Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 24(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्ध:चतुर्विंशोऽध्यायःश्रीकृष्णावतारकी संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्रका प्रसूतिगृहसे हरण, कृष्णद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवती चण्डिकाद्वारा सोलह वर्षके बाद पुनः पुत्रप्राप्तिका वर देना)

Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 24(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्ध:चतुर्विंशोऽध्यायःश्रीकृष्णावतारकी संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्रका प्रसूतिगृहसे हरण, कृष्णद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवती चण्डिकाद्वारा सोलह वर्षके बाद पुनः पुत्रप्राप्तिका वर देना)

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[अथ चतुर्विंशोऽध्यायः]
व्यासजी बोले – [हे राजन् !] प्रातः काल नन्दजीके घरमें पुत्रजन्मका बड़ा भारी समारोह सम्पन्न हुआ, यह बात चारों ओर फैल गयी और कंसने भी किसी दूतके मुखसे यह सुन लिया ॥ १ ॥
कंस यह पहलेसे ही जानता था कि वसुदेवकी अन्य भार्या, पशु तथा सेवकगण – सब-के-सब गोकुलमें नन्दके यहाँ रह रहे हैं। हे भारत ! इस कारणसे गोकुलके प्रति कंसका सन्देह और बढ़ गया। नारदजीने भी सभी कारण पहले ही बता दिये थे।
उन्होंने कह दिया था कि गोकुलमें नन्द आदि गोप, उनकी पत्नियाँ, देवकी तथा वसुदेव आदि जो भी लोग हैं, वे सब देवताओंके अंशसे उत्पन्न हुए हैं; इसलिये वे निश्चितरूपसे तुम्हारे शत्रु हैं ॥ २-४ ॥
हे राजन् ! देवर्षि नारदने जब यह बात बतायी थी तो बड़े-से-बड़े पापकर्मोंमें प्रवृत्त रहनेवाला वह कुलकलंकी कंस अत्यधिक कुपित हो गया था ॥ ५ ॥
अपरिमित तेजवाले श्रीकृष्णने पूतना, बकासुर, वत्सासुर, महाबली धेनुकासुर तथा प्रलम्बासुरको मार डाला और गोवर्धनपर्वतको उठा लिया – इस अद्भुत कर्मको सुनकर कंसने यह अनुमान लगा लिया कि मेरा भी मरण अब सुनिश्चित है ॥ ६-७ ॥
[महान् बलशाली] केशी भी मार डाला गया- यह जानकर कंस अत्यधिक खिन्नमनस्क हो गया, तब उसने धनुष-यज्ञके बहाने [कृष्ण तथा बलराम] | दोनोंको शीघ्र ही मथुरामें बुलानेकी योजना बनायी ॥ ८ ॥

 

निर्दयी तथा पापबुद्धि कंसने असीम पराक्रमी श्रीकृष्ण तथा बलरामका वध करनेके उद्देश्यसे उन्हें बुलानेके लिये अक्रूरको भेजा ॥ ९ ॥
तदनन्तर कंसका आदेश मानकर गान्दिनीपुत्र अक्रूर गोकुल गये और दोनों गोपालों- श्रीकृष्ण तथा बलरामको रथपर बैठाकर गोकुलसे मथुरा लौट आये ॥ १० ॥
वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण तथा बलरामने धनुषको तोड़ा। पुनः रजक, कुवलयापीड हाथी, चाणूर और मुष्टिकका संहार करके भगवान् श्रीकृष्णने शल तथा तोशलका वध किया। तत्पश्चात् देवेश श्रीकृष्णने कंसके बाल पकड़कर लीलापूर्वक उसको भी मार डाला ॥ ११-१२॥
तदनन्तर शत्रुविनाशक श्रीकृष्णने अपने माता- पिताको कारागारसे मुक्त कराकर उनका कष्ट दूर किया और उग्रसेनको उनका राज्य वापस दिला दिया ॥ १३ ॥
तदनन्तर महामना वसुदेवने उन दोनोंका मौंजी- बन्धन तथा उपनयन संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न करवाया ॥ १४ ॥
उपनयन-संस्कार हो जानेके पश्चात् वे दोनों सान्दीपनिऋषिके आश्रममें विद्याध्ययनके लिये गये और समस्त विद्याओंका अध्ययन करके पुनः मथुरा लौट आये ॥ १५ ॥
आनकदुन्दुभि (वसुदेवजी) के पुत्र कृष्ण और बलराम बारह वर्षकी अवस्थामें ही सम्पूर्ण विद्याओंमें निष्णात तथा महान् बलशाली होकर मथुरामें ही निवास करने लगे ॥ १६ ॥
उधर अपने जामाता कंसके वधसे मगधनरेश जरासन्ध अत्यन्त दुःखित हुआ और उसने विशाल सेना संगठितकर मथुरापुरीपर आक्रमण कर दिया ॥ १७ ॥
किंतु मधुपुरी (मथुरा) में निवास करनेवाले बुद्धिमान् श्रीकृष्णने समरांगणमें उपस्थित होकर सत्रह बार उसे पराजित किया ॥ १८ ॥
इसके बाद जरासन्धने यादव-समुदायके लिये भयदायक तथा सम्पूर्ण म्लेच्छोंके अधिपति कालयवन नामक योद्धाको श्रीकृष्णका सामना करनेके लिये प्रेरित किया ॥ १९ ॥

