Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 10(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःदशमोऽध्यायःदेवीद्वारा महिषासुरके अमात्यको अपना उद्देश्य बताना तथा अमात्यका वापस लौटकर देवीद्वारा कही गयी बातें महिषासुरको बताना)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 10(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःदशमोऽध्यायःदेवीद्वारा महिषासुरके अमात्यको अपना उद्देश्य बताना तथा अमात्यका वापस लौटकर देवीद्वारा कही गयी बातें महिषासुरको बताना)

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[अथ दशमोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- हे महाराज ! उसकी यह बात सुनकर नारीश्रेष्ठ भगवती जोरसे हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें उससे कहने लगीं ॥ १ ॥
देवी बोलीं- हे मन्त्रिवर ! मुझे देवमाताके रूपमें जानो। मैं सभी दैत्योंका नाश करनेवाली तथा महालक्ष्मी नामसे विख्यात हूँ ॥ २ ॥
दानवेन्द्र महिषासुरसे पीड़ित और यज्ञभागसे बहिष्कृत सभी देवताओंने उसके संहारके लिये मुझसे प्रार्थना की है। हे मन्त्रिश्रेष्ठ ! इसलिये उसके वधके लिये पूर्णरूपसे तत्पर होकर मैं बिना किसी सेनाके अकेली ही आज यहाँ आयी हूँ ॥ ३-४॥
हे अनघ ! तुमने जो शान्तिपूर्वक आदरके साथ मेरा स्वागत करके मधुर वाणीमें मुझसे बात की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; अन्यथा अपनी कालाग्निके समान दृष्टिसे तुम्हें भस्म कर देती। मधुरतासे युक्त वचन भला किसके लिये प्रीतिकारक नहीं होता ! ॥ ५-६ ॥
अब तुम जाओ और मेरे शब्दोंमें उस पापी महिषासुरसे कह दो- यदि तुम्हें जीवित रहनेकी अभिलाषा हो तो अभी पाताललोकमें चले जाओ, नहीं तो मैं तुझ पापी तथा दुष्टको रणभूमिमें मार डालूँगी। मेरे बाणोंसे छिन्न-भिन्न शरीरवाले होकर तुम यमपुरी चले जाओगे ॥ ७-८ ॥
हे मूर्ख ! इसे मेरी दयालुता समझकर तुम यहाँसे शीघ्र चले जाओ, नहीं तो तुम्हारे मार दिये जानेपर देवतागण निश्चय ही तत्काल स्वर्गका राज्य पा जायँगे।
इसलिये हे दुष्ट ! जबतक मेरे बाण तुझपर नहीं गिरते, उसके पूर्व ही तुम शीघ्रतापूर्वक समुद्रसहित पृथ्वीका त्याग करके पाताललोक चले जाओ ॥ ९-१० ॥
हे असुर ! यदि तुम्हारे मनमें युद्धकी इच्छा हो तो अपने सभी महाबली वीरोंको साथ लेकर शीघ्र आ जाओ। मैं सबको यमपुरी पहुँचा दूँगी ॥ ११ ॥
हे महामूढ ! मैंने युग-युगमें तुम्हारे-जैसे असंख्य दैत्योंका संहार किया है, उसी प्रकार मैं तुम्हें भी रणमें मार डालूँगी। [मेरा सामना करके] तुम मेरे शस्त्र धारण करनेके परिश्रमको सफल करो, नहीं तो यह श्रम व्यर्थ हो जायगा। कामपीड़ित तुम रणभूमिमें मेरे साथ युद्ध करो ॥ १२-१३॥
हे दुरात्मन् ! तुम इस बातपर अभिमान मत करो कि मुझे ब्रह्माका वर प्राप्त हो गया है। हे मूढ़ ! केवल स्त्रीके द्वारा वध्य होनेके कारण तुमने श्रेष्ठ देवताओंको बहुत पीड़ित किया है ॥ १४ ॥
अतः ब्रह्माजीका वचन सत्य करना है, इसीलिये स्त्रीका अनुपम रूप धारण करके मैं तुझ पापीका संहार करनेके लिये यहाँ आयी हूँ। हे मूढ ! यदि जीवित रहनेकी तुम्हारी इच्छा हो तो इसी समय देवलोक छोड़कर तुम सर्पोंसे भरे पाताललोकको अथवा जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहाँ चले जाओ ॥ १५-१६ ॥
व्यासजी बोले- देवीने उससे ऐसा कहा, तब उनकी बात सुनकर वह पराक्रमशाली मन्त्रिश्रेष्ठ उनसे सारगर्भित वचन कहने लगा- ॥ १७ ॥
हे देवि ! आप अभिमानमें चूर होकर एक साधारण स्त्रीके समान बात कर रही हैं। कहाँ वे महिषासुर और कहाँ आप, यह युद्ध तो असम्भव ही दीखता है ॥ १८ ॥
आप यहाँ अकेली हैं और उसपर भी सद्यः युवावस्थाको प्राप्त सुकुमार बाला हैं। [इसके विपरीत] वे महिषासुर विशाल शरीरवाले हैं; ऐसी स्थितिमें उनकी और आपकी तुलना कल्पनातीत है ॥ १९ ॥
उनके पास हाथी-घोड़े और रथसे परिपूर्ण, पैदल सैनिकोंसे सम्पन्न तथा अनेक प्रकारके आयुधोंसे | सज्जित अनेक प्रकारकी सेना है ॥ २० ॥

