Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 20(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्ध:विंशोऽध्यायःव्यासजीद्वारा जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम)

Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 20(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्ध:विंशोऽध्यायःव्यासजीद्वारा जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम)

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[अथ विंशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- हे भारत ! सुनिये, अब मैं आपको पृथ्वीका भार उतारने और कुरुक्षेत्र तथा प्रभासक्षेत्रमें योगमायाके द्वारा सेनाके संहारका वृत्तान्त बताऊँगा ॥ १ ॥
भृगुके शापके प्रताप तथा महामायाकी शक्तिसे ही अमित तेजस्वी भगवान् विष्णुका आविर्भाव यदुवंशमें हुआ था। मेरा यह मानना है कि पृथ्वीका भार उतारना तो निमित्तमात्र था, वस्तुतः योगमायाने ही इस संयोगका विधान कर दिया था कि धरातलपर भगवान् विष्णुका अवतार हो ॥ २-३ ॥
हे राजन् ! इसमें आश्चर्य कैसा ! वे भगवती योगमाया जब ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंको भी निरन्तर नचाती रहती हैं, तब त्रिगुणात्मक सामान्यजनकी क्या बात ! ॥ ४ ॥
उन भगवतीने अपनी रहस्यमयी लीलासे भगवान् विष्णुको भी सम्यक् रूपसे मल, मूत्र तथा स्नायुसे भरे गर्भवाससे होनेवाला दुःख भोगनेको विवश कर दिया था ॥ ५॥
पूर्वकालमें रामावतारके समय भी उन्हीं योगमायाने जिस प्रकार देवताओंको वानर बना दिया था और [राम-रूपमें अवतीर्ण] भगवान् विष्णुको दुःखपाशसे व्यथित कर दिया था, वह तो आपको | विदित ही है ॥ ६ ॥

 

हे महाराज ! अहंता और ममताके इस सुदृढ़ बन्धनसे सभी लोग आबद्ध हैं। अतः अनासक्त तथ मोक्षकी इच्छा रखनेवाले योगीजन और भोगकी कामना करनेवाले लोग भी उन्हीं कल्याणकारिणी भगवती जगदम्बाकी उपासना करते हैं। जिन योगमायाकी भक्तिके लेशलेशांशके लेशलेशलवांशको प्राप्त करके प्राणी मुक्त हो जाता है,
उनकी उपासना कौन व्यक्ति नहीं करेगा ? ‘हे भुवनेशि!’ ऐसा उच्चारण करनेवालेको वे भगवती तीनों लोक प्रदान कर देती हैं और ‘मेरी रक्षा कीजिये’ इस वाक्यके कहनेपर [उसे पहले ही त्रिलोक दे देनेके कारण]
अब कुछ भी न दे पानेसे वे उस भक्तकी ऋणी हो जाती हैं। हे राजन् ! आप उन भगवतीके विद्या तथा अविद्या-ये दो रूप जानिये। विद्यासे प्राणी मुक्त होता है और अविद्यासे बन्धनमें पड़ता है ॥ ७-१०३ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेश- ये सब उनके अधीन रहते हैं। भगवान्के सभी अवतार रस्सीसे बँधे हुएके समान भगवतीसे ही नियन्त्रित रहते हैं। भगवान् विष्णु कभी वैकुण्ठमें और कभी क्षीरसागरमें आनन्द लेते हैं, कभी अत्यधिक बलशाली दानवोंके साथ युद्ध करते हैं, कभी बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं, कभी तीर्थमें कठोर तपस्या करते हैं और हे सुव्रत ! कभी योगनिद्राके वशीभूत होकर शय्यापर सोते हैं। वे भगवान् मधुसूदन कभी भी स्वतन्त्र नहीं रहते ॥ ११-१४३ ॥
ऐसे ही ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, अन्य श्रेष्ठ देवतागण, सनक आदि मुनि और वसिष्ठ आदि महर्षि- ये सब-के- सब बाजीगरके अधीन कठपुतलीकी भाँति सदा भगवतीके वशमें रहते हैं। जिस प्रकार नथे हुए बैल अपने स्वामीके अधीन रहकर विचरण करते हैं, उसी प्रकार सभी देवता कालपाशमें आबद्ध रहते हैं ॥ १५-१७३ ॥
हे राजन् ! हर्ष, शोक, निद्रा, तन्द्रा, आलस्य आदि भाव सभी देहधारियोंके शरीरमें सदा विद्यमान रहते हैं। ग्रन्थकारोंने देवताओंको अमर (मृत्युरहित) तथा निर्जर (बुढ़ापारहित) कहा है, किंतु वे निश्चय ही केवल नामसे अमर हैं, अर्थसे कभी भी वैसे नहीं हैं।

