-व्यासजी बोले – सर्वप्रथम उस पर्वतश्रेष्ठ गन्ध- मादनपर वसन्त पहुँचा। उस पर्वतपर स्थित सभी वृक्ष पुष्पित हो गये और उनपर भ्रमरोंके समूह मँडराने लगे ॥ १ ॥
आम, मौलसिरी, रम्य, तिलक, सुन्दर किंशुक, साल, ताल, तमाल तथा महुए- ये सब-के-सब | फूलोंसे सुशोभित हो गये ॥ २ ॥
वृक्षोंकी डालियोंपर कोयलोंकी मनोहारिणी कूक् • आरम्भ हो गयी। पुष्पोंसे लदी हुई सभी लताएँ ऊँचे पर्वतोंपर चढ़ने लगीं ॥ ३ ॥
सभी प्राणी अपनी-अपनी भार्याओंमें प्रेमासक्त हो गये तथा मत्त होकर परस्पर क्रीड़ा करने लगे ॥ ४ –
मन्द, सुगन्धयुक्त तथा सुखद स्पर्शवाली दक्षिण हवाएँ चलने लगीं। उस समय मुनियोंकी भी वृत्तियाँ अतीव चंचल हो उठीं ॥ ५ ॥
तत्पश्चात् अपनी भार्या रतिके साथ कामदेव भ अपने पंचबाणोंको छोड़ता हुआ तत्काल बदरिकाश्रम् पहुँचकर वहाँ रहने लगा ॥ ६ ॥
संगीतकलामें अत्यन्त प्रवीण रम्भा और तिलोत्तम आदि अप्सराएँ भी उस रमणीक बदरिकाश्रममें पहुँचकर स्वर तथा तानमें आबद्ध गीत गाने लगीं ॥ ७।
उस मधुर गायन, कोयलोंकी कूक तथा भ्रमर- समूहोंका गुंजार सुनकर उन दोनों मुनिवरोंका ध्यान भंग हो गया ॥ ८॥
असमयमें ही वसन्तका आगमन तथा सम्पूर्ण वनको पुष्पोंसे सुशोभित देखकर वे दोनों नग् तथा नारायणऋषि चिन्तित हो उठे [वे सोचने लगे कि] क्या आज समय पूरा हुए बिना ही शिशिर ऋतु बीत गयी ?
इस समय तो समस्त प्राणी कामसे पीड़ित होनेके कारण अत्यन्त विह्वल दिखायी पड़ रहे हैं। कालके स्वभाव तथा नियममें यह अद्भुत परिवर्तन आज कैसे हो गया? विस्मयके कारण विस्फारित नेत्रोंवाले मुनि नारायण नरसे कहने लगे ॥ ९-११॥
नारायण बोले- हे भाई ! देखो, ये सभी वृक्ष पुष्पोंसे लदे हुए सुशोभित हो रहे हैं। इन वृक्षोंपर कोयलोंकी मधुर ध्वनि हो रही है तथा भ्रमरोंकी पंक्तियाँ विराजमान हैं ॥ १२ ॥
हे मुने ! यह वसन्तरूपी सिंह अपने पलाशपुष्परूपी तीखे नाखूनोंसे शिशिररूपी भयानक हाथीको विदीर्ण करता हुआ यहाँ आ पहुँचा है ॥ १३ ॥
हे देवर्षे ! लाल अशोक जिसके हाथ हैं. किंशुकके पुष्प जिसके पैर हैं, नील अशोक जिसके केश हैं, विकसित श्याम कमल जिसका मुख है.
