Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 4(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःचतुर्थोऽध्यायःव्यासजीद्वारा जनमेजयको मायाकी प्रबलता समझाना)

Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 4(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःचतुर्थोऽध्यायःव्यासजीद्वारा जनमेजयको मायाकी प्रबलता समझाना)

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[अथ चतुर्थोऽध्यायः]

:-राजा बोले- हे महाभाग ! इस आख्यानको सुनकर मैं बड़े आश्चर्यमें पड़ गया हूँ। हे महामते ! यह संसार पापका मूर्तरूप है। इसके बन्धनसे मनुष्य किस प्रकार मुक्त हो सकता है ? ॥ १ ॥
जब तीनों लोकोंका वैभव पास रखते हुए भी कश्यपमुनिकी संतान इन्द्रने ऐसा पापकर्म कर डाला, तब कौन मनुष्य पाप नहीं कर सकता ? ॥ २ ॥
अद्भुत शपथ लेकर सेवाके बहाने माताके गर्भमें प्रविष्ट होकर बालककी हत्या करना तो बड़ा भयानक पाप है!॥ ३ ॥
सबके शासक, धर्मके रक्षक और तीनों लोकोंके स्वामी इन्द्रने जब ऐसा निन्दित कर्म कर डाला, तब फिर दूसरा कौन नहीं करेगा ? ॥४॥
हे जगद्गुरो ! मेरे पितामह लोगोंने भी कुरुक्षेत्रके संग्राममें ऐसा ही विस्मयकारी दारुण और निन्दित कर्म किया था। भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा धर्मके अंशरूप युधिष्ठिर- इन सभीने भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणासे धर्मविरुद्ध कर्म किया था ॥ ५-६ ॥
संसारकी असारता जानते हुए भी उन प्रतिभाशाली तथा देवांशसे उत्पन्न धर्मपरायण पाण्डवोंने भी ऐसा गर्हित कर्म क्यों किया ? ॥ ७॥
हे द्विजेन्द्र ! यदि ऐसी बात है तो धर्मपर किसकी आस्था होगी और धर्मके विषयमें सैद्धान्तिक प्रमाण ही क्या रह जायगा ? यह वृत्तान्त सुनकर तो मेरा मन चंचल हो उठा है ॥ ८ ॥
यदि आप्त वचनको प्रमाण मानें, तो फिर कौन पुरुष आप्त है? विषयासक्त मनुष्यमें राग आ ही जाता है और अपना स्वार्थ भंग होनेपर उसमें निःसन्देह राग-द्वेषकी बहुलता हो जाती है। द्वेषके कारण अपनी स्वार्थसिद्धिके लिये असत्य भाषण करना पड़ता है ॥ ९-१० ॥
परम ज्ञानी और सत्त्वगुणके मूर्तस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णने भी जरासन्धके वधके लिये छलसे ब्राह्मणका वेष धारण किया था। जब सत्त्वमूर्ति भी इस प्रकारके होते हैं, तब किस आप्त पुरुषको प्रमाण माना जाय ? उसी प्रकार [राजसूय यज्ञके अवसरपर अर्जुनने भी वैसा ही कर्म किया था ॥ ११-१२॥
जिस यज्ञमें अशान्तिका वातावरण रहा, उस यज्ञको किस श्रेणीका यज्ञ कहा जाय ? वह यज्ञ परलोकमें परमपदकी प्राप्तिके लिये किया गया था अथवा सुयश पानेके लिये किया गया था या अन्य किसी कार्यकी सिद्धिके लिये किया गया था ? ॥ १३ ॥
श्रुतिका यह वचन है कि धर्मका प्रथम चरण सत्य. दूसरा चरण पवित्रता, तीसरा चरण दया तथा चतुर्थ चरण दान है। पुराणवेत्ता भी यही कहते हैं। इन चारोंके बिना परम आदृत धर्म कैसे टिक सकता है ? ॥ १४-१५ ॥
तब मेरे पूर्वजोंके द्वारा किया गया वह धर्मविहीन यज्ञ-कर्म [उत्तम] फल देनेवाला कैसे हो सकता था ? इससे तो यही प्रतीत होता है कि उस समय किसीका भी कहीं भी धर्ममें अटल विश्वास नहीं था ॥ १६ ॥
जगत्प्रभु भगवान् विष्णुने भी छलनेहेतु वामनका रूप धारण किया था, जिन्होंने वामनरूपसे राजा बलिको ठग लिया था ॥ १७ ॥
महाराज बलि सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले. वेदोंकी आज्ञाका पालन करनेवाले, धर्मात्मा, दानी. सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय थे। ऐसे महापुरुषको परम प्रभावशाली भगवान् विष्णुने अकस्मात् पदच्युत कर दिया।
अतः हे कृष्णद्वैपायन! उन दोनोंमें कौन जीता ? वंचना करके छलकर्ममें निपुण भगवान् वामनकी विजय हुई या छले गये राजा बलिकी; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है। हे द्विजश्रेष्ठ ! मुझे सत्य बात बताइये; क्योंकि आप पुराणोंके रचयिता, धर्मज्ञ तथा महान् बुद्धिसम्पन्न हैं ॥ १८-२०३ ॥