 

जिनमें सदा उत्पत्ति, स्थिति और विनाश नामक अवस्थाएँ रहती हैं, वे अमर और निर्जर कैसे कहे जा सकते हैं ? वे देवता विबुध (विशेष बुद्धिवाले) होते हुए भी दुःखोंसे पीड़ित क्यों होते हैं? जब वे भी [सामान्य लोगोंकी भाँति व्यसन तथा क्रीडामें आसक्त रहते हैं, तब उन्हें देव क्यों कहा जाय ?
इसमें कोई सन्देह नहीं कि सामान्य जीवोंकी भाँति इनकी भी क्षणमें उत्पत्ति होती है और क्षणमें नाश होता है। [ऐसी स्थितिमें] इनकी उपमा जलमें उत्पन्न होनेवाले कीटों और मच्छरोंसे क्यों न दी जाय ? और जब आयुके समाप्त होनेपर वे भी मर जाते हैं, तब उन्हें [अमर न कहकर] ‘मर’ क्यों न कहा जाय ? ॥ १८-२३ ॥
कुछ मनुष्य एक वर्षकी आयुवाले और कुछ सौ वर्षकी आयुवाले होते हैं, उनसे अधिक आयुवाले देवता होते हैं और उनसे भी अधिक आयुवाले ब्रह्मा कहे गये हैं। ब्रह्मासे अधिक आयुवाले शिव हैं और उनसे भी अधिक आयुवाले विष्णु हैं। अन्तमें वे भी नष्ट होते हैं और इसके बाद वे फिरसे क्रमशः उत्पन्न होते हैं और उत्तरोत्तर बढ़ते हैं ॥ २४-२५ ॥
हे राजन् ! निश्चितरूपसे सभी देहधारियोंकी मृत्यु होती है और मरे हुए प्राणीका जन्म होता है। इस प्रकार पहियेकी भाँति सभी प्राणियोंका [जन्म-मृत्युका] चक्कर लगा रहता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २६ ॥
मोहके जालमें फँसा हुआ प्राणी कभी मुक्त नहीं होता; क्योंकि मायाके रहते मोहका बन्धन नष्ट नहीं होता है ॥ २७ ॥
हे राजन् ! सृष्टिके समय ब्रह्मा आदि सभी देवताओंकी उत्पत्ति होती है और कल्पके अन्तमें क्रमशः उनका नाश भी हो जाता है ॥ २८ ॥
हे नृप ! जिसके नाशमें जो निमित्त बन चुका है, उसीके द्वारा उसकी मृत्यु होती है। विधाताने जो रच दिया है, वह अवश्य होता है; इसके विपरीत कुछ नहीं होता ॥ २९ ॥
जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, दुःख अथवा सुख- जो सुनिश्चित है, वह उसी रूपमें अवश्य प्राप्त होता है; इसके विपरीत दूसरा सिद्धान्त है ही नहीं ॥ ३० ॥

 