 

कालयवनको आता सुनकर मधुसूदन श्रीकृष्णने सभी प्रसिद्ध यादवों तथा बलरामको बुलाकर कहा- महाबलशाली जरासन्धसे हमलोगोंको यहाँ बराबर भय बना हुआ है। [उसीकी प्रेरणासे] कालयवन यहाँ आ रहा है। हे महाभाग ! ऐसी स्थितिमें हमलोगोंको क्या करना चाहिये ? ॥ २०-२१ ॥
इस समय घर, सेना और धन छोड़कर हमें प्राण बचा लेना चाहिये। जहाँ भी सुखपूर्वक रहनेका प्रबन्ध हो जाय, वही पैतृक देश होता है ॥ २२ ॥
इसके विपरीत उत्तम कुलके निवास करनेयोग्य पैतृक भूमिमें भी यदि सदा अशान्ति बनी रहती हो तो ऐसे स्थानपर रहनेसे क्या लाभ ? अतः सुखकी कामना करनेवालेको पर्वत या समुद्रके पास निवास कर लेना चाहिये ॥ २३ ॥
जिस स्थानपर शत्रुओंका भय नहीं रहता, ऐसे स्थानपर ही विज्ञजनोंको रहना चाहिये। भगवान् विष्णु शेषशय्याका आश्रय लेकर समुद्रमें शयन करते हैं और इसी प्रकार त्रिपुरदमन भगवान् शंकर भी कैलासपर्वतपर निवास करते हैं। अतएव शत्रुओंद्वारा निरन्तर सन्तप्त किये गये हमलोगोंको अब यहाँ नहीं रहना चाहिये।
अब हम सभी लोग एक साथ द्वारकापुरी चलेंगे। गरुडने मुझसे बताया है कि द्वारकापुरी अत्यन्त रमणीक तथा मनोहर है, जो समुद्रके तटपर तथा रैवतपर्वतके समीप विराजमान है ॥ २४- २६३ ॥
व्यासजी बोले – श्रीकृष्णकी यह युक्तिपूर्ण बात सुनकर सभी श्रेष्ठ यादवोंने अपने परिवारजनों तथा वाहनोंके साथ जानेका निश्चय कर लिया। गाड़ियों, ऊँटों, घोड़ियों और भैंसोंपर धन-सामग्री लादकर तथा श्रीकृष्ण और बलरामको आगे करके वे सभी यादवश्रेष्ठ अपने परिजनोंको साथ लेकर नगरसे बाहर हो गये। समस्त प्रजाजनोंको आगे-आगे करके सभी श्रेष्ठ यादव चल पड़े। वे सब कुछ ही दिनोंमें द्वारकापुरी पहुँच गये ॥ २७-३० ॥
श्रीकृष्णने कुशल शिल्पकारोंसे द्वारकापुरीका जीर्णोद्धार कराया, सभी यादवोंको वहाँ बसाकर वे श्रीकृष्ण और बलराम तत्काल मथुरा लौटकर उस| निर्जन पुरीमें रहने लगे। उसी समय शक्तिशाली कालयवन भी वहाँ आ गया।
कालयवनको आया जानकर वे पीताम्बरधारी तथा ऐश्वर्यसम्पन्न मधुसूदन भगवान् जनार्दन नगरसे बाहर निकल पड़े और जोर- जोर हँसते हुए उसके आगे-आगे पैदल ही चलने लगे ॥ ३१-३३३ ॥॥
उन कमललोचन श्रीकृष्णको अपने आगे जाता देखकर वह दुष्ट कालयवन उनके पीछे-पीछे पैदल ही चलता रहा। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण कालयवनसहित वहाँ पहुँच गये, जहाँ महाबली राजर्षि मुचुकुन्द शयन कर रहे थे।
मुचुकुन्दको देखकर भगवान् कृष्ण वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३४-३६ ॥ वह कालयवन भी वहीं पहुँच गया। उसने देखा कि कोई सो रहा है। राजर्षि मुचुकुन्दको कृष्ण समझकर कालयवनने उनके ऊपर पैरसे प्रहार किया ॥ ३७ ॥
[कालयवनद्वारा पाद-प्रहार किये जानेसे] वे जग गये और क्रोधसे आँखें लाल किये हुए महाबली मुचुकुन्दने [उसकी ओर दृष्टिपात करके उसे भस्म कर दिया। उसे जलानेके बाद मुचुकुन्दने अपने समक्ष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णको उपस्थित देखा। तदनन्तर देवाधिदेव वासुदेवको प्रणाम करके वे वनकी ओर प्रस्थान कर गये। भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामको साथ लेकर द्वारकापुरी चले गये ॥ ३८-३९ ॥
इस प्रकार उग्रसेनको पुनः राजा बनाकर वे इच्छापूर्वक विहार करने लगे। इसके बाद शिशुपालके साथ रुक्मिणीके सुनिश्चित किये गये विवाहहेतु आयोजित स्वयंवरसे भगवान् श्रीकृष्णने रुक्मिणीका हरण कर लिया और उसके साथ राक्षसविधिसे विवाह कर लिया।
तत्पश्चात् जाम्बवती, सत्यभामा, मित्रविन्दा, कालिन्दी, लक्ष्मणा, भद्रा तथा नाग्नजिती- इन दिव्य सुन्दरियोंको बारी-बारीसे ले आकर श्रीकृष्णने उनके साथ भी पाणिग्रहण किया। हे भूपाल ! श्रीकृष्णकी ये ही परम सुन्दर आठ पत्नियाँ थीं। इनमें रुक्मिणीने देखनेमें परम सुन्दर पुत्र प्रद्युम्नको जन्म दिया ॥ ४०-४३ ॥
मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्णने उस बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये। महाबली शम्बरासुरने प्रसवगृहसे उस बालकका हरण कर लिया और उसे | अपनी नगरीमें ले जाकर मायावतीको सौंप दिया ॥ ४४३ ॥

