Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 14(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःचतुर्दशोऽध्यायःशुक्राचार्यद्वारा दैत्योंको बृहस्पतिका पाखण्डपूर्ण कृत्य बताना, बृहस्पतिकी मायासे मोहित दैत्योंका उन्हें फटकारना, क्रुद्ध शुक्राचार्यका दैत्योंको शाप देना, बृहस्पतिका अन्तर्धान हो जाना, प्रह्लादका शुक्राचार्यजीसे क्षमा माँगना और शुक्राचार्यका उन्हें प्रारब्धकी बलवत्ता समझाना)
[अथ चतुर्दशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले – मनमें ऐसा सोचकर उन दैत्योंसे शुक्राचार्यने हँसते हुए कहा- हे दैत्यगण ! मेरा स्वरूप बनाये हुए इस देवगुरु बृहस्पतिने तुमलोगोंको ठग लिया क्या? शुक्राचार्य मैं हूँ और ये तो देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाले देवगुरु बृहस्पति हैं।
हे मेरे यजमानो! इन्होंने तुम सबको अवश्य ठग लिया; इसमें सन्देह नहीं है। हे आर्यो! इनकी बातोंपर विश्वास मत करो। ये पाखण्डी हैं तथा मेरा स्वरूप बनाये हुए हैं। हे यजमानो ! तुमलोग मेरा अनुसरण करो और इन बृहस्पतिका त्याग कर दो ॥ १-३॥
उनका यह वचन सुनकर और फिर उन दोनोंको समान रूपवाला देखकर सभी दैत्य महान् आश्चर्यमें पड़ गये। पुनः उन्होंने विचार किया कि हो सकता है ये ही शुक्राचार्य हों ॥ ४॥
इस प्रकार उन दैत्योंको अत्यन्त विस्मित देखकर [शुक्राचार्यरूपधारी] गुरु बृहस्पतिने यह बात कही- मेरा स्वरूप बनाये हुए ये देवगुरु बृहस्पति तुम सबको धोखा दे रहे हैं। ये देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके निमित्त तुमलोगोंको ठगनेके लिये आये हुए हैं।
हे श्रेष्ठ दैत्यगण ! तुमलोग इनकी बातपर विश्वास मत करो। मैंने शंकरजीसे विद्या प्राप्त कर ली है और उसे तुम सबको पढ़ा रहा हूँ। इस प्रकार मैं तुम्हें देवताओंपर विजय दिला दूंगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५-७॥
शुक्राचार्यका रूप धारण करनेवाले देवगुरु बृहस्पतिका यह वाक्य सुनकर उन दैत्योंको पूर्ण विश्वास हो गया कि ये ही निश्चितरूपसे [हमारे गुरु] शुक्राचार्य हैं। उस समय शुक्राचार्यने उन्हें बहुत प्रकारसे समझाया फिर भी समयके फेरसे गुरु बृहस्पतिकी मायासे मोहित होनेके कारण वे दैत्य समझ नहीं सके ॥ ८-९ ॥
ऐसा निश्चय करनेके उपरान्त उन्होंने शुक्राचार्यसे कहा- ये ही हमारे गुरु हैं। ये धर्मात्मा हमें बुद्धि प्रदान करनेवाले हैं और हमारा हित करनेमें तत्पर हैं। इन शुक्राचार्यजीने हमें निरन्तर दस वर्षतक शिक्षा दी है। तुम चले जाओ, तुम धूर्त जान पड़ते हो; तुम हमारे गुरु बिलकुल नहीं हो सकते ॥ १०-११ ॥
