Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 8(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःअथाष्टमोऽध्यायःव्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको प्रह्लादकी कथा सुनाना और इस प्रसंगमें च्यवनऋषिके पाताललोक जानेका वर्णन)

Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 8(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःअथाष्टमोऽध्यायःव्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको प्रह्लादकी कथा सुनाना और इस प्रसंगमें च्यवनऋषिके पाताललोक जानेका वर्णन)

[अथाष्टमोऽध्यायः]

Table of Contents

 

:-सूतजी बोले- परीक्षित्-पुत्र राजा जनमेजयके यह पूछनेपर सत्यवतीसुत विप्र व्यासजीने विस्तारपूर्वक सारा वृत्तान्त बताया ॥ १ ॥

 

धर्मपरायण राजा जनमेजय भी उत्तरापुत्र अपने पिता परीक्षित्की कुत्सित चेष्टाको सोच-सोचकर अत्यन्त दुःखी हो गये थे ॥ २ ॥

 

विप्रको अपमानित करनेके परिणामस्वरूप पापके कारण यमलोकको प्राप्त अपने उन पिताके उद्धारके लिये वे निरन्तर अपने मनमें अनेक प्रकारके उपाय सोचा करते थे ॥ ३ ॥

 

हे मुनीश्वरो ! जब पुत्र अपने पिताकी ‘पुम्’ नामक नरकसे रक्षा कर देता है, तभी उसका ‘पुत्र’ नाम सार्थक होता है ॥ ४॥

 

जब उन्हें यह विदित हुआ कि एक महलकी ऊपरी मंजिलमें स्नान-दान किये बिना ही विप्रके शापवश सर्प-दंशसे महाराज परीक्षित्की मृत्यु हुई थी, तब अपने पिताकी दुर्गति सुनकर वे राजा जनमेजय अत्यन्त दुःखित हुए और शोकसे सन्तप्त तथा भयसे व्याकुल हो उठे ॥ ५-६ ॥

 

इसके अनन्तर निष्पाप राजा जनमेजयने अपने घरपर स्वतः आये हुए महामुनि व्याससे नर-नारायणकी अति विस्तृत इस कथाके विषयमें पूछा ॥ ७ ॥

 

व्यासजी बोले- हे राजन् ! जब नृसिंहभगवान्के द्वारा उस भयानक हिरण्यकशिपुका वध हो गया, तब प्रह्लाद नामक उसके पुत्रका राज्याभिषेक किया गया ॥ ८ ॥

 

देवताओं तथा ब्राह्मणोंका पूजन-सम्मान करनेवाले उस दैत्यराज प्रह्लादके शासनकालमें पृथ्वी- लोकके सभी राजागण श्रद्धापूर्वक यज्ञादिका अनुष्ठान करने लगे ॥ ९ ॥

 

ब्राह्मणलोग तपश्चरण, धर्मानुष्ठान तथा तीर्थाटनमें तत्पर हो गये; वैश्यसमुदाय अपने-अपने व्यावसायिक | कार्योंमें लग गये तथा शूद्रगण सेवापरायण हो गये ॥ १० ॥

 

नृसिंहभगवान्ने उस दैत्यराज प्रह्मदको पाताललोकके राजसिंहासनपर स्थापित कर दिया था और वे वहींपर प्रजापालनमें तत्पर होकर राज्य करने लगे ॥ ११ ॥

 

एक बार भृगुके पुत्र महातपस्वी च्यवन नर्मदामें स्नान करनेके लिये व्याहृतीश्वर नामक तीर्थमें पहुँचे ॥ १२ ॥

 

वहाँपर रेवा नामक महानदीको देखकर वे उसमें उतरने लगे। इसी बीच एक भयंकर विषधर सर्पने उतरते हुए मुनिको पकड़ लिया ॥ १३॥

तदनन्तर उन महामुनि च्यवनको वह नागराज खींचकर पाताललोकमें ले गया। तब उन भयाक्रान्त मुनिने मन-ही-मन देवाधिदेव जनार्दन विष्णुका स्मरण किया ॥ १४॥

 

मुनि च्यवनके द्वारा हृदयसे कमलनयन भगवान् विष्णुका स्मरण किये जानेपर वह भयंकर सर्प विषहीन हो गया। अतएव रसातलमें ले जाये गये उन मुनिको कष्ट नहीं हुआ ॥ १५ ॥

