:-जनमेजय बोले- हे मुने ! अब मैंने भगवतीके अत्यन्त अद्भुत तथा जगत्को शान्ति प्रदान करनेवाले प्रभावको तो देख लिया, फिर भी हे द्विजवर ! आपके मुखारविन्दसे निकली हुई सुधामयी कथाको बार-बार सुनते हुए भी मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। [अब आप बतायें] भगवतीके अन्तर्धान हो जानेपर उन प्रधान देवताओंने क्या किया ? देवीका यह परम पावन चरित्र मनुष्योंके अल्प पुण्योंसे प्राप्त हो सकना सर्वथा दुर्लभ ही है ॥ १-२ ॥
अल्पभाग्यवाले मनुष्यको छोड़कर भगवतीके कथाश्रवणमें सदा तत्पर कर्णपुटवाला ऐसा कौन होगा जो देवीके कथामृतसे तृप्ति प्राप्त कर लेता है ? जिस कथामृतका पान करनेसे मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर लेता है, उसे जो आदरपूर्वक नहीं पीते, उन मनुष्योंको धिक्कार है ॥ ३ ॥
भगवती जगदम्बाका लीलाचरित्र देवताओं और बड़े-बड़े मुनियोंके लिये भी रक्षाका परम साधन है। [यह लीलाचरित्र] मनुष्योंको संसारसागरसे पार करनेके लिये एक नौका है। कृतज्ञजन उस चरित्रको भला कैसे त्याग सकते हैं? ॥ ४॥
जीवन्मुक्त तथा मोक्षकी कामना करनेवाले अथवा रोगग्रस्त जो कोई भी सांसारिक प्राणी हों. उन सबको चाहिये कि वे अपने कर्णपुटसे भगवतीके इस सर्वार्थदायक कथामृतका पान करते रहें- ऐसा वेदवेत्ता कहते हैं। हे मुने ! धर्म, अर्थ और काममें तत्पर राजाओंको तो विशेष रूपसे कथामृतका पान करना चाहिये। जब मुक्त प्राणीतक उस कथामृतका पान करते हैं, तब मुक्तिसे वंचित जन इसका पान क्यों न करें ! ॥ ५-६ ॥
यह अनुमान करना चाहिये कि जिन लोगोंने अपने पूर्वजन्ममें सुन्दर कुन्दपुष्पों, चम्पाके पुष्पों तथा बिल्वपत्रोंसे भगवतीका पूजन किया है, वे ह इस जन्ममें भूतलपर भोग तथा ऐश्वर्यसे सम्पन्न राजा होते हैं ॥ ७ ॥
जो मनुष्य [पवित्र] भारत-भूभागमें यह मानवशरीर पाकर भी भगवतीकी भक्तिसे रहित हैं तथा जिन्होंने उनकी आराधना नहीं की, वे सदा धन- धान्यसे हीन, रोगग्रस्त और निःसन्तान रहते हैं; साध | ही वे लोग दूसरोंके दास बनकर निरन्तर घूमते रहते हैं और आज्ञाकारी होकर दूसरोंका भार ढोया करते हैं। वे दिन-रात स्वार्थसाधनमें लगे रहते हैं, फिर भी उन्हें अपना पेट भरनेतकके लिये अन्न कभी नहीं मिलता ॥ ८-९ ॥
इस संसारमें जो लोग अन्धे, गूँगे, बहरे, लूले और कोढ़ीके रूपमें कष्ट भोग रहे हैं, उनके विषयमें विद्वानोंको यह अनुमान कर लेना चाहिये कि उन्होंने भगवतीकी निरन्तर आराधना नहीं की है ॥ १० ॥
जो लोग राजोचित भोगसे युक्त, ऐश्वर्यसे सम्पन्न, अनेक मनुष्योंसे सेवित और वैभवशाली दिखायी पड़ते हैं, उनके विषयमें यह अनुमान लगाना चाहिये कि उन्होंने अवश्य ही जगदम्बाकी उपासना की है ॥ ११ ॥
अतएव हे सत्यवतीनन्दन ! अब आप कृपा करके भगवतीके उत्तम चरित्रका वर्णन कीजिये; आप बड़े दयालु हैं ॥ १२ ॥
उस पापी महिषासुरका वध करनेके पश्चात् देवताओंसे भलीभाँति पूजित होकर सभी देवताओंके तेजसे प्रादुर्भूत वे भगवती महालक्ष्मी कहाँ चली गयीं ? ॥ १३ ॥
