Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 2(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःद्वितीयोऽध्यायःव्यासजीका जनमेजयको कर्मकी प्रधानता समझाना)

Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 2(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःद्वितीयोऽध्यायःव्यासजीका जनमेजयको कर्मकी प्रधानता समझाना)

[अथ द्वितीयोऽध्यायः]

:-सूतजी बोले- हे मुनियो! ऐसा पूछे जानेपर पुराणवेत्ता, वाणीविशारद सत्यवती-पुत्र महर्षि व्यासने शान्त स्वभाववाले परीक्षित्-पुत्र जनमेजयसे उनके सन्देहोंको दूर करनेवाले वचन कहे – ॥ १३ ॥

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व्यासजी बोले- हे राजन् ! इस विषयमें क्या कहा जाय। कर्मोंकी बड़ी गहन गति होती है। कर्मकी गति जाननेमें देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानवोंकी क्या बात ! जब इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्डका आविर्भाव हुआ, उसी समयसे कर्मके द्वारा सभीकी उत्पत्ति होती आ रही है, इस विषयमें सन्देह नहीं है।
आदि तथा अन्तसे रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्मरूपी बीजसे उत्पन्न होते हैं। वे जीव नानाविध योनियोंमें बार-बार पैदा होते हैं और मरते हैं। कर्मसे रहित जीवका देह-संयोग | कदापि सम्भव नहीं है ॥ २-५ ॥
शुभ, अशुभ तथा मिश्र- इन कर्मोंसे यह जगत् सदा व्याप्त रहता है। तत्त्वोंके ज्ञाता जो विद्वान् हैं; उन्होंने संचित, प्रारब्ध तथा वर्तमान- ये तीन प्रकारके कर्म बताये हैं। कर्मोंका त्रैविध्य इस शरीरमें अवश्य विद्यमान रहता है ॥ ६-७ ॥
हे राजन् ! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्मके वशवर्ती होते हैं। सुख, दुःख, वृद्धावस्था, मृत्यु, हर्ष, शोक, काम, क्रोध, लोभ आदि- ये सभी देहगत गुण हैं। हे राजेन्द्र ! ये दैवके अधीन होकर सभी जीवोंको प्राप्त होते हैं ॥ ८-९ ॥
राग, द्वेष आदि भाव स्वर्गमें भी होते हैं और इस प्रकार ये भाव देवताओं, मनुष्यों तथा पशु- पक्षियोंमें भी विद्यमान रहते हैं ॥ १० ॥
पूर्वजन्मके किये हुए वैर तथा स्नेहके कारण ये समस्त विकार शरीरके साथ सदा ही संलग्न रहते हैं ॥ ११ ॥
समस्त जीवोंकी उत्पत्ति कर्मके बिना हो ही नहीं सकती है। कर्मसे ही सूर्य नियमित रूपसे परिभ्रमण करता है और चन्द्रमा क्षयरोगसे ग्रस्त रहता है ॥ १२ ॥
अपने कर्मके प्रभावसे ही रुद्रको मुण्डोंकी माला धारण करनी पड़ती है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। आदि-अन्तरहित यह कर्म ही जगत्‌का कारण है॥ १३ ॥
स्थावर-जंगमात्मक यह समग्र शाश्वत विश्व उसी कर्मके प्रभावसे नियन्त्रित है। सभी मुनिगण इस कर्ममय जगत्की नित्यता तथा अनित्यताके विचारमें सदा डूबे रहते हैं।
फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत् नित्य है अथवा अनित्य। जबतक माया विद्यमान रहती है, तबतक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है ॥ १४-१५ ॥
कारणकी सर्वथा सत्ता रहनेपर कार्यका अभाव कैसे कहा जा सकता है? माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है ॥ १६ ॥
अतएव कर्मबीजकी अनित्यतापर बुद्धिमान् पुरुषोंको सदा चिन्तन करना चाहिये। हे राजन् ! सम्पूर्ण जगत् कर्मके द्वारा नियन्त्रित होकर सदा | परिवर्तित होता रहता है ॥ १७ ॥
