Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 17(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःसप्तदशोऽध्यायःमहिषासुरका देवीको मन्दोदरी नामक राजकुमारीका आख्यान सुनाना)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 17(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःसप्तदशोऽध्यायःमहिषासुरका देवीको मन्दोदरी नामक राजकुमारीका आख्यान सुनाना)

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[अथ सप्तदशोऽध्यायः]
: -व्यासजी बोले- [हे महाराज!] उसका यह वचन सुनकर भगवतीने उस दानवसे पूछा- वह स्त्री मन्दोदरी कौन थी और वह राजा कौन था, जिसे उसने त्याग दिया था ? ॥ १॥
बादमें उसने जिसे पति बनाया, वह धूर्त राजा कौन था ? उस स्त्रीको पुनः जिस प्रकार दुःख मिला हो, वह कथानक विस्तारपूर्वक बताओ ॥ २ ॥
महिषासुर बोला – पृथ्वीतलपर विख्यात सिंहल नामक एक देश है। उसमें बहुत ही घने-घने वृक्ष हैं और वह धन-धान्यसे समृद्ध है ॥ ३ ॥
वहाँ चन्द्रसेन नामका राजा राज्य करता था, जो बड़ा धर्मात्मा, शान्तस्वभाव, प्रजापालनमें तत्पर, न्यायपूर्वक शासन-कार्य करनेवाला, सत्यवादी, मृदु स्वभाववाला, वीर, सहिष्णु, नीतिशास्त्रका सागर, शास्त्रवेत्ता, सब धर्मोका ज्ञाता और धनुर्वेदमें अत्यन्त प्रवीण था ॥ ४-५ ॥
उसकी भार्या भी रूपवती, सुन्दरी, सौभाग्य- शालिनी, सद्गुणी, सदाचारिणी, अत्यन्त सुन्दर मुखवाली, पतिभक्तिमें लीन रहनेवाली, मनोहर और सभी उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उसका नाम गुणवती था। उसने प्रथम गर्भसे एक अति सुन्दर कन्याको जन्म दिया ॥ ६-७ ॥
उस मनोरम कन्याको पाकर पिता बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने बड़े हर्षके साथ उसका नाम मन्दोदरी रखा ॥ ८॥
वह कन्या चन्द्रमाकी कलाके समान दिन- प्रतिदिन बढ़ने लगी। अत्यन्त मनोहारिणी वह कन्या जब दस वर्षकी हुई, तब उसके वरके लिये राजा चन्द्रसेन प्रतिदिन चिन्तित रहने लगे ॥ ९३ ॥
उस समय मद्रदेशके अधिपति सुधन्वा नामवाले एक पराक्रमी नरेश थे। कम्बुग्रीव नामसे अति विख्यात उनका एक पुत्र था, जो बहुत मेधावी था। ब्राह्मणोंने राजा चन्द्रसेनसे कहा कि कम्बुग्रीव उस कन्याके योग्य वर है। वह सुन्दर, सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा समस्त विद्याओंमें पारंगत है ॥ १०-११३ ॥

 

तब राजाने गुणवती नामवाली अपनी प्रिय रानीसे पूछा – [मेरा विचार है कि मैं अपनी सुन्दर पुत्री मन्दोदरीको कम्बुग्रीवको सौंप दूँ ॥ १२३ ॥
पतिकी यह बात सुनकर उस रानीने अपनी पुत्रीसे आदरपूर्वक पूछा- तुम्हारे पिता कम्बुग्रीवके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते हैं ॥ १३३ ॥
तब यह सुनकर मन्दोदरीने मातासे यह वचन कहा- मैं पति नहीं बनाऊँगी, विवाह करनेमें मेरी अभिरुचि नहीं है। मैं सदा कौमार्यव्रतका आश्रय लेकर अपना जीवन व्यतीत करूँगी। मैं स्वतन्त्रतापूर्वक सदा कठोर तप करूँगी।
हे माता ! संसारसागरमें परतन्त्रता परम दुःख है। स्वतन्त्रतासे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है-ऐसा शास्त्रोंके ज्ञाता पण्डितजनोंने कहा है, अतएव मैं बन्धनसे मुक्त रहूँगी, मुझे पतिसे कोई भी प्रयोजन नहीं है ॥ १४-१७ ॥
विवाह होते समय अग्निके साक्ष्यमें [प्रतिज्ञा- रूपमें] यह वचन कहना पड़ता है-‘ [हे पतिदेव !] अब मैं सदाके लिये पूर्णरूपसे आपके अधीन हो चुकी हूँ।’ इसके अतिरिक्त ससुरालमें सास तथा देवर आदि लोगोंकी दासी बनकर रहना तथा सदा पतिके अनुकूल रहना अत्यन्त दुःखदायक बताया गया है॥ १८-१९ ॥
कहीं यदि पतिने अन्य स्त्रीके साथ विवाह कर लिया तब तो सौतसे मिलनेवाला महान् दुःख उपस्थित हो जाता है। उस समय पतिके प्रति ईर्ष्याभाव उत्पन्न हो जाता है, कलह भी होने लगता है। हे माता ! संसारमें सुख कहाँ है ? और विशेष करके स्वभावसे ही परतन्त्र नारियोंके लिये इस स्वप्नधर्मा संसारमें सुख है ही नहीं ॥ २०-२१३ ॥
हे माता! मैंने सुना है कि प्राचीनकालमें राजा उत्तानपादके एक ‘उत्तम’ नामक पुत्र थे, जो समस्त धर्मोंके ज्ञाता एवं ध्रुवके कनिष्ठ भ्राता थे। उन्होंने अपनी धर्मनिष्ठ, पतिव्रता, पतिके प्रति भक्तिभाव रखनेवाली, प्रिय तथा सुन्दर पत्नीको बिना किसी अपराधके ही वनमें छोड़ दिया था ॥ २२-२३३ ॥

