Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 1(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धः अथ प्रथमोऽध्यायःवसुदेव, देवकी आदिके कष्टोंके कारणके सम्बन्धमें जनमेजयका प्रश्न)

॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥

॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥

Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 1(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धः अथ प्रथमोऽध्यायःवसुदेव, देवकी आदिके कष्टोंके कारणके सम्बन्धमें जनमेजयका प्रश्न)

[अथ प्रथमोऽध्यायः]

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:-जनमेजय बोले- हे वासवेय! हे मुनिवर ! हे सर्वज्ञाननिधे ! हे अनघ ! हमारे कुलकी वृद्धि करनेवाले हे स्वामिन् ! मैं [श्रीकृष्णके विषयमें] पूछना चाहता हूँ ॥ १ ॥
मैंने सुना है कि परम प्रतापी श्रीमान् वसुदेव राजा शूरसेनके पुत्र थे, जिनके पुत्ररूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु अवतरित हुए थे ॥ २ ॥
आनकदुन्दुभि नामसे विख्यात वे वसुदेव देवताओंके भी पूज्य थे। धर्मपरायण होते हुए भी वे कंसके कारागारमें क्यों बन्द हुए ?
उन्होंने अपनी भार्या देवकीसहित ऐसा क्या अपराध किया था, जिससे ययातिके कुलमें उत्पन्न कंसके द्वारा देवकीके छः पुत्रोंका वध कर दिया गया ? ॥ ३-४३ ॥
साक्षात् भगवान् विष्णुने वसुदेवके पुत्ररूपमें कारागारमें जन्म क्यों ग्रहण किया? देवताओंके अधिपति भगवान् श्रीकृष्ण गोकुलमें किस प्रकार ले जाये गये और वे भगवान् होते हुए भी जन्मान्तरको क्यों प्राप्त हुए?
अमित तेजस्वी श्रीकृष्णके माता- पिता वसुदेव और देवकीको बन्धनमें क्यों आना पड़ा ? जगत्की सृष्टि करनेमें समर्थ उन भगवान् श्रीकृष्णने माता देवकीके गर्भमें स्थित रहते हुए ही अपने वृद्ध माता-पिताको बन्धनसे मुक्त क्यों नहीं कर दिया ?
उन वसुदेव तथा देवकीने महात्माओंद्वारा भी दुःसाध्य ऐसे कौन-से कर्म पूर्वजन्ममें किये थे, जिससे उनके यहाँ परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णका जन्म हुआ ? वे छः पुत्र कौन थे, वह कन्या कौन थी, जिसे कंसने पत्थरपर पटक दिया था और वह हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी तथा पुनः अष्टभुजाके रूपमें प्रकट हुई ? ॥५-९३ ॥
हे अनघ ! बहुत-सी पत्नियोंवाले श्रीकृष्णके गृहस्थ-जीवन, उसमें उनके द्वारा किये गये कार्यों तथा अन्तमें उनके शरीर त्यागके विषयमें बताइये। – किंवदन्तीके आधारपर मैंने भगवान् श्रीकृष्णका जो चरित्र सुना है, उससे मेरा मन परम विस्मयमें पड़ गया है। अतः आप उनके चरित्रका सम्यक् रूपसे वर्णन कीजिये ॥ १०-११३ ॥
पुरातन, धर्मपुत्र, महात्मा तथा देवस्वरूप ऋषिश्रेष्ठ नर-नारायणने उत्तम तप किया था। जगत्के कल्याणार्थ निराहार, जितेन्द्रिय तथा स्पृहारहित रहते हुए काम- क्रोध-लोभ-मोह-मद-मात्सर्य- इन छहोंपर पूर्ण नियन्त्रण रखकर साक्षात् भगवान् विष्णुके अंशस्वरूप जिन नर-नारायण मुनियोंने पुण्यक्षेत्र बदरिकाश्रममें बहुत वर्षोंतक श्रेष्ठ तपस्या की थी,
