:-राजा बोले- हे स्वामिन् ! आपने भगवती योगेश्वरीका यह प्रभाव विस्तारपूर्वक कहा। अब आप उन महामायाका चरित्र कहिये, उसे सुननेकी मेरी बड़ी उत्सुकता है।
जो मनुष्य इस बातको भलीभाँति जानता है कि यह स्थावर जंगमात्मक संसार उन्हींसे उत्पन्न हुआ है, वह उन महादेवीके प्रभावको क्यों नहीं सुनना चाहेगा ? ॥ १-२ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! सुनिये, मैं विस्तारके साथ वर्णन करूँगा। हे महामते ! जो वक्ता श्रद्धालु एवं शान्तचित्त श्रोतासे भगवतीकी कथा नहीं कहता, वह तो मन्द बुद्धिका होता है ॥ ३ ॥
हे राजन् ! प्राचीन कालकी बात है, जिस समय भूतलपर महिषासुर नामक राजा राज्य करता था, उस समय देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंमें भीषण युद्ध छिड़ गया ॥ ४॥
हे राजेन्द्र ! उन्हीं दिनों सुमेरुपर्वतपर जाकर उस महिष नामक दानवने हृदयमें अपने इष्ट देवताका ध्यान करते हुए पूरे दस हजार वर्षोंतक देवताओंतकको चकित कर देनेवाला उत्तम तथा कठोर तप किया ॥ ५३॥
हे महाराज ! उसकी तपस्यासे लोकपितामह ब्रह्माजी प्रसन्न हो गये, अतः हंसपर सवार होकर वे चतुर्मुख ब्रह्मा वहाँ प्रकट होकर उससे बोले- हे धर्मात्मन् ! वर माँगो, मैं तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करूँगा ॥ ६-७ ॥
महिष बोला- हे देवदेव ! हे ब्रह्मन् ! हे प्रभो ! मैं अमरत्व चाहता हूँ। हे पितामह ! आप ऐसा वर दीजिये, जिससे मुझे मृत्युका भय न रहे ॥ ८ ॥
ब्रह्माजी बोले- [ इस जगत्में] उत्पन्न हुएका मरना और मरे हुएका जन्म लेना निश्चित है। समस्त जीवोंका जन्म और मरण अनिवार्यरूपसे होता रहता है। हे दैत्यप्रवर! समयानुसार सम्पूर्ण प्राणियोंका नाश हो जाता है, यहाँतक कि बड़े-बड़े पर्वतों एवं समुद्रोंका भी नाश हो जाता है ॥ ९-१० ॥
अतः हे राजन् ! मृत्युसम्बन्धी अपनी यह धारणा छोड़कर हे साधो ! दूसरा जो भी वर तुम्हारे मनमें हो, वह माँग लो ॥ ११ ॥
महिष बोला- हे पितामह ! देव, दानव और मानव-इनमें किसी भी पुरुषसे मेरी मृत्यु न हो। इस प्रकार जब पुरुषसे मेरी मृत्यु नहीं होगी, तब भला कौन-सी स्त्री मुझे मार सकेगी?