 

पतिके रहते हुए भी इस प्रकारके अनेक दुःख स्त्रीको सहने पड़ते हैं। दैवयोगसे उसकी मृत्यु हो जानेपर स्त्रीको [विधवा बनकर] दुःख उठाना पड़ता है; क्योंकि वैधव्य परम दुःखमय होता है तथा नानाविध शोक एवं संताप उत्पन्न करता रहता है।
पतिके परदेश चले जानेपर कामदेवकी अग्निमें जलती हुई स्त्रीको घरमें अत्यधिक दुःख सहना पड़ता है, तो फिर उसे पतिसंगजनित क्या सुख प्राप्त हुआ ? अतएव मेरा तो यही मत है कि स्त्रियोंको विवाह कभी नहीं करना चाहिये ॥ २४-२६३ ॥
[पुत्रीके] ऐसा कहनेपर उसकी माताने अपने पतिसे कहा-कौमारव्रत धारण करनेकी इच्छावाली वह राजकुमारी पतिकी कामना नहीं करती है। संसारसे विरक्त रहकर वह सदा व्रत और जपमें तत्पर रहना चाहती है। [ पतिसंगजनित] अनेक दोषोंको जाननेवाली वह कन्या विवाह नहीं करना चाहती ॥ २७-२८३ ॥
अपनी भार्याकी बात सुनकर राजा चन्द्रसेन भी चुप रह गये। अपनी पुत्रीको विवाहकी इच्छासे रहित भाववाली जानकर राजाने भी उसका विवाह नहीं किया। वह मन्दोदरी भी माता-पिताके द्वारा भलीभाँति रक्षित होती हुई घरपर ही रहने लगी।
कुछ समय पश्चात् नारियोंमें कामोत्तेजना उत्पन्न करनेवाले यौवन- सम्बन्धी लक्षण उसमें विकसित होने लगे। उस समय उसकी सखियोंने विवाहके लिये उसे बार-बार प्रेरित किया, फिर भी ज्ञान-तत्त्वकी बातें कहकर वह मन्दोदरी पति बनानेके लिये तैयार न हुई ॥ २९-३१३ ॥
एक दिन सुन्दर मुखवाली वह कन्या अपनी दासियोंके साथ बहुत-से वृक्षोंसे सुशोभित उद्यानमें आनन्दपूर्वक विहार करनेके लिये गयी। उस कृशोदरीने वहाँ पुष्पित लताओंको देखा और अपनी सखियोंके साथ पुष्प चुनती हुई वह वहींपर क्रीडाविहार करने लगी ॥ ३२-३३३ ॥
उसी समय उस मार्गसे संयोगवश कोसलनरेश वीरसेन आ गये। वे महान् शूरवीर तथा बहुत विख्यात थे। वे रथपर अकेले ही आरूढ़ थे तथा उनके साथ कुछ सेवक भी थे और सेना उनके पीछे धीरे-धीरे चली आ रही थी ॥ ३४-३५३ ॥

 