प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले सूर्य तथा चन्द्रदेव सबको सुख प्रदान करते हैं, किंतु उनके शत्रु [राहु] – के द्वारा उन्हें होनेवाली पीड़ा दूर नहीं होती। सूर्यपुत्र शनैश्चर ‘मन्द’ और चन्द्रमा ‘क्षयरोगी तथा कलंकी कहे जाते हैं। हे राजन् ! देखिये, बड़े-बड़े देवताओंके भी विषयमें विधिका विधान अटल है ॥ ३१-३२
ब्रह्माजी वेदकर्ता, जगत्की सृष्टि करनेवाले तथ सबको बुद्धि देनेवाले हैं, किंतु वे भी सरस्वतीको देखकर विकल हो गये ॥ ३३ ॥
जब शिवजीकी भार्या सती अपने शरीरको दग्ध करके मर गयी, तब लोगोंका दुःख दूर करनेवाले होते हुए भी वे शिवजी शोकसन्तप्त तथा पीड़ित हो गये। उस समय कामाग्निसे जलते हुए देहवाले शिवजी यमुनानदीमें कूद पड़े। तब हे राजन् ! उनके तापके कारण यमुनाजीका जल श्यामवर्णका हो गया ॥ ३४-३५ ॥
भृगुके वनमें जाकर जब वे शिवजी दिगम्बर होकर विहार करने लगे, तब भृगुमुनिने अतीव आतुर उन शिवजीको यह शाप दे दिया- हे निर्लज्ज ! तुम्हारा लिंग अभी कटकर गिर जाय। तब शान्तिके लिये शिवजीने दानवोंके द्वारा निर्मित बावलीका अमृत पिया ॥ ३६-३७ ॥
बैल बनकर इन्द्रको भी धरातलपर [सूर्यवंशी राजा ककुत्स्थका] वाहन बनना पड़ा। समस्त लोकके आदिपुरुष और महान् विवेकशील भगवान् विष्णुकी सर्वज्ञता तथा प्रभुशक्ति उस समय कहाँ चली गयी थी, जब [रामावतारमें] वे स्वर्णमृग- सम्बन्धी उस विशेष रहस्यको बिलकुल नहीं जान सके ! ॥ ३८-३९ ॥
हे राजन् ! मायाका बल तो देखिये कि भगवान् श्रीराम भी कामसे व्याकुल हुए। उन श्रीरामने सीताके वियोगसे संतप्त तथा व्याकुल होकर बहुत विलाप किया था। वे विह्वल होकर जोर-जोरसे रोते हुए वृक्षोंसे पूछते-फिरते थे कि सीता कहाँ चली गयी ? उसे कोई [हिंसक जन्तु] खा गया या किसीने हर | लिया ? ॥ ४०-४१ ॥

 

हे लक्ष्मण ! मैं तो अपनी भार्याके वियोगसे दुःखित होकर मर जाऊँगा और हे अनुज ! मेरे दुःखसे तुम भी इस वनमें मर जाओगे। इस प्रकार हम दोनोंकी मृत्यु जान करके मेरी माता कौसल्या मर जायँगी।
शत्रुघ्न भी इस महान् दुःखसे पीड़ित होकर कैसे जीवित रह पायेगा ? तब पुत्रमरणसे व्यथित होकर माता सुमित्रा भी अपने प्राण त्याग देंगी, किंतु अपने पुत्र भरतके साथ कैकेयीकी कामना अवश्य पूर्ण हो जायगी ॥ ४२-४४॥
हा सीते ! मुझे पीड़ित छोड़कर तुम कहाँ चली गयी हो ? हे मृगलोचने ! आओ, आओ। हे कृशोदरि ! मुझे जीवन प्रदान करो। हे जनकनन्दिनि ! मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ? मेरा जीवन तो तुम्हारे अधीन है। अपने प्रिय मुझ दुःखितको सान्त्वना प्रदान करो ॥ ४५-४६ ॥
इस प्रकार विलाप करते हुए तथा वन-वन भटकते हुए वे अमित तेजस्वी राम जनकपुत्री सीताको नहीं खोज पाये। तत्पश्चात् समस्त लोकोंको शरण देनेवाले वे कमलनयन श्रीराम मायासे मोहित होकर वानरोंकी शरणमें गये। उन वानरोंको सहायक बनाकर उन्होंने समुद्रपर सेतु बाँधा और पराक्रमी रावण, कुम्भकर्ण तथा महोदरका संहार किया ॥ ४७-४९ ॥
तदनन्तर दुष्टात्मा रावणके द्वारा सीताको हरी गयी समझकर सर्वज्ञ होते हुए भी श्रीरामने उन्हें लाकर उनकी अग्निपरीक्षा करायी ॥ ५०॥
हे महाराज ! योगमायाकी महिमा बहुत बड़ी है। मैं उन योगमायाके विषयमें क्या कहूँ, जिनके द्वारा नचाया हुआ यह सम्पूर्ण विश्व निरन्तर चक्कर काट रहा है ॥ ५१ ॥
इस प्रकार शापके वशीभूत होकर भगवान् विष्णु इस लोकमें [ धारण किये गये] अनेक अवतारोंमें दैवके अधीन होकर नाना प्रकारकी लीलाएँ करते हैं ॥ ५२ ॥
अब मैं आपसे देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मनुष्य-लोकमें भगवान् श्रीकृष्णके अवतार तथा उनकी लीलाका वर्णन करूँगा ॥ ५३ ॥

