:-व्यासजी बोले- उन सैनिकोंकी बात सुनकर राजा महिष क्रोधित हो उठा और उसने सारथिसे कहा-हजार गधोंसे जुते हुए, ध्वजा तथा पताकाओंसे सुशोभित, अनेक प्रकारके आयुधोंसे परिपूर्ण, सुन्दर चक्कों तथा जुएसे विभूषित तथा प्रकाशमान मेरा अद्भुत रथ तुरंत ले आओ ॥ १-२ ॥
सारथिने भी तत्क्षण रथ लाकर उससे कहा- हे राजन् ! सुसज्जित करके रथ ला दिया गया जो द्वारपर खड़ा है; यह सभी आयुधोंसे समन्वित तथा उत्तम आस्तरणोंसे युक्त है ॥ ३३ ॥
रथके आनेकी बात सुनकर महाबली दानवराज महिष मनुष्यका रूप धारण करके युद्धभूमिमें जानेको तैयार हुआ। उसने अपने मनमें सोचा कि यदि मैं अपने महिषरूपमें जाऊँगा तो देवी मुझ श्रृंगयुक्त महिषको देखकर अवश्य उदास हो जायगी।
स्त्रियोंको सुन्दर रूप और चातुर्य अत्यन्त प्रिय होता है। अतः आकर्षक रूप तथा चातुर्यसे सम्पन्न होकर मैं उसके पास जाऊँगा, जिससे मुझे देखते ही वह युवती प्रेमयुक्त – मोहित हो जायगी। मुझे भी इसी स्थितिमें सुख होगा, अन्य किसी स्वरूपसे नहीं ॥ ४-७३ ॥
मनमें ऐसा विचार करके महाबली वह दानवेन्द्र महिषरूप छोड़कर एक सुन्दर पुरुष बन गया। वह सभी प्रकारके आयुधको धारण किये हुए था, वह ऐश्वर्यसम्पन्न था, वह सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत था, उसने दिव्य वस्त्र धारण कर रखे थे।
केयूर और हार पहने तथा हाथमें धनुष-बाण धारण किये रथपर बैठा हुआ वह कान्तिमान् दैत्य दूसरे कामदेवके सदृश प्रतीत हो रहा था। मानिनी सुन्दरियोंका भी मन हर लेनेवाला ऐसा सुन्दर रूप बनाकर वह मदोन्मत्त दैत्य अपनी विशाल सेनाके साथ देवीकी ओर चला ॥ ८-११॥
अनेक वीरोंसे घिरे हुए उस दैत्यराज महिषासुरको आया हुआ देखकर देवीने अपना शंख बजाया ॥ १२ ॥ लोगोंको आश्चर्यचकित कर देनेवाली उस शंखध्वनिको सुनकर भगवतीके पास आकर वह दैत्य हँसता हुआ उनसे कहने लगा- ॥ १३॥
हे देवि ! इस परिवर्तनशील जगत्में रहनेवाला व्यक्ति वह स्त्री अथवा पुरुष चाहे कोई भी हो, सब प्रकारसे सुख ही चाहता है। इस लोकमें सुख मनुष्योंको संयोगमें ही प्राप्त होता है, वियोगमें सुख होता ही नहीं। संयोग भी अनेक प्रकारका होता है। मैं उन भेदोंको बताता हूँ, सुनो।
कहीं उत्तम प्रीतिके कारण संयोग हो जाता है और कहीं स्वभावतः संयोग हो जाता है, इनमें सर्वप्रथम मैं प्रीतिसे उत्पन्न होनेवाले संयोगके विषयमें अपनी बुद्धिके अनुसार बता रहा हूँ ॥ १४-१६ ॥
माता-पिताका पुत्रके साथ होनेवाला संयोग उत्तम कहा गया है। भाईका भाईके साथ संयोग किसी प्रयोजनसे होता है, अतः वह मध्यम माना गया है। उत्तम सुख प्रदान करनेके कारण पहले प्रकारके संयोगको उत्तम तथा उससे कम सुख प्रदान करनेके कारण [दूसरे प्रकारके] संयोगको मध्यम कहा गया है ॥ १७-१८ ॥