 

मालतीके पुष्पोंको कुचल डालनेमें गजराजको भला कौन-सा परिश्रम करना पड़ता है। हे सुजघने ! उसी प्रकार युद्धमें आपको मारनेमें महिषासुरको कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा ॥ २१ ॥
यदि मैं आपको थोड़ा भी कठोर वचन कह दूँ तो वह श्रृंगाररसके विरुद्ध होगा; और मैं रसभंगसे डरता हूँ ॥ २२ ॥
हमारे राजा महिषासुर देवताओंके शत्रु हैं, किंतु वे आपके प्रति अनुरागयुक्त हैं। [मेरे राजाने कहा है कि] मैं आपसे साम तथा दाननीतियोंसे पूर्ण वचन ही बोलूँ, अन्यथा मैं झूठ बोलनेवाली, मिथ्या अभिमानमें भरकर चतुरता दिखानेवाली और रूप तथा यौवनके अभिमानमें चूर रहनेवाली आपको इसी समय अपने बाणसे मार डालता ॥ २३-२४ ॥
आपके अलौकिक रूपके विषयमें सुनकर मेरे स्वामी मोहित हो गये हैं। उनकी प्रसन्नताके लिये ही मुझे प्रिय वचन बोलना पड़ रहा है ॥ २५ ॥
उनका सम्पूर्ण राज्य तथा धन आपका है; क्योंकि वे महाराज महिषासुर निश्चय ही आपके दास हो चुके हैं। अतः हे विशालनयने ! इस मृत्युदायक रोषका त्याग करके उनके प्रति प्रेमभाव प्रदर्शित कीजिये ॥ २६ ॥
हे भामिनि ! मैं भक्तिभावसे आपके चरणोंपर गिर रहा हूँ। हे पवित्र मुसकानवाली! आप शीघ्र ही महाराज महिषकी पटरानी बन जाइये ॥ २७ ॥
महिषासुरको स्वीकार कर लेनेसे आपको तीनों लोकोंका सम्पूर्ण उत्तम वैभव तथा समस्त सांसारिक सुख प्राप्त हो जायगा ॥ २८ ॥
देवी बोलीं- हे सचिव ! सुनो, मैं बुद्धिचातुर्यसे सम्यक् विचार करके तथा शास्त्रप्रतिपादित मार्गसे निर्णय करके सारभूत बातें बताऊँगी ॥ २९ ॥
तुम्हारी बातोंसे मैंने अपनी बुद्धिद्वारा जान लिया कि तुम महिषासुरके प्रधानमन्त्री हो और तुम भी [उसीकी तरह] पशुबुद्धिस्वभाववाले हो ॥ ३० ॥
जिस राजाके तुम्हारे-जैसे मन्त्री हों, वह बुद्धिमान् कैसे हो सकता है ? ब्रह्माने निश्चय ही तुम दोनोंका यह समान योग रचा है ॥ ३१ ॥

 