अतएव हे कमलयोने ! मेरी मृत्यु किसी स्त्रीके हाथ होनेका वरदान दीजिये; क्योंकि कोई अबला भला मुझे मारनेमें कैसे समर्थ हो सकेगी ? ॥ १२-१३॥
ब्रह्माने कहा- हे दानवेन्द्र ! जब भी तुम्हारी मृत्यु होगी किसी स्त्रीसे ही होगी। हे महाभाग महिषासुर ! पुरुषसे तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! इस प्रकार उसे वरदान देकर ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये और वह दैत्यश्रेष्ठ महिषासुर भी प्रसन्न होकर अपने घर लौट गया ॥ १५ ॥
राजा बोले- वह महिषासुर किसका पुत्र था, वह महान् बलशाली कैसे हो गया था और उस महान् दैत्यको महिषका रूप कैसे मिला था ? ॥ १६ ॥
व्यासजी बोले- हे महाराज ! दनुके रम्भ और करम्भ-नामक दो पुत्र थे। वे दोनों दानवश्रेष्ठ भूमण्डलपर बहुत प्रसिद्ध थे ॥ १७ ॥
हे महाराज ! वे दोनों सन्तानहीन थे, अतः वे पुत्र-प्राप्तिके लिये तपस्या करने लगे। उनमें करम्भने पवित्र पंचनदके जलमें डूबकर अनेक वर्षांतक कठोर तप किया और रम्भ दूधवाले वटवृक्षके नीचे जाकर पंचाग्निका सेवन करने लगा ॥ १८-१९ ॥
बहुत कालतक जब रम्भ पंचाग्नि-साधना करता रह गया, तब यह जानकर इन्द्र बहुत चिन्तित हुए और वे उन दोनों दानवोंके पास पहुँच गये ॥ २० ॥
पंचनदके जलमें प्रविष्ट होकर इन्द्रने ग्राहका रूप धारण कर लिया और उस करम्भको दोनों पैरोंसे पकड़ लिया। इस प्रकार वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्रने उस करम्भको मार डाला ॥ २१३ ॥
तब अपने भाईका वध सुनकर रम्भ अत्यधिक कुपित हुआ। उसने अपने हाथसे अपना सिर काटकर उसे अग्निमें होम कर देनेकी इच्छा की।
तदुपरान्त वह तत्काल अत्यन्त क्रोधके साथ बायें हाथसे अपने केशपाश पकड़कर दाहिने हाथमें तीक्ष्ण तलवार लेकर जैसे ही अपना सिर काटनेको उद्यत हुआ, तभी अग्निदेव [प्रकट होकर] उसे समझाने लगे ॥ २२-२४॥
[अग्निदेव उससे] बोले- हे दैत्य ! तुम अपना ही सिर काटना चाहते हो; तुम तो बड़े मूर्ख हो। आत्महत्या अत्यन्त ही दुःसाध्य कर्म है। इसे करनेके लिये तुम कैसे तैयार हो गये ? ॥ २५ ॥
तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मनमें जो हो, वह वरदान माँग लो। मरो मत, मरनेसे तुम्हारा कौन-सा कार्य हो जायगा ? ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले – अग्निदेवका सुन्दर वचन सुनकर रम्भने अपना केशपाश छोड़कर कहा- हे देवेश ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे यही वांछित वरदान दीजिये कि मुझे तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त करनेवाला तथा शत्रु-सेनाका विनाश करनेवाला पुत्र प्राप्त हो।
वह देवता, दानव तथा मनुष्य – इन सभीसे सर्वथा अजेय हो। वह महापराक्रमी, अपने इच्छानुसार कोई भी रूप धारण करनेमें समर्थ तथा सभी लोगोंके लिये वन्दनीय हो ॥ २७-२९ ॥
अग्निदेवने उससे कहा कि जैसी तुम्हारी अभिलाषा है, वैसा ही होगा। हे महाभाग ! तुम्हें वैसा ही पुत्र प्राप्त होगा, किंतु अब तुम मरनेका विचार छोड़ दो ॥ ३० ॥