 

व्यासजी बोले- हे राजन् ! उस राजा बलिकी ही विजय हुई, जिसने समस्त भूमण्डलका दान कर दिया था। हे राजन् ! जो त्रिविक्रम नामसे विख्यात थे, वे भगवान् विष्णु वामन बने।
हे नरेन्द्र ! उन्होंने छल करनेके लिये यह वामनरूप धारण किया था और इसी छलके परिणामस्वरूप उन श्रीहरिको राजा बलिका द्वारपाल बनना पड़ा। अतः हे राजन् ! सत्यसे बढ़कर धर्मका मूल और कुछ नहीं है॥ २१-२३॥
हे राजन् ! सम्यक् प्रकारसे सत्यका पालन करना प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुष्कर है। अनेक रूप धारण करनेवाली त्रिगुणात्मिका माया बड़ी बलवती है, जिसने तीनों गुणोंसे सम्मिश्रित इस विश्वकी रचना की है। अतः हे राजन् ! छल-कपट करनेवालेसे बिना प्रभावित हुए यह सत्य कैसे रह सकता है ? ॥ २४-२५ ॥
सत्त्व, रज और तम – इन्हीं तीनों गुणोंके मेलसे संसारका प्रादुर्भाव हुआ, यही सृष्टिका सनातन नियम है। केवल अनासक्त, प्रतिग्रहशून्य, रागरहित और तृष्णाविहीन वानप्रस्थ तथा मुनिजन अवश्य सत्यपरायण होते हैं, किंतु वैसे लोग केवल दृष्टान्त दिखानेके लिये ही बनाये गये हैं ॥ २६-२७॥
हे राजन् ! उनके अतिरिक्त सब कुछ सत्त्व, रज एवं तम-इन तीनों गुणोंसे ओत-प्रोत है। हे नृपश्रेष्ठ ! पुराणों, वेदों, धर्मशास्त्रों, वेदांगों और सगुण प्राणियोंद्वारा रचित ग्रन्थोंमें भी कहीं एकवाक्यता नहीं मिलती; सगुण प्राणी ही सगुण कार्य करता है,
निर्गुणसे सगुण कार्य नहीं हो सकता; क्योंकि वे सभी गुण मिश्रित हैं, वे पृथक् पृथक् नहीं रहते। इसी कारण किसीकी भी बुद्धि सत्य तथा सनातनधर्ममें टिक नहीं पाती ॥ २८-३०॥
हे महाराज ! संसारकी सृष्टिके समय मायासे मोहित मनुष्यकी इन्द्रियाँ अत्यन्त चंचल हो जाती हैं और उनमें आसक्त मन उन गुणोंसे प्रेरित होकर विविध प्रकारके भाव प्रकट करने लगता है।
हे राजन् ! ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त स्थावर जंगम सभी प्राणी मायाके वशीभूत रहते हैं और वह माया उनके साथ क्रीडा करती रहती है। यह माया सभीको मोहमें डाल देती है और जगत्में निरन्तर विकार उत्पन्न | किया करती है ॥ ३१-३३ ॥

 

