:-व्यासजी बोले – महिषासुरका संहार देखकर इन्द्र आदि प्रधान देवता परम प्रसन्न हुए और वे जगदम्बाकी स्तुति करने लगे ॥ १ ॥
देवता बोले- हे देवि ! आपकी ही शक्तिसे ब्रह्मा इस जगत्का सृजन करते हैं, भगवान् विष्णु पालन करते हैं और शिवजी प्रलयकालमें संहार करते हैं। आपकी शक्तिसे रहित हो जानेपर वे कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं हो सकते। अतः जगत्का सृजन, पालन और संहार करनेवाली आप ही हैं ॥ २ ॥
इस संसारमें कीर्ति, मति, स्मृति, गति, करुणा, दया, श्रद्धा, धृति, वसुधा, कमला, अजपा, पुष्टि, कला, विजया, गिरिजा, जया, तुष्टि, प्रमा, बुद्धि, उमा, रमा,विद्या, क्षमा, कान्ति और मेधा- ये सब शक्तियाँ आप ही हैं। इस त्रिलोकीमें आप विख्यात हैं। सम्पूर्ण जगत्को आश्रय देनेवाली हे देवि ! आपकी इन शक्तियोंके बिना कौन व्यक्ति कुछ भी स्वयं कर सकनेमें समर्थ है ? ॥ ३-४ ॥
हे अम्ब ! धारणा शक्ति भी निश्चितरूपसे आप ही हैं, अन्यथा कच्छप और शेषनाग इस पृथ्वीको धारण कर सकनेमें कैसे समर्थ हो पाते ? पृथ्वी- शक्ति भी आप ही हैं। यदि आप इस रूपमें न होतीं तो प्रचुर भारसे सम्पन्न यह सम्पूर्ण जगत् आकाशमें कैसे ठहर सकता था ॥ ५॥
हे जननि ! जो मनुष्य मायाके गुणोंसे प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चन्द्रमा, अग्नि, यम, वायु, गणेश आदि प्रमुख देवताओंकी स्तुति करते हैं, वे अज्ञानी ही हैं; क्योंकि क्या वे देवता भी आपकी कृपाशक्तिके बिना उन मनुष्योंको कार्य-फल प्रदान करनेमें समर्थ हो सकते हैं ? ॥ ६ ॥
हे अम्ब ! जो लोग सुविस्तृत यज्ञमें देवताओंको अधिकृत करके अग्निमें पुष्कल आहुति देते हैं, वे मन्दमति हैं; क्योंकि यदि स्वाहाके रूपमें आप न होतीं, तो वे देवता हविर्द्रव्यको कैसे पाते ? तब फिर वे मूढ़ आपका ही यजन क्यों नहीं करते ? ॥ ७ ॥
आप जगत्के चराचर प्राणियोंको भोग प्रदान करती हैं और अपने अंशोंसे उन्हें नित्य जीवन देती हैं। हे जननि. जिस प्रकार आप अपने प्रिय देवताओंका पोषण करती हैं, उसी प्रकार अपने शत्रुओंका भी पालन करती हैं ॥ ८।
हे माता ! बुद्धिमान् पुरुष विनोदके लिये उद्यान में लगाये गये वृक्षोंमेंसे कुछ वृक्षोंके फल और पत्तोंमें रहित हो जाने अथवा उन वृक्षोंका रस कड़वा निकल जानेपर भी उन्हें कभी भी नहीं काटते, उसी प्रकार आप भी [अपने ही बनाये हुए] दैत्योंकी भलीभािँ रक्षा करती हैं ॥ ९ ॥
करुणारससे ओत-प्रोत हृदयवाली आप रणभूमिन बाणोंद्वारा शत्रुओंका जो संहार करती हैं, वह उनका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये ही होता है; क्योंत्रि दूसरे जन्ममें देवांगनाओंके साथ क्रीड़ा-विहार करनेक इच्छावाला उन्हें जानकर ही आपके द्वारा ऐसा किय | जाता है; ऐसा आपका अद्भुत चरित्र है ॥ १० ॥
हे माता ! बड़ी विलक्षण बात तो यह है कि विख्यात प्रभावोंवाले उन दैत्योंका संहार जो आपके संकल्पमात्रसे ही सम्भव था, इसके लिये आपको अवतार लेना पड़ा। यह शरीर धारण करके आप वास्तवमें इसीके सहारे लीला करती हैं; इसमें कोई दूसरा कारण नहीं है ॥ ११ ॥
