Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 7(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःसप्तमोऽध्यायःअप्सराओंके प्रस्तावसे नारायणके मनमें ऊहापोह और नरका उन्हें समझाना तथा अहंकारके कारण प्रह्लादके साथ हुए युद्धका स्मरण कराना)
[अथ सप्तमोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- उन देवांगनाओंका वचन सुनकर धर्मपुत्र प्रतापी नारायण अपने मनमें विचार करने लगे कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं इस समय विषयभोगमें लिप्त होता हूँ तो मुनिसमुदायमें उपहासका पात्र बनूँगा।
अहंकारसे ही मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है; इसमें कोई संशय नहीं। धर्मके विनाशका मूल तथा प्रधान कारण अहंकार है। अतः महात्माओंने उसे संसाररूपी वृक्षका मूल कहा है॥ १-२३ ॥
इन वारांगनाओंके समूहको आया हुआ देखकर मैं मौन धारणकर स्थित नहीं रह सका और प्रसन्नतापूर्वक मैंने इनसे वार्तालाप किया, इसीलिये मैं दुःखका भाजन हुआ। अपने धर्मका व्यय करके मैंने उन उर्वशी आदि स्त्रियोंकी व्यर्थ रचना की।
ये कामार्त अप्सराएँ मेरी तपस्यामें विघ्न डालनेमें प्रवृत्त हैं। मकड़ियोंके द्वारा बनाये गये जालकी भाँति अब अपने ही द्वारा उत्पादित सुदृढ़ जालमें मैं बुरी तरह फँस गया हूँ, अब मुझे क्या करना चाहिये ?
यदि चिन्ता छोड़कर इन स्त्रियोंको अस्वीकार कर देता हूँ तो अपना मनोरथ निष्फल हुआ पाकर ये भ्रष्ट स्त्रियाँ मुझे शाप देकर चली जायँगी। तब इनसे छुटकारा पाकर मैं निर्जन स्थानमें कठोर तप करूँगा। अतएव क्रोध उत्पन्न करके मैं इनका | परित्याग कर दूँगा ॥ ३-७३ ॥
व्यासजी बोले- मुनि नारायणने ऐसा निश्चय करके अपने मनमें विचार किया कि सुख-प्राप्तिके समस्त साधनोंमें [अहंकारके बाद] यह क्रोध दूसरा प्रबल शत्रु है, जो अत्यन्त कष्ट प्रदान करता है। यह क्रोध संसारमें काम तथा लोभसे भी अधिक भयंकर है।
क्रोधके वशीभूत प्राणी प्राणघातक हिंसातक कर डालता है, जो (हिंसा) सभी प्राणियोंके लिये दुःखदायिनी तथा नरकरूपी बगीचेकी बावलीके तुल्य है। जिस प्रकार वृक्षोंके परस्पर घर्षणसे उत्पन्न अग्नि वृक्षको ही जला डालती है, उसी प्रकार शरीरसे उत्पन्न भीषण क्रोध उसी शरीरको जला डालता है ॥ ८-११३ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार खिन्नमनस्क होकर चिन्तन करते हुए अपने भाई नारायणसे उनके लघु भ्राता धर्मपुत्र नरने यह तथ्यपूर्ण वचन कहा ॥ १२३ ॥
नर बोले- हे नारायण ! हे महाभाग ! हे महामते ! आप क्रोधका त्याग कीजिये और शान्तभावका आश्रय लेकर इस प्रबल अहंकारका नाश कीजिये; क्योंकि पूर्व समयमें इसी अहंकारके दोषसे हम दोनोंका तप विनष्ट हो गया था ॥ १३-१४॥
अहंकार तथा क्रोध-इन्हीं दोनों भावोंके कारण हमलोगोंको असुरराज प्रह्लादके साथ एक हजार दिव्य वर्षांतक अत्यन्त अद्भुत युद्ध करना पड़ा था। हे सुरश्रेष्ठ ! उस युद्धमें हम दोनोंको महान् क्लेश मिला था। अतएव हे मुनीश्वर ! आप क्रोधका परित्याग करके शान्त हो जाइये ॥ १५-१६ ॥
(मुनियोंने शान्तिको तपस्याका मूल बतलाया है।)व्यासजी बोले- उनकी यह बात सुनकर धर्मपुत्र नारायण शान्त हो गये ॥ १६३ ॥
