एक समयकी बात है- [पापियोंके] भारसे व्यथित, अत्यधिक कृश, दीन तथा भयभीत पृथ्वी गौका रूप धारण करके रोती हुई स्वर्गलोक गयी ॥ २ ॥
वहाँ इन्द्रने पूछा- हे वसुन्धरे ! इस समय तुम्हें कौन-सा भय है, तुम्हें किसने पीड़ा पहुँचायी है और तुम्हें क्या दुःख है ? ॥ ३॥
यह सुनकर पृथ्वीने कहा- हे देवेश ! यदि आप पूछ ही रहे हैं तो मेरा सारा दुःख सुन लीजिये। हे मानद ! मैं भारसे दबी हुई हूँ ॥४॥
मगधदेशका राजा महापापी जरासन्ध, चेदिनरेश शिशुपाल, प्रतापी काशिराज, रुक्मी, बलवान् कंस, महाबली नरकासुर, सौभनरेश शाल्व, क्रूर केशी, धेनुकासुर और वत्सासुर – ये सभी राजागण धर्महीन, परस्पर विरोध रखनेवाले, पापाचारी, मदोन्मत्त और साक्षात् कालस्वरूप हो गये हैं ॥ ५-७॥
हे इन्द्र ! उनसे मुझे बहुत व्यथा हो रही है। मैं उनके भारसे दबी हुई हूँ और अब [उनका भार सहनेमें] मैं असमर्थ हो गयी हूँ। हे विभो ! मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? मुझे यही महान् चिन्ता है॥ ८ ॥
हे इन्द्र ! पूर्वमें मैं [दानव हिरण्याक्षसे] पीड़ित थी। उस समय परम ऐश्वर्यशाली वराहरूपधारी भगवान् विष्णुने मेरा उद्धार किया था। यदि वे वराहरूप धारण करके मेरा उद्धार न किये होते तो उससे भी अधिक दुःखकी स्थितिमें मैं न पहुँचती – आप ऐसा जानिये ॥ ९ ॥
कश्यपके पुत्र दुष्ट दैत्य हिरण्याक्षने मुझे चुरा लिया था और उस महासमुद्रमें डुबो दिया था। उस समय भगवान् विष्णुने सूकरका रूप धारणकर उसका संहार किया और मेरा उद्धार किया।
तदनन्तर उन वराहरूपधारी विष्णुने मुझे स्थापित करके स्थिर कर दिया अन्यथा मैं इस समय पातालमें स्वस्थचित्त रहकर सुखपूर्वक सोयी रहती। हे देवेश ! अब मैं दुष्टात्मा राजाओंका भार वहन करनेमें समर्थ नहीं हूँ ॥ १०-१२॥
हे इन्द्र ! अब आगे अट्ठाईसवाँ दुष्ट कलियुग आ रहा है। उस समय मैं और भी पीड़ित हो जाऊँगी तब तो मैं शीघ्र ही रसातलमें चली जाऊँगी। अतएव हे देवदेवेश ! इस दुःखरूपी महासागरसे मुझे पार कर दीजिये; मेरा बोझ उतार दीजिये, मैं आपके चरणोंमें नमन करती हूँ ॥ १३-१४॥
इन्द्र बोले – हे वसुन्धरे ! मैं इस समय तुम्हारे लिये क्या कर सकता हूँ! तुम ब्रह्माकी शरणमें जाओ, वे ही तुम्हारा दुःख दूर करेंगे, मैं भी वहाँ आ जाऊँगा ॥ १५ ॥
यह सुनकर पृथ्वीने तत्काल ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थान कर दिया। उसके पीछे-पीछे इन्द्र भी सभी देवताओंके साथ वहाँ पहुँच गये ॥ १६ ॥
हे महाराज ! उस आयी हुई धेनुको अपने सम्मुख उपस्थित देखकर तथा ध्यान-दृष्टिद्वारा उसे पृथ्वी जान करके ब्रह्माजीने कहा- हे कल्याणि ! तुम किसलिये रो रही हो और तुम्हें कौन-सा दुःख है; मुझे अभी बताओ। हे पृथ्वि ! किस पापाचारीने तुम्हें पीड़ा पहुँचायी है, मुझे बताओ ॥ १७-१८ ॥
धरा बोली- हे जगत्पते ! यह दुष्ट कलि अब आनेवाला है। मैं उसीके आतंकसे डर रही हूँ; क्योंकि उस समय सभी लोग पापाचारी हो जायँगे। सभी राजालोग दुराचारी हो जायँगे, आपसमें विरोध करनेवाले होंगे और चोरीके कर्ममें संलग्न रहेंगे।
वे राक्षसके रूपमें एक-दूसरेके पूर्णरूपसे शत्रु बन जायँगे। हे पितामह ! उन राजाओंका वध करके मेरा भार उतार दीजिये। हे महाराज! मैं राजाओंकी सेनाके भारसे दबी हुई हूँ ॥ १९-२१ ॥
