Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 17(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःसप्तदशोऽध्यायःश्रीनारायणद्वारा अप्सराओंको वरदान देना, राजा जनमेजयद्वारा व्यासजीसे श्रीकृष्णावतारका चरित सुनानेका निवेदन करना)

Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 17(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःसप्तदशोऽध्यायःश्रीनारायणद्वारा अप्सराओंको वरदान देना, राजा जनमेजयद्वारा व्यासजीसे श्रीकृष्णावतारका चरित सुनानेका निवेदन करना)

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[अथ सप्तदशोऽध्यायः]
:-जनमेजय बोले – हे मुने ! आप नर-नारायणके आश्रममें आयी हुई अप्सराओंकी चर्चा पहले ही कर चुके हैं, जो काम-पीड़ित होकर शान्तचित्त मुनि नारायणपर आसक्त हो गयी थीं। उसके बाद मुनि नारायण उन्हें शाप देनेको उद्यत हो गये। इसपर उनके भाई धर्मवेत्ता नरने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया था ॥ १-२ ॥
हे मुने ! अत्यन्त कामासक्त उन अप्सराओं के द्वारा [अपने मनमें पतिरूपमें] संकल्पित किये गये उन मुनि नारायणने इस विषम संकटके उपस्थित होनेपर क्या किया ? इन्द्रके द्वारा प्रेषित उन वारांगनाओंके बार-बार बहुत प्रार्थना करके विवाहके लिये याचित उन भगवान् नारायणमुनिने क्या किया ? हे पितामह ! मैं उन नारायणमुनिका यह मोक्षदायक चरित्र सुनना चाहता हूँ; विस्तारके साथ मुझे बतायें ॥ ३-५॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! सुनिये, मैं बताऊँगा। हे धर्मज्ञ ! उन महात्मा धर्मपुत्र नारायणका चरित्र विस्तारपूर्वक मैं आपको बता रहा हूँ ॥ ६ ॥
जब नरने मुनि नारायणको शाप देनेके लिये उद्यत देखा तब उन्होंने नारायणको आश्वासन देकर [वैसा करनेसे] रोक दिया ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् क्रोधके शान्त हो जानेपर महामुनि तपस्वी धर्मपुत्र नारायण उन अप्सराओंसे मन्द-मन्द मुसकराते हुए यह मधुर वचन कहने लगे – ॥ ८ ॥
हे सुन्दरियो ! हमने इस जन्ममें संकल्प कर रखा है कि हम दोनों कभी भी विवाह नहीं करेंगे। अतः मेरे ऊपर कृपा करके आपलोग स्वर्ग लौट जायँ। धर्मज्ञ लोग दूसरेका व्रत भंग नहीं करते ॥ ९-१० ॥
हे सुन्दर नेत्रोंवाली ! इस श्रृंगार-रसमें रतिको ही स्थायी भाव कहा गया है। अतः [ब्रह्मचर्यव्रत धारण करनेके कारण] उसके अभावमें मैं सम्बन्ध कैसे कर | सकता हूँ ? ॥ ११ ॥

 