हे राजेन्द्र ! यदि अमित तेजवाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छासे जन्म लेनेके लिये स्वतन्त्र होते तो वे नानाविध योनियोंमें, नानाविध धर्म-कर्मानुरूप युगोंमें तथा अनेक प्रकारकी निम्न योनियोंमें जन्म क्यों लेते ?
अनेक प्रकारके सुखभोगों और वैकुण्ठपुरीका निवास छोड़कर मल-मूत्रवाले स्थान (उदर)-में भयभीत होकर भला कौन रहना चाहेगा? फूल चुननेकी क्रीड़ा, जल-विहार तथा सुखदायक आसनका परित्यागकर कौन बुद्धिमान् गर्भगृहमें वास करना चाहेगा?
कोमल रूईसे निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्याको छोड़कर गर्भमें औंधे मुँह पड़े रहना भला कौन विद्वान् पुरुष पसन्द कर सकता है? अनेक प्रकारके भावोंसे युक्त गीत, वाद्य तथा नृत्यका परित्याग करके गर्भरूपी नरकमें रहनेका मनमें विचारतक भला कौन कर सकता है ?
ऐसा कौन बुद्धिमान् व्यक्ति होगा जो लक्ष्मीके अद्भुत भावोंके अत्यन्त कठिनाईसे त्याग करनेयोग्य रसको छोड़कर मल-मूत्रका रस पीनेकी इच्छा करेगा ? अतएव तीनों लोकोंमें गर्भवाससे बढ़कर नरकस्वरूप अन्य कोई स्थल नहीं है।
गर्भवाससे भयभीत होकर मुनिलोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी पुरुष जिस गर्भवाससे डरकर राज्य तथा सुखका परित्याग करके वनमें चले जाते हैं, ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो उसके सेवनकी इच्छा करेगा ? ॥ १८-२५३ ॥
गर्भमें कीड़े काटते हैं और नीचेसे जठराग्नि तपाती रहती है। हे राजन् ! उस समय शरीरमें अतिशय दुर्गन्धयुक्त मज्जा लगी रहती है; तो फिर वहाँ कौन-सा सुख है ?
कारागारमें रहना और बेड़ियोंमें बँधे रहना अच्छा है, किंतु एक क्षणके अल्पांश कालतक भी गर्भमें रहना कदापि शुभ नहीं होता। गर्भवासमें जीवको अत्यधिक पीड़ा होती है; वहाँ दस महीनेतक रहना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त अत्यन्त दारुण योनि-यन्त्रसे बाहर आनेमें महान् कष्ट प्राप्त होता है। बाल्यावस्थामें भी अज्ञानता तथा न बोल पानेके कारण बहुत कष्ट मिलता है।
परतन्त्र तथा अत्यन्त भयभीत बालक भूख तथा प्यासकी पीड़ाके कारण अशक्त रहता है। भूखे बालकको रोता | हुआ देखकर माता [रोनेका कारण जाननेके लिये]
चिन्ताग्रस्त हो उठती है और पुनः किसी बड़े रोगजनित कष्टका अनुमान करके उसे दवा पिलानेकी इच्छा करने लगती है।
इस प्रकार बाल्यावस्थामें अनेक प्रकारके कष्ट होते हैं, तब विवेकी पुरुष किस सुखको देखकर स्वयं जन्म लेनेकी इच्छा करते हैं ! ॥ २६-३१३ ॥
कौन ऐसा मूर्ख होगा, जो देवताओंके साथ रहते हुए निरन्तर सुख-भोगका त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करनेकी इच्छा रखेगा; हे नृपश्रेष्ठ !
ब्रह्मादि सभी देवता भी अपने किये कर्मोंके फलस्वरूप सुख-दुःख प्राप्त करते हैं। हे नृपोत्तम ! सभी देहधारी जीव चाहे मनुष्य, देवता या पशु-पक्षी हों, अपने-अपने किये कर्मका शुभाशुभ फल पाते हैं ॥ ३२-३४॥
मनुष्य तप, यज्ञ तथा दानके द्वारा इन्द्रत्वको प्राप्त हो जाता है और पुण्य क्षीण होनेपर इन्द्र भी च्युत हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं ॥ ३५ ॥
रामावतारके समय देवता कर्मबन्धनके कारण वानर बने थे और कृष्णावतारमें भी कृष्णकी सहायताके लिये देवता यादव बने थे ॥ ३६ ॥