जनमेजय बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे मनमें यह सन्देह उत्पन्न हो गया है कि शान्त स्वभाववाले विष्णुभक्त महात्मा प्रह्लादने पूर्वकालमें यह युद्ध क्यों किया और ऋषि नर-नारायणने भी संग्राम क्यों किया ? ॥ १७-१८ ॥
धर्मपुत्र नर-नारायण- ये दोनों ही अत्यन्त शान्त स्वभाववाले तपस्वी थे। ऐसी स्थितिमें दैत्यपुत्र प्रह्लाद | तथा उन दोनों ऋषियोंका सम्पर्क कैसे हुआ ? ॥ १९ ॥
प्रह्लाद भी अत्यन्त धर्मपरायण, ज्ञानसम्पन्न तथा विष्णुभक्त थे, तब महात्मा प्रह्लादने उन ऋषियोंके साथ युद्ध क्यों किया ? ॥ २० ॥
तपस्वी नर-नारायण भी प्रह्लादकी ही भाँति सात्त्विक भावसे सम्पन्न थे। उन दोनों ऋषियों तथा प्रह्लादमें यदि परस्पर वैर उत्पन्न हो गया तो फिर उनकी तपस्या तथा धर्माचरणके पालनमें केवल परिश्रम ही उनके हाथ लगा। उस सत्ययुगमें भी उनके जप तथा घोर तप कहाँ चले गये थे ? ॥ २१-२२ ॥
वैसे वे महात्मा भी क्रोध और अहंकारसे भरे अपने मनको वशमें नहीं कर सके। अहंकाररूपी बीजके अंकुरित हुए बिना क्रोध तथा मात्सर्य उत्पन्न नहीं होते हैं।
यह निश्चित है कि काम-क्रोध आदि अहंकारसे ही उत्पन्न होते हैं। हजार करोड़ वर्षांतक घोर तपस्या करनेके पश्चात् भी यदि अहंकारका अंकुरण हुआ तो फिर सब कुछ निरर्थक हो जाता है। जिस प्रकार सूर्योदय होनेपर अन्धकार नहीं ठहरता, उसी प्रकार अहंकाररूपी अंकुरके समक्ष पुण्य नहीं ठहर पाता है ॥ २३-२५३ ॥
हे महाभाग ! प्रह्लादने भी भगवान् नर-नारायणके साथ संग्राम किया, जिसके कारण पृथ्वीपर उनके द्वारा अर्जित समस्त पुण्य व्यर्थ हो गया ॥ २६३ ॥
शान्त स्वभाववाले नर-नारायण भी अपनी कठिन तपस्या त्यागकर यदि युद्ध करनेमें तत्पर हुए तो फिर उनकी शान्तिवृत्ति तथा पुण्यशीलताका क्या महत्त्व रहा ? ॥ २७३ ॥
हे मुने ! जब सात्त्विक भावोंसे सम्पन्न इस प्रकारके वे दोनों महात्मा भी अहंकारपर विजय प्राप्त करनेमें असमर्थ रहे, तब मेरे-जैसे व्यक्तियोंके लिये अहंकार नष्ट करनेकी बात ही क्या है ?
इस त्रिलोकमें ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो अहंकारसे मुक्त हो, इसी तरह ऐसा कोई भी न तो हुआ है और न होगा, जो अहंकारसे पूर्णतया मुक्त हो ॥ २८-२९३ ॥
काष्ठ तथा लोहेकी जंजीरमें बँधा हुआ व्यक्ति बन्धनमुक्त हो सकता है, किंतु अहंकारसे बँधा व्यक्ति कभी भी नहीं छूट सकता। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् | अहंकारसे व्याप्त है ॥ ३०-३१ ॥
अहंकारी मनुष्य मल-मूत्रसे प्रदूषित इस संसारमें चक्कर काटता रहता है, तो फिर इस मोहाच्छन्न संसारमें ब्रह्मज्ञानकी कल्पना ही कहाँ रह गयी ? ॥ ३२ ॥
हे सुव्रत ! मुझे तो मीमांसकोंका कर्म-सिद्धान्त ही उचित प्रतीत होता है। हे मुने ! जब महान्-से- महान् लोग भी काम, क्रोध आदिसे सदा ग्रस्त रहते हैं, तब हे मुनिश्रेष्ठ ! इस कलियुगमें मुझ जैसे लोगोंकी बात ही क्या ? ॥ ३३३ ॥
व्यासजी बोले- हे भारत (जनमेजय) ! कारणसे कार्य भिन्न कैसे हो सकता है ? कड़ा तथा कुण्डल आकारमें भिन्न होते हुए भी स्वर्णके सदृश होते हैं। चराचरसहित समस्त ब्रह्माण्ड अहंकारसे उत्पन्न हुआ है।
[धागेसे निर्मित होनेके कारण] वस्त्र उसके अधीन कहा गया है, अतएव वस्त्ररूपी कार्य तन्तुरूपी कारणसे पृथक् कैसे रह सकता है ?