नारद आदि सर्वज्ञ मुनियोंने प्रसिद्ध तथा महाबलसम्पन्न अर्जुन तथा श्रीकृष्णको उन्हीं दोनोंका अंशावतार बताया है। उन भगवान् नर-नारायणने एक शरीर धारण करते हुए भी दूसरा जन्म क्यों प्राप्त किया और पुनः वे कृष्ण तथा अर्जुन कैसे हुए ? ॥ १२-१६ ॥
जिन मुनिप्रवर नर-नारायणने मुक्तिहेतु कठोर तपस्या की थी; उन महातपस्वी तथा योगसिद्धिसम्पन्न दोनों देवोंने मानव-शरीर क्यों प्राप्त किया ? ॥ १७ ॥
अपने धर्ममें निष्ठा रखनेवाला शूद्र अगले जन्ममें क्षत्रिय होता है और जो शूद्र वर्तमान जन्ममें पवित्र आचरण करता है, वह मृत्युके अनन्तर ब्राह्मण होता है। कामनाओंसे रहित शान्त स्वभाव ब्राह्मण पुनर्जन्मरूपी रोगसे मुक्त हो जाता है, किंतु उनके विषयमें तो सर्वथा विपरीत स्थिति दिखायी देती है।
उन नर-नारायणने तपस्यासे अपना शरीरतक सुखा दिया, फिर भी वे ब्राह्मणसे क्षत्रिय हो गये। शान्त- स्वभाव वे दोनों अपने किस कर्मसे अथवा किस शापसे ब्राह्मणसे क्षत्रिय हुए? हे मुने ! वह कारण बताइये ॥ १८-२०३ ॥
मैंने यह भी सुना है कि यादवोंका विनाश ब्राह्मणके शापसे हुआ था और गान्धारीके शापसे ही | श्रीकृष्णके वंशका विनाश हुआ था। शम्बरासुरने कृष्ण-पुत्र प्रद्युम्नका अपहरण क्यों किया ?
देवाधिदेव जनार्दन वासुदेवके रहते सूतिकागृहसे पुत्रका हरण हो जाना एक अत्यन्त अद्भुत बात है। द्वारकाके किलेमें श्रीकृष्णके दुर्गम राजमहलसे पुत्रका हरण हो गया; किंतु भगवान् श्रीकृष्णने उसे अपनी दिव्य दृष्टिसे क्यों नहीं देख लिया ?
हे ब्रह्मन् ! यह एक महान् शंका मेरे समक्ष उपस्थित है। हे प्रभो! आप मुझे सन्देह-मुक्त कर दीजिये ॥ २१-२४३ ॥
देवदेव श्रीकृष्णके स्वर्गगमनके अनन्तर उनकी पत्नियोंको लुटेरोंने लूट लिया; हे मुनिराज ! वह कैसे हुआ ? हे ब्रह्मन् ! मनको आन्दोलित कर देनेवाला यह संदेह मुझे हो रहा है ॥ २५-२६ ॥
श्रीकृष्ण भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए थे और उन्होंने पृथ्वीका भार उतारा था। हे साधो ! ऐसे वे जनार्दन जरासन्धके भयसे मथुराका राज्य छोड़कर अपनी सेना तथा बन्धु-बान्धवोंके सहित द्वारकापुरी क्यों चले गये ?
ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्णका अवतार पृथ्वीको भारसे मुक्त करने, पापाचारियोंको विनष्ट करने तथा धर्मकी स्थापना करनेके लिये हुआ था, फिर भी वासुदेवने उन लुटेरोंको क्यों नहीं मार डाला,
जिन लुटेरोंने श्रीकृष्णकी पत्नियोंको लूटा तथा उनका हरण किया? सर्वज्ञ होते हुए भी श्रीकृष्ण उन चोरोंको क्यों नहीं जान सके ? ॥ २७-३०॥
भीष्मपितामह तथा द्रोणाचार्यका वध पृथ्वीका भार-हरणस्वरूप कार्य कैसे माना गया ? युधिष्ठिर आदि सदाचारवान्, महात्मा, धर्मपरायण, पूज्य तथा श्रीकृष्ण-भक्त उन पाण्डवोंने यज्ञोंके राजा कहे जानेवाले राजसूय यज्ञका विधिपूर्वक अनुष्ठान करके उस यज्ञमें ब्राह्मणोंको श्रद्धापूर्वक अनेक प्रकारकी दक्षिणाएँ दीं।