इस प्रकार प्रत्येक युगमें धर्मकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णु ब्रह्माजीसे अत्यन्त प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं ॥ ३७ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार रथचक्रकी भाँति विविध प्रकारकी योनियोंमें भगवान् विष्णुके अद्भुत अवतार बार-बार होते रहते हैं ॥ ३८ ॥
महात्मा भगवान् विष्णु अपने अंशांशसे पृथ्वीपर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं। इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्णके जन्मकी पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ॥ ३९-४० ॥
हे राजन् ! कश्यपमुनिके अंशसे प्रतापी वसुदेवजी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्मके शापवश इस जन्ममें गोपालनका काम करते थे ॥ ४१ ॥
हे महाराज ! हे पृथ्वीपते ! उन्हीं कश्यपमुनिकी दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसाने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था। हे भरतश्रेष्ठ !
उन दोनोंने देवकी और रोहिणी नामक बहनोंके रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुणने उन्हें महान् शाप दिया था ॥ ४२-४३॥
राजा बोले- हे महामते ! महर्षि कश्यपने कौन-सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियोंसहित शाप मिला; इसे मुझे बताइये ॥ ४४ ॥
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णुको गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ॥ ४५ ॥
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ, युगके आदि तथा सबको धारण करनेवाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेशसे व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ॥ ४६-४७ ॥
भगवान् विष्णु स्वयं मानव शरीर धारण करके हीन मनुष्य-जन्ममें अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं? ॥ ४८ ॥
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता – ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्ममें विद्यमान रहते हैं ॥ ४९-५१ ॥
वे भगवान् विष्णु शाश्वत सुखका त्याग करके इन भावोंसे ग्रस्त मनुष्य-जन्म किसलिये धारण करते हैं ? हे मुनीश्वर ! इस पृथ्वीपर मानव-जन्म पाकर कौन-सा सुख मिल जाता है? वे साक्षात् भगवान् विष्णु किस कारणसे गर्भवास करते हैं? ॥ ५२-५३॥
गर्भवासमें दुःख, जन्मग्रहणमें दुःख, बाल्यावस्थामें दुःख, यौवनावस्थामें कामजनित दुःख एवं गार्हस्थ्य जीवनमें तो बहुत बड़ा दुःख होता है ॥ ५४ ॥
हे विप्रवर! ये अनेक कष्ट मानव जीवनमें प्राप्त होते हैं, तो फिर वे भगवान् विष्णु अवतार क्यों लेते हैं? ॥ ५५ ॥
ब्रह्मयोनि भगवान् विष्णुको रामावतार ग्रहण करके अत्यन्त दारुण वनवासकालमें घोर कष्ट प्राप्त हुआ था। | उन्हें सीता-वियोगसे उत्पन्न महान् दुःख प्राप्त हुआ तथा अनेक बार राक्षसोंसे युद्ध करना पड़ा। अन्तमें महान् आत्मावाले इन श्रीरामको पत्नी-परित्यागकी असीम वेदना भी सहनी पड़ी ॥ ५६-५७ ॥
उसी प्रकार कृष्णावतारमें भी बन्दीगृहमें जन्म, गोकुल-गमन, गोचारण, कंसका वध और पुनः कष्टपूर्वक द्वारकाके लिये प्रस्थान – इन अनेकविध सांसारिक दुःखोंको भगवान् कृष्णने क्यों भोगा ? ॥ ५८-५९॥
ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छासे इन दुःखोंकी प्रतीक्षा करेगा ? हे सर्वज्ञ ! मेरे मनकी शान्तिके लिये सन्देहका निवारण कीजिये ॥ ६० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

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