १६-२०॥
ब्रह्माजी बोले- तुम लोगोंने यह कैसा सर्वथा नियमविरुद्ध वरदान माँगा है, तीनों लोकोंमें किसीके द्वारा किसीके भी लिये यह वरदान सर्वथा अदेय है। जन्म लेनेवालेकी मृत्यु निश्चित है और मरनेवालेका जन्म निश्चित है। विश्वकी रचना करनेवाले प्रभुने यह नियम पहलेसे ही निर्धारित कर रखा है। सभी प्राणियोंको निश्चितरूपसे मरना ही पड़ता है; इसमें सन्देह नहीं है। अतः इसके अतिरिक्त तुमलोगोंका जो भी दूसरा अभिलषित वर हो, उसे माँग लो, मैं अभी देता हूँ ॥ २१-२३ ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन् !] ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर उन दोनों दानवोंने परस्पर भलीभाँति विचार | करनेके उपरान्त अपने सम्मुख खड़े उन ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा- हे कृपासिन्धो ! देवता, मनुष्य, मृग अथवा पक्षी-इनमेंसे किसी भी पुरुषजातिके द्वारा हमारा मरण न हो – यही हमारा अभीष्ट वर है, इसे आप हमें प्रदान करें।
ऐसी कौन बलवती स्त्री है, जो हम दोनोंका नाश कर सके ? इस चराचर त्रिलोकीमें किसी भी स्त्रीसे हम नहीं डरते। हे ब्रह्मन् ! हम दोनों भाई पुरुषोंसे अवध्य होवें। हमें स्त्रियोंसे कोई डर नहीं है; क्योंकि वे तो स्वभावसे ही अबला होती हैं ॥ २४-२७ ॥
व्यासजी बोले- उन दोनोंका यह वचन सुनकर ब्रह्माजीने उन्हें अभिलषित वर दे दिया और प्रसन्नमनसे अपने स्थानपर चले गये ॥ २८ ॥
ब्रह्माजीके अपने लोक चले जानेपर वे दोनों दानव भी अपने घर चले गये। उन्होंने वहाँपर शुक्राचार्यको अपना पुरोहित बनाकर उनका पूजन किया ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् किसी उत्तम दिन और नक्षत्रमें सोनेका दिव्य तथा सुन्दर सिंहासन बनवाकर मुनिने राज्य- स्थापनाके लिये उन्हें प्रदान किया। उन्होंने ज्येष्ठ होनेके कारण शुम्भको वह सुन्दर राजसिंहासन समर्पित किया। उसी समय अनेक श्रेष्ठ दानव उसकी सेवा करनेके लिये शीघ्र वहाँ उपस्थित हो गये ॥ ३०-३१ ॥
बलाभिमानी तथा महापराक्रमी चण्ड और मुण्ड- ये दोनों भाई भी अपनी सेना तथा बहुत-से रथ, घोड़े और हाथी साथमें लेकर उनके पास आ गये ॥ ३२ ॥ शुम्भको राजा बना हुआ सुनकर उसीके रूपवाला धूम्रलोचन नामक प्रचण्ड पराक्रमी दैत्य भी उस समय सेनासहित वहाँ पहुँच गया ॥ ३३ ॥
उसी प्रकार वरदानके प्रभावसे अत्यधिक बलशाली तथा शूरवीर रक्तबीज भी दो अक्षौहिणी सेनाके साथ वहाँ आकर सम्मिलित हो गया। हे राजन् ! उसके अतिशय बलवान् होनेका एक कारण यह था कि संग्राममें युद्ध करते हुए उस रक्तबीजके शस्त्राहत होनेपर उसके शरीरसे जब भूमिपर रुधिर गिरता था, उसी समय उसके ही समान क्रूर और हाथोंमें शस्त्र धारण किये बहुत-से वीर पुरुष उत्पन्न हो जाते थे।
रक्तबिन्दुओंसे उत्पन्न वे पुरुष उसी | रक्तबीजके आकार, रूप और पराक्रमवाले होते थे और वे सभी पुनः युद्ध करने लगते थे। इसलिये संग्राममें महापराक्रमी तथा अजेय समझा जानेवाला वह महान् असुर रक्तबीज सभी प्राणियोंसे अवध्य हो गया था ॥ ३४-३८ ॥
इसके अतिरिक्त चतुरंगिणी सेनासे युक्त अन्य बहुत-से पराक्रमी दानव भी शुम्भको अपना राजा मानकर उसके सेवक बन गये ॥ ३९ ॥
उस समय शुम्भ और निशुम्भके पास असंख्य सेना हो गयी थी और उन्होंने अपने बलके प्रभावसे भूमण्डलका सम्पूर्ण राज्य अपने अधिकारमें कर लिया ॥ ४० ॥
तत्पश्चात् शत्रुपक्षके वीरोंका संहार करनेवाले निशुम्भने अपनी सेना सुसज्जित करके इन्द्रको जीतनेहेतु बड़े वेगसे स्वर्गके लिये प्रस्थान किया। [वहाँ पहुँचकर] उसने लोकपालोंके साथ घोर युद्ध किया। तब इन्द्रने उसके वक्षपर वज्रसे प्रहार किया। उस वज्राघातसे आहत होकर दानव शुम्भका छोटा भाई निशुम्भ भूमिपर गिर पड़ा। तब परम साहसी उस निशुम्भकी सेना भाग गयी ॥ ४१-४३ ॥
अपने भाईको मूच्छित हुआ सुनकर शत्रुसेनाको नष्ट कर डालनेवाला शुम्भ वहाँ आकर सभी देवताओंको बाणोंसे मारने लगा ॥ ४४ ॥
इस प्रकार किसी भी कार्यको कठिन न समझनेवाले उस शुम्भने भीषण युद्ध किया और इन्द्रसहित सभी देवताओं तथा लोकपालोंको पराजित कर दिया ॥ ४५ ॥
तब उस शुम्भने अपने पराक्रमके प्रभावसे कल्पवृक्ष और कामधेनुसहित इन्द्रपदको अधिकारमें कर लिया। उस दुस्साहसी शुम्भने तीनों लोकोंपर आधिपत्य जमा लिया और देवताओंको मिलनेवाले यज्ञभागोंका हरण कर लिया। नन्दनवन पा करके वह महान् असुर आनन्दित हुआ और अमृतके पानसे उसे बहुत सुख मिला ॥ ४६-४७३ ॥
उसने कुबेरको जीतकर उनके राज्यपर अधिकार कर लिया और सूर्य तथा चन्द्रमाका भी अधिकार छीन लिया। उसने यमराजको परास्त करके उनका पद स्वयं ले लिया। इसी प्रकार अपने बलके प्रभावसे वरुणका राज्य अपने अधीन करके वह शुम्भ राज्य- शासन स्वयं करने लगा और अग्नि तथा वायुके कार्य | स्वयं करने लगा ॥ ४८-५० ॥