नीले कमल जिसके नेत्र हैं, बिल्व वृक्षके फल जिसके स्तन हैं, खिले हुए कुन्दके फूल जिसके दाँत हैं, आमके बौर जिसके कान हैं, बन्धुजीव (गुलदुपहरिया) के पुष्प जिसके शुभ्र अधर हैं, सिन्धुवारके पुष्प जिसके नख हैं, कोयलके समान जिसका स्वर है,
कदम्बके पुष्प जिस सुन्दरीके पावन वस्त्र हैं, मयूरपंखोंके समूह जिसके आभूषण हैं, सारसोंका स्वर जिसका नूपुर है, माधवी लता जिसकी करधनी है-ऐसी मत्त हंसके समान गतिवाली तथा इंगुदीके पत्तोंको रोमस्वरूप धारण की हुई वसन्तश्री इस बदरिकाश्रममें छायी हुई है ॥ १४-१८ ॥
मुझे तो यह महान् आश्चर्य हो रहा है कि असमयमें यह यहाँ क्यों आ गयी ? हे देवर्षे ! आप यह निश्चित समझिये कि इस समय यह हमलोगोंकी तपस्यामें विघ्न डालनेवाली है ॥ १९ ॥
ध्यान भंग कर देनेवाला यह देवांगनाओंका गीत सुनायी दे रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि हम दोनोंका तप नष्ट करनेके लिये इन्द्रने ही यह उपक्रम रचा है। अन्यथा ऋतुराज वसन्त अकालमें कैसे प्रीति प्रकट कर सकता है?
जान पड़ता है कि भयभीत होकर असुरोंके शत्रु इन्द्रके द्वारा ही यह विघ्न उपस्थित किया गया है। सुरभित, शीतल एवं मनोहर हवाएँ चल रही हैं; इसमें इन्द्रकी चालके अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं है ॥ २०-२२ ॥
विप्रवर विभु भगवान् नारायण ऐसा कह ही रहे – थे कि कामदेव आदि सभी दिखायी पड़ गये। भगवान् नर तथा नारायणने उन सबको प्रत्यक्ष देखा और इससे उन दोनोंके मनमें महान् आश्चर्य हुआ ॥ २३-२४॥
कामदेव, मेनका, रम्भा, तिलोत्तमा, पुष्पगन्धा, सुकेशी, महाश्वेता, मनोरमा, प्रमद्वरा, गीतज्ञ और सुन्दर हास्य करनेवाली घृताची, चन्द्रप्रभा, कोकिलके – समान आलाप करनेवाली सोमा, विद्युन्माला, अम्बुजाक्षी और कांचनमालिनी- इन्हें तथा अन्य भी – बहुत-सी सुन्दर अप्सराओंको नर-नारायणने अपने पास उपस्थित देखा। उनकी संख्या सोलह हजार पचास थी, कामदेवकी उस विशाल सेनाको देखकर ८ वे दोनों मुनि चकित हो गये ॥ २५-२८ ॥
उस समय दिव्य वस्त्र तथा आभूषणोंसे विभूषित और दिव्य मालाओंसे सुशोभित देवलोककी वे अप्सराएँ प्रणाम करके सामने खड़ी हो गयीं ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् वे अनेक प्रकारके हाव-भाव प्रदर्शित करती हुई छलपूर्वक पृथ्वीतलपर अत्यन्त दुर्लभ एवं कामवासनावर्धक गीत गाने लगीं। भगवान् नर- नारायणने उस गीतको सुना।
तदनन्तर उसे सुनकर नारायणमुनिने प्रेमपूर्वक उनसे कहा- तुमलोग आनन्दसे बैठो, मैं तुम्हारा अद्भुत आतिथ्य सत्कार करूँगा। हे सुन्दरियो ! तुमलोग स्वर्गसे यहाँ आयी हो, अतएव हमारी अतिथिस्वरूपा हो ॥ ३०-३२॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! उस समय मुनि नारायण अभिमानमें आकर सोचने लगे कि निश्चितरूपसे इन्द्रने हमारे तपमें बाधा डालनेकी इच्छासे इन्हें भेजा है।