 

प्राचीन समयकी बात है-यमुनाके मनोहर तटपर मधुवन नामक एक वन था। वहाँ लवणासुर नामवाला एक बलवान् दानव रहता था, जो मधुका पुत्र था ॥ ५४ ॥
वरप्राप्तिके कारण अभिमानमें चूर वह पापी दैत्य ब्राह्मणोंको दुःख देता था। हे महाभाग ! लक्ष्मणके छोटे भाई शत्रुघ्नने संग्राममें उसका वध कर दिया। उस मदोन्मत्तको मारकर उन्होंने मथुरा नामक परम सुन्दर नगरी बसायी ॥ ५५-५६ ॥
कमलके समान नेत्रोंवाले अपने दो पुत्रोंको राज्यकार्यमें नियुक्त करके वे बुद्धिमान् शत्रुघ्न समय आ जानेपर स्वर्ग चले गये ॥ ५७ ॥
सूर्यवंशके नष्ट हो जानेपर उस मुक्तिदायिनी मथुराको यादवोंने अधिकारमें कर लिया। हे राजन् ! पूर्वकालमें राजा ययातिका शूरसेन नामक एक पराक्रमी पुत्र था, जो वहाँका राजा हुआ। हे राजन् ! उसने मथुरा और शूरसेन दोनों ही राज्योंके विषयोंका भोग किया ॥ ५८-५९ ॥
वहाँपर वरुणदेवके शापवश महर्षि कश्यपके अंशस्वरूप परम यशस्वी वसुदेवजी शूरसेनके पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिताके मर जानेपर वे वसुदेवजी वैश्यवृत्तिमें संलग्न होकर जीवन-यापन करने लगे। उस समय वहाँके राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था ॥ ६०-६१ ॥
वरुणदेवके ही शापके कारण कश्यपकी अनुगामिनी अदिति भी राजा देवककी पुत्री देवकीके रूपमें उत्पन्न हुईं। महात्मा देवकने उस देवकीको वसुदेवको सौंप दिया। विवाह सम्पन्न हो जानेके पश्चात् वहाँ आकाशवाणी हुई- हे महाभाग कंस ! इस देवकीके गर्भसे उत्पन्न होनेवाला आठवाँ ऐश्वर्यशाली पुत्र तुम्हारा संहारक होगा ॥ ६२-६४ ॥
उस आकाशवाणीको सुनकर महाबली कंस आश्चर्यचकित हो गया। उस आकाशवाणीको सत्य मानकर वह चिन्तामें पड़ गया। ‘अब मैं क्या करूँ’ ऐसा भलीभाँति सोच-विचारकर उसने यह निश्चय किया कि यदि मैं देवकीको इसी समय शीघ्र मार डालूँ तो मेरी मृत्यु नहीं होगी।
मृत्युका भय उत्पन्न करनेवाले इस विषम अवसरपर दूसरा कोई उपाय नहीं है, किंतु यह मेरी पूज्य चचेरी बहन है। अतः इसकी हत्या कैसे करूँ, वह ऐसा सोचने लगा ॥ ६५-६७ ॥
उसने पुनः सोचा-अरे! यही बहन तो मेरी मृत्युस्वरूपा है। बुद्धिमान् मनुष्यको पापकर्मसे भी अपने शरीरकी रक्षा कर लेनी चाहिये। बादमें प्रायश्चित्त कर लेनेसे उस पापकी शुद्धि हो जाती है। अतः चतुर लोगोंको चाहिये कि पापकर्मसे भी अपने प्राणकी रक्षा कर लें ॥ ६८-६९ ॥
मनमें ऐसा सोचकर पापी कंसने बाल खींचकर उस सुन्दरी देवकीको तुरंत पकड़ लिया। तत्पश्चात् म्यानसे तलवार निकालकर उसे मारनेकी इच्छासे बुरे विचारोंवाला कंस सभी लोगोंके सामने ही उस नवविवाहिता देवकीको अपनी ओर खींचने लगा ॥ ७०-७१ ॥
उसे मारी जाती देखकर लोगोंमें महान् हाहाकार मच गया। वसुदेवजीके वीर साथीगण धनुष लेकर युद्धके लिये तैयार हो गये। अद्भुत साहसवाले वे सब कंससे कहने लगे – कृपा करके इसे छोड़ दो, छोड़ दो। वे देवमाता देवकीको कंससे छुड़ाने लगे ॥ ७२-७३ ॥
तब शक्तिशाली कंसके साथ वसुदेवजीके पराक्रमी सहायकोंका घोर युद्ध होने लगा। उस भीषण लोमहर्षक युद्धके निरन्तर होते रहनेपर जो श्रेष्ठ तथा वृद्ध यदुगण थे, उन्होंने कंसको युद्ध करनेसे रोक दिया ॥ ७४-७५ ॥
[उन्होंने कंससे कहा- ] हे वीर! यह तुम्हारी पूजनीय चचेरी बहन है। इस विवाहोत्सवके शुभ अवसरपर तुम्हें इस अबोध देवकीकी हत्या नहीं करनी चाहिये। हे वीर ! स्त्रीहत्या दुःसह कार्य है; यह यशका नाश करनेवाली है और इससे घोर पाप लगता है। केवल आकाशवाणी सुनकर तुम-जैसे बुद्धिमान्‌को बिना सोचे- समझे यह हत्या नहीं करनी चाहिये ॥ ७६-७७ ॥
हे विभो ! हो-न-हो तुम्हारे या इन वसुदेवके किसी गुप्त शत्रुने यह अनर्थकारी वाणी बोल दी हो। हे राजन् ! तुम्हारा यश और वसुदेवका गार्हस्थ्य नष्ट करनेके लिये किसी मायावी शत्रुने यह कृत्रिम वाणी | घोषित कर दी हो ॥ ७८-७९ ॥