ब्रह्माजी बोले- हे देवि ! तुम्हारा भार उउतारनेमें मैं सर्वथा समर्थ नहीं हूँ। अब हम दोनों चक्रधारी देवाधिदेव भगवान् विष्णुके धाम चलते हैं। वे जनार्दन तुम्हारा भार अवश्य उतार देंगे।
मैंने पहलेसे ही भलीभाँति विचार करके तुम्हारा कार्य करनेकी योजना बनायी है। [उन्होंने इन्द्रसे कहा- हे सुरश्रेष्ठ ! जहाँपर भगवान् जनार्दन विद्यमान हैं, अब आप वहींपर चलें ॥ २२-२३३ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर वे वेदकर्ता चतुर्मुख ब्रह्माजी हंसपर आरूढ़ हुए और देवताओं तथा गोरूपधारिणी पृथ्वीको साथमें लेकर विष्णुलोकके लिये प्रस्थित हो गये। [वहाँ पहुँचकर] भक्तिसे परिपूर्ण हृदयवाले ब्रह्माजी वेदवाक्योंसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ २४-२५ ॥
ब्रह्माजी बोले – आप हजार मस्तकोंवाले, हजार नेत्रोंवाले और हजार पैरोंवाले हैं। आप देवताओंके भी आदिदेव तथा सनातन वेदपुरुष हैं। हे विभो ! हे रमापते ! भूतकाल, भविष्यकाल तथा वर्तमानकालका जो भी हमारा अमरत्व है, उसे आपने ही हमें प्रदान किया है।
आपकी इतनी बड़ी महिमा है कि उसे त्रिलोकीमें कौन नहीं जानता ? आप ही सृष्टि करनेवाले, पालन करनेवाले और संहार करनेवाले हैं। आप | सर्वव्यापी और सर्वशक्तिसम्पन्न हैं ॥ २६-२८ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार स्तुति करने पर पवित्र हृदयवाले वे गरुडध्वज भगवान् विष्णु प्रसन्न हो गये और उन्होंने ब्रह्मा आदि देवताओंको अपने दर्शन दिये। प्रसन्न मुखमण्डलवाले भगवान् विष्णुने देवताओंका स्वागत किया और विस्तारपूर्वक उनके आगमनका कारण पूछा ॥ २९-३० ॥
तदनन्तर पद्मयोनि ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम करनेके उपरान्त पृथ्वीके दुःखका स्मरण करते हुए उनसे कहा- हे विष्णो ! हे जनार्दन ! अब पृथ्वीका भार दूर कर देना आपका कर्तव्य है। अतः हे दयानिधे ! द्वापरका अन्तिम समय उपस्थित होनेपर आप पृथ्वीपर अवतार लेकर दुष्ट राजाओंको मारकर पृथ्वीका भार उतार दीजिये ॥ ३१-३२॥
विष्णु बोले- इस विषयमें मैं (विष्णु), ब्रह्मा. शंकर, इन्द्र, अग्नि, यम, त्वष्टा, सूर्य और वरुण- कोई भी स्वतन्त्र नहीं है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् योगमायाके अधीन रहता है। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सब कुछ [सात्त्विक, राजस, तामस] गुणोंके सूत्रोंद्वारा उन्हींमें गुंथा हुआ है ॥ ३३-३४॥
हे सुव्रत ! वे हितकारिणी भगवती सर्वप्रथम स्वेच्छापूर्वक जैसा करना चाहती हैं, वैसा ही करती । हमलोग भी सदा उनके ही अधीन रहते हैं ॥ ३५ ॥
अब आपलोग स्वयं अपनी बुद्धिसे विचार हैं करें कि यदि मैं स्वतन्त्र होता तो महासमुद्रमें मत्स्य और कच्छपरूपधारी क्यों बनता ?
तिर्यक्-योनियोंमें कौन-सा भोग प्राप्त होता है, क्या यश मिलता है, कौन-सा सुख होता है और कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है ? [इस प्रकार] क्षुद्रयोनियोंमें जन्म लेनेवाले मुझ विष्णुको क्या फल मिला ? ॥ ३६-३७॥
यदि मैं स्वतन्त्र होता तो सूकर, नृसिंह और वामन क्यों बनता ? इसी प्रकार हे पितामह ! मैं जमदग्निपुत्र (परशुराम)- के रूपमें उत्पन्न क्यों होता ? इस भूतलपर मैं [क्षत्रियोंके संहार जैसा] नृशंस कर्म क्यों करता और उनके रुधिरसे समस्त सरोवरोंको क्यों भर डालता ?