हे मूर्ख ! तुमने जो यह कहा कि ‘तुम स्त्रीस्वभाववाली हो’, तो अब तुम इस बातपर जरा विचार करो कि क्या मैं पुरुष नहीं हूँ? वस्तुतः उसीके स्वभाववाली मैं इस समय स्त्रीवेषधारिणी हो गयी हूँ ॥ ३२ ॥
तुम्हारे स्वामी महिषासुरने पूर्वकालमें जो स्त्रीसे मारे जानेका वरदान माँगा था, उसीसे मैं समझती हूँ कि वह महामूर्ख है। वह वीररसका थोड़ा भी जानकार नहीं है ॥ ३३ ॥
स्त्रीके द्वारा मारा जाना पराक्रमहीनके लिये भले ही सुखकर हो, किंतु वीरके लिये यह कष्टप्रद होता है। महिषकी अपनी जो बुद्धि हो सकती है, उसीके अनुसार तुम्हारे स्वामीने ऐसा वरदान माँगा।
इसीलिये मैं स्त्री-रूप धारण करके अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये यहाँ आयी हूँ। मैं तुम्हारे धर्मशास्त्र विरोधी वचनोंसे क्यों डरूँ ? ॥ ३४-३५ ॥
जब दैव प्रतिकूल होता है, तब एक तिनका भी वज्र-तुल्य हो जाता है और जब वह दैव अनुकूल होता है, तब वज्र भी तूल (रूई) के समान कोमल हो जाता है ॥ ३६ ॥
जिसकी मृत्यु सन्निकट हो उसके लिये सेना, अस्त्र-शस्त्र तथा किलेकी सुरक्षा, सैन्यबल आदि प्रपंचोंसे क्या लाभ ! ॥ ३७ ॥
जब कालयोगसे देहके साथ जीवका सम्बन्ध स्थापित होता है, उसी समय विधाताके द्वारा सुख, दुःख तथा मृत्यु – सब कुछ निर्धारित कर दिया जाता है। दैवने जिस प्राणीकी मृत्यु जिस प्रकारसे निश्चित कर दी है, उसकी मृत्यु उसी प्रकारसे होगी, इसके विपरीत नहीं; यह पूर्ण सत्य है ॥ ३८-३९ ॥
जिस प्रकारसे ब्रह्मा आदि देवताओंके भी जन्म और मृत्यु सुनिश्चित किये गये रहते हैं, समय आनेपर उसी प्रकारसे उनका भी जन्म-मरण होता है तब अन्य लोगोंके विषयमें विचार ही क्या! उन ब्रह्मा आदि मरणधर्माके वरदानसे गर्वित होकर जो लोग यह समझते हैं कि ‘हम नहीं मरेंगे’ वे मूर्ख तथा | अल्पबुद्धिवाले हैं ॥ ४०-४१ ॥

 

अतएव अब तुम शीघ्र जाओ और अपने राजासे मेरी बात कह दो। इसके बाद तुम्हारे राजा जैसी आज्ञा दें, तुम वैसा करो। इन्द्रको स्वर्ग प्राप्त हो जाय और देवताओंको यज्ञका भाग मिलने लगे। तुमलोग यदि जीवित रहना चाहते हो, तो पाताललोक चले जाओ और हे मूर्ख ! यदि दुष्टात्मा महिषासुरका विचार विपरीत हो, तो वह मरनेके लिये तैयार होकर मेरे साथ युद्ध करे ॥ ४२-४४ ॥
यदि तुम यह मानते हो कि विष्णु आदि प्रधान देवता तो युद्धमें पहले ही परास्त किये जा चुके हैं, तो उस समय उसका कारण था- विपरीत भाग्य तथा ब्रह्माजीका वरदान ॥ ४५ ॥
व्यासजी बोले- देवीका यह वचन सुनकर वह दानव सोचने लगा-अब मुझे क्या करना चाहिये ? मैं इसके साथ युद्ध करूँ या राजा महिषके पास लौट चलूँ ॥ ४६ ॥
[किंतु यह भी है कि] कामातुर महाराज महिषने विवाहके लिये [उसे राजी करनेकी] मुझे आज्ञा दी है तो फिर रसभंग करके मैं राजाके पास लौटकर कैसे जाऊँ ? ॥ ४७ ॥
अन्तमें अब मुझे यही विचार उचित प्रतीत होता है कि बिना युद्ध किये ही राजाके पास शीघ्र चला जाऊँ और जैसा सामने उपस्थित है, वैसा उनको बता दूँ। उसके बाद बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजा महिष अपने चतुर मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श करके जो उचित समझेंगे, उसे करेंगे ॥ ४८-४९ ॥
मुझे अचानक इस स्त्रीके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि जय अथवा पराजय-इन दोनोंमें राजाका अप्रिय हो सकता है ॥ ५० ॥
यदि यह सुन्दरी मुझे मार डाले अथवा मैं ही जिस किसी उपायसे इसको मार डालूँ, तब भी राजा महिष निश्चितरूपसे कुपित होंगे। अतः अब मैं वहींपर चलकर इस सुन्दरीके द्वारा आज जो कुछ कहा गया है, वह सब राजा महिषको बता दूँगा। तत्पश्चात् उनकी जैसी रुचि होगी, वैसा | वे करेंगे ॥ ५१-५२ ॥