हे महाभाग ! आपने अभी कहा है कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गयीं। स्वर्गलोक अथवा मृत्युलोक किस जगह वे भगवती भुवनेश्वरी प्रतिष्ठित हुईं ? वे वहींपर विलीन हो गयीं या वैकुण्ठधाममें विराजने लगीं अथवा वे सुमेरुपर्वतपर विराजमान हुईं, अब आप मुझे यह सब यथार्थरूपमें बतायें ॥ १४-१५ ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन् !] इसके पहले मैं आपसे रमणीय मणिद्वीपका वर्णन कर चुका हूँ। वह भगवतीका क्रीडास्थल है तथा उनके लिये सदा परम प्रिय बतलाया गया है। जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्त्रीरूपमें परिणत हो गये थे और पुनः पुरुषत्व पाकर वे अपने-अपने कार्योंमें संलग्न हो गये। वह परम सुन्दर द्वीप सुधासागरके मध्यमें विराजमान है। भगवती जगदम्बा वहाँ अनेक रूपोंमें सदा विहार | करती रहती हैं ॥ १६-१८ ॥
[महिषासुरके वधके पश्चात्] देवताओंसे स्तुत तथा भलीभाँति पूजित होकर वे सनातनी मायाशक्ति भगवती शिवा उसी मणिद्वीपमें चली गयीं, जहाँ वे निरन्तर विहार करती रहती हैं ॥ १९ ॥
उन सर्वेश्वरी भगवतीको अन्तर्हित देखकर देवताओंने सूर्यवंशमें उत्पन्न, महाबली एवं सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न अयोध्याधिपति शत्रुघ्न नामक पराक्रमी राजाको महिषासुरके सुन्दर आसनपर अभिषिक्त किया। इस प्रकार इन्द्र आदि सभी प्रधान देवता शत्रुघ्नको राज्य प्रदान करके अपने-अपने वाहनोंसे अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥ २०-२२ ॥
हे भूपते ! उन देवताओंके चले जानेपर पृथ्वीपर धर्मराज्य स्थापित हो गया और प्रजाएँ सुखी हो गयीं। मेघ उचित समयपर जल बरसाते थे और पृथ्वीपर उत्तम धान्य उत्पन्न होते थे। वृक्ष फलों तथा फूलोंसे सदा लदे रहते थे और वे लोगोंके लिये बड़े सुखदायक हो गये ॥ २३-२४॥
घड़ेके समान थनवाली दुधारू गौएँ मनुष्योंको उनकी इच्छाके अनुसार दूध दिया करती थीं। स्वच्छ एवं शीतल जलवाली नदियाँ सुगमतापूर्वक बहती थीं और पक्षियोंसे सुशोभित रहती थीं ॥ २५ ॥
ब्राह्मण वेदतत्त्वोंके ज्ञाता हो गये और यज्ञकर्ममें प्रवृत्त रहने लगे। क्षत्रिय धर्मभावनासे ओतप्रोत हो गये और सदा दान तथा अध्ययनमें तत्पर रहने लगे। सभी राजा शस्त्रविद्या प्राप्त करनेमें संलग्न हो गये, वे सदा प्रजाओंकी रक्षा करने लगे, उनका दण्ड-विधान न्यायके अनुसार चलने लगा और वे शान्तिगुणसे सम्पन्न हो गये ॥ २६-२७ ॥
सभी प्राणियोंमें परस्पर मेल-जोल रहने लगा, खानोंसे मनुष्योंको अपार धन प्राप्त होने लगा और गोशालाएँ गोसमुदायसे सम्पन्न हो गयीं ॥ २८ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! उस समय धरातलपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये सब के सब देवीकी भक्तिमें संलग्न हो गये ॥ २९ ॥
सर्वत्र मनोहर यज्ञमण्डप तथा यज्ञयूप दृष्टिगोचर होते थे। ब्राह्मणों तथा क्षत्रियोंद्वारा सम्पन्न किये गये यज्ञोंसे सारी पृथ्वी सुशोभित होने लगी ॥ ३० ॥
उस समय स्त्रियाँ पातिव्रतधर्मपरायण, सुशील तथा सत्यनिष्ठ थीं और पुत्र पिताके प्रति श्रद्धा रखनेवाले तथा धर्मशील होते थे ॥ ३१ ॥
पृथ्वीतलपर पाखण्ड तथा अधर्म कहीं भी नहीं रह गया। उस समय वेदवाद और शास्त्रवादके अतिरिक्त अन्य कोई वाद प्रचलित नहीं थे ॥ ३२ ॥