ऐसा कहकर उन मूर्ख दैत्योंने शुक्राचार्यको बार-बार फटकारा और बृहस्पतिको प्रेमपूर्वक प्रणाम तथा अभिवादन करके उन्हें ही अपना गुरु स्वीकार कर लिया ॥ १२ ॥
देवगुरु बृहस्पतिने इन दैत्योंको पूर्णरूपसे सिखा-पढ़ा दिया है तथा इन्हें खूब ठगा है-ऐसा मानकर और इन्हें गुरु बृहस्पतिमें तन्मय देखकर शुक्राचार्य बहुत कुपित हुए और उन्होंने शाप दे दिया कि मेरे बार-बार समझानेपर भी तुमलोगोंने मेरी बात नहीं मानी, इसलिये नष्ट बुद्धिवाले तुम सब पराभवको प्राप्त होओगे। तुमलोग थोड़े ही समयमें मेरे तिरस्कारका फल पाओगे। तब इनका सारा कपट तुम सबको मालूम पड़ जायगा ॥ १३-१५॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर क्रोधमें भरे शुक्राचार्य तत्काल चल दिये और [शुक्राचार्यरूपधारी] बृहस्पति प्रसन्न होकर निश्चिन्तभावसे वहाँ रहने लगे ॥ १६ ॥
तदनन्तर शुक्राचार्यके द्वारा उन दैत्योंको शापित हुआ जानकर गुरु बृहस्पति तत्काल उन्हें छोड़कर अपना रूप धारणकर वहाँसे चल पड़े। उन्होंने जाकर इन्द्रसे कहा- मैंने [आपका] सम्पूर्ण कार्य भलीभाँति बना दिया है।
शुक्राचार्यने उन दैत्योंको शाप दे दिया और बादमें मैंने भी उनका त्याग कर दिया। अब मैंने उन्हें पूर्णरूपसे असहाय बना दिया है। अतः हे श्रेष्ठ देवतागण ! आपलोग युद्धके लिये अब उद्योग करें। हे महाभाग ! मैंने उन दैत्योंको शापसे दग्ध कर दिया है ॥ १७-१९ ॥
गुरु बृहस्पतिका यह वचन सुनकर इन्द्र बहुत आनन्दित हुए और सभी देवता भी हर्षित हो उठे। तत्पश्चात् गुरु बृहस्पतिकी पूजा करके वे युद्धके लिये मन्त्रणा करने लगे।
आपसमें भलीभाँति सोच-विचार करके सभी देवता एक साथ मिलकर दानवोंसे लड़नेके लिये वहाँसे निकल पड़े ॥ २०-२१ ॥
उधर महाबली देवताओंको युद्धकी तैयारी करके आक्रमणके लिये उद्यत तथा शुक्राचार्यरूपधारी गुरु बृहस्पतिको अन्तर्हित जान करके दैत्यगण बहुत चिन्तित हुए ॥ २२ ॥
अब उन देवगुरुकी मायासे मोहित वे दैत्य आपसमें कहने लगे कि वे गुरु शुक्राचार्य कुपितमन होकर यहाँसे चले गये, अतः हमें उन महात्माको भलीभाँति मनाना चाहिये ॥ २३ ॥
वह पापी और कपटकार्यमें अत्यन्त प्रवीण देवगुरु हमें ठगकर चला गया। अपने भाईकी पत्नीके साथ अनाचार करनेवाला वह भीतरसे कलुषित है तथा ऊपरसे पवित्र प्रतीत होता है ॥ २४ ॥
अब हम क्या करें और कहाँ जायँ ? अत्यन्त कुपित गुरु शुक्राचार्यको अपनी सहायताके लिये हम किस तरह हर्षित तथा प्रसन्नचित्त करें ॥ २५ ॥
ऐसा विचार करके वे सब एकजुट हुए। प्रह्लादको आगे करके भयसे काँपते हुए वे दैत्य पुनः भृगुपुत्र शुक्राचार्यके पास गये। [वहाँ पहुँचकर] उन्होंने मौन धारण किये हुए उन मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया। तब क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले शुक्राचार्य उनसे कहने लगे ॥ २६-२७ ॥