हे मुने ! वे पाण्डु पुत्र देवताओंके अंशसे प्रादुर्भूत थे तथा श्रीकृष्णके आश्रित थे, फिर भी उन्हें इतने महान् कष्ट क्यों भोगने पड़े ? उस समय उनके पुण्य कार्य कहाँ चले गये थे ? उन्होंने ऐसा कौन-सा महाभयानक पाप किया था, जिसके | कारण वे सदा कष्ट पाते रहे ? ॥ ३१-३४॥
पुण्यात्मा द्रौपदी यज्ञकी वेदीके मध्यसे प्रकट हुई थी। वह लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न थी, साध्वी थी तथा सदा श्रीकृष्णकी भक्तिमें लीन रहती थी। उस द्रौपदीने भी बार-बार महाभीषण संकट क्यों प्राप्त किया ?
दुःशासनके द्वारा उसे बाल पकड़कर घसीटा गया तथा अत्यधिक प्रताड़ित किया गया। केवल एक वस्त्र धारण की हुई वह भयाकुल द्रौपदी रजस्वलावस्थामें ही कौरवोंकी सभामें ले जायी गयी।
पुनः उसे विराटनगरमें मत्स्यनरेशकी दासी बनना पड़ा। कीचकके द्वारा अपमानित होनेपर वह कुररी पक्षीकी भाँति बहुत रोयी थी।
पुनः जयद्रथने उसका अपहरण कर लिया, जिसपर वह करुणक्रन्दन करती हुई अत्यधिक दुःखित हुई थी। बादमें बलवान् महात्मा पाण्डवोंने उसे मुक्त कराया था। क्या यह उन सबके पूर्वजन्ममें किये गये पापकृत्यका फल था, जो वे इतने पीड़ित हुए ? ॥ ३५-३९ ॥
हे महामते ! उन्हें नानाविध कष्ट प्राप्त हुए, मुझे इसका कारण बताइये। यज्ञोंमें श्रेष्ठ राजसूययज्ञ करनेपर भी मेरे उन पूर्वजोंने महान् कष्ट प्राप्त किया। लगता है पूर्वजन्ममें कृत कर्मोंका ही यह फल है। देवताओंके अंश होनेपर भी उन्हें कष्ट प्राप्त हुआ; मुझे यह महान् सन्देह है ! ॥ ४०-४१ ॥
महान् सदाचारपरायण पाण्डवोंने जगत्को नाशवान् जाननेके बावजूद भी धनके लोभसे छद्मका आश्रय लेकर भीष्मपितामह तथा द्रोणाचार्य आदिका संहार किया ॥ ४२ ॥
महात्मा वासुदेवने उन्हें इस घोर पापकृत्यके लिये प्रेरित किया और उन्हीं परमात्मा श्रीकृष्णके द्वारा प्रेरित किये जानेपर उन पाण्डवोंने अपने कुलका विनाश कर डाला ॥ ४३ ॥
सज्जन पुरुषोंके लिये भिक्षा माँगकर अथवा नीवार आदि खाकर जीवन बिता लेना श्रेयस्कर होता है। लोभके वशीभूत होकर वीर पुरुषोंका वध न करके शिल्पकार्य आदिके माध्यमसे जीवन-यापन | करना उत्तम होता है ॥ ४४ ॥
हे मुनिसत्तम ! आपने वंशके समाप्त हो जानेपर शत्रुओंका विनाश करनेमें समर्थ गोलक पुत्रोंको [नियोगद्वारा] उत्पन्न करके शीघ्र ही वंशकी रक्षा की थी ॥ ४५ ॥
कुछ ही समयके पश्चात् विराटपुत्री उत्तराके पुत्र महाराज परीक्षित्ने एक तपस्वीके गलेमें मृत सर्प डाल दिया। यह अद्भुत घटना कैसे घटित हो गयी ? ॥ ४६ ॥
क्षत्रिय-कुलमें उत्पन्न कोई भी व्यक्ति ब्राह्मणसे द्वेष नहीं करता है। हे मुने ! मेरे पिताने मौनव्रत धारण किये हुए उन तपस्वीके साथ ऐसा क्यों किया ? ॥ ४७ ॥
इन तथा अन्य कई प्रकारकी शंकाओंसे मेरा मन इस समय आकुलित हो रहा है। हे तात! हे साधो ! हे दयानिधे ! आप तो सर्वज्ञ हैं, अतएव [सन्देहोंको दूर करके] मेरे मनको शान्त कीजिये ॥ ४८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे जनमेजयप्रश्नो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥

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