कारणके बिना कार्य नहीं हो सकता है- यह सुनिश्चित है। कवियोंने शास्त्रमें कहा है कि स्थायीभाव ही रसस्वरूप है ॥ १२ ॥
समस्त सुन्दर अंगोंवाला मैं इस धरातलपर धन्य तथा सौभाग्यशाली हूँ जो कि आपलोगोंका स्वाभाविक प्रीतिपात्र बन सका ॥ १३ ॥
हे महाभागाओ ! आपलोग कृपा करके मेरे व्रतकी रक्षा करें। मैं दूसरे जन्ममें आपलोगोंका पति अवश्य बनूँगा ॥ १४ ॥
हे विशाल नेत्रोंवाली सुन्दरियो ! देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मैं अट्ठाईसवें द्वापरमें इस धरातलपर निश्चितरूपसे अवतरित होऊँगा ॥ १५ ॥
उस समय आपलोग भी राजाओंकी कन्याएँ होकर पृथक् पृथक् जन्म ग्रहण करेंगी और मेरी भार्याएँ बनकर पत्नी-भावको प्राप्त होंगी ॥ १६ ॥
पाणिग्रहणका ऐसा आश्वासन देकर भगवान् नारायण-मुनिने उन्हें विदा किया और वे अप्सराएँ भी कामव्यथासे रहित होकर वहाँसे चली गयीं ॥ १७ ॥ इस प्रकार उनसे विदा पाकर वे अप्सराएँ स्वर्ग पहुँचीं और फिर उन्होंने इन्द्रको सारा वृत्तान्त बता दिया ॥ १८ ॥
तदनन्तर उन अप्सराओंसे नारायणमुनिका वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनकर तथा साथमें आयी उर्वशी आदि नारियोंको देखकर इन्द्र उन महात्मा नारायणकी प्रशंसा करने लगे ॥ १९ ॥
इन्द्र बोले- अहो, उन मुनिका ऐसा अपार धैर्य तथा तपोबल है, जिन्होंने अपने तपके प्रभावसे उन्हीं अप्सराओंके सदृश रूपवाली अन्य उर्वशी आदि अप्सराएँ उत्पन्न कर दीं। नारायणमुनिकी यह प्रशंसा करके देवराज इन्द्रका मन प्रसन्नतासे परिपूर्ण हो गया। उधर, धर्मात्मा नारायण भी तपस्यामें संलग्न हो गये ॥ २०-२१ ॥
[हे राजन् !] इस प्रकार मैंने आपसे मुनि नारायण और महामुनि नरके सम्पूर्ण अद्भुत वृत्तान्तका वर्णन कर दिया ॥ २२ ॥
हे भरतश्रेष्ठ ! वे ही नर-नारायण भृगुके शापवश पृथ्वीका भार उतारनेके लिये इस लोकमें पराक्रमी कृष्ण तथा अर्जुनके रूप में अवतरित हुए थे ॥ २३ ॥

 

राजा बोले- हे मानद ! अब आप कृष्णावतारकी कथा विस्तारके साथ मुझसे कहिये और मेरे मनमें जो सन्देह है, उसका निवारण कीजिये ॥ २४॥
हे मुने ! महाबली श्रीकृष्ण और बलराम जिनके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए, उन वसुदेव और देवकीको दुःखका भागी क्यों होना पड़ा ? ॥ २५ ॥
जिनकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर साक्षात् भगवान् श्रीहरि उनके पुत्र बने थे, वे ही [वसुदेव और देवकी] बेड़ियोंमें बद्ध होकर कंसके द्वारा बहुत वर्षोंतक क्यों सताये गये ? ॥ २६ ॥
वे श्रीकृष्ण उत्पन्न तो मथुरामें हुए, किंतु गोकुल क्यों ले जाये गये ? बादमें कंसका वध करके उन्होंने द्वारकामें निवास क्यों किया ? अपने पिता आदिके द्वारा सेवित, समृद्धिसम्पन्न तथा पवित्र स्थानको छोड़कर वे भगवान् श्रीकृष्ण दूसरे अनार्य देशमें क्यों चले गये ? ॥ २७-२८ ॥
एक ब्राह्मणके शापसे भगवान् श्रीकृष्णके वंशका नाश क्यों हो गया ? पृथ्वीका भार उतारकर उन सनातन भगवान् श्रीकृष्णने तुरंत देहत्याग कर दिया और वे स्वर्ग चले गये।
जिन पापियोंके भारसे पृथ्वी व्याकुल हो उठी थी, उन्हें तो अमित कर्मोंवाले भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने मार डाला था, किंतु जिन चोरोंने भगवान् श्रीकृष्णकी पत्नियोंका अपहरण कर लिया था, उन्हें वे क्यों नहीं मार सके ? ॥ २९-३१॥
भीष्म, द्रोण, कर्ण, राजा बाह्रीक, वैराट, विकर्ण,राजा धृष्टद्युम्न, सोमदत्त आदि सभी राजागण युद्धमें मार डाले गये। भगवान् श्रीकृष्णने उनका भार तो पृथ्वीपरसे उतार दिया, किंतु वे चोरोंका भार क्यों नहीं मिटा सके ? कृष्णकी पतिव्रता पत्नियोंको निर्जन स्थानमें इस प्रकारका दुःख क्यों मिला? हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे मनमें यह संदेह बार-बार हो रहा है ॥ ३२-३४॥
धर्मात्मा वसुदेवने पुत्रशोकसे सन्तप्त होकर अपने प्राण त्याग दिये; इस प्रकार वे अकालमृत्युको क्यों प्राप्त हुए ? ॥ ३५ ॥
हे मुनिवर ! पाण्डव धर्मनिष्ठ थे और भगवान् कृष्णमें सदा तल्लीन रहते थे; फिर भी उन्हें दुःख क्यों भोगना पड़ा ? ॥ ३६ ॥