तत्पश्चात् अत्यन्त दुःखी तथा सशंकित उस सर्पने यह सोचकर उन्हें छोड़ दिया कि ये महातपस्वी मुनि क्रोधित होकर कहीं मुझे शाप न दे दें ॥ १६ ॥

 

वहाँकी नागकन्याओंद्वारा पूजित होते हुए मुनिश्रेष्ठ च्यवन पाताललोकमें विचरण करने लगे। वे नागों तथा दानवोंके विशाल पुरमें भी आने-जाने लगे ॥ १७ ॥

 

एक बार उन धर्मानुरागी दैत्यराज प्रह्लादने अपनी श्रेष्ठ पुरीमें विचरण करते हुए उन भृगुपुत्र मुनि च्यवनको देखा ॥ १८ ॥

 

मुनिको देखकर दैत्यराज प्रह्लादने उनकी पूजा की और उनसे पूछा कि पाताललोकमें आपके आगमनका क्या कारण है, आप मुझे बताइये ? ॥ १९ ॥

 

हे द्विजश्रेष्ठ ! क्या दैत्योंके प्रति द्वेष-भाव रखनेवाले इन्द्रने मेरे राज्यके विषयमें जानकारीके लिये आपको यहाँ भेजा है? आप मुझे सच-सच बताइये ॥ २० ॥

 

च्यवन बोले- हे राजन् ! इन्द्रसे मेरा क्या प्रयोजन है, जो कि वे मुझे यहाँ भेजें और मैं उनके दूतका कार्य करता हुआ आपके नगरमें घूमता | फिरूँ ? ॥ २१ ॥

 

हे दैत्यराज ! आप मुझे महर्षि भृगुका धर्मनिष्ठ तथा ज्ञाननेत्रसम्पन्न पुत्र च्यवन जानिये। आप मेरे प्रति इन्द्रके द्वारा भेजे गये किसी दूतकी शंका मत करें ॥ २२ ॥

 

हे नृपश्रेष्ठ ! मैं नर्मदानदीमें स्नान करनेके लिये पुण्यतीर्थमें गया था। मैं नदीमें उतरा ही था कि एक विशाल सर्पने मुझे पकड़ लिया ॥ २३ ॥

 

मेरे द्वारा भगवान् विष्णुका स्मरण करनेसे वह सर्प विषहीन हो गया और विष्णुस्मरणके प्रभावसे मैं उस नागसे मुक्त हो गया ॥ २४॥

 

हे राजेन्द्र ! यहाँ आनेसे मुझे आपका दर्शन प्राप्त हो गया। हे दैत्यराज ! आप भगवान् विष्णुके भक्त हैं और मुझे भी उनका भक्त ही समझिये ॥ २५ ॥

 

व्यासजी बोले – महर्षि च्यवनका मधुर वचन सुनकर हिरण्यकशिपुपुत्र प्रह्लाद अत्यन्त प्रेमपूर्वक नानाविध तीर्थोंके विषयमें उनसे पूछने लगे ॥ २६ ॥

 

प्रह्लाद बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! पृथ्वी, पाताल तथा आकाशमें कौन-कौनसे पवित्र तीर्थ हैं ? उनके सम्बन्धमें विस्तारपूर्वक मुझे बताइये ॥ २७ ॥

 

च्यवन बोले- हे राजन् ! मन, वचन तथा कर्मसे शुद्ध प्राणियोंके लिये तो पद-पदपर तीर्थ हैं, किंतु दूषित मनवाले प्राणियोंके लिये गंगा भी मगधसे अधिक अपवित्र हो जाती हैं ॥ २८ ॥

 

यदि मनुष्यका मन शुद्ध तथा पापरहित हो गया तो उसके लिये सभी तीर्थ पवित्र हो जाते हैं। गंगाके तटपर तो सर्वत्र नानाविध नगर, गोष्ठ (गायोंका बाड़ा), बाजार, गाँव तथा अनेक कस्बे वहाँ बसे हैं।

 

हे दैत्यराज ! निषादों, धीवरों, हूणों, बंगों, खसों तथा म्लेच्छ जातियोंका निवास भी वहाँ रहता है। हे दैत्येन्द्र ! वे सदैव ब्रह्मसदृश गंगाजलका पान करते हैं और अपनी इच्छासे त्रिकाल गंगा स्नान भी करते हैं।

 