 

व्यासजी बोले- ऐसा विचार करके वह बुद्धिमान् मन्त्री राजा (महिष) के पास गया और उसे प्रणामकर दोनों हाथ जोड़कर कहने लगा- ॥ ५३॥
मन्त्री बोला- हे राजन् ! सुन्दर रूपवाली वह देवी सिंहपर आरूढ है, उस मनोहर देवीकी अठारह भुजाएँ हैं और उस श्रेष्ठ देवीने उत्तम कोटिके आयुध धारण कर रखे हैं ॥ ५४ ॥
हे महाराज ! मैंने उससे कहा- हे भामिनि ! तुम राजा महिषसे प्रेम कर लो और तीनों लोकोंके स्वामी उन महाराजकी प्रिय पटरानी बन जाओ।
केवल तुम्हीं उनकी पटरानी बननेयोग्य हो; इसमें कोई संशय नहीं है। वे तुम्हारे आज्ञाकारी बनकर सदा तुम्हारे अधीन रहेंगे।
हे सुमुखि ! महाराज महिषको पतिरूपमें प्राप्त करके तुम चिरकालतक तीनों लोकोंके ऐश्वर्यका उपभोगकर समस्त स्त्रियोंमें सौभाग्यवती बन जाओ ॥ ५५-५७ ॥
मेरा यह वचन सुनकर विशाल नयनोंवाली वह सुन्दरी गर्वके आवेगसे विमोहित होकर मुसकराती हुई मुझसे यह बात बोली- मैं देवताओंका हित करनेके विचारसे महिषीके गर्भसे उत्पन्न उस अधम पशु (महिष) को देवीके लिये बलि चढ़ा दूँगी ॥ ५८-५९ ॥
हे मन्दबुद्धे ! इस संसारमें भला कौन मूर्ख स्त्री महिषको पतिरूपमें स्वीकार कर सकती है? क्या मुझ जैसी स्त्री पशुस्वभाववाले उस महिषासुरसे प्रेम कर सकती है ? ॥ ६० ॥
हे मूर्ख ! सींगवाली तथा जोर-जोरसे चिल्लानेवाली कोई महिषी ही उस श्रृंगधारी महिषको अपना पति बना सकती है; किंतु मैं वैसी मूर्ख नहीं हूँ।
[देवीने पुनः कहलाया है] मैं तो देवताओंके शत्रु तुझ महिषासुरके साथ रणक्षेत्रमें युद्ध करूँगी और तुम्हें मार डालूँगी। हे दुष्ट ! यदि जीवित रहनेकी तुम्हारी इच्छा है, तो अभी पाताललोक चले जाओ ॥ ६१-६२ ॥
हे राजन् ! उस मदमत्त स्त्रीने ऐसी बहुत कठोर बात मुझसे कही। उसे सुनकर बार-बार विचार | करनेके बाद मैं यहाँ लौट आया हूँ ॥ ६३ ॥

 

आपका रसभंग न हो- यह सोचकर मैंने उसके साथ युद्ध नहीं किया और फिर आपकी आज्ञाके बिना मैं व्यर्थ ही युद्ध कैसे कर सकता था ? ॥ ६४ ॥
हे राजन् ! वह स्त्री सदा अपने बलसे अत्यन्त उन्मत्त रहती है। होनीके विषयमें मैं नहीं जानता; आगे न जाने क्या होगा! इस विषयमें आप ही प्रमाण हैं। इसमें परामर्श देना मेरे लिये अत्यन्त कठिन है।
इस समय हमारे लिये युद्ध करना अथवा पलायन कर जाना- इन दोनोंमें कौन श्रेयस्कर होगा, इसका निर्णय मैं नहीं कर पा रहा हूँ ॥ ६५-६६ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे मन्त्रीद्वारा महिषासुरेण देव्या सह विवाहप्रस्तावो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

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