 

तब [असुरोंके द्वारा] तिरस्कृत और राज्य छिन जानेके कारण नष्ट शोभावाले सभी देवता नन्दनवन छोड़कर पर्वतोंकी गुफाओंमें चले गये ॥ ५१ ॥
अधिकारसे वंचित होकर वे सब निर्जन वनमें भटकने लगे। अब उनका कोई सहारा नहीं रहा, उनके रहनेकी जगह नहीं रही, वे तेजहीन और आयुधविहीन हो चुके थे। इस प्रकार सभी देवता पर्वतोंकी कन्दराओं, निर्जन उद्यानों और नदियोंकी घाटियोंमें विचरण करने लगे ॥ ५२-५३ ॥
हे महाराज ! स्थानभ्रष्ट हो जानेके कारण उन बेचारे लोकपालोंको कहीं भी सुख नहीं मिल रहा था, और फिर यह सुनिश्चित भी है कि सुख सदा प्रारब्धके अधीन रहता है ॥ ५४ ॥
हे नराधिप ! बलशाली, बड़े भाग्यवान्, महान् ज्ञानी तथा धनसम्पन्न व्यक्ति भी विपरीत समय उपस्थित होनेपर दुःख तथा कष्ट पाते हैं ॥ ५५ ॥
हे महाराज ! उस कालकी गति बड़ी ही विचित्र होती है, जो एक साधारण मनुष्यको राजा बना देता है और उसके बाद राजाको भिखारी बना देता है। वही काल दाताको याचक, बलवान्‌को निर्बल, पण्डितको अज्ञानी और वीरको अत्यन्त कायर बना देता है ॥ ५६-५७॥
सौ अश्वमेधयज्ञ करनेके बाद सर्वोत्कृष्ट इन्द्रासन प्राप्त करके भी बादमें समयके फेरसे इन्द्रको असीम कष्ट उठाना पड़ा था-कालकी ऐसी विचित्र गति होती है ॥ ५८ ॥
समय ही मनुष्यको धर्मात्मा तथा ज्ञानवान् बनाता है और फिर उसी व्यक्तिको पापी तथा अत्यल्प ज्ञानसे भी हीन बना देता है ॥ ५९ ॥
अतः कालकी इस अद्भुत गतिके विषयमें कुछ भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये। यही काल ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदिको भी इसी प्रकार संकटमें डाल देता है। बलवान् कालके ही प्रभावसे भगवान् विष्णुको सूकर आदि योनियोंमें जन्म लेना पड़ा और शिवजीको कपाली होना पड़ा ॥ ६०-६१ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां पञ्चमस्कन्धे शुम्भनिशुम्भद्वारा स्वर्गविजयवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

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