किंतु हे धर्मात्मन् ! उनमेंसे कोई एक भी शुद्ध अन्तःकरणवाला नहीं हो पाता। तब नानाविध वासनाओंसे प्रदूषित चित्तवाले लोगोंके लिये तीर्थका क्या फल हो | सकता है ? ॥ २९-३३॥

 

हे राजन् ! आप यह निश्चित समझिये कि मन ही इसमें प्रमुख कारण है; इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं। अतः शुद्धिकी इच्छा रखनेवाले प्राणीको निरन्तर अपने मनको शुद्ध बनाये रखना चाहिये ॥ ३४ ॥

 

तीर्थमें निवास करनेवाला प्राणी भी आत्मवंचनाके कारण महापापी हो जाता है। वहाँ किया गया पाप अनन्तगुना हो जाता है ॥ ३५ ॥

 

जिस प्रकार इन्द्रवारुणका फल पक जानेपर भी मीठा नहीं होता, उसी प्रकार दूषित भावनाओंवाला मनुष्य तीर्थमें करोड़ों बार स्नान करके भी पवित्र नहीं हो पाता ॥ ३६ ॥

 

अतः कल्याणकी कामना करनेवाले पुरुषको सर्वप्रथम अपने मनको शुद्ध कर लेना चाहिये। मनके शुद्ध हो जानेपर द्रव्यशुद्धि स्वतः हो जाती है; इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है ॥ ३७ ॥

 

उसी प्रकार आचार-शुद्धि भी आवश्यक है; इसके अनन्तर ही तीर्थयात्राकी पूर्ण सिद्धि होती है। इसके विपरीत उसका किया हुआ सारा कर्म उसी क्षण व्यर्थ हो जाता है ॥ ३८ ॥

 

(तीर्थमें पहुँचकर नीच प्राणीके संसर्गका सर्वदाके लिये त्याग कर देना चाहिये।) कर्म तथा बुद्धिसे प्राणियोंके प्रति सदा दयाभाव रखना चाहिये। फिर भी हे राजेन्द्र ! यदि आप पूछते ही हैं तो मैं आपको प्रमुख तीर्थोंके विषयमें बता रहा हूँ ॥ ३९ ॥

 

प्रथम श्रेणीका तीर्थ पुण्यमय नैमिषारण्य है। इसी प्रकार चक्रतीर्थ, पुष्करतीर्थ तथा अन्य भी अनेक तीर्थ पृथ्वीलोकमें हैं, जिनकी संख्या निश्चित नहीं है। हे नृपश्रेष्ठ ! और भी बहुत-से पवित्र स्थान हैं ॥ ४० ३ ॥

 

व्यासजी बोले- च्यवनऋषिका वचन सुनकर राजा प्रह्लाद नैमिषारण्यतीर्थ जानेको तैयार हो गये। हर्षातिरेकसे परिपूर्ण हृदयवाले प्रह्लादने अन्य दैत्योंको भी चलनेकी आज्ञा दी ॥ ४१३ ॥

प्रह्लाद बोले- हे महाभाग दैत्यगण ! आपलोग उठिये, हम सभी लोग आज नैमिषारण्य चलेंगे। वहाँ हमलोग पीताम्बर धारण करनेवाले कमलनयन भगवान् अच्युत (विष्णु) का दर्शन करेंगे ॥ ४२३ ॥

व्यासजी बोले – विष्णुभक्त प्रह्लादके ऐसा कहनेपर वे समस्त दानव परम प्रसन्नतापूर्वक उनके साथ पाताललोकसे निकल पड़े। उन महाबली दैत्यों तथा दानवोंने एक साथ नैमिषारण्य पहुँचकर आनन्दपूर्वक स्नान किया।
दैत्योंके साथ वहाँके तीर्थोंमें भ्रमण करते हुए प्रह्लादने स्वच्छ जलसे परिपूर्ण तथा महापुण्यदायिनी सरस्वतीनदीका दर्शन किया।
हे नृपश्रेष्ठ ! उस पवित्र तीर्थमें सरस्वतीके जलमें स्नान करनेसे महात्मा प्रह्लादका मन प्रसन्न हो गया। दैत्येन्द्र प्रह्लादने उस शुभ तथा परम पावन तीर्थमें प्रसन्न मनसे स्नान, दान आदि कर्म विधिवत् सम्पन्न किये ॥ ४३-४८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे प्रह्लादतीर्थयात्रावर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

Leave a Comment

error: Content is protected !!

Table of Contents

Index