 

तुम वीर होकर भी आकाशवाणीसे डर रहे हो तुम्हारे यशरूपी वृक्षको उखाड़ फेंकनेके लिये तुम्हां किसी शत्रुने ही यह चाल चली है ॥ ८० ॥
जो कुछ भी हो, विवाहके इस अवसरपर तुम्हें बहनकी हत्या तो करनी ही नहीं चाहिये। हे महाराज ! होनहार तो होगी ही, उसे कोई कैसे टाल सकता है ? ॥ ८१ ॥
इस प्रकार उन वृद्ध यादवोंके समझानेपर भ जब वह कंस पापकर्मसे विरत नहीं हुआ, तब नीतिज्ञ वसुदेवजीने उससे कहा- हे कंस ! तीन लोक सत्यपर टिके हुए हैं, अतः मैं इस समय तुममे सत्य बोल रहा हूँ।
उत्पन्न होते ही देवकीके सभी पुत्रोंको लाकर मैं आपको दे दूँगा। हे विभो ! यदि क्रमसे उत्पन्न होते हुए ही प्रत्येक पुत्र आपको न दे दूँ तो मेरे पूर्वज भयंकर कुम्भीपाक नरकमें गिर पड़ें ॥ ८२-८४ ॥
वसुदेवजीका यह सत्य वचन सुनकर वहाँ जो नागरिक सामने खड़े थे, वे कंससे तुरंत बोल उठे- ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक। महात्मा वसुदेव कभी भी झूठ नहीं बोलते। हे महाभाग ! अब इस देवकीके केश छोड़ दीजिये; क्योंकि स्त्रीहत्या पाप है’ ॥ ८५-८६। ॥
व्यासजी बोले- उन महात्मा वृद्ध यादवोंके इस प्रकार समझानेपर कंसने क्रोध त्यागकर वसुदेवजीके सत्य वचनपर विश्वास कर लिया ॥ ८७ ॥
तब दुन्दुभियाँ तथा अन्य बाजे ऊँचे स्वरमें बजने लगे और उस सभामें उपस्थित सभी लोगोंके मुखसे जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी ॥ ८८ ॥
इस प्रकार उस समय महायशस्वी वसुदेवजी कंसको प्रसन्न करके उससे देवकीको छुड़ाकर उम्म नवविवाहिताके साथ अपने इष्टजनोंसहित निर्भय होकर शीघ्रतापूर्वक घर चले गये ॥ ८९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

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