तभी उसकी सखियोंने दूरसे ही राजाको देख लिया और [उनमेंसे किसी युवतीने] मन्दोदरीसे कहा-विशाल भुजाओंवाला, रूपवान् तथा दूसरे कामदेवके समान एक पुरुष रथपर सवार होकर इस मार्गसे चला आ रहा है। मैं तो यह मानती हूँ कि यहाँ भाग्यवश कोई राजा ही आ गया है ॥ ३६-३७३ ॥
वह युवती ऐसा कह रही थी कि इतनेमें कोसल-नरेश वीरसेन वहाँ आ गये। उस श्याम कटाक्षोंवाली मन्दोदरीको देखकर राजा विस्मयमें पड़ गये। रथसे तुरंत उतरकर उन्होंने दासीसे पूछा- विशाल नेत्रोंवाली यह युवती कौन है और किसकी पुत्री है ? मुझे शीघ्र बताओ ॥ ३८-३९३ ॥
इस प्रकार पूछे जानेपर मधुर मुसकानवाली दासीने उनसे कहा-सुन्दर नेत्रोंवाले हे वीर ! पहले आप मुझे बतायें, मैं आपसे पूछ रही हूँ कि आप कौन हैं ? यहाँ किसलिये आये हैं और यहाँ आपका कौन- सा कार्य है? [यह सब] अभी बतानेकी कृपा करें रें ॥ ॥ ४०-४१ ॥
दासीके यह पूछनेपर राजाने उससे कहा- पृथ्वीपर अत्यन्त अद्भुत कोसल नामक एक देश है। हे प्रिये ! वीरसेन नामवाला मैं उसी देशका शासक हूँ। मेरी विशाल चतुरंगिणी सेना पीछे-पीछे आ रही है। मार्ग भूल जानेके कारण यहाँ आये हुए मुझको तुम कोसलदेशका राजा समझो ॥ ४२-४३३ ॥
सैरन्ध्री बोली- हे राजन् ! यह महाराज चन्द्रसेनकी पुत्री है और इसका नाम मन्दोदरी है। कमलसदृश नेत्रोंवाली यह राजकुमारी विहार करनेकी इच्छासे इस उपवनमें आयी है ॥ ४४३ ॥
उसकी बात सुनकर राजाने उस सैरन्ध्रीसे कहा- हे सैरन्ध्रि ! तुम चतुर हो, अतः राजकुमारीको समझा दो। ‘हे सुनयने ! मैं ककुत्स्थवंशमें उत्पन्न एक राजा हूँ। अतः हे कामिनि ! तुम गान्धर्व विवाहके द्वारा मुझे पति बना लो। हे सुश्रोणि! मेरी कोई भार्या नहीं है।
मैं भी अद्भुत यौवनावस्थासे सम्पन्न, रूपवती और कुलीन युवतीकी आकांक्षा रखता हूँ। अथवा [यदि गान्धर्व- विवाह पसन्द न हो तो] तुम्हारे पिता विधि-विधानसे तुमको मुझे सौंप दें। मैं सर्वथा तुम्हारे अनुकूल पति होऊँगा; इसमें सन्देह नहीं है’ ॥ ४५-४८३ ॥

 

महिष बोला- तब वीरसेनका वचन सुनकर कामशास्त्रमें प्रवीण सैरन्ध्रीने हँसकर उस मन्दोदरीसे मधुर वाणीमें कहा- हे मन्दोदरि ! सूर्यवंशमें उत्पन्न ये राजा यहाँ आये हैं। ये रूपवान्, बलवान् तथा आयुमें तुम्हारे ही तुल्य हैं। हे सुन्दरि ! ये राजा सम्यक् प्रकारसे तुझमें प्रेमासक्त हो गये हैं ॥ ४९-५१ ॥
हे विशाल नयनोंवाली ! तुम्हारी विवाहयोग्य अवस्था हो गयी है और तुम वैराग्यभावसे युक्त रहती हो- यह जानकर तुम्हारे पिता भी सदा चिन्तित रहते हैं। उन महाराजने बार-बार लंबी साँस लेकर हम- लोगोंसे यह कहा था- ‘हे दासियो ! तुमलोग सदा उसकी सेवामें संलग्न रहती हो, अतः तुम्हीं लोग मेरी इस पुत्रीको समझाओ।’ किंतु हमलोग तुझ हठधर्म- परायणासे कुछ भी कहनेमें समर्थ नहीं हैं।
[फिर भी हम तुम्हें बता देना चाहती हैं कि] पतिकी सेवा ही स्त्रियोंके लिये परम धर्म है-ऐसा मनुने कहा है। पतिकी सेवा करनेवाली स्त्री स्वर्ग प्राप्त कर लेती है। अतएव हे विशाल नेत्रोंवाली ! तुम विधिपूर्वक विवाह कर लो ॥ ५२-५५ ॥
मन्दोदरी बोली- मैं पति नहीं बनाऊँगी; मैं अद्भुत तप करूँगी। हे बाले! तुम इस राजाको मना कर दो; यह निर्लज्ज मेरी ओर क्यों देख रहा है ? ॥ ५६ ॥

 

सैरन्ध्री बोली- हे देवि ! यह कामदेव अजेय है तथा कालका अतिक्रमण भी अत्यन्त कठिन है। अतएव हे सुन्दरि ! तुम मेरे इस कल्याणकारी वचनको मान लेनेकी कृपा करो। अन्यथा [तुम्हारे ऊपर कभी-न-कभी] संकट अवश्य पड़ेगा; यह मेरा दृढ़ विश्वास है ॥ ५७३ ॥
उसकी यह बात सुनकर राजकुमारीने उस सखीसे कहा- हे परिचारिके! दैवयोगसे जो भी होनेवाला है वह हो, किंतु मैं विवाह बिलकुल नहीं करूँगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५८-५९ ॥
महिष बोला- उस राजकुमारीका निश्चित विचार जानकर सैरन्ध्रीने राजासे पुनः कहा- हे राजन् ! आप इच्छानुसार यहाँसे जा सकते हैं। यह | राजकुमारी उत्तम पति बनाना नहीं चाहती ॥ ६० ॥

 

उसकी बात सुनकर राजा वीरसेन उदास हो गये और उस राजकुमारीके प्रति आसक्तिरहित होकर अपनी सेनाके साथ कोसलदेशके लिये प्रस्थित हो गये ॥ ६१ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे देवीमहिषसंवादे राजपुत्रीमन्दोदरीवृत्तवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

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