हे यजमानो ! मैंने तुमलोगोंको बहुत समझाया, किंतु देवगुरुकी मायासे व्यामुग्ध रहनेके कारण तुम-लोगोंने मेरा उचित, हितकर और निष्कपट वचन नहीं माना ॥ २८ ॥
उस समय उनके वशवर्ती हुए तुम सबने मेरी अवहेलना की। मदसे उन्मत्त रहनेवाले तुम सबको मेरे अपमान करनेका फल अवश्य मिल गया ॥ २९ ॥
तुमलोगोंका सर्वस्व छिन गया। अब तुमलोग वहींपर चले जाओ; जहाँ वह कपटी, छली और देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाला बृहस्पति विद्यमान है; मैं उसकी तरह वंचक नहीं हूँ ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार संदेहयुक्त वाणीमें बोलते हुए शुक्राचार्यके दोनों पैर पकड़कर प्रह्लाद उनसे कहने लगे – ॥ ३१ ॥
प्रह्लाद बोले- हे भार्गव ! हे सर्वज्ञ ! अत्यन्त दुःखी होकर आज पास आये हुए अपने पुत्रतुल्य तथा हितचिन्तक हम यजमानोंका आप त्याग न करें ॥ ३२ ॥
मन्त्र-प्राप्तिके लिये आपके चले जानेपर उस कपटी तथा दुष्टात्मा बृहस्पतिने आपकी वेश-भूषा तथा मधुर वाणीके द्वारा हमलोगोंको खूब ठगा ॥ ३३ ॥
शान्तिसम्पन्न व्यक्ति किसीके द्वारा अनजानमें किये गये अपराधसे कुपित नहीं होता। आप तो सर्वज्ञ हैं, अतः जानते ही हैं कि हमलोगोंका चित्त सदा आपमें ही अनुरक्त रहता है ॥ ३४ ॥
अतः हे महामते ! अपने तपोबलसे हमलोगोंका भाव जानकर आप क्रोधका त्याग कर दीजिये; क्योंकि सभी मुनिगण कहा करते हैं कि साधुपुरुषोंका क्रोध क्षणभरके लिये ही होता है ॥ ३५ ॥
जल स्वभावसे शीतल होता है, किंतु अग्नि और धूपके संपर्कसे वह गर्म हो जाता है। वही जल आग तथा धूपका संयोग दूर होते ही पुनः शीतलता प्राप्त कर लेता है ॥ ३६ ॥
क्रोध चाण्डालरूप होता है; बुद्धिमान् लोगोंको इसका पूर्णरूपसे त्याग कर देना चाहिये। अतः हे सुव्रत ! क्रोध छोड़कर आप हमपर प्रसन्न हो जाइये ॥ ३७ ॥
हे महाभाग ! यदि आप क्रोधका त्याग नहीं करते बल्कि अत्यन्त दुःखित हमलोगोंका ही त्याग कर देते हैं, तो आपसे परित्यक्त होकर हम सब रसातलमें चले जायँगे ॥ ३८ ॥
व्यासजी बोले – प्रह्लादका वचन सुनकर शुक्राचार्य ज्ञानदृष्टिसे सब कुछ देख करके प्रसन्नचित्त हो उनसे हँसते हुए बोले – ॥ ३९ ॥
हे दानवो ! तुमलोगोंको अब न तो डरना है और न रसातलमें ही जाना है। मैं अपने अचूक मन्त्रोंसे तुम सब यजमानोंकी निश्चय ही रक्षा करूँगा ॥ ४० ॥
हे धर्मज्ञो ! पूर्वकालमें मैंने ब्रह्माजीसे जो सुना है, वह हितकर, सत्य तथा अटल बात मैं तुमलोगोंको बता रहा हूँ, मेरी वह बात सुनिये – ॥ ४१ ॥
निश्चित रूपसे होनेवाली शुभ या अशुभ घटनाएँ होकर रहती हैं। धरातलपर कोई भी प्राणी प्रारब्धको टाल पानेमें समर्थ नहीं है ॥ ४२ ॥