हे राजन् ! सर्वप्रथम अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये मनुष्य असत्यका सहारा लेता है। उस समय इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करते हुए जब मनुष्य अपना अभीष्ट नहीं पाता, तो वह उसके लिये छल्ल करने लगता है।
इस प्रकार छलके कारण वह पापमें प्रवृत्त हो जाता है। काम, क्रोध और लोभ मनुष्योंके सबसे बड़े शत्रु हैं। इनके वशमें होनेके कारण प्राणी कर्तव्य-अकर्तव्यको नहीं जान पाते। ऐश्वर्य बढ़ जानेपर अहंकार और भी बढ़ जाता है।
अहंकारसे मोह उत्पन्न होता है और मोहसे विनाश हो जाता है। मोहके कारण मनुष्यके मनमें अनेक प्रकारके संकल्प- विकल्प होने लगते हैं। उस समय मनमें ईर्ष्या, असूया तथा द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं।
प्राणियोंके हृदयमें आशा, तृष्णा, दीनता, दम्भ और अधार्मिक बुद्धि- ये सब उत्पन्न हो जाते हैं। ये भावनाएँ प्राणियोंमें मोहसे ही उत्पन्न होती हैं। यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत और नियम जो कुछ भी सत्कर्म हैं, उन्हें भी मनुष्य अहंकारके ही वशीभूत होकर निरन्तर करता है.
उनका अहंभावसे किया गया सारा कार्य वैसा नहीं होता, जैसा कि शुद्ध अन्तःकरणसे किया जाता है। आसक्ति एवं लोभसे किया हुआ कोई भी कर्म सर्वथा अशुद्ध होता है॥ ३४-४० ३ ॥
बुद्धिमान् मनुष्योंको चाहिये कि वे सर्वप्रथम द्रव्य-शुद्धिपर विचार कर लें। द्रोहरहित कर्म करके अर्जित किया हुआ धन धर्मकार्यमें प्रशस्त माना गया है। हे नृपश्रेष्ठ ! द्रोहपूर्वक उपार्जित किये हुए द्रव्यके द्वारा मनुष्य जो उत्तम कार्य करता है, समय आनेपर उसका विपरीत फल प्राप्त होता है। जिसका मन परम पवित्र है, वही पूर्ण फलका अधिकारी होता है और मनके विकारपूर्ण रहनेपर उसे यथार्थ फल नहीं मिलता ॥ ४१-४३ ३ ॥
जब कर्म करानेवाले ऋत्विक्, आचार्य आदि लोगोंका चित्त शुद्ध रहता है, तभी पूर्ण फल प्राप्त होता है। यदि देश, काल, क्रिया, द्रव्य, कर्ता और मन्त्र – इन सबकी शुद्धता रहती है, तभी कर्मोंका पूरा फल प्राप्त होता है।
जो मनुष्य शत्रुनाश तथा अपनी अभिवृद्धिके  उद्देश्यसे पुण्यकर्म करता है तो उसे भी वैसा हीविपरीत फल मिलता है। स्वार्थमें लिप्त मनुष्य शुभाशुभका ज्ञान नहीं रख पाता और दैवाधीन होकर सदा पाप ही किया करता है, पुण्य नहीं ॥ ४४-४७३ ॥
प्रजापति ब्रह्मासे ही देवता उत्पन्न हुए हैं और उन्हींसे असुरोंकी भी उत्पत्ति हुई है। वे सब-के-सब स्वार्थमें लिप्त होकर एक-दूसरेके विरुद्ध काम करते हैं। वेदोंमें कहा गया है कि सत्त्वगुणसे सभी देवता, रजोगुणसे मनुष्य तथा तमोगुणसे पशु-पक्षी आदि तिर्यक्योनिके जीव उत्पन्न होते हैं।
अतएव जब सत्त्वगुणसे उत्पन्न देवताओंमें भी निरन्तर आपसमें वैरभाव रहता है तब पशु-पक्षियोंमें परस्पर जातिवैर उत्पन्न होनेमें क्या आश्चर्य ! देवता भी सदैव द्रोहमें तत्पर रहते हैं और तपस्यामें विघ्न डाला करते हैं।
हे नृप ! वे सदा असन्तुष्ट रहते हुए द्वेषपरायण होकर आपसमें विरोधभाव रखते हैं। अतः हे राजन् ! जब यह संसार ही अहंकारसे उत्पन्न हुआ है, तब वह राग-द्वेषसे हीन हो ही कैसे सकता है ? ॥ ४८-५३॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे अधमजगतः स्थितिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥

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