जब मायाके तीनों गुणोंद्वारा ही तिनकेसे लेकर पर्वततक स्थावर-जंगमात्मक यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विरचित है, तब सृष्टिके विषयमें खेद किस बातका ?
हे नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी अहंकारसे मोहित होकर इस अत्यन्त अगाध संसारमें भ्रमण करते रहते हैं। वसिष्ठ, नारद आदि परम ज्ञानी मुनिगण भी अहंकारके वशवर्ती होकर इस संसारमें बार-बार आते-जाते रहते हैं। हे नृपश्रेष्ठ !
तीनों लोकोंमें ऐसा कोई भी देहधारी नहीं है जो मायाके इन गुणोंसे मुक्त होकर शान्ति धारण करता हुआ आत्मसुखका अनुभव कर सके। हे नृपश्रेष्ठ ! अहंकारसे उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ तथा मोह किसी भी देहधारी प्राणीको नहीं छोड़ते ॥ ३४-४० ३ ॥
वेद-शास्त्रोंका अध्ययन, पुराणोंका पर्यालोचन, तीर्थभ्रमण, दान, ध्यान तथा देव-पूजन करके भी विषयासक्त प्राणी चोरोंकी भाँति सभी कर्म करता रहता है। काम, मोह और मदसे युक्त होनेके कारण प्राणी आरम्भमें कुछ विचार ही नहीं करता ॥ ४१-४२ ३ ॥
हे कुरुनन्दन ! सत्ययुग, त्रेता तथा द्वापरमें भी धर्मका विरोध किया गया था, तो आज कलियुगमें उसकी बात ही क्या! इसमें तो द्रोह, स्पर्धा, लोभ तथा क्रोध सर्वदा ही विद्यमान हैं।
संसार ऐसे ही स्वभाववाला है; इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये। संसारमें मत्सरहीन साधु पुरुष विरले ही होते हैं। क्रोध तथा ईर्ष्यापर विजय प्राप्त कर लेनेवाले तो दृष्टान्तमात्रके लिये मिलते हैं ॥ ४३-४५३ ॥
राजा बोले- वे लोग धन्य तथा पुण्यात्मा हैं, जिन्होंने मद तथा मोहसे छुटकारा प्राप्त कर लिया है। जो सदाचारपरायण तथा जितेन्द्रिय हैं, उन्होंने मानो तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर ली है।
अपने महात्मा पिताके पापका स्मरण करके मैं दुःखित रहता हूँ। उन्होंने बिना किसी अपराधके एक तपस्वीके गलेमें मरा हुआ सर्प डाल दिया। अतः हे मुनिवर ! अब मेरे आगे उनकी क्या गति होगी ?
बुद्धिके मोहग्रस्त हो जानेपर क्या कार्य हो जायगा, यह मैं नहीं जानता। मूर्ख मनुष्य केवल मधु देखता है, किंतु उसके पास ही विद्यमान [गहरे] प्रपातकी ओर नहीं निहारता। वह निन्दनीय कर्म करता रहता है और नरकसे नहीं डरता ॥ ४६-४९ ३ ॥
[हे मुने !] अब आप मुझे विस्तारपूर्वक यह बताइये कि पूर्वकालमें प्रह्लादके साथ नर- नारायणका घोर युद्ध क्यों हुआ था ? प्रह्लाद पाताल- लोकसे सारस्वत महातीर्थ पवित्र बदरिकाश्रममें कैसे पहुँचे, यह भी मुझे बताइये। शान्त स्वभाववाले मुनिश्रेष्ठ नर-नारायण तो महान् तपस्वी थे; तब हे मानद ! उन दोनोंने प्रह्लादके साथ युद्ध किस कारणसे किया ? ॥ ५०-५२३ ॥
प्रायः धन अथवा स्त्रीके लिये लोगोंमें परस्पर शत्रुता होती है। तब हर प्रकारकी इच्छाओंसे रहित उन दोनोंने वह भीषण युद्ध क्यों किया और उन नर- नारायणको सनातन देवता जानते हुए भी महात्मा प्रह्लादने उनके साथ युद्ध क्यों किया ? हे ब्रह्मन् ! मैं विस्तारपूर्वक | इसका कारण सुनना चाहता हूँ ॥ ५३-५५॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे अहङ्कारावर्तनवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