जो मनुष्य इस विकराल कलिके उपस्थित होनेपर भी आपकी आराधना नहीं करते, अपितु आपके ही द्वारा निर्मित विष्णु, शिव आदि देवताओंकी उपासनामें तत्पर रहते हैं, वे लोग पुराण-चतुर धूर्तजनोंके द्वारा निश्चित रूपसे ठग लिये गये हैं॥ १२ ॥
यह जानकर भी कि देवता आपके अधीन हैं तथा दैत्योंके द्वारा छिन्न-भिन्न और प्रताड़ित किये जाते हैं- जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक भूलोकमें अन्य देवताओंकी उपासना करते हैं, वे मानो हाथमें अत्यन्त प्रकाशमान दीपक लेकर भी किसी जलरहित भयानक कूपमें जा गिरते हैं ॥ १३ ॥
हे माता ! आप ही सुखदायिनी विद्या तथा दुःखदायिनी अविद्या हैं और आप ही मनुष्योंके जन्म-मृत्युका दुःख दूर करनेवाली हैं। हे जननि ! मोक्षकी कामना करनेवाले लोग तो आपकी आराधना करते हैं, किंतु मन्दबुद्धि अज्ञानी तथा विषयभोगपरायण मनुष्य आपकी आराधना नहीं करते ॥ १४॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य देवतागण आपके शरणदायक चरणकमलकी निरन्तर उपासना करते हैं, किंतु जो अल्पबुद्धि मनुष्य भ्रमित होकर मनसे आपकी आराधना नहीं करते, वे संसार सागरमें बार- बार गिरते हैं ॥ १५ ॥ हे चण्डिके ! आपके चरण-कमलसे उत्पन्न हुई
धूलिके प्रभावसे ही ब्रह्मा सृष्टिके प्रारम्भमें सम्पूर्ण भुवनकी रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिवजी संहार करते हैं। इस लोकमें जो मनुष्य आपकी उपासना नहीं करता, वह अभागा है ॥ १६ ॥
हे देवि ! आप ही देवताओं तथा दैत्योंकी वाग्देवता हैं। यदि आप मुखमें विराजमान न रहतीं, तो बड़े-बड़े देवता भी बोलनेमें समर्थ नहीं हो सकते थे। मुख होनेपर भी मनुष्य उस वाक्शक्तिके बिना बोल नहीं सकता ॥ १७ ॥
हे जननि ! महर्षि भृगुने कुपित होकर भगवान् विष्णुको शाप दे दिया, जिससे उन्हें पृथ्वीपर बारम्बार मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह और छली वामनका अवतार लेना पड़ा। तो फिर [एक ऋषिके शापसे अपनी रक्षा न कर पानेवाले ऐसे विष्णु आदि] उन देवताओंकी उपासना करनेवाले लोगोंको मृत्युका भय क्यों नहीं बना रहेगा ? ॥ १८ ॥
हे माता ! सम्पूर्ण संसारमें यह बात प्रसिद्ध है कि भृगुमुनिके काननमें गये हुए भगवान् शिवका लिंग मुनिके शापके कारण कटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा था। अतः जो मनुष्य पृथ्वीपर उन कापालिक शिवको ही भजते हैं, उन्हें इस लोक तथा परलोकमें भी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥ १९ ॥
शिवसे जो गणोंके अधिपति गणेश उत्पन्न हुए हैं-उन गणेशको जो लोग भजते हैं, उनकी यह शरणागति व्यर्थ है। हे देवि ! वे लोग सभी प्रकारके अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली तथा सुखपूर्वक आराधनीय आप जगज्जननीको नहीं जानते हैं ॥ २० ॥