ये सब बेचारी क्या चीज हैं, मैं अभी अपना तपोबल दिखाता हूँ और इनसे भी अधिक दिव्य रूपवाली नवीन अप्सराएँ उत्पन्न करता हूँ ॥ ३३-३४॥
मनमें ऐसा विचार करके उन्होंने हाथसे अपनी जंघापर आघातकर तत्काल एक सर्वांगसुन्दरी स्त्री उत्पन्न कर दी ॥ ३५ ॥
वह सुन्दरी भगवान् नारायणके ऊरुदेश (जंघा)-से उत्पन्न हुई थी, अतः उसका नाम उर्वशी पड़ा। वहाँ उपस्थित वे अप्सराएँ उर्वशीको देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं ॥ ३६ ॥
तदनन्तर उन अप्सराओंकी सेवाके लिये मुनिने तत्काल उतनी ही अन्य अत्यन्त सुन्दर अप्सराएँ उत्पन्न कर दीं। हाथमें विविध प्रकारके उपहार लिये हँसती हुई तथा मधुर गीत गाती हुई उन सब अप्सराओंने उन मुनियोंको प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़ी हो गयीं ॥ ३७-३८ ॥
लोगोंको मोहमें डाल देनेवाली वे [इन्द्रप्रेषित] अप्सराएँ तपस्याकी विभूति उस विस्मयकारिणी उर्वशीको देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठीं। उन अप्सराओंके मुखकमल आनन्दातिरेकसे खिल उठे तथा उनके मनोहर शरीररूपी वल्लरियोंपर रोमांचरूपी अंकुर निकल आये। वे अप्सराएँ उन दोनों मुनियोंसे कहने लगीं – ॥ ३९ ॥
अहो ! हम मूर्ख अप्सराएँ आपकी स्तुति कैसे करें ? हम तो आपके धैर्य तथा तपके प्रभावको देखकर परम विस्मयमें पड़ गयी हैं। ऐसा कौन है जो हमलोगोंके कटाक्षरूपी विषसे बुझे बाणोंसे दग्ध न हो गया हो, फिर भी आपके मनको थोड़ी भी व्यथा नहीं हुई ॥ ४० ॥
अब हमलोगोंको ज्ञात हो गया कि आप दोनों देवस्वरूप मुनि साक्षात् भगवान् विष्णुके परम अंश हैं और सदा ही शम, दम आदि गुणोंके निधान हैं। आप दोनोंकी सेवाके लिये यहाँ हमारा आगमन नहीं हुआ है, अपितु देवराज इन्द्रका कार्य सिद्ध करनेके लिये ही हम सब यहाँ आयी हुई हैं ॥ ४१ ॥
न जाने हमारे किस भाग्यसे आप दोनों मुनिवरोंके दर्शन हुए। हम यह नहीं जान पा रही हैं कि हमारे द्वारा सम्पादित किस संचित पुण्यकर्मका यह फल है। [शाप देनेमें समर्थ होते हुए भी]
आप दोनों मुनियोंने हम-जैसे अपराधीजनोंको स्वजन समझकर अपने चित्तको क्षमाशील बनाया और हमें सन्तापरहित कर दिया। विवेकशील महानुभाव तुच्छ फल देनेवाले शापको उपयोगमें लाकर अपने तपका अपव्यय नहीं करते ॥ ४२३ ॥
व्यासजी बोले- उन अति विनम्र देवसुन्दरियोंका वचन सुनकर प्रसन्न मुखमण्डलवाले, काम तथा लोभको जीत लेनेवाले तथा अपनी तपस्याके प्रभावसे देदीप्यमान अंगोंवाले वे धर्मपुत्र मुनिवर नर- नारायण प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ ४३३ ॥