हे महाभाग ! हे रम्भ ! जिस भी स्त्रीके प्रति तुम्हारे मनमें आसक्ति-भाव आ जायगा, उसीसे तुम्हें वह महाबलशाली पुत्र उत्पन्न होगा ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! अग्निदेवने उससे ऐसा कहा। तब उनका मनमोहक वचन सुनकर दानवश्रेष्ठ रम्भ अग्निको प्रणाम करके वहाँसे चला गया और एक ऐसे स्थानपर जा पहुँचा जो रमणीक, समृद्धियोंसे सम्पन्न तथा यक्षोंसे घिरा हुआ था ॥ ३२३ ॥
वहाँ एक रूपवती तथा मदमत्त महिषीको देखकर वह दानवश्रेष्ठ किसी अन्य स्त्रीको छोड़कर उसीपर आसक्त हो गया। वह महिषी भी उसे प्रसन्नतापूर्वक चाहती हुई तत्काल उसके साथ रमणके लिये तैयार हो गयी। होनहारसे प्रेरित होकर रम्भने उसके साथ समागम किया और उसके वीर्यसे वह महिषी गर्भवती हो गयी ॥ ३३-३५ ॥
तत्पश्चात् उसे अपने साथ लेकर रम्भने मनोहर पाताललोकमें प्रवेश किया और वहाँपर महिषोंसे अपने मनोनुकूल उस प्रियतमाकी रक्षा करता हुआ वह सुखपूर्वक रहने लगा ॥ ३६ ॥
किसी दिन एक दूसरे महिषने कामासक्त होकर उस महिषीको दौड़ा लिया। यह देखकर दानव रम्भ स्वयं वहाँ आकर | उसे मारनेके लिये दौड़ा और उसके पास पहुँचकर
अपनी रक्षाके लिये रम्भने उस महिषपर कठोर प्रहार किया। तब उस कामातुर महिषने भी अपनी सींगोंसे रम्भपर शीघ्रतासे प्रहार करना आरम्भ कर दिया ॥ ३७-३८ ॥
उस महिषके द्वारा तीक्ष्ण सींगोंसे हृदयस्थलमें गहरी चोट पहुँचानेके कारण रम्भ शीघ्र ही मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा और मर गया ॥ ३९ ॥
पतिके मर जानेपर अत्यन्त शोकाकुल तथा भयग्रस्त वह महिषी वहाँसे भाग चली। वेगपूर्वक भागती हुई वह एक वटवृक्षके नीचे पहुँचकर वहाँ रहनेवाले यक्षोंकी शरणमें जा पहुँची ॥ ४० ॥
वह कामार्त और बल तथा वीर्यसे मदोन्मत्त कामासक्त महिष भी उसकी कामना करता हुआ उसके पीछे-पीछे गया ॥ ४१ ॥
यक्षोंने उस महिषसे पीड़ित तथा भयभीत होकर रोती हुई उस महिषीको देख लिया और महिषको दौड़ता हुआ देखकर उस महिषीकी रक्षाके लिये वे यक्ष वहाँ आ गये ॥ ४२ ॥
अब उस महिषके साथ यक्षोंका विकराल युद्ध होने लगा और अन्तमें बाणसे आहत होकर वह महिष शीघ्र ही भूमिपर गिर पड़ा ॥ ४३ ॥
तदनन्तर उन यक्षोंने परम प्रिय मृत रम्भको लाकर उसकी देह-शुद्धिके लिये उसे चितापर रख दिया। तब उस महिषीने अपने पतिको चितापर रखा हुआ देखकर उसके साथ स्वयं भी अग्निमें प्रवेश करनेका निश्चय किया ॥ ४४-४५ ॥
यक्षोंके मना करनेपर भी अपने प्रिय पतिके साथ वह महिषी विकराल लपटोंवाली अग्निमें प्रविष्ट हो गयी ॥ ४६ ॥
उसी समय एक महाबली महिष चिताके मध्यसे प्रकट हो गया तथा अन्य शरीर धारण करके वह पुत्रप्रेमी रम्भ भी चिताके मध्यभागसे निकल पड़ा। इस प्रकार रक्तबीज तथा महान् बलशाली महिषासुर उत्पन्न हुए। तदनन्तर श्रेष्ठ दानवोंने उस महिषासुरका राज्याभिषेक कर दिया ॥ ४७-४८ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार महिषासुर तथा पराक्रमी रक्तबीज उत्पन्न हुए। वह महिषासुर देवताओं, दानवों | तथा मनुष्योंसे अवध्य था ॥ ४९ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको उस महान् महिषासुरके जन्म तथा उससे सम्बन्धित वरदान- प्राप्तिका प्रसंग विस्तारपूर्वक बता दिया ॥ ५० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषासुरोत्पत्तिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