यह बड़ी विचित्र बात है कि आपने अपने शत्रु- दैत्योंपर भी दया करके उन्हें तीक्ष्ण बाणोंसे रणमें मारकर स्वर्गलोक भेज दिया। यदि आप ऐसा न करतीं तो वे अपने कर्मोंके परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाले घोर नरकमें बड़े-से-बड़े दुःख और विपत्तिमें पड़ जाते ॥ २१ ॥
जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता भी अहंकारके कारण आपकी महिमा नहीं जानते, तब आपके अमित प्रभाववाले गुणोंसे मोहित तुच्छ मनुष्य आपकी महिमाको कैसे जान सकेंगे ? ॥ २२ ॥
जो मुनिगण आपके स्वरूपको बड़ी कठिनतासे ध्यानमें आनेवाला समझकर आपके चरणकमलकी उपासना नहीं करते; अपितु सूर्य, अग्नि आदिकी उपासनामें लगे रहते हैं, वे मूढ़बुद्धि अनेकविध कष्ट पाते हैं। समस्त श्रुतियोंके द्वारा प्रतिपादित वेदसारस्वरूप | परमार्थतत्त्वको वे नहीं जान पाते ॥ २३ ॥
मैं तो यही समझता हूँ कि अद्भुत प्रभावोंवाले जो आपके सत्त्व, रज और तम गुण हैं, वे ही मनुष्योंको उन्हींकी अपनी ही बुद्धिद्वारा विरचित अनेक प्रकारके शास्त्रोंमें उलझाकर उन्हें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश आदिका उपासक बनाकर आपके भक्तिभावसे सर्वथा विमुख कर देते हैं ॥ २४ ॥
हे अम्बिके ! जो लोग विष्णु तथा शिवकी पूजा और भक्तिसे परिपूर्ण शास्त्रोंके उपदेशद्वारा ब्राह्मणोंको आपके चरणोंसे विमुख कर देते हैं, उनके ऊपर भी आप क्रोध नहीं करती हैं, बल्कि दया ही करती हैं और इसके अतिरिक्त मोहन आदि मन्त्रोंके ज्ञाताओंको भी आप संसारमें बहुत प्रसिद्ध बना देती हैं ॥ २५ ॥
सत्ययुगमें सत्त्वगुणकी प्रबलता रहती है, अतः उस युगमें असत्-शास्त्रोंपर आस्था नहीं हो पाती। किंतु कलिमें तो कवित्वके अभिमानी लोग आपकी उपेक्षा करते हैं और आपहीके द्वारा बनाये गये देवताओंकी स्तुति करते हैं ॥ २६ ॥
इस पृथ्वीतलपर अत्यन्त शुद्ध अन्तःकरणवाले जो सात्त्विक मुनिगण मुक्ति-फल प्रदान करनेवाली योगसिद्धा एवं पराविद्यास्वरूपिणी आप भगवतीका ध्यान करते हैं, वे पुनः माताके गर्भमें आकर कष्ट नहीं पाते। जो मनुष्य आपमें ध्यानमग्न हैं, वे धन्य हैं ॥ २७ ॥
आप चित्-शक्ति हैं और वही चित्-शक्ति परमात्मामें विद्यमान है, जिसके कारण वे भी [नाम और रूपसे] अभिव्यक्त होकर इस जगत्के सृजन, पालन एवं संहाररूपी कार्योंके कर्ताके रूपमें लोकोंमें प्रसिद्ध होते हैं। उन परमात्माके अतिरिक्त दूसरा कौन है, जो आपसे रहित होकर अपनी शक्तिसे इस जगत्का सृजन, पालन और संहार करनेमें समर्थ हो सकता है ? ॥ २८ ॥
हे जगदम्बे ! क्या चित्-शून्य तत्त्व जगत्की रचना करनेमें समर्थ हो सकते हैं? चूँकि तत्त्व जड़ हैं, अतः वे जगत्की रचनामें समर्थ नहीं हैं। हे देवि ! यद्यपि इन्द्रियाँ गुण तथा कर्मसे युक्त हैं, फिर भी आपसे रहित होकर क्या वे फल प्रदान कर सकती हैं ? ॥ २९ ॥
हे माता! यदि आप यज्ञोंमें ‘स्वाहा’ के रूपमें निमित्त न बनतीं तो क्या देवगण उन यज्ञोंमें मुनियोंके द्वारा विधिवत् प्रदत्त आहुति-रूप यज्ञभाग प्राप्त करते ? अतः यह निश्चय हो गया कि आप ही विश्वका पालन करती हैं ॥ ३० ॥