उस समय किसीमें भी परस्पर कलह नहीं होता था, दीनता नहीं थी और किसीकी अशुभ बुद्धि नहीं रह गयी थी। सभी जगह लोग सुखी थे और आयु पूर्ण होनेपर ही उनकी मृत्यु होती थी, किसीकी अकालमृत्यु नहीं होती थी ॥ ३३ ॥
मित्रोंमें वियोग नहीं होता था, किसीपर कभी विपत्तियाँ नहीं आती थीं, अनावृष्टि नहीं होती थी, न अकाल पड़ता था और न तो दुःखदायिनी महामारी ही मनुष्योंको ग्रसित करती थी ॥ ३४ ॥
न किसीको रोग था और न तो लोगोंका आपसमें डाह तथा विरोध ही था। सर्वत्र नर तथा नारी सब प्रकारसे सुखी थे। सभी मनुष्य स्वर्गमें रहनेवाले देवताओंकी भाँति आनन्द भोगते थे। हे राजन् ! उस समय चोर, पाखण्डी, धोखेबाज, दम्भी, चुगलखोर, लम्पट तथा जड़ प्रकृतिवाले मनुष्य नहीं रह गये थे। हे भूपते ! वेदोंसे द्वेष करनेवाले तथा पापी मनुष्य उस समय नहीं थे, अपितु सभी लोग धर्मनिष्ठ थे और नित्य ब्राह्मणोंकी सेवामें लगे रहते थे ॥ ३५-३७३ ॥
सृष्टिधर्मके तीन प्रकार होनेके कारण ब्राह्मण भी तीन प्रकारके थे- सात्त्विक, राजस तथा तामस । उनमें सत्त्व-वृत्तिवाले सभी सात्त्विक ब्राह्मण वेदोंके ज्ञाता तथा [यज्ञकार्योंमें] दक्ष, दान लेनेकी प्रवृत्तिसे रहित, दयालु तथा संयम रखनेवाले थे। वे धर्मपरायण रहकर सात्त्विक अन्नोंसे यज्ञ करते हुए सदा पुरोडाशके द्वारा विधिविधानसे हवन करते थे और पशुबलिके द्वारा कभी भी यज्ञ सम्पन्न नहीं करते थे। हे राजन् ! वे सात्त्विक ब्राह्मण दान, अध्ययन और यज्ञ- इन्हीं तीनों कार्योंमें सदा | अभिरुचि रखते थे* ॥ ३८-४१३ ॥
राजस ब्राह्मण वेदके विद्वान् थे और वे क्षत्रियोंके पुरोहित होते थे। वे यथाविधि मांसभक्षी थे। वे सदा छः कर्मोंमें ही संलग्न रहते थे। यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, वेद पढ़ना और वेद पढ़ाना-ये ही उनके छः कर्म थे ॥ ४२-४३३ ॥
तामस प्रकृतिवाले ब्राह्मण क्रोधी और राग- द्वेषपरायण रहते थे। वे सदा राजाओंके यहाँ कर्मचारीके रूपमें कार्य करते थे। वे कुछ-कुछ अध्ययनमें भी संलग्न रहते थे ॥ ४४३ ॥
इस प्रकार महिषासुरका वध हो जानेपर सभी ब्राह्मण सुखी, वेदपरायण, व्रतनिष्ठ तथा दान-धर्ममें संलग्न हो गये; क्षत्रिय प्रजापालनमें लग गये; वैश्य व्यवसायमें तत्पर हो गये और कुछ अन्य वैश्य कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा तथा सूदपर धन देनेके कर्ममें प्रवृत्त हो गये। इस प्रकार महिषासुरके संहारके पश्चात् सारा जनसमुदाय आनन्दसे परिपूर्ण हो गया ॥ ४५-४७ ॥
प्रजाओंकी व्याकुलता दूर हो गयी, उन्हें पर्याप्त धन प्राप्त होने लगा, गौएँ परम सुन्दर तथा बहुत दूध देनेवाली हो गयीं, नदियाँ प्रचुर जलसे भर गयीं, वृक्ष बहुत अधिक फलोंसे लद गये और सभी मनुष्य रोगरहित हो गये। कहीं भी किसी प्राणीको मानसिक व्याधियाँ तथा प्राकृतिक आपदाएँ व्यथित नहीं करती थीं ॥ ४८-४९ ॥
उस समय सभी प्राणी अकालमृत्युको प्राप्त नहीं होते थे, वे सब प्रकारके वैभवसे सम्पन्न तथा नीरोग रहते थे। वेदप्रतिपादित धर्ममें तत्पर रहते हुए सभी लोगोंने भगवती चण्डिकाके चरणकमलोंकी सेवामें ही अपना चित्त लगा दिया था ॥ ५०॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषवधानन्तरं पृथिवीसुखवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