विविध विचारोंसे युक्त चित्तवाले तथा प्रसंगवश एकत्रित नौकामें बैठे हुए लोगोंके मिलनेको विद्वानोंने स्वाभाविक संयोग कहा है। बहुत कम समयके लिये सुख प्रदान करनेके कारण विद्वानोंके द्वारा इसे कनिष्ठ संयोग कहा गया है॥ १९३ ॥
अत्युत्तम संयोग संसारमें सदा सुखदायक होता है। हे कान्ते ! समान अवस्थावाले स्त्री-पुरुषका जो संयोग है, वही अत्युत्तम कहा गया है। अत्युत्तम सुख प्रदान करनेके कारण ही उसे उस प्रकारका संयोग कहा गया है। चातुर्य, रूप, वेष, कुल, शील, गुण आदिमें समानता रहनेपर परस्पर सुखकी अभृिवद्धि कही जाती है॥ २०-२२३ ॥
यदि तुम मुझ वीरके साथ संयोग करोगी तो तुम्हें अत्युत्तम सुखकी प्राप्ति होगी; इसमें सन्देह नहीं है। हे प्रिये! मैं अपनी रुचिके अनुसार अनेक प्रकारके रूप धारण कर लेता हूँ। मैंने इन्द्र आदि सभी देवताओंको संग्राममें जीत लिया है। मेरे भवनमें इस समय जो भी दिव्य रत्न हैं, उन सबका तुम उपभोग करो; अथवा इच्छानुसार उसका दान करो। अब तुम मेरी पटरानी बन जाओ। हे सुन्दरि ! मैं तुम्हारा दास हूँ ॥ २३-२६ ॥
तुम्हारे कहनेसे मैं देवताओंसे वैर करना भी छोड़ दूंगा; इसमें सन्देह नहीं है। तुम्हें जैसे भी सुख मिलेगा, मैं वही करूँगा। हे विशालनयने ! अब तुम मुझे आज्ञा दो और मैं उसका पालन करूँ। हे मधुरभाषिणि! मेरा मन तुम्हारे रूपपर मोहित हो गया है ॥ २७-२८ ॥
हे सुन्दरि ! मैं [तुम्हें पानेके लिये] व्याकुल हूँ, इसलिये इस समय तुम्हारी शरणमें आया हूँ। हे रम्भोरु ! कामबाणसे आहत मुझ शरणागतकी रक्षा करो। शरणमें आये हुएकी रक्षा करना सभी धर्मोंमें उत्तम धर्म है। श्याम नेत्रोंवाली हे कृशोदरि ! मैं तुम्हारा सेवक हूँ। मैं मरणपर्यन्त सत्य वचनका पालन करूँगा, इसके विपरीत नहीं करूँगा। हे तन्वंगि ! नानाविध आयुधोंको त्यागकर मैं तुम्हारे चरणोंमें | अवनत हूँ ॥ २९-३१ ॥
हे विशालाक्षि ! मैं कामदेवके बाणोंद्वारा सन्तप्त हो रहा हूँ, अतः तुम मेरे ऊपर दया करो। हे सुन्दरि ! जन्मसे लेकर आजतक मैंने ब्रह्मा आदि देवताओंके समक्ष भी दीनता नहीं प्रदर्शित की, किंतु तुम्हारे समक्ष आज उसे प्रकट कर रहा हूँ। ब्रह्मा आदि देवता समरांगणमें मेरे चरित्रको जानते हैं। हे भामिनि ! वही मैं आज तुम्हारी दासता स्वीकार करता हूँ, मेरी ओर देखो ॥ ३२-३३३ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहते हुए उस दैत्य महिषासुरसे हँसकर अनुपम सौन्दर्यमयी भगवती मुसकानके साथ यह वचन कहने लगीं ॥ ३४३ ॥