सृष्टिके प्रारम्भमें इस सम्पूर्ण जगत्की रचना आपने ही की है, आप ही विष्णु-शिव आदि प्रमुख देवताओं तथा दिक्पालोंकी रक्षा करती हैं और प्रलयकालमें आप ही सम्पूर्ण विश्वको अपनेमें विलीन कर लेती हैं। [हे देवि !] जब ब्रह्मा आदि देवता भी आपके आद्य चरित्रको नहीं जान पाते, तब मन्दभाग्य हम देवता उसे कैसे जान सकते हैं? ॥ ३१ ॥
हे माता ! आपने महिषका रूप धारण करनेवाले अत्यन्त उग्र असुरका वध करके इस देवसमुदायकी रक्षा की है। हे जननि ! जब वेद भी यथार्थरूपसे आपकी गतिको नहीं जान पाये, तब हम मन्दबुद्धि देवता उसे कैसे जान सकते हैं, हम कैसे आपकी स्तुति करें ? ॥ ३२ ॥
विख्यात प्रभाववाली हे जननि ! आपने जगत्में महान् कार्य किया है जो कि आपने संसारके अचिन्त्य कण्टकस्वरूप हमारे शत्रु दुरात्मा महिषा- सुरका वध कर दिया। ऐसा करके आपने सम्पूर्ण लोकोंमें अपनी कीर्ति स्थापित कर दी है, अब आप सारे संसारपर अनुग्रह करें और हमारी रक्षा करें ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर देवीने मधुर स्वरमें उनसे कहा- हे श्रेष्ठ देवतागण ! इसके अतिरिक्त भी कोई दुःसाध्य कार्य हो तो उसे आपलोग बता दीजिये। जब-जब आप देवताओंके सामने कोई महान् दुःसाध्य कार्य उपस्थित हो, तब-तब आपलोग मेरा स्मरण कीजियेगा; मैं उस संकटको शीघ्र ही दूर कर दूँगी ॥ ३४-३५ ॥
देवता बोले- हे देवि ! इस समय आपने हमारा सारा कार्य पूर्ण कर दिया है जो कि आपके द्वारा हमारा शत्रु यह महिषासुर मार डाला | गया ॥ ३६ ॥
हे अम्ब ! हे जगज्जननि ! अब आप हमारे मनमें अपने प्रति ऐसी अविचल भक्ति स्थापित कीजिये कि हम सदा आपके चरण-कमलका स्मरण करते रहें ॥ ३७ ॥
माता ही [अपनी सन्तानके] हजारों अपराध सह सकती है-ऐसा समझकर लोग जगत्की उत्पत्तिस्वरूपा भगवतीकी उपासना क्यों नहीं करते ? ॥ ३८ ॥
इस देहरूपी वृक्षपर जीवात्मा और परमात्मारूपी दो पक्षी रहते हैं। उन दोनोंमें सर्वदा मित्रता बनी रहती है, किंतु उनका तीसरा सखा ऐसा कोई भी नहीं है, जो अपराधको सह सके। अतएव यह जीव आप- जैसे मित्रको त्यागकर क्या करेगा ? देवताओं और मानवोंकी योनिमें वह प्राणी पापी, मन्दभागी और अधम है, जो अत्यन्त दुर्लभ देह पाकर भी आपका स्मरण नहीं करता ॥ ३९-४०३ ॥
हम मन, वाणी और कर्मसे बार-बार यह सत्य कह रहे हैं कि सुख अथवा दुःख – प्रत्येक परिस्थितिमें एकमात्र आप ही हमारे लिये अद्भुत शरण हैं। हे देवि ! आप अपने समस्त श्रेष्ठ आयुधोंद्वारा हमारी निरन्तर रक्षा करें। आपके चरणकमलोंकी धूलिको छोड़कर हमारे लिये कोई दूसरा शरण नहीं है ॥ ४१-४२३ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर भगवती जगदम्बा वहीं अन्तर्धान हो गयीं। तब उन्हें अन्तर्हित देखकर देवता बड़े विस्मयमें पड़ गये ॥ ४३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां पञ्चमस्कन्धे देवीसान्त्वनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