 

उधर, अपने पुत्रका हरण देखकर शोक-सन्तप्त वासुदेव श्रीकृष्णने भक्तिभावयुक्त हृदयसे उन भगवती योगमायाकी शरण ली, जिन्होंने वृत्रासुर आदि दैत्योंका लीलामात्रसे वध कर दिया था ॥ ४५-४६ ॥
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त सारगर्भित अक्षरों तथा वाक्योंसे युक्त मंगलमय स्तवनोंके द्वारा योगमायाका पुण्य-स्मरण करने लगे ॥ ४७ ॥
श्रीकृष्ण बोले- हे माता ! पूर्वकालमें मैंने धर्मपुत्र नारायणके रूपमें बदरिकाश्रममें घोर तपस्या करके तथा पुष्प आदिसे आपकी विधिवत् पूजा करके आपको प्रसन्न किया था। हे जननि ! क्या अपने प्रति मेरे उस भक्तिभावको आपने विस्मृत कर दिया ? ॥ ४८ ॥
किस कुत्सित हृदयवाले दुराचारीने प्रसूतिगृहसे मेरे पुत्रका हरण कर लिया ? अथवा किसीने मेरा अभिमान दूर करनेके लिये कौतूहलवश यह प्रपंच रच दिया है। हे अम्ब ! चाहे जो हो, किंतु आज अपने भक्तजनकी लाज रखना आपका परमोचित कर्तव्य है ॥ ४९ ॥
चारों ओर दुस्तर खाइयोंसे अति सुरक्षित मेरी नगरी है, उसमें भी मेरा भवन मध्य भागमें स्थित है और उस भवनके अन्तःपुरमें प्रसूतिगृह स्थित है, जिसके दरवाजे बन्द रहते हैं; फिर भी मेरे पुत्रका हरण हो गया। यह तो मेरे दोषके ही कारण हुआ ॥ ५० ॥
मैं द्वारकापुरी छोड़कर किसी अन्य नगरमें नहीं गया और यादवगण भी वहाँसे कहीं नहीं गये थे। महान् वीरोंके द्वारा नगरीकी पूर्ण सुरक्षा की गयी थी। हे माता ! इसमें तो मुझे आपकी ही मायाका प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित हो रहा है, जिसकी प्रेरणासे किसी मायावीने मेरे पुत्रका हरण कर लिया है ॥ ५१ ॥
हे माता ! जब मैं आपके अत्यन्त गुप्त चरित्रको नहीं जान पाया तो फिर मन्दबुद्धि तथा अल्पज्ञ ऐसा कौन प्राणी होगा, जो आपके चरित्रको जान सकता है। मेरे पुत्रका हरण करनेवाला कहाँ चला गया, जिसे मेरे सैनिक देखतक नहीं पाये, हे अम्बिके ! यह आपकी ही रची हुई मायाका प्रभाव है ॥ ५२ ॥
आपके लिये यह कोई विचित्र बात नहीं है: क्योंकि मेरे प्रकट होनेके पूर्व आपने अपनी मायाके प्रभावसे माता देवकीके पाँच महीनेके गर्भको खींचकर [माता रोहिणीके गर्भमें] स्थापित कर दिया था। वसुदेवजी कारागारमें निरुद्ध थे; उनसे दूर रहती हुई पतिपरायणा माता रोहिणीने सम्पर्कके बिना ही उसे जन्म दिया, जो हलधर नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ ५३ ॥
हे अम्ब! आप सत्त्व, रज तथा तम- इन तीनों गुणोंके द्वारा जगत्का सृजन, पालन तथा संहार निरन्तर करती रहती हैं। हे जननि! आपके पापनाशक चरित्रको कौन जान सकता है? वास्तविकता तो यह है कि यह सम्पूर्ण जगत्प्रपंच आपके ही द्वारा विरचित है ॥ ५४ ॥