देवी बोलीं- मैं परमपुरुषके अतिरिक्त अन्य किसी पुरुषको नहीं चाहती। हे दैत्य ! मैं उनकी इच्छाशक्ति हूँ, मैं ही सारे संसारकी सृष्टि करती हूँ। वे विश्वात्मा मुझे देख रहे हैं; मैं उनकी कल्याणमयी प्रकृति हूँ। निरन्तर उनके सांनिध्यके कारण ही मुझमें शाश्वत चेतना है। वैसे तो मैं जड़ हूँ, किंतु उन्हींके संयोगसे मैं चेतनायुक्त हो जाती हूँ जैसे चुम्बकके संयोगसे साधारण लोहेमें भी चेतना उत्पन्न हो जाती है॥ ३५-३७३ ॥
मेरे मनमें कभी भी विषयभोगकी इच्छा नहीं होती। हे मन्दबुद्धि ! तुम मूर्ख हो जो कि स्त्रीसंग करना चाहते हो; पुरुषको बाँधनेके लिये स्त्री जंजीर कही गयी है। लोहेसे बँधा हुआ मनुष्य बन्धनमुक्त हो भी सकता है, किंतु स्त्रीके बन्धनमें बँधा हुआ प्राणी कभी नहीं छूटता।
हे मूर्ख ! मूत्रागार (गुह्य अंग) का सेवन क्यों करना चाहते हो ? सुखके लिये मनमें शान्ति धारण करो। शान्तिसे ही तुम सुख प्राप्त कर सकोगे। स्त्रीसंगसे बहुत दुःख मिलता है-इस बातको जानते हुए भी तुम अज्ञानी क्यों बनते हो ? ॥ ३८-४१ ॥
तुम देवताओंके साथ वैरभाव छोड़ दो और पृथ्वीपर इच्छानुसार विचरण करो। यदि जीवित रहनेकी तुम्हारी अभिलाषा हो तो पाताललोक चले जाओ अथवा मेरे साथ युद्ध करो। इस समय मुझमें पूर्ण शक्ति विद्यमान है। हे दानव ! सभी देवताओंने तुम्हारा नाश करनेके लिये मुझे यहाँ भेजा है ॥ ४२-४३ ॥
मैं तुमसे यह सत्य कह रही हूँ, तुमने वाणीद्वारा सौहार्दपूर्ण भांव प्रदर्शित किया है, अतः मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ। अब तुम जीवित रहते ही सुखपूर्वक यहाँसे चले जाओ। केवल सात पग साथ चलनेपर ही सज्जनोंमें मैत्री हो जाती है, इसी कारण मैं तुम्हें जीवित छोड़ दे रही हूँ। हे वीर! यदि मरनेकी ही इच्छा हो तो तुम मेरे साथ आनन्दसे युद्ध कर सकते हो। हे महाबाहो ! मैं तुम्हें युद्धमें मार डालूँगी; इसमें संशय नहीं है ॥ ४४-४५३ ॥
व्यासजी बोले – भगवतीका यह वचन सुनकर कामसे मोहित दानव [पुनः] मधुर वाणीमें मीठी बातें करने लगा-हे सुन्दरि ! हे सुमुखि ! कोमल, सुन्दर अंगोंवाली तथा पुरुषोंको मोह लेनेवाली तुझ युवतीके ऊपर प्रहार करनेमें मुझे भय लगता है। हे कमललोचने ! विष्णु, शिव आदि बड़े-बड़े देवताओं और सब लोकपालोंपर विजय प्राप्त करके क्या अब तुम्हारे साथ मेरा युद्ध करना उचित होगा ? ॥ ४६-४८ ३ ॥
हे सुन्दर अंगोंवाली ! यदि तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ विवाह कर लो और मेरा सेवन करो; अन्यथा तुम जहाँसे आयी हो, उसी देशमें इच्छानुसार चली जाओ। मैं तुम्हारे साथ मित्रता कर चुका हूँ, इसलिये तुमपर प्रहार नहीं करूँगा। यह मैंने तुम्हारे लिये हितकर तथा कल्याणकारी बात बतायी है; इसलिये तुम सुखपूर्वक यहाँसे चली जाओ। सुन्दर नेत्रोंवाली तुझ रमणीका वध करनेसे मेरी कौन-सी गरिमा बढ़ जायगी ? स्त्रीहत्या, बालहत्या और ब्रह्महत्याका पाप बहुत ही जघन्य होता है ॥ ४९-५१३ ॥