नर-नारायण बोले- हम दोनों तुम सभीपर अत्यन्त प्रसन्न हैं। तुमलोग अपने वांछित मनोरथ बताओ, हम उसे देंगे। इस सुन्दर नयनोंवाली उर्वशीको भी अपने साथ लेकर तुम सब स्वर्गके लिये प्रस्थान करो। उपहारस्वरूप यह मनोहर युवती अब यहाँसे तुमलोगोंके साथ जाय ॥ ४४-४५ ॥
ऊरुसे प्रादुर्भूत इस उर्वशीको इन्द्रके प्रसन्नार्थ हमने उनको दे दिया है। सभी देवताओंका कल्याण हो और अब सभी लोग इच्छानुसार यहाँसे प्रस्थान करें ॥ ४६ ॥
(अब इसके बाद तुमलोग किसीकी तपस्यामें विघ्न मत उत्पन्न करना।)देवियाँ बोलीं- हे महाभाग ! हे नारायण ! हे सुरश्रेष्ठ ! परमभक्तिके साथ प्रसन्नतापूर्वक हम सभी अप्सराएँ आपके चरणकमलोंका सांनिध्य प्राप्त कर चुकी हैं; अब हम सब कहाँ जायँ ? ॥ ४७ ॥
हे नाथ! हे मधुसूदन ! हे कमलपत्राक्ष ! यदि आप हमारे ऊपर प्रसन्न होकर वांछित वरदान देना चाहते हैं, तो हम अपने मनकी इच्छा प्रकट कर रही हैं ॥ ४८ ॥
हे देवेश! आप हमारे पति बन जायँ। हे परन्तप ! हमलोगोंके इसी वरदानको पूर्ण कीजिये हे जगदीश्वर ! आपकी सेवा करनेमें हम सभीक प्रसन्नता होगी ॥ ४९ ॥
आपने जिन उर्वशी आदि सुन्दर नयनोंवालं अन्य रमणियोंको उत्पन्न किया है, वे अब आपक आज्ञासे स्वर्ग चली जायें। हे श्रेष्ठ तपस्वियो ! हम्म सोलह हजार पचास अप्सराएँ यहीं रहेंगी और यहाँ हम सब आप दोनोंकी सेवा करेंगी ॥ ५०-५१ ॥
हे देवेश ! आप हमारा मनोवांछित वर दीजिये और अपने सत्यव्रतका पालन कीजिये। हे माधव ! धर्मज्ञ तथा तत्त्वदर्शी मुनियोंने प्रेमासक्त स्त्रियोंकी आशाको भंग करना हिंसा बताया है। दैवयोगसे हम अप्सराएँ भी स्वर्गसे यहाँ आकर आप दोनोंके प्रेमरससे संसिक्त हो गयी हैं। हे देवेश ! आप हमारा त्याग न कीजिये। हे जगत्पते ! आप तो सर्वसमर्थ हैं ॥ ५२-५३३ ॥
नारायण बोले- इन्द्रियोंको जीतकर मैंने पूरे एक हजार वर्षोंतक यहाँ तपस्या की है. अतएव हे सुन्दरियो ! उसे कैसे नष्ट कर दूँ? सुख तथा धर्मका नाश करनेवाले वासनात्मक सुखमें मेरी कोई रुचि नहीं है। पाशविक धर्मके समान सुखमें विवेकशील पुरुष कैसे प्रवृत्त हो सकता है? ॥५४-५५३ ॥
अप्सराएँ बोलीं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-इन पाँच सुखोंमें स्पर्श-सुख सर्वश्रेष्ठ है। यह आनन्दरसका मूल है और इससे बढ़कर अन्य कोई भी सुख नहीं है। अतः हे महाराज ! आप हमारी बात मान लीजिये ॥ ५६-५७ ॥
पूर्ण आनन्द प्राप्त करते हुए आप गन्धमादन-पर्वतपर विचरण कीजिये। यदि आप स्वर्ग-प्राप्तिकी आकांक्षा रखते हैं तो यह निश्चय जान लीजिये कि वह स्वर्ग इस गन्धमादनसे अच्छा नहीं है। अतः हम सभी अप्सराओंको अंगीकार करके आप इस दिव्य स्थानमें विहार कीजिये ॥ ५८-५९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे अप्सरसां नारायणसमीपे प्रार्थनाकरणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