इसमें संदेह नहीं कि तुमलोग आज समयके फेरसे क्षीण बलवाले हो गये हो, अतः एक बार देवताओंसे पराजित होकर तुमलोगोंको पातालमें जाना ही पड़ेगा ॥ ४३ ॥
अब तुमलोगोंका समय-परिवर्तन उपस्थित हुआ है, ऐसा ब्रह्माजीने कहा था। कुछ दिनों पूर्व तुमलोगोंने सब प्रकारसे समृद्ध राज्यसुखका भोग किया था। उस समय देवताओंपर आक्रमण करके उनके मस्तकपर चरण रखकर तुमलोगोंने दैवयोगसे पूरे दस युगोंतक इस दिव्य त्रिलोकीपर शासन किया था ॥ ४४-४५ ॥
[अब आगे आनेवाले] सावर्णि मन्वन्तरमें तुम्हें वह राज्य पुनः प्राप्त होगा। तुम्हारा पौत्र बलि तीनों लोकोंमें विजयी होकर राज्यको पुनः प्राप्त कर लेगा ॥ ४६ ॥
जिस समय वामनरूप धारण करके भगवान् विष्णुने [राजा बलिका राज्य] छीन लिया था, उस समय भगवान् विष्णुने आपके पौत्र बलिसे कहा था-हे बले ! मैंने तुम्हारा यह राज्य देवताओंकी अभिलाषा पूरी करनेके लिये छीना है, किंतु आगे सावर्णि मन्वन्तरके उपस्थित होनेपर तुम इन्द्र होओगे ॥ ४७-४८ ॥
शुक्राचार्य बोले – हे प्रह्लाद ! भगवान् विष्णुके द्वारा ऐसा कहा गया तुम्हारा पौत्र बलि इस समय सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहकर डरे हुएकी भाँति गुप्तरूपसे विचरण कर रहा है ॥ ४९ ॥
एक समयकी बात है- इन्द्रसे भयभीत बलि गर्दभका रूप धारण करके एक सूने घरमें स्थित थे, तभी [वहाँ पहुँचकर] इन्द्र उन बलिसे बार-बार पूछने लगे – हे दैत्यश्रेष्ठ ! आपने गर्दभका रूप क्यों धारण किया है?
आप तो समस्त लोकोंका भोग करनेवाले और दैत्योंके शासक हैं। (हे राक्षसश्रेष्ठ ! क्या गर्दभका रूप धारण करनेमें आपको लज्जा नहीं लगती ?) ॥ ५०-५१३ ॥
तब इन्द्रकी वह बात सुनकर बलिने इन्द्रसे यह वचन कहा- हे शतक्रतो ! इसमें शोक कैसा? जैसे महान् तेजस्वी भगवान् विष्णुने मत्स्य और कच्छपका रूप धारण किया था, उसी प्रकार मैं भी समयके फेरसे गर्दभरूपसे स्थित हूँ।
जिस प्रकार तुम ब्रह्महत्यासे दुःखी होकर कमलमें छिपकर पड़े रहे, उसी तरह मैं भी आज गर्दभका रूप धारण करके स्थित हूँ। हे पाकशासन ! दैवके अधीन रहनेवालोंको क्या दुःख और क्या सुख ? दैव जिस रूपमें जो चाहता है, वैसा निश्चितरूपसे करता है ॥ ५२-५५३ ॥
शुक्राचार्य बोले- इस प्रकार बलि और देवराज इन्द्रने परस्पर उत्तम बातें करके परम सन्तुष्टि प्राप्त की और इसके बाद वे अपने-अपने स्थानको चले गये। यह मैंने तुमसे प्रारब्धकी बलवत्ताका भलीभाँति वर्णन कर दिया। देवताओं, असुरों और मानवोंसे युक्त | सम्पूर्ण जगत् दैवके अधीन है ॥ ५६-५८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे प्रह्लादेन शुक्रकोपसान्त्वनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