हे वरानने ! वैसे तो मैं तुम्हें बलपूर्वक पकड़कर अपने घर निश्चितरूपसे ले जा सकता हूँ, किंतु बलप्रयोगसे मुझे सच्चा सुख नहीं मिलेगा, उसमें भोगसुख कैसे प्राप्त हो सकता है? अतएव हे सुकेशि ! मैं बहुत विनीतभावसे तुमसे कह रहा हूँ कि जैसे पुरुषको अपनी प्रियाके मुखकमलके बिना सुख नहीं मिलता, उसी प्रकार स्त्रियोंको भी पुरुषके | बिना सुख नहीं मिलता ॥ ५२-५४॥
संयोगमें सुख उत्पन्न होता है और वियोगमें दुःख। तुम सुन्दर, रूपवती और सभी आभूषणोंसे अलंकृत हो। [यह सब होते हुये भी] तुझमें चतुरता क्यों नहीं है, जिससे तुम मुझे स्वीकार नहीं कर रही हो ? इस तरह भोगोंको छोड़ देनेका परामर्श तुम्हें किसने दिया है? हे मधुरभाषिणि! [ऐसा करके] किसी शत्रुने तुम्हें धोखा दिया है॥ ५५-५६३ ॥
हे कान्ते ! अब तुम यह आग्रह छोड़ दो और अत्यन्त सुन्दर कार्य करनेमें तत्पर हो जाओ। विवाह सम्पन्न हो जानेपर तुम्हें और मुझे दोनोंको सुख प्राप्त होगा। विष्णु लक्ष्मीके साथ, ब्रह्मा सावित्रीके साथ, शंकर पार्वतीके साथ तथा इन्द्र शचीके साथ रहकर ही सुशोभित होते हैं। पतिके बिना कौन स्त्री चिरस्थायी सुख प्राप्त कर सकती है? हे सुन्दरि ! [कौन-सा ऐसा कारण है] जिससे तुम मुझ जैसे उत्तम पुरुषको अपना पति नहीं बना रही हो ? ॥ ५७-५९३ ॥
हे कान्ते ! न जाने मन्दबुद्धि कामदेव इस समय कहाँ चला गया जो अपने अत्यन्त कोमल तथा मादक पंचबाणोंसे तुम्हें आहत नहीं कर रहा है। हे सुन्दरि ! मुझे तो लगता है कि कामदेव भी तुम्हारे ऊपर दयालु हो गया है और तुम्हें अबला समझते हुए वह अपने बाण नहीं छोड़ रहा है। हे तिरछी चितवनवाली सुन्दरि !
सम्भव है उस कामदेवको भी मेरे साथ कुछ शत्रुता हो, इसीलिये वह तुम्हारे ऊपर बाण न चलाता हो। अथवा यह भी हो सकता है कि मेरे सुखका नाश करनेवाले मेरे शत्रु देवताओंने उस कामदेवको मना कर दिया हो, इसीलिये वह तुम्हारे ऊपर [ अपने बाणोंसे] प्रहार नहीं कर रहा है ॥ ६०-६३३ ॥
हे मृगशावकके समान नेत्रोंवाली ! मुझे त्यागकर तुम मन्दोदरीकी भाँति पश्चात्ताप करोगी, हे तन्वंगि ! पतिरूपमें प्राप्त सुन्दर तथा अनुकूल राजाका त्याग करके बादमें वह मन्दोदरी जब कामार्त तथा मोहसे व्याकुल अन्तःकरणवाली हो गयी, तब उसने एक • धूर्तको अपना पति बना लिया था ॥ ६४-६५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषद्वारा देवीप्रबोधनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