उस समय मैं जमदग्निपुत्र परशुरामके रूपमें जन्म लेकर एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी युद्धमें क्षत्रियोंका संहार क्यों करता और घोर निर्दयी बनकर गर्भस्थ | शिशुओंतकको भला क्यों मारता ? ॥ ३८-४० ॥
हे देवेन्द्र ! रामका अवतार लेकर मुझे दण्डकवनमें पैदल विचरण करना पड़ा, गेरुआ वस्त्र धारण करना पड़ा और जटा-वल्कलधारी बनना पड़ा। उस निर्जन वनमें असहाय रहते हुए तथा पासमें बिना किसी भोज्य-सामग्रीके ही निर्लज्ज होकर आखेट करते हुए मैं इधर-उधर भटकता रहा ॥ ४१-४२ ॥
उस समय मायासे आच्छादित रहनेके कारण मैं उस मायावी स्वर्ण-मृगको नहीं पहचान सका और जानकीको पर्णकुटीमें छोड़कर उस मृगके पीछे- पीछे निकल पड़ा ॥ ४३ ॥
मेरे बहुत मना करनेपर भी प्राकृत गुणोंसे व्यामुग्ध होनेके कारण लक्ष्मण भी उस सीताको छोड़कर मेरे पदचिह्नोंका अनुसरण करते हुए वहाँसे निकल पड़े ॥ ४४ ॥
तदनन्तर कपटस्वभाव राक्षस रावणने भिक्षुकका रूप धारण करके शोकसे व्याकुल जानकीका तत्काल हरण कर लिया ॥ ४५ ॥
तब दुःखसे व्याकुल होकर मैं वन-वन भटकता हुआ रोता रहा और अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये मैंने सुग्रीवसे मित्रता की। मैंने अन्यायपूर्वक वालीका वध किया तथा उसे शापसे मुक्ति दिलायी और इसके बाद वानरोंको अपना सहायक बनाकर लंकाकी ओर प्रस्थान किया ॥ ४६-४७ ॥
[वहाँ युद्धमें] मैं तथा मेरा छोटा भाई लक्ष्मण दोनों ही नागपाशोंसे बाँध दिये गये। हम दोनोंको अचेत पड़ा देखकर सभी वानर आश्चर्यचकित हो गये। तब गरुड़ने आकर हम दोनों भाइयोंको छुड़ाया।
उस समय मुझे महान् चिन्ता होने लगी कि दैव अब न जाने क्या करेगा ? राज्य छिन गया, वनमें वास करना पड़ा, पिताकी मृत्यु हो गयी और प्रिय सीता हर ली गयी। युद्ध कष्ट दे ही रहा है, अब आगे दैव न जाने क्या करेगा ! ॥ ४८-५० ॥
हे देवतागण ! सर्वप्रथम दुःख तो मुझ राज्यविहीनका वनवास हुआ; वनके लिये चलते समय राजकुमारी सीता मेरे साथ थीं और मेरे पास धन भी नहीं था।
वन जाते समय पिताजीने मुझे एक वराटिका (कौड़ी) भी नहीं दी; असहाय तथा धनविहीन मैं पैदल ही निकल पड़ा। उस समय क्षत्रियधर्मका त्याग करके व्याधवृत्तिके द्वारा मैंने उस | महावनमें चौदह वर्ष व्यतीत किये ॥ ५१-५३॥
तदनन्तर भाग्यवश युद्धमें मुझे विजय प्राप्त हुई और वह महान् असुर रावण मारा गया। इसके बाद मैं सीताको ले आया और मुझे अयोध्या फिरसे प्राप्त हो गयी।
इस प्रकार जब मुझे सम्पूर्ण राज्य मिल गया, तब कोसलदेशपर अधिष्ठित रहते हुए मैंने वहाँपर कुछ वर्षोंतक सांसारिक सुखका भोग किया ॥ ५४-५५ ॥
इस प्रकार पूर्वकालमें जब मुझे राज्य प्राप्त हो गया तब मैंने लोकनिन्दाके भयसे वनमें सीताका परित्याग कर दिया। इसके बाद मुझे पुनः पत्नी- वियोगसे होनेवाला भयंकर दुःख प्राप्त हुआ। वह धरानन्दिनी सीता पृथ्वीको भेदकर पातालमें चली गयी ॥ ५६-५७ ॥
इस प्रकार रामावतारमें भी मैं परतन्त्र होकर निरन्तर दुःख पाता रहा। तब भला दूसरा कौन स्वतन्त्र हो सकता है ? तत्पश्चात् कालके वशीभूत होकर मुझे अपने भाइयोंके साथ स्वर्ग जाना पड़ा।
अतः कोई भी विद्वान् पराधीन व्यक्तिकी क्या बात करेगा ? हे कमलोद्भव ! आप यह जान लीजिये कि जैसे मैं परतन्त्र हूँ वैसे ही आप, शंकर तथा अन्य सभी बड़े-बड़े देवता भी निश्चितरूपसे परतन्त्र हैं ॥ ५८-६० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ब्रह्माणं प्रति विष्णुवाक्यं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