आप पहले प्राणियोंके समक्ष पुत्र-जन्मसे होनेवाले असीम आनन्दको उपस्थित करके पुनः पुत्र-वियोगजनित दुःखका भार उनके ऊपर ला देती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन सुललित प्रपंचोंकी रचना करके आप अपना मनोरंजन करती हैं। यदि ऐसा न होता तो पुत्र- प्राप्तिजनित मेरा आनन्द व्यर्थ क्यों होता ? ॥ ५५ ॥
हे अमित प्रभाववाली भगवति ! इस बालककी माता कुररी पक्षीकी भाँति रो रही है। वह बेचारी सदा मेरे पास ही रहती है, जिसे देखकर मेरा दुःख और भी बढ़ जाता है। हे माता! आप ही तो भवव्याधिसे पीड़ित प्राणियोंकी एकमात्र शरण हैं; हे ललिते ! आप उसका दुःख क्यों नहीं समझ रही हैं? ॥ ५६ ॥
हे देवि ! विद्वज्जन कहते हैं कि पुत्र-जन्मके अवसरपर सुखकी कोई सीमा नहीं रहती तथा उसके नष्ट हो जानेपर दुःखकी भी सीमा नहीं रहती। हे जननि ! अब मैं क्या करूँ? हे माता! अपने प्रथम पुत्रके विनष्ट हो जानेपर मेरा हृदय अब विदीर्ण होता जा रहा है ॥ ५७ ॥
मैं आपको प्रसन्न करनेवाला अम्बायज्ञ करूँगा, नवरात्रव्रत करूँगा और विधि-विधानसे आपका पूजन करूँगा; क्योंकि आप सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेवाली हैं। हे माता! यदि मेरा पुत्र जीवित हो तो आप मुझे शीघ्र उसे दिखा दीजिये; क्योंकि आप समस्त प्रकारके | शोकोंका शमन करनेमें समर्थ हैं ॥ ५८ ॥

 

व्यासजी बोले- असाध्य-से-असाध्य कार्योंको भी सहज भावसे कर सकनेमें समर्थ भगवान् श्रीकृष्णके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती उन जगद्गुरु वासुदेवके सामने प्रत्यक्ष प्रकट होकर बोलीं- ॥ ५९ ॥
श्रीदेवी बोलीं- हे देवेश! आप शोक न करें। यह आपका पूर्वजन्मका शाप है; उसीके परिणामस्वरूप शम्बरासुरने आपके पुत्रका बलपूर्वक हरण कर लिया है ॥ ६० ॥
सोलह वर्षका हो जानेपर वह पुत्र मेरी कृपासे उस शम्बरासुरका संहार करके स्वयं ही घर आ जायगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६१ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर प्रचण्ड पराक्रमसे सम्पन्न भगवती चण्डिका अन्तर्धान हो गयीं और भगवान् श्रीकृष्ण भी पुत्र-शोक त्यागकर प्रसन्न हो गये ॥ ६२ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां चतुर्थस्कन्धे देव्या कृष्णशोकापनोदनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥

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