 

महाभागा द्रौपदीको दुःख क्यों सहने पड़े ? वह तो साक्षात् लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न थी और वेदीके मध्यसे प्रकट हुई थी। रजोधर्मसे युक्त उम्म युवती द्रौपदीको उसके बाल पकड़कर घसीटने हुए दुःशासन सभामें ले आया था।
वनमें गयी हुई उस पतिव्रताको सिन्धुराज जयद्रथने सताया, उर्स प्रकार [अज्ञातवासके समय] कीचकने भी रोती- कलपती उस द्रौपदीको बहुत पीड़ा पहुँचायी अश्वत्थामाने घरके अन्दर ही उसके पाँच पुत्रोंको मार डाला।
सुभद्रापुत्र अभिमन्यु बाल्यावस्थामें ह युद्धमें मार डाला गया। उसी प्रकार कंसने देवकीके छः पुत्रोंका वध कर दिया। किंतु [सब कुछ करनेमें] समर्थ होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण प्रारब्धको नहीं टाल सके ॥ ३७-४१ ॥
यादवोंको शाप मिला और इसके बाद प्रभास- क्षेत्रमें उनका निधन हो गया। इस प्रकार भयंकर कुलनाश हो गया और अन्तमें उनकी पत्नियोंका हरण भी हो गया।
भगवान् कृष्ण स्वयं नारायण. ईश्वर और विष्णु थे; फिर भी उन्होंने दासकी भाँति उग्रसेनकी सदा सेवा की। हे महाभाग ! मुनि नारायणके विषयमें मुझे यह सन्देह है कि आचार- व्यवहारमें वे सदा साधारण प्राणियोंके समान ही रहते थे ॥ ४२-४४ ॥
सभी प्राणियोंके समान हर्ष-शोकादि भाव उनमें भी क्यों थे ? उन भगवान् श्रीकृष्णकी भी यह अन्यथा गति क्यों हुई ? ॥ ४५ ॥
अतः आप श्रीकृष्णके महान् चरित्रका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये और उन लोकोत्तर भगवान्के द्वारा पृथ्वीतलपर किये गये कर्मोंको भी बताइये ॥ ४६ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! भगवान् श्रीकृष्ण दैत्योंकी आयु समाप्त होनेपर भी बड़े कष्टसे उन्हें मार पाये। उस समय उनकी विख्यात ईश्वरीय शक्ति कहाँ थी ? ॥ ४७ ॥
रुक्मिणीहरणके समय वे वासुदेव श्रीकृष्ण उसे लेकर भाग गये थे। उस समय तो उन्होंने चौर-तुल्य आचरण किया था ॥ ४८ ॥
समृद्धिशाली तथा अपने पूर्वजोंके द्वारा प्रतिष्ठित किये गये मथुरामण्डलको छोड़कर वे श्रीकृष्ण जरासन्धके भयसे द्वारका चले गये थे।
उस समय कोई भी नहीं जान सका कि ये श्रीकृष्ण ही भगवान् विष्णु हैं। हे ब्रह्मन् ! [ श्रीकृष्णके द्वारा अपनेको] ब्रजमें छिपाये रखनेका कुछ कारण आप मुझे बताइये ॥ ४९-५०॥
हे सत्यवतीनन्दन ! ये तथा और भी दूसरे बहुत- से सन्देह हैं। हे महाभाग ! हे द्विजवर ! आप सर्वज्ञ हैं, अतः आज आप उन्हें दूर कर दीजिये ॥ ५१ ॥
एक और गोपनीय सन्देह है जो मेरे मनसे नहीं निकल पा रहा है। क्या द्रौपदीके पाँच पतियोंका होना लोकमें निन्दनीय नहीं है ? विद्वज्जन तो सदाचारको ही प्रमाण मानते हैं; तब समर्थ होकर भी उन पाण्डवोंने पशु-धर्म क्यों स्वीकार किया ? ॥ ५२-५३ ॥
देवतास्वरूप भीष्मपितामहने भी भूतलपर दो गोलक सन्तानें उत्पन्न कराकर अपने वंशकी जो रक्षा की, क्या यह उचित है ? मुनियोंके द्वारा जो धर्मनिर्णय प्रदर्शित किया गया है कि जिस किसी भी उपायसे पुत्रोत्पत्ति करनी चाहिये, उसे धिक्कार है ! ॥ ५४-५५ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे सुराङ्ग‌नानां प्रति नारायणवरदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥

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